1857 से पहले का इतिहास (1600-1858 ई. तक).., - Study Search Point

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1857 से पहले का इतिहास (1600-1858 ई. तक)..,

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भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का कठोरतम मुकाबला : -
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य लगभग दो शताब्दियों तक रहा एवं भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतन्त्र करवाने के लिए ही स्वतंत्रता संघर्ष किया गया। ब्रितानियों ने अपना चाहे जो भी उद्देश्य बताया हो, वस्तुतः उनका उद्देश्य भारत का शोषण कर अपने देश को समृद्ध बनाना था। हम सबसे पहले इस बात पर आते हैं कि भारत में ब्रितानी सत्ता की स्थापना कैसे हुई?

यूरोपियनों का भारत में आगमन 
संविधान और इतिहास में बहुत गहरा सम्बन्ध होता है। वस्तुतः किसी भी देश का संविधान उस देश के इतिहास की नींव पर ही खड़ा होता है। अतः भारत के संवैधानिक अध्ययन के लिए उसका ऐतिहासिक विश्लेषण करना भी आवश्यक है। ब्रितानी व्यापारी के रूप में भारत में आए तथा उन्होंने परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। भारतीयों ने ब्रितानियों के विरूद्ध संघर्ष छेड़ दिया। अतः ब्रितानियों ने भारतीयों को सन्तुष्ट करने हेतु समय-समय पर अनेक अधिनियम पारित किए, जिसमें 1909, 1919 तथा 1935 के अधिनियम प्रमुख हैं। इसमे भारतीय संतुष्ट न हो सके। अन्त में ब्रितानियों ने 1947 में स्वतंत्रता अधिनयिम पारित किया। इसके द्वारा भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। तत्पश्चात् भारतीयों ने अपना संविधान बनाया, जो 1935 के अधिनियम से प्रभावित था। अतः सर्वप्रथम हमें भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करना होगा।
प्राचीन काल से ही भारत का रोम के साथ व्यापार होता था। भारत का सामान रोम के द्वारा यूरोप में पहुँचाया जाता था। आठवीं शताब्दी में रोम का स्थान अरबों ने लिया तथा वे भारत के पाश्चात्य देशों के साथ व्यापार के माध्यम बन गए। इस समय भारत के यूरोपियन देशों से व्यापार के तीन मार्ग थे। पहला मार्ग, भारत से ओक्सस, कैस्पियन एवं काला सागर होते हुए यूरोप त था। दूसरा मार्ग, सीरिया होते हुए भूमध्य सागर तक था। तीसरा मार्ग समुद्री था, जो भारत के मिश्र तथा मिश्र की नील नदी से यूरोप तक था। भारत का माल पहले वेनिस एवं जिनोवा नगर में जाता था एवं वहाँ से विभिन्न यूरोपियन देशों में भेजा जाता था, अतः ये नगर समृद्ध हो गये।

पुर्तगालियों का भारत आगमन
इटली के नगरों की समृद्धि से प्रभावित होकर पुर्तगाली भी भारत के साथ व्यापार करना चाहते थे। इस समय तीनों मार्गो पर तुर्कों का कब्जा था, अतः भारत के साथ व्यापार करने के लिए एक नये मार्ग की खोज की आवश्यकता अनुभव हुई। अतः पुर्तगाली सम्राट इमेनवुल ने जुलाई, 1497 में इस कार्य हेतु वास्को-डि-गामा को भेजा। वह आशा अन्तरीप होता हुआ 20 मई, 1948 को भारत के कालीकट बन्दरगाह पर पहुँचा। उसने वहाँ के राजा से एक व्यापारिक संघि भी की। अत पुर्तगालियों ने भारत के साथ अपना व्यापार करना शुरू कर दिया।


इंग्लैण्ड, फ्रांस एवं हालैण्ड के व्यापारियों का भारत आगमन
16वीं सदी में भारत अपनी समृद्धि के चरम पर पहुँच चुका था। उसके वैभव की दूर-दूर तक चर्चा होती थी। फ्राँसीसी पर्यटक बर्नियर ने लिखा है, उस समय का भारत एक ऐसा गहरा कुआँ था, जिसमें चारों ओर से संसार भर का सोना-चाँदी आ-आकर एकत्रित हो जाता था, पर जिसमें से बाहर जाने का कोई रास्ता भी नहीं था। 1591 ई. में रेल्फिच भारत आया तथा उसने इंग्लैण्ड लौटकर भारत की समृद्धि का गुणगान किया। इससे ब्रितानियों को भारत से व्यापार करने की प्रेरणा मिली। 22 दिसम्बर, 1599 ई. में लार्ड मेयर ने भारत से व्यापार के लिए ब्रितानी व्यापारियों की एक संस्था स्थापित की, जिसे 31 दिसम्बर, 1600 ई. को ब्रिटिश साम्राज्ञी एलिजाबेथ प्रथम ने भारत से व्यापार करने का अधिकार दे दिया। इस संस्था का नाम आरम्भ में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी रखा गया, किन्तु बाद में यह मात्र ईस्ट इण्डिया कम्पनी रह गया। 1602 ई. में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद हालैण्ड के व्यापारी भी भारत से व्यापार करने लगे। 1664 ई. में फ्रैंज ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना के बाद फ्राँसीसियों ने भी भारत के साथ व्यापार करना शुरू कर दिया। उन्होंने 1667 ई. में सूरत में कोठियाँ स्थापित कीं। उन्होंने पांडिचेरी, माही, यनाम तथा कलकत्ता में अपनी कोठियाँ स्थापित कीं तथा कुछ उपनिवेशों की भी स्थापना की। 1600 ई. से 1756 ई. तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी इसी औपनिवेशिक स्थिति में रही।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की नीति में परिवर्तन
ब्रितानियों ने सूरत में अपनी कोठियाँ स्थापित कीं। यहाँ मुगल गवर्नर रहते थे। शिवाजी ने 1664 तथा 1670 ई. में सूरत को लूटा, जिसमें ब्रितानियों की कोठियाँ भी शामिल थीं। अब ब्रितानियों का मुगलों के संरक्षण पर से विश्वास उठ गया। उन्होंने निश्चय किया कि या तो उन्हें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी, अन्यथा मिटना होगा। ब्रितानियों ने देखा कि आजीवन संघर्ष करने के बाद भी औरंगजेब मराठा राज्य पर अधिकार न कर सका। अब उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए एक शक्तिशाली ब्रिटिश सेना गठित करने का निश्चय किया। अब कम्पनी ने एक नयी नीति अपनाते हुए कोठियों की किलेबंदी की, नये दुर्गों का निर्माण करवाया तथा अपने अधीन क्षेत्रों पर कुछ नवीन कर लगाए। इस प्रकार कम्पनी अब क्षेत्रीय संस्था के रूप में भी विकसीत होने लगी।

यूरोपियन व्यापारियों का आपसी संघर्ष
भारत से व्यापार करने वाले यूरोपियन व्यापारियों में आपसी ईर्ष्या तथा द्वेष बढ़ रहा था। उनमें आपसी मन-मुटाव इतना बढ़ गया कि संघर्ष अनिवार्य हो गया। 1580 ई. में पुर्तगाल पर स्पेन का आधिपत्य हो जाने से भारत में भी पुर्तगालियों की शक्ति क्षीण हो गई थी। शाहजहाँ ने भी पुर्तगालियों के प्रति बड़ी कठोर नीति अपनायी। उनकी बची-खुची शक्ति को ब्रितानियोंने कुचल दिया।
अब ब्रितानियों का मुकाबला हॉलैण्ड के डचों से हुआ। क्रामवेल के समय 1964 ई. में ब्रितानियों ने हॉलैण्ड को हराकर 1623 ई. में अम्बोयना के युद्ध में हुई अपनी पराजय का बदला ले लिया। अब हॉलैण्ड की शक्ति बहुत क्षीण हो गई।

अब भारत में व्यापारिक एकाधिकार के लिए दो पक्षों में संघर्ष रहा गया था ब्रितानी तथा फ्राँसीसी। 1742 ई. में डूप्ले पांडिचेरी का गर्वनर बना। उसने देशी नरेशों की कूट का लाभ उठाकर भारत में फ्राँसीसी राज्य की स्थापना का निश्चय किया। अतः ब्रितानियों तथा फ्राँसीसियों में कर्नाटक के तीन युद्ध हुए। 1744, 1748 एवं 1760 ई. के युद्धो में ब्रितानियों ने फ्राँसीसियों को बुरी तरह परास्त किया। अब भारत पर से फ्राँसीसियों का प्रभुत्व सदैव के लिए समाप्त हो गया एवं भारत में एक मात्र यूरोपियन शक्ति रह गई थी और वह भी-ब्रितानी।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापनाः बंगाल विजय
18वीं सदी में भारत का राजनीतिक अवसान होने लगा। औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारियों के कारण मुगल साम्राज्य का तेजी से पतन होने लगा। पंजाब में सिक्खों, महाराष्ट्र में मराठों, हैदराबाद में नवाब तथा मैसूर में वहाँ के महाराज ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इन छोटे-छोटे राज्यों में भी परस्पर संघर्ष चलता रहता था। कूपलैण्ड ने लिखा है, हर जगह स्थानीय शक्तिशाली व्यक्ति जाति तथा वंश के सरदार, महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति और शक्तिशाली सिपाही भूमि तथा शक्ति के लिए आपस में लड़ने लगे। कानूनी अनुशक्ति का नामों-निशान न रहा। हर जगह जिसकी लाठी, उसकी भैंस की स्थिति कायम हो गई। यूरोपियनों ने इसका जमकर लाभ उठाया। एक इतिहासकार के शब्दों में, भारत पर यूरोपीय जातियाँ ऐसी टूटीं, जैसे मुर्दे पर गिद्ध टूटते हैं। यदि भारत के शासकों में दूरदर्शिता होती और यदि वे अपने मुसाहिबों तथा शराब के ऐसे गुलाम न होते, तो पश्चिम के व्यापारियों के पाँव अपने राज्य में न जमने देते। वे चूक गये, जिसका फल यह हुआ कि इन व्यापारी भेष में आए हुए मेहमानों ने घर पर कब्जा करने का प्रयत्न आरम्भ कर दिया।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्थापना बंगाल से प्रारम्भ हुई। ब्रितानियों ने 23 जून, 1757 ई. को बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को परास्त किया। अब मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया। वह ब्रितानियों के हाथों की कठपुतली थी। इस प्रकार प्लासी के युद्ध से भारत में ब्रितानी सत्ता की नींव पड़ी। ब्रितानियों ने 1764 ई. में बंगाल के नवाब मीर कासिम तथा मुगल सम्राट शाह आलम को बक्सर के युद्ध में संयुक्त रूप से परास्त किया। 1765 ई. ब्रितानियों ने मुगल सम्राट शाह आलम के साथ संघि करके बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दीवानी अधिकारी (सम्पत्ति के अभियोगों का निर्णय करने एवं भूमि कर एकत्रित करने सम्बन्धी अधिकार) प्राप्त कर लिय। शाह आलम को इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले दिए गए तथा 26 लाख रूपये वार्षिक पेन्शन दे दी गई। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है, दीवानी अधिकारों का इसलिए महत्त्व है कि शाह आलम अभी तक भारत का सम्राट माना जाता था। इसके द्वारा क्लाइव ने अपने अधिकारों को कानूनी रूप प्रदान कर दिया। पी.ई. रोबर्ट्स ने लिखा है, बंगाल पर दीवानी का प्रसिद्ध अधिकार कम्पनी द्वारा प्रादेशिक सत्ता की ओर प्रथम महान कदम था।

युद्ध के प्रभाव
प्लासी तथा बक्सर के युद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसके फलस्वरूप बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा के राजस्व एवं शासन पर ब्रितानियों का नियंत्रण स्थापित हो गया। इन राज्यों के शासक उनके हाथों की कठपूतली बन गये। मुगल सम्राट उनका पेंशनर बन गया। वस्तुतः इन युद्धों में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

बंगाल में द्वैध शासन की स्थापना
1765 ई. मीर जाफर की मृत्यु के पश्चात् उनके अवयस्क पुत्र निजामुद्दौल्ला गद्दी पर बैठे। ब्रितानियों को दीवानी का अधिकार प्राप्त होने से वे बंगाल के वास्तविक शासक बन चुके थे। उन्होंने न्याय, शान्ति एवं सुरक्षा की जिम्मेदारी नवाब पर छोड़ रखी। कर वसूलने की जिम्मेदारी ब्रितानियों ने अपने ऊपर ले ली। इस प्रकार बंगाल में द्वैध शास की स्थापना हुई, जिसमें फौजदारी अधिकार तो नवाब के पास थे, जबकि दिवानी अधिकार ब्रितानियों के पास। डॉ. एस.आर.शर्मा ने लिखा है, कम्पनी के द्वारा इस दोहरे शासन का जाल अपने यूरोपियन प्रतिद्वंदियों, देशी राजाओं और ब्रिटिश सरकार को वास्तविक स्थिति से अनभिज्ञ बनाये रखने के लिए रचा गया था।

द्वैध शासन के दोष
वस्तुतः द्वैध शासन प्रणाली दोषपूर्ण थी, जिसके प्रमुख दुष्परिणाम इस प्रकार थे ब्रितानियों ने राजस्व के समस्त साधनों र अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था। वे नवाब को शासन चलाने के लिए बहुत कम धन देते थे, जिससे शासन का संचालन संभव नही था। अतः बंगाल में अराजकता तथा अव्यवस्था फैलने लगी।
जब नवाब के पास धन का अभाव हो गया, तो उन्होंने जनता से धन वसूलने के लिए उसका शोषण करना प्रारम्भ कर दिया। अतः जनता का जीवन कष्टमय हो गया।
कम्पनी के कर्मचारी भी जनता का बहुत शोषण कर रहे थे।

ब्रितानियों द्वारा कर वसूलने के लिए नियुक्त किए गए भारतीय बड़े भ्रष्ट थे। अतः वल्सर्ट (1767-69) एवं कार्टियर (1770-72) के समय बंगाल में भीषण दुर्भिक्ष पडा। प्रोफेसर कीथ ने लिखा है, बंगाल की लगभग 1/3 जनता इस अकाल से पीड़ित हो गई। इस आपत्तिकाल में भी ब्रितानियों ने अपने मन-माने कर जनता से वसूल करने तथा उनका शोषण जारी रखा।
डॉ. चटर्जी ने लिखा है, क्लाइव द्वारा स्थापित दोहरी शासन प्रणाली एक दूषित शासकीय यन्त्र था। इसके कारण बंगाल में पहले से भी अधिक गड़बड़ फैल गई और जनता पर ऐसे अत्याचार ढाएँ गये, जिसका उदाहरण बंगाल के इतिहास में नहि मिलता। रिचर्ड बेचर ने लिखा है, ब्रितानियों को जानकर यह दुःख होगा कि जबसे कम्पनी के पास दीवानी के अधिकार आए हैं, बंगाल के लोगों की दशा पहले की अपेक्षा अधिक खराब हो गई है। सर ल्यूइस भी इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं 1765 से लेकर 1772 ई. तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन इतना दूषित तथा भ्रष्ट रहा कि संसार की सभ्य सरकारों ने उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता है। 
द्वैध शासन प्रणाली से नवाब के सामने कई कठिनाइयाँ आ गईं। ब्रितानियों ने कम्पनी के लाभ की अपेक्षा अपनी निजी लाभ पर ध्यान देना शुरू कर दिया। मैकाल ने लिखा है, जिस तरह से इन कर्मचारियों ने धन कमाया और खर्च किया, उसको देखकर मानव चित्त आतंकित हो उठता है। अतः कम्पनी को आर्थिक क्षति हुई। द्वैध शासन के फलस्वरूप बंगाल में छोटे-छोटे उद्योगों को धक्का पहुँचा। कम्पनी के कर्मचारी खुलेआम नवाब के अधिकारियों की उपेक्षा करने लगे। इन दोषों को इंग्लैण्ड की सरकार ने 1773 ई. में रेंग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा दूर कर दिया। 
रेग्यूलेटिंग एक्ट के अनुसार 1773 से 1784 तक शासन हुआ, किन्तु इसमें भी कई कठिनाईयाँ थीं, अतः इसके दोष दूर करते हेतु 1784 ई. में पिट्स इण्डिया एक्ट पारित किया गया।
बंगाल में 1765 ई. से लेकर 1772 ई. तक द्वैध शासन चला। मिस्टर डे सेन्डरसन ने लिखा है, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का रूप स्पष्ट दृष्टिगोचर हुआ, जब वह विजित प्रदेशों में राजस्व संग्रह के लिए लगा। आओ, बंगाल के ब्रिटिश साम्राज्यवाद के रूप में देखें। बंगाल का प्रान्त ब्रितानियों के आगमन तक बड़ा समृद्ध था। बंगाल की समृद्धि का इसी तथ्य से अनुमान लगाया जा सकता है कि, इतिहास के अनुसार वहाँ कभी अकाल नहीं पड़ा। गत एक हजार वर्षों से बंगाल अपनी निरन्तर समुद्धि के लिए प्रसिद्ध रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद को केवल 13 वर्ष इस समृद्ध प्रान्त में बर्बादी, मृत्यु और अकाल लानें में लगे। के. एम. पन्निकर ने लिखा है, भारतीय इतिहास के किसी काल में भी, यहाँ तक कि तोरमाण और मुहम्मद तुगलक के समय में भी, भारतीयों को ऐसी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा, जो कि बंगाल के निवासियों को इस द्वैध शासन काल में झेलनी पड़ी।

वारेन हेस्टिंग्स द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य का सुदृढ़ीकरण
कम्पनी की खराब स्थिति देखते हुए डायेक्टरों ने वारेन हेस्टिंग्स को 1772 ई. में कम्पनी के राज्य का प्रथम गर्वनर जनरल बनाया। 1773 ई. में रेग्युलेटिंग एक्ट पारित हुआ। इसके अनुसार यह निश्चय किया गया कि प्रशासन तथा सैनिक प्रबन्ध के विषय भारत सचिव के पास रखे जाएंगे एवं राजस्व के सम्बन्धित मामलों की देख-रेख वित्त मंत्रालय करेगा। इसके अलावा मद्रास एवं बम्बई के ब्रिटिश प्रदेश भी गवर्नर जनरल के अधीन आ गए। वारेन हेस्टिंग्स ने प्रशासन में सुधार कर उसका पुनर्गठन किया। वारेन हेस्टिंग्स ने विभिन्न खर्चों में भारी कमी कर कम्पनी की स्थिति में सुधार किया। चूँकि मुगल सम्राट शाह आलम मराठों के संरक्षण में चला गया था, अतः उसकी वार्षिक पेन्शन बन्द कर दी गई। इसके अलावा शाह आलम से इलाहाबाद तथा कड़ा के जिले भी वापस ले लिए गए। वारेन हेस्टिंग्स ने बनारस के शासक चेतसिंह, अवध कि बेगमों एवं रूहेलों से युद्ध कर बहुत धन वसूल किया। उसने अवध से रूहेलों पर आक्रमण करने के लिए 50 लाख रूपये माँगे। बर्क, मैकाले एवं जॉन स्टुअर्ट मिल ने इसकी घोर निन्दा की।

ब्रिटिश साम्राज्य का प्रसार
बंगाल विजय के बाद अब ब्रितानियों ने भारत के अन्य भागों में अपना प्रभाव बढ़ाने का निश्चय किया। वारेन हेस्टिंग्स ने अवध पर अपना प्रभुत्व जमाया एवं वहाँ की बेगों से 76 लाख रूपये वसुल किए। बनारस एवं रूहेलखण्ड में भी ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित हुआ।

लार्ड वेजेजली की सहायक संधि की नीति
लार्ड वेलेजली (1798-1805) ने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रसार हेतु सहायक संघि की नीति अपनाई। इसको स्वीकार करने वाले देशी नरशों को निन्म शर्तें माननी पड़ती थीं- देशी नरेश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अपना स्वामी मानेंगे।
देशी नरेश अपने राज्य में ब्रितानियों के अलावा अन्य किसी यूरोपियन जाति को नौकरी नहीं देंगे।
देशी नरेश ईश्ट इण्डिया कम्पनी की अनुमति से ही किसी देशी शासक से युद्ध अथवा सन्धि कर सकेंगे। ब्रितानी देशी राजाओं के झगड़ों के समाधान में एकमात्र मध्यस्थ होंगे।
वे अपने राज्य में अपने व्यय पर ब्रिटिश सेना रखेंगे।
वे अपने दरबार में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखेंगे।
इसके बदले कम्पनी उस राज्य की बाह्य आक्रमणों एवं आन्तरिक उपद्रवों से सुरक्षा करेगी।
जब देशी राजाओं ने अपने व्यय पर ब्रितानी सेना को अपने राज्य में रखना शुरू किया, तो अप्रत्यक्ष रूप से उसके राज्य पर ब्रितानियों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस संघि कोर स्वीकार करने वाला प्रथम देशी राजा हैदराबाद का निजाम था।

क्रांति-1857

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