भारतीय नृत्यकला : शास्त्रीय नृत्य का परिचय., - Study Search Point

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भारतीय नृत्यकला : शास्त्रीय नृत्य का परिचय.,

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भारतीय नृत्यकला : शास्त्रीय नृत्य का परिचय और प्रकार- अंग-प्रत्यंग एवं मनोभागों के साथ की गई गति को नृत्य कहा जाता है। यह सार्वभौम कला के साथ मानवीय अभिव्यक्ति का रसमय प्रदर्शन है। भरत मुनि (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व) के  ‘नाट्य शास्त्र’ को भारतीय नृत्यकला का प्रथम व प्रामाणिक ग्रंथ और पंचवेद उपनाम से भी जाना है।
नत्य के प्रकार (Type of Dance) -
भरत नाट्यशास्त्र में नृत्य के दो प्रकार वर्णित हैं-
1. मार्गी (तांडव) - अत्यंत पौरुष और शक्ति के साथ किया जाता है (उदा.भगवान शंकर का नृत्य)
2. लास्य (राष) - लास्य कोमल नृत्य है (उदा. भगवान कृष्ण गोपियों संग नृत्य)
परन्तु आधुनिक वर्गीकरण के तहत भारतीय नृत्यकला को दो भागों में बाँटा जाता है-
(i) शास्त्रीय नृत्य (Classical Dance)
(ii) लोक एवं जनजाति नृत्य (Folk Dance)

भारतीय शास्त्रीय नृत्य (Classical Dance) -
शास्त्रीय नृत्य प्राचीन हिन्दू ग्रंथों के सिंद्धातों एवं तकनीकों और नृत्य के तकनीकी ग्रंथों तथा कला संबद्वता पर पूर्ण या आंशिक रूप से आधारित है। इस वजह से किसी एक नृत्य रूप के बारे में जानकारियाँ लेने पर हमें उसके उद्भव, विकास उसकी परंपरा और साथ ही उसके उद्भव स्थल के इतिहास के विषय में पता चलता है। पारंपरिक ढंग से भारतीय शास्त्रीय नृत्य अभिनय के माध्यम से किया जाता रहा है। इसके विषय मुख्यतः ‘वैष्णव”, “शैव, “प्रकृति (शक्ति)” आदि होते हैं। धार्मिक रंग लिए होने की वजह से ये कला अक्सर मंदिरों में और मंदिरों के आस-पास होती रही हैं।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य के प्रकार (Types of Classical Dance) -
भारत के संगीत नाटक अकादमी ने भारतीय शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख शैलियाँ 8 बताई हैं- भरतनाट्यम (सबसे पुरानी), कुचिपुड़ी (दक्षिण पूर्वी तट); कथक (उत्तर); कथकली, मोहिनीअट्टम (दक्षिण पश्चिम तट); ओडिसी, (पूर्वी तट); मणिपुरी (पूर्वोत्तर); और सत्त्रिया नृत्य (असम, उत्तर पूर्व)।
शास्त्रीय नृत्य राज्य -
➢भरतनाट्म-तमिलनाडु,
कथकली-केरल,
मोहिनीअट्टम-केरल-ओडिसी-उड़ीसा,
कुचिपुड़ी-आंध्र प्रदेश,
मणिपुरी-मणिपुर,
कथक-उत्तर भारत (उत्तर प्रदेश)
सत्त्रिया नृत्य-असम,

1. भरतनाट्यम (तमिलनाडु) -
भरतनाट्यम् का उद्भव और विकास तमिलनाडु और उसके आस-पास के मंदिरों से हुआ। यह एकल स्त्री नृत्य है। यह लास्य को प्रदर्शित करता है और इसे सादिर, दासी अट्टम और तन्‍जावूरनाट्यम के नामों से भी जाना जाता था। इस नृत्य कला का प्रयोग पल्लव और चोल काल में चरम पर था और उन्नीसवी सदी के अंत तक पाण्ड्य, नायक और मराठा शासकों का संरक्षण इसे मिलता रहा।
इस नृत्य में तमाम विसंगति के कारण 1927 में देवदासी अधिनियम द्वारा मद्रास (तमिलनाडु) के मंदिरों में सभी तरह के नृत्य पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
बीसवीं सदी में रुक्मिणी देवी अरुण्डेल और ई कृष्णा अय्यर ने इसके पुनरुद्धार के लिए प्रयास किया और 1935 में मद्रास में थियोसोफिकल सोसायटी में एक अंतरराष्ट्रीय सभा से पहले प्रदर्शन भी किया। उन्होंने 1936 में भरत नाट्यम में एक प्रशिक्षण संस्थान, कलाक्षेत्र अकादमी की स्थापना भी की। तब से, इसकी लोकप्रियता में वृद्धि होनी शुरू हुई और कुछ ही वर्षों में इसने अपनी लोकप्रियता को फिर से प्राप्त कर लिया।
इसे वर्तमान रूप प्रदान करने का श्रेय तंजौर चतुष्टय (पौन्‍नइया, चिन्‍नइय्या, शिवानंदम और वेदिवलु) को है। 20वीं शताब्दी में रवीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर और मेनका जैसे कलाकारों के संरक्षण में यह नाट्यकला पुनर्जीवित हो गई। रुक्मिणी देवी अरुण्डेल के समकालीनों में राम गोपाल, मृणालिनी साराभाई, शांता राव, और कमला जैसे कलाकार थे। अन्य प्रमुख कलाकारों में यामिनी कृष्णमूर्ति, सोनल मानसिंह, पद्मा सुब्रह्मण्यम, मालविका सरकार शामिल हैं। चंद्रलेखा जैसे कलाकारों ने भावुक विषयों को छोड़कर इसमें मार्शल आर्ट जोड़कर इसे एक नया रूप देने का प्रयास किया।
इसमें नृत्य क्रम इस प्रकार होता है-आलारिपु (कलि का खिलना), जातिस्वरम (स्वर जुड़ाव), शब्दम (शब्द और बोल), वर्णंम (शुद्ध नृत्य और अभिनय का जुड़ाव), पदम् (वंदना एवं सरल नृत्य) तथा तिल्लाना (अंतिम अंश विचित्र भंगिमा के साथ)।

2. कत्थक (उत्तर प्रदेश) -
कत्थक की उत्पति भक्ति आन्दोलन के समय हुई। संस्कृत में कथा कहने वाले को “कत्थक” कहा जाता है और कत्थक नृत्य के माध्यम से उस समय रामायण और महाभारत एवं अन्य पुराणिक कहानियों का प्रदशन किया जाता था। कत्थक अत्यंत नियमबद्ध एवं शुद्ध शास्त्रीय नृत्य शैली है, जिसमें पूरा ध्यान लय पर दिया जाता है। इस नृत्य में पैरों की थिरकन (तत्कार) और घूमने (चक्कर) पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
इस नृत्य शैली को संगीत के कई घरानों यथा-जयपुर घराना, लखनऊ घराना, बनारस घराना और रायगढ़ घराना का समर्थन मिला। कत्थक एकल नृत्य के रूप में विकसित हुआ। 16 वीं सदी के आस-पास मुग़ल बादशाहों के दरबार में यह फ़ारसी भाषा और संस्कृति प्रभाव के साथ शुद्ध और अमूर्त नृत्य के साथ पेश किया जाने लगा।
अवध, लखनऊ के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के समय में यह कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई, और इसमें ग़ज़ल और ठुमरी के समायोजन का भी प्रयास हुआ। मेनका ने कथक नृत्य की विसंगतियों हेतु सुधार और शोधन की शुरुआत की। सितारा देवी, बिरजू महाराज, रोशन कुमारी, दुर्गा लाल रोहिणी भटइ, कुमुदिनी लखिया, उमा शर्मा, उर्मिला नगर, राम मोहन, सस्वती सेन, और राजेंद्र गनागनी, सभी इस कला के प्रसिद्ध कलाकार हैं।
विशेष : कत्थक ही भारत का वह एकमात्र शास्त्रीय नृत्य है जिसका सम्बन्ध उत्तर भारत तथा मुस्लिम संस्कृति से रहा है।

3. कत्थकली ( केरल) -
कत्थकली अभिनय, नृत्य और संगीत के समन्वय की परिणति है। यह एक मुकाभिनय है जिसमें हस्त मुद्रा और चेहरे के भाव प्रदर्शन के सहारे अभिनेता अपनी प्रस्तुति देता है। दिव्य प्राणी, देवताओं, राक्षसों, और संतों के जीवन और कार्यों से संबंधित सबसे अलौकिक और पौराणिक पहलुओं को कत्थकली की सामग्री के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। कल्याण सौगंधिकम, बाली विजयम, लावानासुरावधम, नल चरितम और सीता स्वयंवरम इसके प्रसिद्ध नृत्य नाटकों में से एक हैं।
कत्थकली की वेशभूषा और श्रृंगार कथकली प्रदर्शन की प्रतीकात्मक बारीकियों को दर्शाता है।
कत्थकली के अलावा कोई और नृत्य भौंहों, आंखों और निचली पलकों का प्रयोग नहीं करता है। इस नृत्य में चेहरा विभिन्न परस्पर विरोधी भावों या भावनाओं का एक खेल का मैदान बन जाता है। केरल के सभी प्रारंभिक नृत्य व नाटक-‘चकइरकोथू, कोडियाट्टम, थियाट्टम, कृष्णाट्टम, रामाट्टम आदि कत्थकली की ही देन हैं 1936 में केरल कला मंडलम संस्थान कथकली को पुनर्जीवित करने के लिए, कवि वल्लथोल नारायण मेनन द्वारा स्थापित किया गया था। इस संस्थान ने यहाँ पढ़ाने के लिए, केपी कुंजू कुरुप, टी चंदू पणिक्कर, टी रामुननी नायर, गुरु गोपीनाथ, वी कुंछु नायर, चेंगन्नुर रमन पिल्लै, एम विष्णु नंबूदरी, और कलामंडलम कृष्णन नायर जैसे प्रसिद्ध कलाकारों को आमंत्रित किया।
समकालीन कथकली कलाकारों  में रमणकुट्टी नायर, के. चातुन्नी, पणिक्कर, कलामंडलम पद्मनाभन नायर और कलामंडलम गोपी जैसे कलाकार शामिल हैं।

4. कुचिपुड़ी (आन्ध्र प्रदेश) -
प्राचीन मान्यताओं के अनुसार आंध्र प्रदेश के कुचिपुड़ी गाँव में योगी सिद्धेन्द्र, जो भगवन कृष्ण के भक्त थे, ने यक्षगान के रूप में कुचीपुड़ी शैली की कल्पना की। सोलहवीं शताब्दी के कई शिलालेखीय और साहित्यिक स्रोतों में इस नृत्य का उल्लेख मिलता है।
जब 1668 में गोलकुंडा के नवाब अब्दुल हसन तहनिशाह के सामने इस नृत्य का प्रदर्शन किया गया तो वे इससे बहुत प्रभावित हुए, और उन्होंने इस प्रदर्शन में भाग लेने वाले ब्राह्मणों को गाँव दान दिए। इसके बाद उन ब्राह्मणों के वंशज परिवारों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। कुचिपुड़ी में स्त्री-पुरुष दोनों नर्तक भाग लेते हैं और कृष्ण-लीला की प्रस्तुति करते हैं। कुचिपुड़ी में पानी भरे मटके को सर पर रखकर पीतल की थाली में नृत्य करना बेहद लोकप्रिय है।
यह आधुनिक भारत के सबसे लोकप्रिय नृत्य नाटिका के रूप में जाना नाटक है, जिसे भामाकल्पम कहते हैं। अन्य लोकप्रिय कुचिपुड़ी नाटकों उषा परिणयम, प्रहलाद चरित्रम, और गोला कलापम हैं। इसमें प्रत्येक अभिनेता के प्रवेश के लिए एक गीत होता है, जिसके द्वारा वह खुद का परिचय कराता है। यह परंपरा आज भी जीवित है और कुचिपुड़ी गांव में समाज के सदस्य प्रतिवर्ष इसका प्रदर्शन करते हैं।
लक्ष्मीनारायण शास्त्री इस नृत्य के अभिनय  या अभिव्यक्ति के महान कलाकार हैं। उनके शिष्य वेम्पति चिन्ना सत्यम ने भी इस परंपरा के लिए अच्छा कार्य किया है। वेदांतम सत्यम पारंपरिक महिला प्रतिरूपण के लिए जाने जाते हैं, लेकिन यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त भी हो रही है। यामिनी कृष्णमूर्ति, शोभा नायडू, राजा राधा रेड्डी, स्वप्न सुंदरी, और मल्लिका साराभाई कुचिपुड़ी के कुछ जानेमाने कलाकार हैं।

5. मोहिनीअट्टम (केरल) -
मोहिनीअट्टम का अर्थ है “जादूगरनी का नृत्य,” जो केवल महिला नर्तकियों द्वारा किया जाने वाला केरल का एकल नृत्य रूप है। इस नृत्य में भरतनाट्यम और कत्थकली दोनों के तत्त्व शामिल होते हैं। इस नृत्य का उल्लेख 934 ई. के नेदुमपुरा तली शिलालेखों में मिलता है। उन्नीसवीं सदी के एक कवि राजा स्वाति तिरुनल के दरबार में दो नृत्य गुरुओं और भाइयों सिवानन्दम् और वाडिवेलु को शाही संरक्षण प्राप्त हुआ, और उन्होंने भरतनाट्यम के समान मोहिनीअट्टम के एकल प्रदर्शन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दियाl
केरल के सुंदर परिदृश्य, नारियल लहराते पेड़, इसके लैगून के पानी पर विचरण करती नौकायें मोहिनीअट्टम के कोमल नृत्य पैटर्न में परिलक्षित होते है।
मोहिनीअट्टम नृत्य का प्रारंभ चोल्केत्तु के गायन के साथ शुरू होता है। पारंपरिक रूप में मोहिनीअट्टम नृत्य में भगवान विष्णु के सागर-मंथन की कथा का मंचन होता है, जिसमे वे सागर मंथन के दौरान मोहिनी का रूप धारण करके भस्मासुर का विनाश करते हैं।
कवि वल्लथोल ने 1936 में जब कला मंडलम की स्थापना कथकली के प्रशिक्षण के लिए की थी, तब उन्होंने इसके साथ मोहिनीअट्टम की परंपरा को भी जीवित रखा। कल्याणी, माधवी, और कृष्णा पणिक्कर जैसे कलाकारों ने यहाँ प्रक्षिक्षण दिया।
शातना राव, सत्यभामा, क्षेमव्ति और सुगंधि इस नृत्य के जाने माने कलाकार हैं। कनक रेले और भारती शिवाजी जैसे कलाकारों ने इसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का उपयोग करके इसे नयी लोकप्रियता दी।

6. ओडिसी (ओड़िसा) -
यह सबसे पुराने जीवित शास्त्रीय नृत्य रूपों मे से एक माना जाता है। नाट्यशास्त्र में इसे ओद्र नृत्य कहा जाता था। ईसा पूर्व पहली सदी के उड़ीसा के उदयगिरि पहाड़ियों की रानीगुम्फा गुफा की मूर्तिकला से एक नर्तकी के इस नृत्य के प्रदर्शन का पता चलता है। ओडिसी नृत्य में भगवान् कृष्ण की प्रचलित कथाओं के आधार पर नृत्य होता है और इसमें धड़ सञ्चालन तथा त्रिभंग पर ध्यान केन्द्रित कर नृत्य प्रस्तुत किया जाता है।
ओडिसी नृत्य हिंदू मंदिरों में और शाही दरबार दोनों में विकसित हुआ था। उड़ीसा के असंख्य मंदिरों और तेरहवीं सदी के कोणार्क मंदिर में बने नाट्यमंडप से ओडिसी नृत्य की एक महत्त्वपूर्ण परंपरा का पता चलता है।
उड़ीसा में ग्यारहवें सदी के ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिलालेखीय सबूतों में, उस समय उड़ीसा में महारिस या नृत्य दासियों (उड़ीसा की देवदासियां), के समर्पण का उल्लेख है। तेरहवीं सदी के अनंतवासुदेव मंदिर में भी इनका उल्लेख मिलता है। ओडिसी नृत्य का, पुरी के जगन्नाथ मंदिर के आंतरिक गर्भगृह में केवल देवताओं के लिए केवल प्रदर्शन किया जाता था।
महेश्वर महापात्रा द्वारा रचित पंद्रहवीं सदी के अभिनय पाठ चंद्रिका, ओडिसी नृत्य की विशेषताओं को उल्लिखित करता है। ओडिसी नृत्य में एक उल्लेखनीय मूर्तिकला की गुणवत्ता पाई जाती है।
ब्रिटिश शासन के दौरान इस नृत्य पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, परन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् ओडिसी को अपने गुरुओं द्वारा पुनर्जीवित किया गया, जिनमे प्रमुख हैं, पंकज चरण दास, केलुचरण महापात्रा, और देबा प्रसाद दास। संजुक्ता पाणिग्रही, प्रियम्बदा  मोहंती, कुमकुम मोहंती, मिनाती मिश्रा, और सोनल मानसिंह ओडिसी नृत्य के जाने माने कलाकार हैं। इसके अलावा चाक्यारकूंतु नृत्य, जिसे सिर्फ सवर्ण हिन्दू ही इसे देख सकते थे, ओट्टनतुल्ललू नृत्य, कृष्णाट्टम नृत्य अथवा कृष्णाअट्टम नृत्य, जिसमे कृष्ण की कहानी का प्रदर्शन किया जाता है, कुट्टीअट्टम अथवा कुटियाट्टम नृत्य भी केरल के सुप्रसिद्ध नृत्य हैं।

7. मणि‍पुरी (मणिपुर) -
मणि‍पुरी नृत्य और संगीत की एक सदियों पुरानी परंपरा है, जो धार्मिक जीवन के साथ निकट सह-अस्तित्व में विकसित हुई है। इनके पारंपरिक नृत्य में ब्रह्माण्ड, दुनिया के निर्माण, मानव शारीर और मानवीय गतिविधियों का वर्णन किया जाता है। मणिपुरी नृत्य भारत के अन्य नृत्यों से शारीरिक गति, भंगिमाओं, पैरों के सञ्चालन आदि मामले में बिल्कुल भिन्न है। इसमें शरीर धीमी गति से संचालित होता है।
इसमें प्रयुक्त वाद्य यंत्र करताल, मजीरा और दोमुखी ढोल या मणिपुरी मृदंग होते हैं। यह नृत्‍य रूप 18वीं शताब्‍दी में वैष्‍णव सम्‍प्रदाय के साथ विकसित हुआ था। विष्‍णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीत गोविंदम की रचनाओं से आई विषयवस्तुएं इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।
मणिपुरी नृत्य मंदिर प्रांगणों में रात भर चलने वाला प्रदर्शन होता है। संकीर्तन कान छेदने, विवाह समारोह, अंत्येष्टि, बच्चे के जन्म के समय या बच्चे को पहली बार भोजन देने, के अवसरों पर किया जाता है। मणिपुरी नृत्य के गुरुओं ने अपने स्वयं के ताल को विकसित करके इसके संगीत को और समृद्ध और आकर्षक बनाया है।
मणिपुरी नृत्य ज्यादातर समूह में ही होते हैं परन्तु रासलीला के कुछ नृत्यों का एकल प्रदर्शन भी होता है। नत्संकिर्तन का रासलीला से पहले प्रदर्शन किया जाता है। बसंतरस, कुंजरस, महारस और नित्यरस, रासलीला के विभिन्न प्रारूप हैं, जो विशिष्ट उत्सवों पर प्रदर्शित किये जाते हैं।
चोतोम्बी सिंह ने मणिपुर में हिरणों के गायब हो जाने वाली प्रजातियों के बारे में कैबुल लमजाओ नृत्य किया है। प्रीति पटेल ने पारंपरिक मणिपुरी नृत्य में थांग-टा (युद्ध नृत्य) एक प्रकार की मार्शल आर्ट, का संयोजन भी किया है। गुरु अमोबी सिंह और उनके शिष्य महाबीर, जमुना देवी, ओझा बाबू सिंह, राजकुमार सिंहजीत सिंह, उसकी पत्नी चारु सिजा, प्रिया गोपाल साना, गुरु बिपिनसिंह की पत्नी कलावती देवी, उनकी बेटी बिम्बावती, झावेरी बहनें और प्रीति पटेल सभी मणिपुरी नृत्य के जाने माने कलाकार हैं।

8. सत्रिया/सत्त्रिया नृत्य (असम) -
सत्रीया नृत्य” में सत्तर शब्द – सत्र से लिया गया है जिसका अर्थ -मठ और नृत्य का अर्थ है-तरीका।
असम के 15वीं सदी के महान वैष्णव संत श्रीमंत शंकरदेव और उनके शिष्य माधवदेव ने मठों में ‘अंकीया नाट’ के सह-प्रदर्शन हेतु सत्रिया नृत्य विकसित किया। असम के वैष्णव मठ में यह नृत्य अभी तक जीवित है। इसमे भगवान कृष्ण के जीवन पर आधारित संगीत, नृत्य व नाटक द्वारा लीलाएं की जाती हैं।
सत्रीया नृत्य जप, कथा, नृत्य व संवाद का समन्वय है। इस नृत्य शैली को संगीत नाटक अकादमी द्वारा 15 नवम्बर 2000 को अपने शास्त्रीय नृत्य की सूचि में शामिल किया जिससे शास्त्रीय नृत्यों की संख्या बढ़कर आठ हो गई है।

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