पिटस इंडिया एक्ट (1784 ई.) -
रेग्यूलेटिंग एक्ट जल्दबाजी में पारित किया गया था। अतः लागू होने के कुछ समय पश्चात् ही इसके दोष स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगे थे। मद्रास तथा बम्बई की प्रेसीडेन्सियों पर बंगाल का पर्याप्त नियंत्रण नहीं था, जिसके कारण कम्पनी को अनावश्यक युद्धों में उलझना पड़ा था। 1781 में एक संशोधन अधिनियम पारित किया गया था, जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी गई, किन्तु प्रशासन सम्बन्धी दोष अभी भी विद्यामान थे, 1781-82 ई. में ब्रिटिश संसद वारेन हेस्टिंग्स को इंग्लैण्ड बुलाना चाहती थी, किन्तु कम्पनी के हिस्सेदारों के विरोध के कारण नहीं बुला सकी। इससे कम्पनी पर संसद का अपर्याप्त नियंत्रण स्पष्ट हो गया। अतः रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए एक सुधार विधेयक पारित करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
डुण्डास तथा फॉक्स जैसे राजनीतिज्ञों ने इस दिशा में संवैधानिक पग उठाने का प्रयत्न भी किया, परन्तु कई कारणों से वे सफल नहीं सके। अतः ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट् ने एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे संसद ने 1748 ई. में पारित कर दिया। यह एक्ट भारत के इतिहास में पिट्स इण्डिया एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है। इस एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासन पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके द्वारा ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की गई, जो त्रुटिपूर्ण होने पर भी सन् 1858 ई. तक कम्पनी के संविधान का आधार बनी रही।
पिट्स इण्डिया एक्ट के पारित होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1) रेग्युलेटिंग एक्ट की त्रुटियाँ-
रेग्यूलेटिंग एक्ट में अनेक दोष रह गए थे। वारेन हेस्टिंग्स ने इस एक्ट के अनुसार कार्य किया और उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल में बहुमत द्वारा किए गए निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था। इसके अतिरिक्त उसका बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था। इसलिए वहाँ की सरकारें अपनी इच्छा से देशी शक्तियों के साथ युद्ध लड़ती रहीं। सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार अनिश्चित था अतः उसके साथ गवर्नर जनरल का विवाद चलता रहता था। 1781 ई. के बंगाल न्यायालय एक्ट के द्वारा सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार तो निश्चित कर दिया गया था, परन्तु रेग्यूलेटिंग एक्ट के अन्य दोषों को दूर नहीं किया गया था। अतः उनको दूर करने हेतु एक नवीन एक्ट की आवश्यकता थी।
(2) कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार-
यद्यपि रेग्यूलेटिग एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल, उनकी परिषद् के सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के जजों को निजी व्यापार करने, रिश्वत या भेटं की सख्त मनाही कर दी गई थी, तथापि वे अप्रत्यक्ष रूप से बहुत से अनुचित तरीकों से भारत में धन जमा कर लेते थे। गवर्नर जनरल ने बनारस के राजा चेतसिंह और अवध की बेगम से धन प्राप्त करने के लिए ऐसे अत्याचार किए, जो नैतिक दृष्टिकोण से बहुत निन्दनीय थे। वारेन हेस्टिंग्स के साथियों ने धन एकत्रित करने भी मात दे दी। बारवेल, फ्रांसिस तथा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर एलिंग इम्पे ने अनुचित तरीकों से काफी धन एकत्रित किया। इतना नहीं, कम्पनी के कर्मचारी तथा अधिकारी भी अनुचित तरीकों से भारत में धन जमा कर लेते थे और रिटायर होकर इंग्लैण्ड में विलासितपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। वे जुनाव जीतकर ब्रिटिश पार्यिटामेंट में पहुँच जाते थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए इस दिशा में एक नया एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।
(3) ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर अपर्याप्त नियंत्रण-
1781 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के भारतीय प्रशासन की जाँच-पड़ातल के लिए दो कमेटियाँ नियुक्त की थीं। इन कमेटीयो ने अपनी रिपोटों में फैली भारत में फैली हुई अव्यवस्था के लिए कम्पनी के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया। इस पर ब्रिटिश संसद में मई, 1782 ई. में वारे हेस्टिंग्स तथा उसके एक अन्य सहयोगी हार्नवाई को भारत से वापस बुलाने के लिए एक प्रस्ताव पास किया गया। परन्तु कम्पनी के स्वामी मण्डल ने इसे अस्वीकार कर दिया और हाऊस ऑफ कॉमन्स की इच्छा के विरूद्ध वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर जनरल बनाए रखाष क्योंकि वह कम्पनी को अनुचित ढंग से धन इकट्ठा करके देता था। अतः ब्रिटिश सरकार ने अनुभव किया कि रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा संसद का कम्पनी पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित नहीं हुआ है और इस त्रुटि को शीघ्रातिशीघ्र दूर करने की आवश्यकता है। अतः इस उद्देश्य को प्राप्त ककरने के लिए सरकार ने एक एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।
(4) कम्पनी की गलत नीति-
कम्पनी के कर्मचारियों ने भारत में मैसूर के शासक, मराठों और रोहिलों से बिना किसी विशेष कारण के युद्ध आरम्भ कर दिए थे। इस युद्धों में कम्पनी का अपार धन व्यय हुआ। इनको आरम्भ करने से पूर्व कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार की अनुमति प्राप्त नहीं की थी। अतः ब्रिटिश सरकार इन युद्धों के सख्त विरूद्ध थी।
(5) अमरीकी बस्तियों का छीना जाना-
अमेरिका के स्वतंत्रता संग्रा में इंग्लैण्ड की पराजय हुई, जिससे उसकी सत्ता तथा प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा। इसके अतिरिक्त इंग्लैण्ड को अमेरिका की 13 बहुमूल्य बस्तियों से हाथ धोने पड़े, जिसके कारण अंग्रेजों के व्यापार को जबरदस्त धक्क लगा। इन अमेरिकन बस्तियों के हाथ से निकल जाने के परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार की दृष्टि में भारतीय प्रदेशों ता महत्त्व बहुत बढ़ गया और वे इन्हें इंग्लैण्ड नरेश के मुकुट का सबसे सुन्दर तथा बहुमूल्य हीरा समझने लगे। प्रधानमंत्री पिट ने बिल प्रस्तुत करते समय स्वयं इस तथ्य की पुष्टि करते हुए यह शब्द कहे, बस्तियों के छिन जाने से इंग्लैण्ड के लिए भारतीय प्रदेशों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। अब हमें अपने हितों को सुरक्षित रकने के लिए इनमें कुशल शासन प्रबन्ध की व्यवस्था करनी चाहिए। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के शासन पर अपना प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक नये एक्ट की आवश्यकता अनुभव की।
(6) भारत की भलाई-
प्रधानमंत्री पिट चाहता था कि भारत में अच्छा शासन स्थापित हो और वहाँ के लोग इंग्लैण्ड से होने वाली भलाइयों को महसूस करें। उसने 6 जुलाई, 1784 ई. को हाऊस ऑफ कॉमन्स में भाषण देते हुए यह शब्द कहे, हमें यह देखना है कि भारत से हमारा देश अधिक से अधिक लाभ उठाए और कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले भारतीयों के लिए भी हमारे सम्बन्ध अत्यधिक लाभदायक हों। इस प्रकार पीट ने इस एक्ट को पारित होने में काफी योग दिया और उसका एक्ट की रूपरेखा पर भी काफी गहरा प्रभाव पड़ा।
(7) कम्पनी द्वारा ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता की माँग-
जब कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई, तो मार्च, 1783 ई. में इसने ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता माँगी। इससे पार्लियामेंट को उसके शासन में हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हो गया। मि. फॉक्स ने कम्पनी की तानाशाही के विरूद्ध आवाज उठाई, जबकि मि. बर्क ने उसके भ्रष्टाचार की बहुत निन्दा की। बर्क ने अपने भाषण को समाप्त करते हुए यह शब्द कहे, सहायता और सुधार एक साथ होंगे। ब्रिटेन की जनता ने भी बर्क के विचारों का समर्थन किया। अतः मि. डुण्डास ने अप्रैल, 1783 ई. में कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए एक बिल पेश किया।
(8) डुण्डास और फॉक्स के बिल-
पिट से पहले रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए तथा ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए डुण्डास ने अप्रैल, 1783 ई. में तथा फॉक्स ने नवम्बर, 1783 ई. में बिल रखे थे, परन्तु अनेक कारणों से वे पास नहीं हो सके थे. इन विधेयकों ने सरकार को कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए अवश्य ही प्रेरित किया।
पिट्स का इण्डिन बिल -
फॉक्स इण्डिया बिल के असफल होने के बाद विलयम पिट ने जनवरी, 1784 ई. में पार्लियामेंट में ईस्ट इण्डिया बिल पेश किया। अगस्त, 1784 ई. में यह बिल पार्लियामेंट द्वारा पास होने और सम्राट की स्वीकृति प्राप्त करने पर एक्ट बन गया। इसे पिट्स इण्डिया का नाम दिया गया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबन
(1) कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था सेे सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध
इस एक्ट द्वारा कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया। कम्पनी के शासन पर नियंत्रण रखने के लिए एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई, जबकि उसके व्यापारिक कार्य का प्रबन्ध कम्पनी के संचालकों के हाथों में रहने दिया गया।
(अ) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल
(i) पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल में राज्य सचिव तथा वित्त मंत्री के अतिरिक्त चार अन्य सदस्य रखे गये, जिनकी नियुक्ति और पदमुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। सदस्यों के वेतन आदि का खर्चा भारत के राजस्व से वसूल करने का निर्णय किया गया। यह नियंत्रण बोर्ड कम्पनी के संचालको के ऊपर था और इसके अधीन की कम्पनी के मालिकों का बोर्ड भी था।
(ii) इस बोर्ड का अध्यक्ष राज्य सचिव होता था। इसकी अनुपस्थिति में वित्त मंत्री को बोर्ड के सभाति के रूप में कार्य करता था। यदि किसी विषय पर दोनो पक्षों में बराबर मत न हों, तो अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार था।
(iii) बोर्ड की तीन सदस्यों की उपस्थिति इसकी गणपूर्ति के लिए आवश्यक थी।
(iv) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की बैठकों के लिए इनके सदस्यों को कोई वेतन नहीं मिलता था। अतः उन्हें पार्लियामेंट की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था।
(v) कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्डोल को नहीं दिया गया। पुन्निया के शब्दों में इस प्रकार संरक्षकता निदेशक समिति और कम्पनी के हाथों में ही रहने दी गई और देश इस प्रबन्ध से संतुष्ट हो था।
(vi)बोर्ड को कम्पनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व सम्बन्धी मामलों की देखभाल, निर्देशन तथा नियंत्रण के विस्तृत अधिकार दिए गए। बोर्ड कम्पनी के डाइरेक्टरों के नाम आदेश भी जारी कर सकता था। इस तरह ब्रिटिश सरकार को बोर्ड के माध्यम से कम्पनी के सब मामलों पर नियंत्रण स्थापित कर दिया। बोर्ड के सदस्यों को कम्पनी के समस्त रिकार्डों को देखने की सुविधा भी दे गई।
(vii) कम्पनी के संचालकों को भारत से प्राप्त तथा भारत को भेजे जाने वाले समस्त पत्रों की नकलें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के साने रखनी पड़ती थी। बोर्ड के सदस्यों को यह अधिकार दिया गया कि वह उनके सम्मुख प्रस्तुत किए गए आदेशों तथा निर्देशों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकें। उन्हें उनमें अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार भी दिया गया। उनको इतने व्यापाक अधिकार थे कि वे संचालकों को द्वारा प्रस्तुत पत्रों में परिवर्तन करके उन्हें सर्वथा नया रूप दे सकते थे। इस प्रकार, बोर्ड द्वारा स्वीकृत किए गए या संशोधित किए गए आदेशों को संचालक भारत में अपने कर्मचारियों के पास भेजने के लिए बाध्य थे। परन्तु फिर भी कम्पनी के दैनिक कार्यों और नियुक्तियों में संचालकों का काफी प्रभाव था।
(viii) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बिना संचालन मण्डल की सहमति के भी भारत सरकार को आदेश भेज सकता था, परन्तु संचालन मण्डल को बोर्ड की अनुमति के बिना भारत में कोई भी आदेश भेजने का अधिकार नहीं था इसके अतिरिक्त कार्य को शीघ्रता से निपटाने के लिए बोर्ड संचालक मण्डल को किसी भी विषय पर पत्र या आदेश तैयार करने की आज्ञा दे सकता था। यदि वे 14 दिने के अन्दर-अन्दर इस कार्य को न कर पाएँ, तो बोर्ड को यह अधिकार था कि वह स्वयं पत्र तैयार करके संचालकों को भेज दें। संचालक मण्डल ऐसे पत्रों को बिना उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन किए भारत सरकार को भेजने के लिए बाध्य था।
(ix) इस एक्ट के अनुसार संचालकों में से तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति गठित की गई, जिसके द्वारा बोर्ड अपने गुप्त आदेश भारतीय सरकार को भेज सकता था। इस समिति के सदस्य उन गुप्त आदेशों को दूसरे संचालकों को नहीं बता सकते थे और न ही वे उन आदेशों में कोई परिवर्तन या संशोधन कर सकते थे।
(ब) संचालक मण्डल
(i) संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की आज्ञाओं और निर्देंशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया।
(ii) इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल के पास केवल कम्पनी के व्यापारिक कार्यों की संचालन की शक्ति रही। यदि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बोर्ड ऑफ डायेक्टर्स में हस्तक्षेप करे, तो उसे सपरिषद् इंग्लैण्ड नरेश के पास अपील करने का अधिकार दिया गया।
(iii) संचालक मण्डल को कम्पनी के समस्त पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया, किन्तु उन्हें वापस बुलाने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। संचालक मण्डल के अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भी किसी भी पदाधिकारी को भारत से वापस बुला सकता था। गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए संचालन मण्डल की स्वीकृति लेना आवश्यक था।
(स) स्वामी मण्डल
इस एक्ट का स्वामी मण्डल की शक्तियाँ बहुत कम कर दी गईं। उसको संचालक मण्डल के प्रस्ताव को रद्द या स्थागित करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया, यदि उस प्रस्ताव पर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने अपनी स्वीकृति दे दी हो।
(द) इंग्लैण्ड में कम्पनी की द्वैध शासन व्यवस्था
इस एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में कम्पनी के भारती शासन पर नियंत्रण करने की शक्ति को दो प्रकार के अधिकारियों के हाथों में थी। पहले अधिकारी डायरेक्टर थे, जिनका कम्पनी के समस्त मामलों पर सीधा नियंत्रण था। संचालक मण्डल के पास कम्पनी के समस्त अधिकारियों की नियुक्ति तथा व्यापारिक कार्यों के संचालन की शक्ति थी। दूसरे अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्य थे। ये ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि थे और इनका कम्पनी के शासन सम्बन्धी सब मामलोें पर प्रभावशाली नियंत्रण था।
(2) भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i) इस एक्ट में यह निश्चित किया गया कि संचालक मण्डल केवल भारत में काम करने वाले कम्पनी के स्थायी अधिकारियों में से ही गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्य नियुक्त करेगा।
(ii) सपरिषद् गवर्नर जनरल को विभिन्न प्रान्तीय शासनों पर अधीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण का पूर्ण अधिकार दिया गया।
(iii) यह भी निश्चित कर दिया गया कि गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की अनुमति के बिना कोई युद्ध अथवा सन्धि नहीं कर सकेगा।
(iv) पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य के प्रदेश कहा गया। इस एक्ट में यह घोषणा की गई थी कि, भारत में राज्य विस्तार और विजय की योजनाओं को चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, मान और इच्छा के विरूद्ध है। इस प्रकार, प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण को दृढ़ बना दिया गया।
(3) प्रान्तीय सरकारों से सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध
(i) प्रादेशिक गवर्नरों की स्थिति को दृढ़ बनाने के लिए उनकी कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। इनमें एक प्रान्त का कमाण्डर-इन-चीफ भी होगा।
(ii) कम्पनी के केवल प्रतिज्ञाबद्ध कर्मचारियों से ही गवर्नर की कौंसिल के सदस्य नियुक्त किए जाने के व्यवस्था की गई।
(iii)गवर्नरों तथा उसकी कौंसिल के सदस्यों की नियुक्ति संचालको द्वारा की जाती थी, परन्तु उनको हटाने या वापस बुलाने का अधिकार ब्रिटिश ताज ने अपने पास रखा।
(iv) बम्बई तथा मद्रास की सरकार के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों को पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
(v) प्रादेशिक सरकारों के लिए सभी प्रकार के निर्णयों की प्रतिलिपियाँ बंगाल सरकार की सेवा में प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया गया।
(vi) बंगाल की सरकार की आज्ञा के बिना प्रादेशिक सरकारे न तो युद्ध आरम्भ कर सकती थीं और नही उन्हें भारतीय राजाओं के साथ सन्धि आदि करने का अधिकार था।
(vii) बंगाल सरकार के आदेशों की अवहेलना करने पर वह अधीनस्थ सरकार के गवर्नर को निलम्बित कर सकती थी।
इस प्रकार ये उपबन्ध भारत के एकीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। जी.एन. सिंह के शब्दों में, 1784 के एक्ट ने भारत के एकीकरण को और बढ़ा दिया, इससे मद्रास और बम्भई के सपरिषद् राज्यपालों पर सपरिषद् महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) की शक्तियाँ बढ़ा दीं और उनकी ठीक-ठीक सीमा भी निर्धारित कर दी।
एक्ट का महत्त्व -
पिट्स इण्डिया एक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में बहुत महत्त्व है। इसने कम्पनी के मौलिक हितों पर आघात किए बिना उसे दृढ़ता प्रदान की और एक ऐसी शासन पद्धति का सूत्रपात किया, जो 1858 ई. तक प्रचलित रही। बर्क ने इस एक्ट के बार में लिखा था, अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इससे अधिक अच्छा तथा दक्ष उपाय सम्भवतः मनुष्य द्वारा नहीं बनाया जा सकता है।
(1) कम्पनी के प्रशासन पर ससंदीय नियंत्रण की स्थापना-
इस एक्ट के द्वारा पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य का प्रदेश कहा गया और उन पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित करने के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई। इस बोर्ड का काम भारत में सैनिक तथा असैनिक प्रशासन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करना था। इस बोर्ड में मंत्रिमण्डल के सदस्य भी थे। संचालक मण्डल के बोर्ड ऑफ कण्ट्रलो के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। कम्पनी की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए गुप्त समिति का गठन किया गया इस एक्ट के द्वारा बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर बंगाल सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। इससे कम्पनी की नीतियों का इन सरकारों की नीतियों से मेल आसानी से होने लगा। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के समस्त सैनिक और असैनिक मामलों पर ब्रिटिश संसद का अन्तिम नियंत्रण स्थापित हो गया। इल्बर्ट ने लिखा है, कम्पनी को ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधिक संस्था के प्रत्येक, तथा स्थायी नियंत्रण में रखने के सिद्धान्त को अपनाया। एस.आर. शर्मा के शब्दों में, पिट्स इण्डिया एक्ट ने इंग्लैण्ड में भारतीय मामलों के निर्देशक के मौलिक सिद्धान्त को ही बदल दिया। स्वामी मण्डल शक्तिहीन हो गया तथा संचालक मण्डल ब्रिटिश सरकार के पूर्णतः अधीन हो गया। लायल ने लिखा है कि, पिटस के इण्डिया एक्ट का तात्कालिक प्रभाव बहुत अधिक था और इसके स्पष्ट रूप से भारत सरकार के ढाँचे में सुधार हो गया। इस एक्ट ने उन सब गलत नियंत्रणों और बाधाओं को दूर कर दिया, जिनके कारण वारेन हेस्टिंग्स का अपनी कौंसिल तथा अधीनस्थ बम्बई और मद्रास की सरकारों में झगड़ा हुआ। इस एक्ट के द्वारा उन दोषों को दूर कर दिया गया था, जो उसने भारत सरकार के ढाँचे में बताये थे और उन उपायों को अपनाया गया, जो उसने बताये थे।
इस प्रकार, इस एक्ट के द्वारा कम्पनी पर ब्रिटिश संसद का वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया, जिसके कारण रेग्यूलेटिंग एक्ट का एक बहुत बड़ा दोष भी दूर हो गया। इल्बर्ट ने लिखा है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री पिट ने कम्पनी के संविधान में परिवर्तन किए बिना ही, कम्पनी पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया।
(2) स्वामी मण्डल की शक्तियों पर आघात-
इस एक्ट द्वारा स्वामी मण्डल को शक्तिहीन बना दिया गया। वह भारत के सैनिक तथा असैनिक मालमों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। वह संचालकों के किसी ऐसे निर्णय का, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने स्वीकृति दे दी हो, नहीं बदल सकता था।
(3) कम्पनी के भारतीय प्रदेशों का एकीककरण का प्रयास-
इस एक्ट ने कुशल प्रशासन तथा कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के एकीकरण के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल के हाथों में समस्त शक्तियों को केन्द्रित कर दिया। प्रादेशिक सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। इस एक्ट की धारा 31 में स्पष्ट कहा गया था कि यदि प्रादेशिक सरकारें आज्ञाओं का उल्लंघन करेंगी, तो गवर्नर जनरल उन्हें निलम्बित कर सकेगा। इस प्रकार, इस नई नीति से कम्पनी के भारतीय प्रशासन में बहुमूल्य सुधार हुआ और एकीकरण की नीति को प्रोत्साहन मिला।
(4) भारतीय शासन में सुधार-
लायल ने लिखा है कि पिट्स इण्डिया एक्ट ने भारत सरकार की कार्यप्रणाली में आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण सुधार किए। कौंसिल के सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर 3 कर देने से गवर्नर जनरल और गवर्नरों की स्थिति दृढ़ हो गई। अब वे कार्यपालिका के वास्तविक प्रधान बन गए। उनके लिए अपनी कौंसिल पर नियंत्रण बनाए रखना आसान हो गाय। परिणामस्वरूप शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई।
(5) गवर्नर जनरल की स्थिति का सुदृढ़ होना-
गवर्नर जनरल के पद का महत्त्व पहले से अधिक बढ़ गया, क्योंकि उसका इंग्लैण्ड के मंत्रिमण्डल के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर दिया। इससे ने केवल उसकी स्थिति ही सुदृढ़ हुई, अपितु उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।
(6) अहस्तक्षेप की नीति का उद्घाटन-
इस एक्ट द्वारा भारतीय राजाओं के प्रति एक नई नीति अपनाई गई। धारा 34 के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारत में साम्राज्य विस्तार की नीति ब्रिटिश राष्ट्र के नीति, सम्मान और इच्छा के विरूद्ध है। अतः गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् संचालकों या गुप्त समिति की आज्ञा के बिना भारतीय राजाओं से युद्ध नहीं कर सकते थे। प्रादेशिक सरकारों पर भी इसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाया गया। भारत सरकार ने इस नीति का दृढ़ता से पालन किया। अहस्तक्षेप की नीति से भारतीय राजनीति में एक नये युग का आरम्भ हुआ और 1765 ई. जब अंग्रेजों के मित्र हैदराबाद के निजाम को मराठों ने खरदा के युद्ध में पराजित किया, तो अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की। परिणामस्वरूप उन्हें काफी हानि भी उठानी पड़ी।
(7) सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना-
भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए अपराधों की सुनवाई करने के लिए इंग्लैण्ड में एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गई। यह निश्चित रूप से एक अच्छा सुधार था।
(8) उपहारों को लेने की मनाही-
भारतीयों के दृष्टिकोण से यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था कि इसके द्वारा कम्पनी के पदाधिकारियों के लिए उपहार आदि लेना अपराध घोषित कर दिया गया और इस नियम की अवहेलना करने वालों के लिए कठोर दण्ड निश्चित किए गए।
(9) इंग्लैण्ड में कम्पनी का दोहरा शासन-
इस एक्ट के अनुसार कम्पनी के शासन पर दोहरा नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। कम्पनी के राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का था तथा व्यापारिक कार्यों पर संचालकों का था। यद्यपि यह व्यवस्था त्रुटिपूर्ण थी, तथापि 1858 ई. तक कम्पनी के भारतीय प्रशासन की आधारशिला बनी रही। एस.आर. शर्मा के शब्दो में, इस शासन पद्धति को 70 वर्ष से अधिक समय तक प्रचलित रहने का श्रेय अंग्रेज जाति की चारित्रिक उदारता को दिया जा सकता है, जिसने पद्धति के दोनों पक्षों को मिलकर काम करने में अधिक सहायता दी।
(10) 1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार-
यह एक्ट 1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार बना रहा। इल्बर्ट ने लिखा है कि, एक्ट के द्वारा जो नियंत्रणों की पद्धति कायम हुई, चाहे उसको कुछ बाद में सुधार भी किया गया है, परन्तु वह किसी न किसी रूप में 1858 ई. तक चलती रही।
पिट् के जीवन चरित के लेखक श्री जे. हॉलैण्ड ने इस एक्ट का महत्त्व इन शब्दों में व्यकत् किया है, भारत में निरंकुश अधिकार रखते हुए भी नया वायसराय ब्रिटिश संवैधानिक मशीन का केवल एक अनुबन्ध मात्र था। शायद यह पिट की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि उसने इस बात को समझ लिया कि शासन के प्राच्य और पाश्चात्य आदशों को किस प्रकार इस ढंग से मिलाया जाए कि जिससे बंगाल में तो कार्यवाही जोर-शोर से चल सके और स्वदेश में लोकप्रिय शासन की प्रगति पर आँच न आए। उसने भारत के वास्तविक शासक को उससे भी कहीं अधिक शक्तियाँ सोंपी, जितनी कि वारेन हेस्टिंग्स को प्राप्त थी, पर साथ ही उसने उन्हें राजा और पार्लियामेंट की इच्छा के अधिन कर दिया।
पिट्स इण्डिया एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में द्वैध शासन की स्थापना -
पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा कम्पनी के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया गया-प्रशासनिक तथा व्यापारिक। राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 6 सदस्यों का एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल स्थापित किया, जबकि कम्पनी के व्यापारिक कार्यों का संचालकों के अधिकार में ही रहने दिया गया। कम्पनी के राजनीतिक और सैनिक कार्यों का संचालन डायरेक्टर करते थे, परन्तु उन्हें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के निर्देशों का पालन करना पड़ता था। इस प्रकार, लन्दन में भारतीय मालमों की देखभाल के लिए 1784 ई. में दोहरी शासन व्यवस्था की स्थापना की गई। इसी को कीथ ने आपस का निबटारा कहा है। यद्यिप द्वैध शासन व्यवस्था त्रुटिपूर्ण थी, तथापि 1858 ई. तक कम्पनी के प्रशासन का आधार बनी रही।
प्रो. स्पीयर के शब्दों में, यह शासन पद्धति क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली में भिन्न थी, क्योंकि इसमें दोनों शासकीय संस्थाओं की जिम्मेदारी निश्चित तथा स्पष्ट थी।
बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अधिक शक्तिशाली होना
इस शासन व्यवस्था में संचालक मण्डल की अपेक्षा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के पास प्रशासन सम्बन्धी शक्तियाँ बहुत व्यापक थीं। बोर्ड के पास यह शक्ति थी कि संचालकों के द्वारा नियुक्त किए हुए कम्पनी के किसी भी कर्मचारी को वापस बुला सके। इसका परिणाम यह हुआ कि संचालक सिर्फ ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करते थे, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल चाहता था। बोर्ड ने कई बार इस शक्ति का प्रयोग भी किया। इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का विवरण देना उपयोगी होगा। 1784 ई. संचालक मण्डल ने हालैण्ड को फोर्ट-सेण्ट जार्ज की सरकार का अध्यक्ष नियुक्त किया, परन्तु बोर्ड के अध्यक्ष डुण्डास ने इस नियुक्ति का विरोध किया। संचालक अपनी की हुई नियुक्ति पर अड़ गए और उन्होंने बोर्ड के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध किया। बोर्ड के अध्यक्ष श्री डुण्डास ने संचालकों की इस बात को स्वीकार किया कि कानूनी दृष्टिकोण से उसे इन मामलों में हस्तक्षेप का अधीकार नहीं परन्तु उसने हालैण्ड को यह बात स्पष्ट कर दी कि वह ज्यों ही भारत पहुँचेगा, त्यों हीं उसे वापस बुला लिया जाएगा। परिणामस्वरूप संचालकों को हालैण्ड के स्थान पर डुण्डास के एक मित्र को नियुक्त करना पड़ा। 1806 में भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो गई थी और अन्त में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष ने संचालकों द्वारा नियुक्त किए गए जार्ज बारलो को वापस इंग्लैण्ड बुला लिया। संक्षेप में, संचालक मण्डल किसी भी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त नहीं कर सकते थे, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल न चाहता हो। इस प्रकार व्यावहारिक रूप में बोर्ड का अधिकारियों की नियुक्ति में भी काफी हाथ था।
संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त संचालकों द्वारा जो आदेश कम्पनी के अधिकारियों को दिए जाते थे, उनको तब्दील करने और अपनी इच्छानुसार आदेश जारी करने का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल को था। बोर्ड को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक प्रशासन को निर्देंशन तथा नियंत्रण का अधिकार दिया गया था। इसलिए वह संचालक मण्डल द्वारा दिए जाने वाले आदेशों की जाँच-पड़ताल कर सकता था। एक्ट में यह भी व्यवस्था की गई कि संचालक जो भी संदेश और आदेश भारत भेजे, उनकी स्वीकृति बोर्ड ऑफ कंट्रोल से 15 दिन के अन्दर प्राप्त करना आवश्यक था। इस तरह से संचालकों को भारत से होने वाले पत्र-व्यवहार बोर्ड ऑफ कंट्रोल का नियंत्रण स्थापित हो गया। संचालकों का चेयरमैन अपनी सुविधा के लिए आदेशों को तैयार करने से पूर्व उन पर बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष की राय जान लेना था। यद्यपि आदेशों और निर्देशों को तैयार करने की शक्ति संचालकों के हाथ में थी, तथापि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष उनमें अपनी इच्छानुसार किसी प्रकार का संशोधन कर सकता था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल संचालकों की इच्छा के विरूद्ध भी किसी प्रकार की तब्दीली भारत में भेजे जाने वाले आदेशों में कर सकता था। इसीलिए के.वी. पुन्निया ने लिखा है, नियंत्रण मण्डल के पास संशोधन करने की शक्ति इतनी व्यापक थी कि कई बार उसके द्वारा संशोधित पत्र वे अर्थ देने लगते थे, जो संचालकों द्वारा मौलिक रूप में प्रस्तुत किए गए पत्रों के अर्थों से सर्वथा भिन्न होते थे। अत्यावश्यक मामलों में बोर्ड की शक्तियाँ और भी अधिक थीं। वह संचालकों को विशेष प्रकार का प्रलेख तैयार करने के लिए आदेश दे सकता था। उनके इन्कार करने पर वह स्वयं प्रलेख तैयार कर सकता था और उसको भारत भेजने के लिए संचालकों को आदेश दे सकता था। अपने आदेशों का संचालकों से पालन कराने के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ब्रिटिश न्यायालय से भी लेख जारी करवा सकता था। बोर्ड की इस शक्ति से परिचित होने के कारण संचालक मण्डल के सदस्य साधारणतया उसकी इच्छा के विरूद्ध चलने का साहस नहीं करते थे।
इस प्रकार संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कंट्रोल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य हो गया था। बोर्ड को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक शासन प्रबन्ध के अधीक्षण, निर्देंशन तथा नियंत्रण का अधिकार भी दिया गया था। संचालन मण्डल सिर्फ उसी व्यक्ति को गवर्नर जनरल के पद पर नियुक्त करता था, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल चाहता था। अतः वह स्वाभाविक था कि भारत के गवर्नर जनरल संचालकों के आदेशों की अपेक्षा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के आदेशों को अधिक महत्त्व देते थे और कई बार संचालक मण्डल के आदेशों की अवहेलना करते हुए भी बोर्ड के आदेशों का पालन करते थे। धीरे-धीरे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने पहले की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त कर ली। उसका भारतीय प्रशासन पर इतना प्रभाव बढ़ गया कि उसकी गुप्त समिति की सहायता से एक के बाद एक गवर्नर जनरल भारत में सचालकों की इच्छा के प्रतिकूल भी भारतीय रियायतों के प्रति आक्रमणात्मक नीति अपनाते रहे।
उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्यों-ज्यो समय बीतता गया, त्यों-त्यों कम्पनी के शासन पर बोर्ड का प्रभाव बढ़ता गया और संचालक मण्डल का प्रभाव कम होता गया। संचालक मण्डल के अध्यक्ष हैनरी जॉर्ज टक्कर ने 1838 में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन के नाम लिखे हुए एक पत्र में संचालकों की दुर्दशा के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे, अब भी मैं बड़े कष्ट के साथ यह अनुभव करता हूँ कि हम डूबते जा रहे हैं। हमारा वजन और प्रभाव पिछले दिनों कम हुआ है और कम होता जा रहा है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे संचालकों के अधिकार कम होते गए। पुन्निया के शब्दों में, इस अनुभूति के कारण कि वे कष्ट में हैं, निदेशक समिति अपने वैध अधिकारों का भी पूरा प्रयोग करने की इच्छुक नहीं रहीं होगी, जबकि नियंत्रण बोर्ड का अध्यक्ष अपनी शक्तियों का प्रयोग पहले की अपेक्षा भी अधिक उत्साह के साथ करता होगा।
संचालक मण्डल का प्रभावशील न होना -
बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के इतना शक्तिशाली होने से हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि कम्पनी के शासन पर संचालक मण्डल का प्रभाव बहुत क्षीण हो गया था। संचालक मण्डल अब भी गवर्नर जनरल तथा बोर्ड के बीच पत्र-व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण साधन था। भारत भेजे जाने वाले सब पत्र और आदेश या तो उसकी या उसकी गुप्त समिति के द्वारा भेजे जाते थे। बोर्ड भारतीय मामलों के सम्बन्ध में संचालकों के परामर्श को बड़ा महत्त्व देता था, क्योंकि वे कम्पनी के शासन कार्य में बहुत अनुभवी होते थे। इसके अतिरिक्त शासक का बहुत सारा कामकाज व्यावहारिक रूप से उनके द्वारा होता था। इसलिए भी उनका शासन पर प्रभाव होना स्वाभाविक था। श्री ए.बी. कीथ लिखते हैं कि, यद्यपि द्वैध शासन व्यवस्था में संचालक मण्डल सैद्धान्तिक रूप से भारतीय प्रशासन से पृथक् था, तथापि उसका इसके संचालक पर काफी प्रभाव था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष हैनरी जार्ज टक्कर के शब्दों में, यह सत्य है कि आपने भारतीय प्रशासन का नियंत्रण राष्ट्रीय सरकार को सौंप दिया है लेकिन इस पर भी हमारी ऐसी स्थिति है कि हम इस पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं।
संचालकों के पास कर्मचारियों को नियुक्त करने का महत्त्वपूर्ण अधिकार भी था। भारत में गवर्नर जनरल से लेकर छोटे से छोटे कर्मचारी उनके द्वारा नियुक्त किए जाते थे। इससे उनका प्रभाव, प्रतिष्ठा और गौरव और भी बढ़ जाता था। निस्सन्देह बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल संचालकों द्वारा नियुक्त किए गए लोगों को भारतवर्ष से वापस बुला सकता था, लेकिन इससे संचालक मण्डल का महत्त्व कम नहीं होता था। प्रथम तो इसलिए कि पदाधिकारीयों को बारत से बार-बार बुलना सम्भव नहीं था। दूसरे, ऐसा करना प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी अनुचित था। अतः बोर्ड ऑफ कंट्रोल व्यवहार में उस शक्ति का प्रयोग कुछ विशेष मामलों में ही करता था। इस प्रकार, संचालक मण्डल कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए पूर्णतः स्वतंत्र था। दैनिक मामलों में कम्पनी के भारतीय कर्मचारियों को हटाने की शक्ति संचालकों के पास ही थी। प्रो. स्पीयर लिखते हैं कि संचालकों की दृष्टि में कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार इतना महत्त्वपूर्ण था कि उन्होंने अपनी राजनीतिक शक्तियों का बलिदान करके भी इसे अपने पास बनाए रखना उचित समझा। इसके अतिरिक्त संचालकों को अपनी इच्छा के विरूद्ध बोर्ड ऑफ कंट्रोल द्रारा नियुक्ति कए गए व्यक्तियों को भारत से वापस बुला लेने का भी अधिकार था। इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का उल्लेख करना उपयोगी होगा। सन् 1825 ई. में संचालकों ने लार्ड एम्हर्स्ट को बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की इच्छा के विरूद्ध भारत से वापस बुलाने की धमकी दी और 1844 ई. में एलबरो को वापस बुला लिया। कम्पनी के संचालकों के अधीन हजारों अनुभवी अधिकारी काम करते थे और कम्पनी के कार्यालय, ईश्ट इण्डिया हाऊस के सभी रिकार्ड उनके अधिकार में थेे। अतः भारत के शासन सम्बन्धी नई योजनाएँ बोर्ड की अपेक्षा वे अधिक सुगमता तथा योग्यता से तैयार कर सकते थे। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की दिलचस्पी साधारयता भारती अधिकारियों की विदेशी नीति निर्धारित करने तथा राजनीतिक मामलों को सुलझाने में होती थी, जिसके कारण संचालकों को कम्पनी के आन्तरिक शासन कार्य में महत्त्वपूर्ण भाग लेने का अवसल मिल जाता था। संचालकों को यह भी अधिकार था कि वे दूषित प्रशासन के उदाहरणों को जनता के सम्मुख खोलकर रख सके। संचालक मण्डल के अध्यक्ष श्री टक्कर के शब्दों में, जब तक इस समिति में स्वतंत्र और प्रतिष्ठित व्यक्ति रहेंगे, तब तक वे न केवल अपने ज्ञान और अनुभव द्वारा सरकार की मशीन को उचित निर्देश देने में सहायता दे सकते हैं, अपितु वे किसी बेईमान सरकार की मनमानी की रोकथाम करने में भी बड़ा स्वस्थ प्रभाव डाल सकते हैं।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि संचालक मण्डल का कम्पनी के मामलों पर अब भी काफी प्रभाव था। इसके अतिरिक्त व्यापारिक मामलों में संचालकों के हाथ में पूर्ण शक्ति थी। इसलिए यह कह सकते हैं कि बोर्ड ऑफ कंट्रोल की सर्वोच्चता के होते हुए भी संचालकों के हाथ में काफी शक्तियाँ रह गई थीं। सन् 1918 की संवैधानिक रिपोर्ट का उल्लेख करने वालों ने इस द्वैध शासन व्यवस्था का मूल्यांकन इन शब्दों में किया थाष हमें वह परिणाम नहीं निकालना चाहिए कि नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष के सर्वाधिक महत्त्व ने संचालकों के हाथों में कोई वास्तविक नियंत्रण नहीं दिया था। वे अब भी शक्ति सम्पन्न थे। उनके पास अब भी कार्य को आरम्भ करने का अधिकार था। वे ब्रिटिश सरकार के पास भारतीय मामलों के सम्बन्ध में जानने के लिए ज्ञान का भण्डार थे। शासन की जिम्मेदारी बेशक मण्डल के कन्धों पर थी, लेकिन उसकी कार्य-विधि पर संचालकों का प्रभाव अवश्य था।
इस सब बातों के होते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने संचालक मण्डल को शनैः शनैः उसकी शक्तियों से वंचित कर दिया। पुन्निया के शब्दों में, ज्यों-ज्यों इस शताब्दी के वर्ष बीतते गए, त्यों-त्यों उनसे एक के बाद एक शक्ति छिनती गई।
द्वैध शासन व्यवस्था की समीक्षा पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण थी। उसका अधिक तक सुचारू रूप से कार्य करना कठिन था। इसका जन्मदाता पिट भी सव्यं उसकी त्रुटियों को भली-भाँति जानता था।उसने बिल पस्तुत करते समय यह शब्द कहे, भारत जैसे विशाल तथा सुदूर देश के लिए मेरे या किसी अन्य व्यक्ति के लिए एक त्रुटि-रहित शासन पद्धति की व्यवस्था करना असम्भव है। मि फॉक्स ने भी अनेक सबल तर्कों के आधार पर इस शासन व्यवस्था की बड़े प्रभावशाली शब्दों में निन्दा की थी। इस व्यवस्था के मुख्य-मुख्य गुणों तथा अवगुणों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
द्वैध शासन व्यवस्था के दोष -
द्वैध शासन व्यवस्था के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(1) इस द्वैध शासन व्यवस्था की प्रथम त्रुटि यह थी कि यह प्रणाली अस्वस्थ सिद्धान्तों पर आधिरत थी। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दो ऐसे शासकीय संगठन थे, जो परस्पर हितों के विरोधी होने के कारण सुचारू रूप से काम नहीं कर सकते थे। अतः वे मतभेद होने की अवस्था में प्रायः षड्यन्त्र रचते थे, जो कि शासन प्रबन्ध की कुशलता तथा सुदृढ़ता के लिए घातक सिद्ध होते थे।
(2) इस शासन व्यवस्था की दूसरी त्रुटि यह थीकि इसमें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से निश्चित नहीं थीं। इसलिए इनमें झगड़ा होना स्वाभाविक था। चूँकि इस एक्ट के किसी मामले के लिए जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन था, अतः इससे गैर-जिम्मेदारी की भावना उत्पन्न हुई। परिणामस्वरूप सरकार की एकता नष्ट हो गई। 1853 ई. में लार्ड डिजरैली ने शासन की इस त्रुटि की ओर संकेत करते हुए कहा था, मेरी समझ में नहीं आता कि भारत जैसे विशाल साम्राज्य का वास्तविक शासन कौहन है और किसको इस शासन के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
(3) इस दोहरी शासन व्यवस्था की तीसरी त्रुटि यह थी कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भारतीय शासन के सम्बन्ध में नीति तो निर्धारित करता था, परन्तु उसको लागू करने के लिए पदाधिकारी नियुक्त करना संचालक मण्डल का काम था। अतः संचालक जिन बातों को नहीं चाहता था, उसको लागू करने में बहाने कर विलम्ब कर सकता था। प्रो. एस.आर. शर्मा के शब्दों में, यदि कानून का अक्षरशः पालन किया जाता, इंग्लैण्ड स्थिति नियंत्रण मण्डल तथा संचालक मण्डल में भारतीय मामलों के नियंत्रण के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयाँ उतपन्न होतीं और शीघ्र ही दोहरी शासन प्रणाली का पतन हो जाता। परन्तु सौभाग्य से ये दोनों अंग अपना-अपना कार्य इस प्रकार करते रहे कि त्रुटिपूर्ण होने परभी यह पद्धति 1858 ई. तक कम्पनी के भारतीय प्रशासन का आधार बनी रही।
(4) चौथी त्रुटि यह थी कि इसमें देरी होने की बहुत सम्भावना थी। प्रत्येक कार्य सम्पन्न होने में आवश्यकता से अधिक समय लग जाता था। जब कोई भी आदेश-पत्र भारत में भेजना होता था, तो उसको पहले संचालक मण्डल तैयार करता था। पिर उसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष की सहमति के लिए प्रस्तुत किए जाता था। वहाँ पर उस पर विचार करने और संशोधित करने में कई दिन लग जाते थे। फिर वह संचालक मण्डल के पास भेजा जाता था। इस संशोधित पत्र के अनुसार संचालक मण्डल फिर एक नया प्रलेख तैयार करता था। इस तरह किसी काम को निपटाने में महीनों लग जाते थे। साधारणता भारत सरकार द्वारा लन्दन भेजे गये पत्र का उत्तर दो वर्ष के बाद प्राप्त होता था। इस असाधरण विलम्ब के लिए प्रशासन की इस त्रुटि पर प्रकाश डालते हुए कहा था, लन्दन से भारत को भेज जाने वाले प्रत्येक महत्त्वपूर्ण आदेश-पत्र को मण्डल के कार्यालय कैनन रो और संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाउस के बीच कई बार उधर से इधर और इधर से उधर आना-जाना पड़ता था। कार्य-विधि के चक्कर में उसे काफी देर लग जाती थी।
इस अनावश्यक तथा असाधारण देरी के कारण जब भारत सरकार को महीनों तक किसी मामले पर निर्देश प्राप्त नहीं होते थे, तो उसको विभिन्न शासकीय कठिनाइयों को समाना करना पड़ता था और अत्यावश्यक मामलों को भारत सरकार अपनी इच्छानुसार मजबूर होकर निपटा देती थी। परिणामस्वरूप बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की ओर सेबाद में पहुँचने वाले आदेश-पत्र निरर्थक हो जाते थे। एस.आर.शर्मा के शब्दों में, इंग्लैण्ड से भारतीय मामलों का संचालक बहुत बार मरणोत्तर जाँच जैसा होता था।
(5) इस शासन व्यवस्था में कम्पनी के भारतीय प्रशासन पर ब्रिटिश पार्लियामेंट का प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था, क्योंकि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को भारत सरकार के खर्चे और आमदनी के वार्षिक हिसाब को पार्लियामेन्ट में रखना नहीं पड़ता था।
(6) इस शासन व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि गवर्नर जनरल को वापस बुलाने की शक्ति बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दोनों के पास थी। कई बार दोनों गवर्नर जनरल से अपनी-अपनी परस्पर विरोधी बातों के अनुसार कार्य करने के लिए दबाव डालते थे। इसलिए गवर्नर जनरल को विचित्र कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। वैसे भी उसके लिए दोनों स्वामियों को सन्तुष्ट तथा प्रसन्न रखना कठिन कार्य था। इससे भारतीय शासन में अदक्षता उत्पन्न होती थी।
(7) द्वैध शासन व्यवस्था 1784 ई. से 1858 ई. तक प्रचलित रही। इस दीर्घकाल में सिर्फ अफगान युद्ध के मामले को लेकर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल में मतभेद हुआ था। अधिकांश छगड़े उच्च पदाथिकारियों की नियुक्ति, उसको पदोन्नति देने अथवा व्यक्तिगत मतभेद के कारण होते रहे। 1786 ई. में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने कम्पनी के खर्चे पर चार ब्रिटिश रेजीमेण्ट भारत भेजी। इस प्रश्न को लेकर बोर्ड और संचालक मण्डल के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। संचालकों ने बोर्ड के इस पग का विरोध किया, क्योंकि उनके मतानुसार बोर्ड को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था। वह विवाद दो वर्ष तक चलता रहा। अन्त में पिटने 1788 में एक बिल पेश किया, जिसके द्वारा बोर्ड को इस सम्बन्ध में सर्वोच्च अधिकार दे दिए गए।
द्वैध शासन व्यवस्था के गुण -
यद्यपि द्वैध शासन व्यवस्था में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि वह अनेक गुणों के कारण 1858 ई. तक कम्पनी के शासन का आधार बनी रही। इस व्यवस्था की प्रथम विशेषता यह थी कि कम्पनी का व्यापारिक प्रबन्ध तथा पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार संचालक मण्डल के पास था। अतः संचालक भी इस अधिकारों से सन्तुष्ट थे। इसके अतिरिक्त भारत का प्रशान संचालकों के हातों मे ही रहने दिया गया, परन्तु बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का उन पर अन्तिम नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। मि. पिट ने इस व्यवस्था के सम्बन्ध में यह शब्द कहे थे, इस नई शासन प्रणाली की व्यवस्था करने में न तो कम्पनी के अधिकार-पत्र में हस्तक्षेप किया गया है और नही उसे भारतीय प्रदेशों के वंचित किया गया है। केवल कम्पनी के संविधान में इस प्रकार के परिवर्तन किए गए हैं, जिनसे वह राष्ट्रीय हितों की उचित ढंग से सेवा कर सके।
1786 का अानिियम -
रेल्गूलेटिंग एक्ट का एक प्रमुख दोष यह था कि गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल को समक्ष असहाय था। इस दोष को दूर करने के लिए 1786 ई. तक कोई कदम नहीं उठाया गया। जब लार्ड कार्नवालिस वारेन हेस्टिंग्स के स्थान पर गर्वनर जनरल बना, तब उसने गर्वनर जनरल के पद को स्वीकार करने के लिए अपनी एक शर्त रखी कि गवर्नर जनरल को कौंसिल के निर्णय पर वीटो लगाने और विशेष परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार अपनी इच्छापूर्वक काम करने का अधिकार दिया जाए। 1786 ई. में 1784 एक्ट का संशोधन कर दिया गया और लार्ड कार्नवालिस को निषेधाधिकार प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त उसे कौंसिल की इच्छा के विरूद्ध निर्णय लेने का अधिकार भी दिया गया।
रेग्यूलेटिंग एक्ट जल्दबाजी में पारित किया गया था। अतः लागू होने के कुछ समय पश्चात् ही इसके दोष स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगे थे। मद्रास तथा बम्बई की प्रेसीडेन्सियों पर बंगाल का पर्याप्त नियंत्रण नहीं था, जिसके कारण कम्पनी को अनावश्यक युद्धों में उलझना पड़ा था। 1781 में एक संशोधन अधिनियम पारित किया गया था, जिसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार की स्पष्ट रूप से व्याख्या कर दी गई, किन्तु प्रशासन सम्बन्धी दोष अभी भी विद्यामान थे, 1781-82 ई. में ब्रिटिश संसद वारेन हेस्टिंग्स को इंग्लैण्ड बुलाना चाहती थी, किन्तु कम्पनी के हिस्सेदारों के विरोध के कारण नहीं बुला सकी। इससे कम्पनी पर संसद का अपर्याप्त नियंत्रण स्पष्ट हो गया। अतः रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए एक सुधार विधेयक पारित करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
डुण्डास तथा फॉक्स जैसे राजनीतिज्ञों ने इस दिशा में संवैधानिक पग उठाने का प्रयत्न भी किया, परन्तु कई कारणों से वे सफल नहीं सके। अतः ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट् ने एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिसे संसद ने 1748 ई. में पारित कर दिया। यह एक्ट भारत के इतिहास में पिट्स इण्डिया एक्ट के नाम से प्रसिद्ध है। इस एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासन पर कठोर नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके द्वारा ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित की गई, जो त्रुटिपूर्ण होने पर भी सन् 1858 ई. तक कम्पनी के संविधान का आधार बनी रही।
पिट्स इण्डिया एक्ट के पारित होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(1) रेग्युलेटिंग एक्ट की त्रुटियाँ-
रेग्यूलेटिंग एक्ट में अनेक दोष रह गए थे। वारेन हेस्टिंग्स ने इस एक्ट के अनुसार कार्य किया और उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि गवर्नर जनरल को अपनी कौंसिल में बहुमत द्वारा किए गए निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था। इसके अतिरिक्त उसका बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था। इसलिए वहाँ की सरकारें अपनी इच्छा से देशी शक्तियों के साथ युद्ध लड़ती रहीं। सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार अनिश्चित था अतः उसके साथ गवर्नर जनरल का विवाद चलता रहता था। 1781 ई. के बंगाल न्यायालय एक्ट के द्वारा सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार तो निश्चित कर दिया गया था, परन्तु रेग्यूलेटिंग एक्ट के अन्य दोषों को दूर नहीं किया गया था। अतः उनको दूर करने हेतु एक नवीन एक्ट की आवश्यकता थी।
(2) कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार-
यद्यपि रेग्यूलेटिग एक्ट के द्वारा गवर्नर जनरल, उनकी परिषद् के सदस्य और सुप्रीम कोर्ट के जजों को निजी व्यापार करने, रिश्वत या भेटं की सख्त मनाही कर दी गई थी, तथापि वे अप्रत्यक्ष रूप से बहुत से अनुचित तरीकों से भारत में धन जमा कर लेते थे। गवर्नर जनरल ने बनारस के राजा चेतसिंह और अवध की बेगम से धन प्राप्त करने के लिए ऐसे अत्याचार किए, जो नैतिक दृष्टिकोण से बहुत निन्दनीय थे। वारेन हेस्टिंग्स के साथियों ने धन एकत्रित करने भी मात दे दी। बारवेल, फ्रांसिस तथा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर एलिंग इम्पे ने अनुचित तरीकों से काफी धन एकत्रित किया। इतना नहीं, कम्पनी के कर्मचारी तथा अधिकारी भी अनुचित तरीकों से भारत में धन जमा कर लेते थे और रिटायर होकर इंग्लैण्ड में विलासितपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे। वे जुनाव जीतकर ब्रिटिश पार्यिटामेंट में पहुँच जाते थे। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के भारतीय प्रशासन में अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए इस दिशा में एक नया एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।
(3) ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर अपर्याप्त नियंत्रण-
1781 ई. में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने कम्पनी के भारतीय प्रशासन की जाँच-पड़ातल के लिए दो कमेटियाँ नियुक्त की थीं। इन कमेटीयो ने अपनी रिपोटों में फैली भारत में फैली हुई अव्यवस्था के लिए कम्पनी के अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया। इस पर ब्रिटिश संसद में मई, 1782 ई. में वारे हेस्टिंग्स तथा उसके एक अन्य सहयोगी हार्नवाई को भारत से वापस बुलाने के लिए एक प्रस्ताव पास किया गया। परन्तु कम्पनी के स्वामी मण्डल ने इसे अस्वीकार कर दिया और हाऊस ऑफ कॉमन्स की इच्छा के विरूद्ध वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर जनरल बनाए रखाष क्योंकि वह कम्पनी को अनुचित ढंग से धन इकट्ठा करके देता था। अतः ब्रिटिश सरकार ने अनुभव किया कि रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्वारा संसद का कम्पनी पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित नहीं हुआ है और इस त्रुटि को शीघ्रातिशीघ्र दूर करने की आवश्यकता है। अतः इस उद्देश्य को प्राप्त ककरने के लिए सरकार ने एक एक्ट पारित करना आवश्यक समझा।
(4) कम्पनी की गलत नीति-
कम्पनी के कर्मचारियों ने भारत में मैसूर के शासक, मराठों और रोहिलों से बिना किसी विशेष कारण के युद्ध आरम्भ कर दिए थे। इस युद्धों में कम्पनी का अपार धन व्यय हुआ। इनको आरम्भ करने से पूर्व कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार की अनुमति प्राप्त नहीं की थी। अतः ब्रिटिश सरकार इन युद्धों के सख्त विरूद्ध थी।
(5) अमरीकी बस्तियों का छीना जाना-
अमेरिका के स्वतंत्रता संग्रा में इंग्लैण्ड की पराजय हुई, जिससे उसकी सत्ता तथा प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा। इसके अतिरिक्त इंग्लैण्ड को अमेरिका की 13 बहुमूल्य बस्तियों से हाथ धोने पड़े, जिसके कारण अंग्रेजों के व्यापार को जबरदस्त धक्क लगा। इन अमेरिकन बस्तियों के हाथ से निकल जाने के परिणामस्वरूप अंग्रेज सरकार की दृष्टि में भारतीय प्रदेशों ता महत्त्व बहुत बढ़ गया और वे इन्हें इंग्लैण्ड नरेश के मुकुट का सबसे सुन्दर तथा बहुमूल्य हीरा समझने लगे। प्रधानमंत्री पिट ने बिल प्रस्तुत करते समय स्वयं इस तथ्य की पुष्टि करते हुए यह शब्द कहे, बस्तियों के छिन जाने से इंग्लैण्ड के लिए भारतीय प्रदेशों का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। अब हमें अपने हितों को सुरक्षित रकने के लिए इनमें कुशल शासन प्रबन्ध की व्यवस्था करनी चाहिए। अतः ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के शासन पर अपना प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक नये एक्ट की आवश्यकता अनुभव की।
(6) भारत की भलाई-
प्रधानमंत्री पिट चाहता था कि भारत में अच्छा शासन स्थापित हो और वहाँ के लोग इंग्लैण्ड से होने वाली भलाइयों को महसूस करें। उसने 6 जुलाई, 1784 ई. को हाऊस ऑफ कॉमन्स में भाषण देते हुए यह शब्द कहे, हमें यह देखना है कि भारत से हमारा देश अधिक से अधिक लाभ उठाए और कम्पनी के प्रदेशों में रहने वाले भारतीयों के लिए भी हमारे सम्बन्ध अत्यधिक लाभदायक हों। इस प्रकार पीट ने इस एक्ट को पारित होने में काफी योग दिया और उसका एक्ट की रूपरेखा पर भी काफी गहरा प्रभाव पड़ा।
(7) कम्पनी द्वारा ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता की माँग-
जब कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई, तो मार्च, 1783 ई. में इसने ब्रिटिश सरकार से आर्थिक सहायता माँगी। इससे पार्लियामेंट को उसके शासन में हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हो गया। मि. फॉक्स ने कम्पनी की तानाशाही के विरूद्ध आवाज उठाई, जबकि मि. बर्क ने उसके भ्रष्टाचार की बहुत निन्दा की। बर्क ने अपने भाषण को समाप्त करते हुए यह शब्द कहे, सहायता और सुधार एक साथ होंगे। ब्रिटेन की जनता ने भी बर्क के विचारों का समर्थन किया। अतः मि. डुण्डास ने अप्रैल, 1783 ई. में कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए एक बिल पेश किया।
(8) डुण्डास और फॉक्स के बिल-
पिट से पहले रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए तथा ब्रिटिश सरकार का कम्पनी पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए डुण्डास ने अप्रैल, 1783 ई. में तथा फॉक्स ने नवम्बर, 1783 ई. में बिल रखे थे, परन्तु अनेक कारणों से वे पास नहीं हो सके थे. इन विधेयकों ने सरकार को कम्पनी के संविधान में सुधार करने के लिए अवश्य ही प्रेरित किया।
पिट्स का इण्डिन बिल -
फॉक्स इण्डिया बिल के असफल होने के बाद विलयम पिट ने जनवरी, 1784 ई. में पार्लियामेंट में ईस्ट इण्डिया बिल पेश किया। अगस्त, 1784 ई. में यह बिल पार्लियामेंट द्वारा पास होने और सम्राट की स्वीकृति प्राप्त करने पर एक्ट बन गया। इसे पिट्स इण्डिया का नाम दिया गया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबन
(1) कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था सेे सम्बन्ध रखने वाले उपबन्ध
इस एक्ट द्वारा कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था का पुनर्गठन किया गया। कम्पनी के शासन पर नियंत्रण रखने के लिए एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई, जबकि उसके व्यापारिक कार्य का प्रबन्ध कम्पनी के संचालकों के हाथों में रहने दिया गया।
(अ) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल
(i) पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल में राज्य सचिव तथा वित्त मंत्री के अतिरिक्त चार अन्य सदस्य रखे गये, जिनकी नियुक्ति और पदमुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। सदस्यों के वेतन आदि का खर्चा भारत के राजस्व से वसूल करने का निर्णय किया गया। यह नियंत्रण बोर्ड कम्पनी के संचालको के ऊपर था और इसके अधीन की कम्पनी के मालिकों का बोर्ड भी था।
(ii) इस बोर्ड का अध्यक्ष राज्य सचिव होता था। इसकी अनुपस्थिति में वित्त मंत्री को बोर्ड के सभाति के रूप में कार्य करता था। यदि किसी विषय पर दोनो पक्षों में बराबर मत न हों, तो अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार था।
(iii) बोर्ड की तीन सदस्यों की उपस्थिति इसकी गणपूर्ति के लिए आवश्यक थी।
(iv) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की बैठकों के लिए इनके सदस्यों को कोई वेतन नहीं मिलता था। अतः उन्हें पार्लियामेंट की सदस्यता के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था।
(v) कम्पनी के कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्डोल को नहीं दिया गया। पुन्निया के शब्दों में इस प्रकार संरक्षकता निदेशक समिति और कम्पनी के हाथों में ही रहने दी गई और देश इस प्रबन्ध से संतुष्ट हो था।
(vi)बोर्ड को कम्पनी के सैनिक, असैनिक तथा राजस्व सम्बन्धी मामलों की देखभाल, निर्देशन तथा नियंत्रण के विस्तृत अधिकार दिए गए। बोर्ड कम्पनी के डाइरेक्टरों के नाम आदेश भी जारी कर सकता था। इस तरह ब्रिटिश सरकार को बोर्ड के माध्यम से कम्पनी के सब मामलों पर नियंत्रण स्थापित कर दिया। बोर्ड के सदस्यों को कम्पनी के समस्त रिकार्डों को देखने की सुविधा भी दे गई।
(vii) कम्पनी के संचालकों को भारत से प्राप्त तथा भारत को भेजे जाने वाले समस्त पत्रों की नकलें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के साने रखनी पड़ती थी। बोर्ड के सदस्यों को यह अधिकार दिया गया कि वह उनके सम्मुख प्रस्तुत किए गए आदेशों तथा निर्देशों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकें। उन्हें उनमें अपनी इच्छानुसार परिवर्तन करने का अधिकार भी दिया गया। उनको इतने व्यापाक अधिकार थे कि वे संचालकों को द्वारा प्रस्तुत पत्रों में परिवर्तन करके उन्हें सर्वथा नया रूप दे सकते थे। इस प्रकार, बोर्ड द्वारा स्वीकृत किए गए या संशोधित किए गए आदेशों को संचालक भारत में अपने कर्मचारियों के पास भेजने के लिए बाध्य थे। परन्तु फिर भी कम्पनी के दैनिक कार्यों और नियुक्तियों में संचालकों का काफी प्रभाव था।
(viii) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बिना संचालन मण्डल की सहमति के भी भारत सरकार को आदेश भेज सकता था, परन्तु संचालन मण्डल को बोर्ड की अनुमति के बिना भारत में कोई भी आदेश भेजने का अधिकार नहीं था इसके अतिरिक्त कार्य को शीघ्रता से निपटाने के लिए बोर्ड संचालक मण्डल को किसी भी विषय पर पत्र या आदेश तैयार करने की आज्ञा दे सकता था। यदि वे 14 दिने के अन्दर-अन्दर इस कार्य को न कर पाएँ, तो बोर्ड को यह अधिकार था कि वह स्वयं पत्र तैयार करके संचालकों को भेज दें। संचालक मण्डल ऐसे पत्रों को बिना उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन किए भारत सरकार को भेजने के लिए बाध्य था।
(ix) इस एक्ट के अनुसार संचालकों में से तीन सदस्यों की एक गुप्त समिति गठित की गई, जिसके द्वारा बोर्ड अपने गुप्त आदेश भारतीय सरकार को भेज सकता था। इस समिति के सदस्य उन गुप्त आदेशों को दूसरे संचालकों को नहीं बता सकते थे और न ही वे उन आदेशों में कोई परिवर्तन या संशोधन कर सकते थे।
(ब) संचालक मण्डल
(i) संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की आज्ञाओं और निर्देंशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया।
(ii) इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल के पास केवल कम्पनी के व्यापारिक कार्यों की संचालन की शक्ति रही। यदि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल बोर्ड ऑफ डायेक्टर्स में हस्तक्षेप करे, तो उसे सपरिषद् इंग्लैण्ड नरेश के पास अपील करने का अधिकार दिया गया।
(iii) संचालक मण्डल को कम्पनी के समस्त पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया, किन्तु उन्हें वापस बुलाने का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। संचालक मण्डल के अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भी किसी भी पदाधिकारी को भारत से वापस बुला सकता था। गवर्नर जनरल की नियुक्ति के लिए संचालन मण्डल की स्वीकृति लेना आवश्यक था।
(स) स्वामी मण्डल
इस एक्ट का स्वामी मण्डल की शक्तियाँ बहुत कम कर दी गईं। उसको संचालक मण्डल के प्रस्ताव को रद्द या स्थागित करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया, यदि उस प्रस्ताव पर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने अपनी स्वीकृति दे दी हो।
(द) इंग्लैण्ड में कम्पनी की द्वैध शासन व्यवस्था
इस एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में कम्पनी के भारती शासन पर नियंत्रण करने की शक्ति को दो प्रकार के अधिकारियों के हाथों में थी। पहले अधिकारी डायरेक्टर थे, जिनका कम्पनी के समस्त मामलों पर सीधा नियंत्रण था। संचालक मण्डल के पास कम्पनी के समस्त अधिकारियों की नियुक्ति तथा व्यापारिक कार्यों के संचालन की शक्ति थी। दूसरे अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्य थे। ये ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि थे और इनका कम्पनी के शासन सम्बन्धी सब मामलोें पर प्रभावशाली नियंत्रण था।
(2) भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i) इस एक्ट में यह निश्चित किया गया कि संचालक मण्डल केवल भारत में काम करने वाले कम्पनी के स्थायी अधिकारियों में से ही गवर्नर जनरल की कौंसिल के सदस्य नियुक्त करेगा।
(ii) सपरिषद् गवर्नर जनरल को विभिन्न प्रान्तीय शासनों पर अधीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण का पूर्ण अधिकार दिया गया।
(iii) यह भी निश्चित कर दिया गया कि गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की अनुमति के बिना कोई युद्ध अथवा सन्धि नहीं कर सकेगा।
(iv) पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य के प्रदेश कहा गया। इस एक्ट में यह घोषणा की गई थी कि, भारत में राज्य विस्तार और विजय की योजनाओं को चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, मान और इच्छा के विरूद्ध है। इस प्रकार, प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्रीय सरकार के नियंत्रण को दृढ़ बना दिया गया।
(i) प्रादेशिक गवर्नरों की स्थिति को दृढ़ बनाने के लिए उनकी कौंसिल के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गई। इनमें एक प्रान्त का कमाण्डर-इन-चीफ भी होगा।
(ii) कम्पनी के केवल प्रतिज्ञाबद्ध कर्मचारियों से ही गवर्नर की कौंसिल के सदस्य नियुक्त किए जाने के व्यवस्था की गई।
(iii)गवर्नरों तथा उसकी कौंसिल के सदस्यों की नियुक्ति संचालको द्वारा की जाती थी, परन्तु उनको हटाने या वापस बुलाने का अधिकार ब्रिटिश ताज ने अपने पास रखा।
(iv) बम्बई तथा मद्रास की सरकार के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों को पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
(v) प्रादेशिक सरकारों के लिए सभी प्रकार के निर्णयों की प्रतिलिपियाँ बंगाल सरकार की सेवा में प्रस्तुत करना अनिवार्य कर दिया गया।
(vi) बंगाल की सरकार की आज्ञा के बिना प्रादेशिक सरकारे न तो युद्ध आरम्भ कर सकती थीं और नही उन्हें भारतीय राजाओं के साथ सन्धि आदि करने का अधिकार था।
(vii) बंगाल सरकार के आदेशों की अवहेलना करने पर वह अधीनस्थ सरकार के गवर्नर को निलम्बित कर सकती थी।
इस प्रकार ये उपबन्ध भारत के एकीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। जी.एन. सिंह के शब्दों में, 1784 के एक्ट ने भारत के एकीकरण को और बढ़ा दिया, इससे मद्रास और बम्भई के सपरिषद् राज्यपालों पर सपरिषद् महाराज्यपाल (गवर्नर जनरल) की शक्तियाँ बढ़ा दीं और उनकी ठीक-ठीक सीमा भी निर्धारित कर दी।
एक्ट का महत्त्व -
पिट्स इण्डिया एक्ट भारत के संवैधानिक इतिहास में बहुत महत्त्व है। इसने कम्पनी के मौलिक हितों पर आघात किए बिना उसे दृढ़ता प्रदान की और एक ऐसी शासन पद्धति का सूत्रपात किया, जो 1858 ई. तक प्रचलित रही। बर्क ने इस एक्ट के बार में लिखा था, अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इससे अधिक अच्छा तथा दक्ष उपाय सम्भवतः मनुष्य द्वारा नहीं बनाया जा सकता है।
(1) कम्पनी के प्रशासन पर ससंदीय नियंत्रण की स्थापना-
इस एक्ट के द्वारा पहली बार कम्पनी के भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजी राज्य का प्रदेश कहा गया और उन पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित करने के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना की गई। इस बोर्ड का काम भारत में सैनिक तथा असैनिक प्रशासन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण करना था। इस बोर्ड में मंत्रिमण्डल के सदस्य भी थे। संचालक मण्डल के बोर्ड ऑफ कण्ट्रलो के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। कम्पनी की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए गुप्त समिति का गठन किया गया इस एक्ट के द्वारा बम्बई तथा मद्रास की सरकारों पर बंगाल सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। इससे कम्पनी की नीतियों का इन सरकारों की नीतियों से मेल आसानी से होने लगा। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के समस्त सैनिक और असैनिक मामलों पर ब्रिटिश संसद का अन्तिम नियंत्रण स्थापित हो गया। इल्बर्ट ने लिखा है, कम्पनी को ब्रिटिश सरकार की प्रतिनिधिक संस्था के प्रत्येक, तथा स्थायी नियंत्रण में रखने के सिद्धान्त को अपनाया। एस.आर. शर्मा के शब्दों में, पिट्स इण्डिया एक्ट ने इंग्लैण्ड में भारतीय मामलों के निर्देशक के मौलिक सिद्धान्त को ही बदल दिया। स्वामी मण्डल शक्तिहीन हो गया तथा संचालक मण्डल ब्रिटिश सरकार के पूर्णतः अधीन हो गया। लायल ने लिखा है कि, पिटस के इण्डिया एक्ट का तात्कालिक प्रभाव बहुत अधिक था और इसके स्पष्ट रूप से भारत सरकार के ढाँचे में सुधार हो गया। इस एक्ट ने उन सब गलत नियंत्रणों और बाधाओं को दूर कर दिया, जिनके कारण वारेन हेस्टिंग्स का अपनी कौंसिल तथा अधीनस्थ बम्बई और मद्रास की सरकारों में झगड़ा हुआ। इस एक्ट के द्वारा उन दोषों को दूर कर दिया गया था, जो उसने भारत सरकार के ढाँचे में बताये थे और उन उपायों को अपनाया गया, जो उसने बताये थे।
इस प्रकार, इस एक्ट के द्वारा कम्पनी पर ब्रिटिश संसद का वास्तविक नियंत्रण स्थापित हो गया, जिसके कारण रेग्यूलेटिंग एक्ट का एक बहुत बड़ा दोष भी दूर हो गया। इल्बर्ट ने लिखा है कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री पिट ने कम्पनी के संविधान में परिवर्तन किए बिना ही, कम्पनी पर ब्रिटिश सरकार का वास्तविक नियंत्रण स्थापित कर दिया।
(2) स्वामी मण्डल की शक्तियों पर आघात-
इस एक्ट द्वारा स्वामी मण्डल को शक्तिहीन बना दिया गया। वह भारत के सैनिक तथा असैनिक मालमों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। वह संचालकों के किसी ऐसे निर्णय का, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने स्वीकृति दे दी हो, नहीं बदल सकता था।
(3) कम्पनी के भारतीय प्रदेशों का एकीककरण का प्रयास-
इस एक्ट ने कुशल प्रशासन तथा कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के एकीकरण के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल के हाथों में समस्त शक्तियों को केन्द्रित कर दिया। प्रादेशिक सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। इस एक्ट की धारा 31 में स्पष्ट कहा गया था कि यदि प्रादेशिक सरकारें आज्ञाओं का उल्लंघन करेंगी, तो गवर्नर जनरल उन्हें निलम्बित कर सकेगा। इस प्रकार, इस नई नीति से कम्पनी के भारतीय प्रशासन में बहुमूल्य सुधार हुआ और एकीकरण की नीति को प्रोत्साहन मिला।
(4) भारतीय शासन में सुधार-
लायल ने लिखा है कि पिट्स इण्डिया एक्ट ने भारत सरकार की कार्यप्रणाली में आवश्यक तथा महत्त्वपूर्ण सुधार किए। कौंसिल के सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर 3 कर देने से गवर्नर जनरल और गवर्नरों की स्थिति दृढ़ हो गई। अब वे कार्यपालिका के वास्तविक प्रधान बन गए। उनके लिए अपनी कौंसिल पर नियंत्रण बनाए रखना आसान हो गाय। परिणामस्वरूप शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई।
(5) गवर्नर जनरल की स्थिति का सुदृढ़ होना-
गवर्नर जनरल के पद का महत्त्व पहले से अधिक बढ़ गया, क्योंकि उसका इंग्लैण्ड के मंत्रिमण्डल के साथ घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित कर दिया। इससे ने केवल उसकी स्थिति ही सुदृढ़ हुई, अपितु उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।
(6) अहस्तक्षेप की नीति का उद्घाटन-
इस एक्ट द्वारा भारतीय राजाओं के प्रति एक नई नीति अपनाई गई। धारा 34 के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारत में साम्राज्य विस्तार की नीति ब्रिटिश राष्ट्र के नीति, सम्मान और इच्छा के विरूद्ध है। अतः गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् संचालकों या गुप्त समिति की आज्ञा के बिना भारतीय राजाओं से युद्ध नहीं कर सकते थे। प्रादेशिक सरकारों पर भी इसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाया गया। भारत सरकार ने इस नीति का दृढ़ता से पालन किया। अहस्तक्षेप की नीति से भारतीय राजनीति में एक नये युग का आरम्भ हुआ और 1765 ई. जब अंग्रेजों के मित्र हैदराबाद के निजाम को मराठों ने खरदा के युद्ध में पराजित किया, तो अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की। परिणामस्वरूप उन्हें काफी हानि भी उठानी पड़ी।
(7) सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना-
भारत में अंग्रेजों द्वारा किए गए अपराधों की सुनवाई करने के लिए इंग्लैण्ड में एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गई। यह निश्चित रूप से एक अच्छा सुधार था।
(8) उपहारों को लेने की मनाही-
भारतीयों के दृष्टिकोण से यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण था कि इसके द्वारा कम्पनी के पदाधिकारियों के लिए उपहार आदि लेना अपराध घोषित कर दिया गया और इस नियम की अवहेलना करने वालों के लिए कठोर दण्ड निश्चित किए गए।
(9) इंग्लैण्ड में कम्पनी का दोहरा शासन-
इस एक्ट के अनुसार कम्पनी के शासन पर दोहरा नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। कम्पनी के राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का था तथा व्यापारिक कार्यों पर संचालकों का था। यद्यपि यह व्यवस्था त्रुटिपूर्ण थी, तथापि 1858 ई. तक कम्पनी के भारतीय प्रशासन की आधारशिला बनी रही। एस.आर. शर्मा के शब्दो में, इस शासन पद्धति को 70 वर्ष से अधिक समय तक प्रचलित रहने का श्रेय अंग्रेज जाति की चारित्रिक उदारता को दिया जा सकता है, जिसने पद्धति के दोनों पक्षों को मिलकर काम करने में अधिक सहायता दी।
(10) 1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार-
यह एक्ट 1858 ई. तक भारतीय संविधान का आधार बना रहा। इल्बर्ट ने लिखा है कि, एक्ट के द्वारा जो नियंत्रणों की पद्धति कायम हुई, चाहे उसको कुछ बाद में सुधार भी किया गया है, परन्तु वह किसी न किसी रूप में 1858 ई. तक चलती रही।
पिट् के जीवन चरित के लेखक श्री जे. हॉलैण्ड ने इस एक्ट का महत्त्व इन शब्दों में व्यकत् किया है, भारत में निरंकुश अधिकार रखते हुए भी नया वायसराय ब्रिटिश संवैधानिक मशीन का केवल एक अनुबन्ध मात्र था। शायद यह पिट की सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि उसने इस बात को समझ लिया कि शासन के प्राच्य और पाश्चात्य आदशों को किस प्रकार इस ढंग से मिलाया जाए कि जिससे बंगाल में तो कार्यवाही जोर-शोर से चल सके और स्वदेश में लोकप्रिय शासन की प्रगति पर आँच न आए। उसने भारत के वास्तविक शासक को उससे भी कहीं अधिक शक्तियाँ सोंपी, जितनी कि वारेन हेस्टिंग्स को प्राप्त थी, पर साथ ही उसने उन्हें राजा और पार्लियामेंट की इच्छा के अधिन कर दिया।
पिट्स इण्डिया एक्ट के अनुसार इंग्लैण्ड में द्वैध शासन की स्थापना -
पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा कम्पनी के कार्यों को दो भागों में विभक्त किया गया-प्रशासनिक तथा व्यापारिक। राजनीतिक व शासन सम्बन्धी कार्यों पर नियंत्रण रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 6 सदस्यों का एक बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल स्थापित किया, जबकि कम्पनी के व्यापारिक कार्यों का संचालकों के अधिकार में ही रहने दिया गया। कम्पनी के राजनीतिक और सैनिक कार्यों का संचालन डायरेक्टर करते थे, परन्तु उन्हें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के निर्देशों का पालन करना पड़ता था। इस प्रकार, लन्दन में भारतीय मालमों की देखभाल के लिए 1784 ई. में दोहरी शासन व्यवस्था की स्थापना की गई। इसी को कीथ ने आपस का निबटारा कहा है। यद्यिप द्वैध शासन व्यवस्था त्रुटिपूर्ण थी, तथापि 1858 ई. तक कम्पनी के प्रशासन का आधार बनी रही।
प्रो. स्पीयर के शब्दों में, यह शासन पद्धति क्लाइव द्वारा स्थापित द्वैध शासन प्रणाली में भिन्न थी, क्योंकि इसमें दोनों शासकीय संस्थाओं की जिम्मेदारी निश्चित तथा स्पष्ट थी।
बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अधिक शक्तिशाली होना
इस शासन व्यवस्था में संचालक मण्डल की अपेक्षा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के पास प्रशासन सम्बन्धी शक्तियाँ बहुत व्यापक थीं। बोर्ड के पास यह शक्ति थी कि संचालकों के द्वारा नियुक्त किए हुए कम्पनी के किसी भी कर्मचारी को वापस बुला सके। इसका परिणाम यह हुआ कि संचालक सिर्फ ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करते थे, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल चाहता था। बोर्ड ने कई बार इस शक्ति का प्रयोग भी किया। इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का विवरण देना उपयोगी होगा। 1784 ई. संचालक मण्डल ने हालैण्ड को फोर्ट-सेण्ट जार्ज की सरकार का अध्यक्ष नियुक्त किया, परन्तु बोर्ड के अध्यक्ष डुण्डास ने इस नियुक्ति का विरोध किया। संचालक अपनी की हुई नियुक्ति पर अड़ गए और उन्होंने बोर्ड के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध किया। बोर्ड के अध्यक्ष श्री डुण्डास ने संचालकों की इस बात को स्वीकार किया कि कानूनी दृष्टिकोण से उसे इन मामलों में हस्तक्षेप का अधीकार नहीं परन्तु उसने हालैण्ड को यह बात स्पष्ट कर दी कि वह ज्यों ही भारत पहुँचेगा, त्यों हीं उसे वापस बुला लिया जाएगा। परिणामस्वरूप संचालकों को हालैण्ड के स्थान पर डुण्डास के एक मित्र को नियुक्त करना पड़ा। 1806 में भी ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हो गई थी और अन्त में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष ने संचालकों द्वारा नियुक्त किए गए जार्ज बारलो को वापस इंग्लैण्ड बुला लिया। संक्षेप में, संचालक मण्डल किसी भी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त नहीं कर सकते थे, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल न चाहता हो। इस प्रकार व्यावहारिक रूप में बोर्ड का अधिकारियों की नियुक्ति में भी काफी हाथ था।
संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त संचालकों द्वारा जो आदेश कम्पनी के अधिकारियों को दिए जाते थे, उनको तब्दील करने और अपनी इच्छानुसार आदेश जारी करने का अधिकार बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल को था। बोर्ड को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक प्रशासन को निर्देंशन तथा नियंत्रण का अधिकार दिया गया था। इसलिए वह संचालक मण्डल द्वारा दिए जाने वाले आदेशों की जाँच-पड़ताल कर सकता था। एक्ट में यह भी व्यवस्था की गई कि संचालक जो भी संदेश और आदेश भारत भेजे, उनकी स्वीकृति बोर्ड ऑफ कंट्रोल से 15 दिन के अन्दर प्राप्त करना आवश्यक था। इस तरह से संचालकों को भारत से होने वाले पत्र-व्यवहार बोर्ड ऑफ कंट्रोल का नियंत्रण स्थापित हो गया। संचालकों का चेयरमैन अपनी सुविधा के लिए आदेशों को तैयार करने से पूर्व उन पर बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष की राय जान लेना था। यद्यपि आदेशों और निर्देशों को तैयार करने की शक्ति संचालकों के हाथ में थी, तथापि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष उनमें अपनी इच्छानुसार किसी प्रकार का संशोधन कर सकता था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल संचालकों की इच्छा के विरूद्ध भी किसी प्रकार की तब्दीली भारत में भेजे जाने वाले आदेशों में कर सकता था। इसीलिए के.वी. पुन्निया ने लिखा है, नियंत्रण मण्डल के पास संशोधन करने की शक्ति इतनी व्यापक थी कि कई बार उसके द्वारा संशोधित पत्र वे अर्थ देने लगते थे, जो संचालकों द्वारा मौलिक रूप में प्रस्तुत किए गए पत्रों के अर्थों से सर्वथा भिन्न होते थे। अत्यावश्यक मामलों में बोर्ड की शक्तियाँ और भी अधिक थीं। वह संचालकों को विशेष प्रकार का प्रलेख तैयार करने के लिए आदेश दे सकता था। उनके इन्कार करने पर वह स्वयं प्रलेख तैयार कर सकता था और उसको भारत भेजने के लिए संचालकों को आदेश दे सकता था। अपने आदेशों का संचालकों से पालन कराने के लिए बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ब्रिटिश न्यायालय से भी लेख जारी करवा सकता था। बोर्ड की इस शक्ति से परिचित होने के कारण संचालक मण्डल के सदस्य साधारणतया उसकी इच्छा के विरूद्ध चलने का साहस नहीं करते थे।
इस प्रकार संचालक मण्डल के लिए बोर्ड ऑफ कंट्रोल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य हो गया था। बोर्ड को कम्पनी के सैनिक तथा असैनिक शासन प्रबन्ध के अधीक्षण, निर्देंशन तथा नियंत्रण का अधिकार भी दिया गया था। संचालन मण्डल सिर्फ उसी व्यक्ति को गवर्नर जनरल के पद पर नियुक्त करता था, जिसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल चाहता था। अतः वह स्वाभाविक था कि भारत के गवर्नर जनरल संचालकों के आदेशों की अपेक्षा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के आदेशों को अधिक महत्त्व देते थे और कई बार संचालक मण्डल के आदेशों की अवहेलना करते हुए भी बोर्ड के आदेशों का पालन करते थे। धीरे-धीरे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने पहले की अपेक्षा अधिक शक्ति प्राप्त कर ली। उसका भारतीय प्रशासन पर इतना प्रभाव बढ़ गया कि उसकी गुप्त समिति की सहायता से एक के बाद एक गवर्नर जनरल भारत में सचालकों की इच्छा के प्रतिकूल भी भारतीय रियायतों के प्रति आक्रमणात्मक नीति अपनाते रहे।
उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्यों-ज्यो समय बीतता गया, त्यों-त्यों कम्पनी के शासन पर बोर्ड का प्रभाव बढ़ता गया और संचालक मण्डल का प्रभाव कम होता गया। संचालक मण्डल के अध्यक्ष हैनरी जॉर्ज टक्कर ने 1838 में ड्यूक ऑफ वेलिंगटन के नाम लिखे हुए एक पत्र में संचालकों की दुर्दशा के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे, अब भी मैं बड़े कष्ट के साथ यह अनुभव करता हूँ कि हम डूबते जा रहे हैं। हमारा वजन और प्रभाव पिछले दिनों कम हुआ है और कम होता जा रहा है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे संचालकों के अधिकार कम होते गए। पुन्निया के शब्दों में, इस अनुभूति के कारण कि वे कष्ट में हैं, निदेशक समिति अपने वैध अधिकारों का भी पूरा प्रयोग करने की इच्छुक नहीं रहीं होगी, जबकि नियंत्रण बोर्ड का अध्यक्ष अपनी शक्तियों का प्रयोग पहले की अपेक्षा भी अधिक उत्साह के साथ करता होगा।
बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के इतना शक्तिशाली होने से हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि कम्पनी के शासन पर संचालक मण्डल का प्रभाव बहुत क्षीण हो गया था। संचालक मण्डल अब भी गवर्नर जनरल तथा बोर्ड के बीच पत्र-व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण साधन था। भारत भेजे जाने वाले सब पत्र और आदेश या तो उसकी या उसकी गुप्त समिति के द्वारा भेजे जाते थे। बोर्ड भारतीय मामलों के सम्बन्ध में संचालकों के परामर्श को बड़ा महत्त्व देता था, क्योंकि वे कम्पनी के शासन कार्य में बहुत अनुभवी होते थे। इसके अतिरिक्त शासक का बहुत सारा कामकाज व्यावहारिक रूप से उनके द्वारा होता था। इसलिए भी उनका शासन पर प्रभाव होना स्वाभाविक था। श्री ए.बी. कीथ लिखते हैं कि, यद्यपि द्वैध शासन व्यवस्था में संचालक मण्डल सैद्धान्तिक रूप से भारतीय प्रशासन से पृथक् था, तथापि उसका इसके संचालक पर काफी प्रभाव था। बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष हैनरी जार्ज टक्कर के शब्दों में, यह सत्य है कि आपने भारतीय प्रशासन का नियंत्रण राष्ट्रीय सरकार को सौंप दिया है लेकिन इस पर भी हमारी ऐसी स्थिति है कि हम इस पर अपना प्रभाव डाल सकते हैं।
संचालकों के पास कर्मचारियों को नियुक्त करने का महत्त्वपूर्ण अधिकार भी था। भारत में गवर्नर जनरल से लेकर छोटे से छोटे कर्मचारी उनके द्वारा नियुक्त किए जाते थे। इससे उनका प्रभाव, प्रतिष्ठा और गौरव और भी बढ़ जाता था। निस्सन्देह बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल संचालकों द्वारा नियुक्त किए गए लोगों को भारतवर्ष से वापस बुला सकता था, लेकिन इससे संचालक मण्डल का महत्त्व कम नहीं होता था। प्रथम तो इसलिए कि पदाधिकारीयों को बारत से बार-बार बुलना सम्भव नहीं था। दूसरे, ऐसा करना प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी अनुचित था। अतः बोर्ड ऑफ कंट्रोल व्यवहार में उस शक्ति का प्रयोग कुछ विशेष मामलों में ही करता था। इस प्रकार, संचालक मण्डल कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए पूर्णतः स्वतंत्र था। दैनिक मामलों में कम्पनी के भारतीय कर्मचारियों को हटाने की शक्ति संचालकों के पास ही थी। प्रो. स्पीयर लिखते हैं कि संचालकों की दृष्टि में कर्मचारियों की नियुक्ति का अधिकार इतना महत्त्वपूर्ण था कि उन्होंने अपनी राजनीतिक शक्तियों का बलिदान करके भी इसे अपने पास बनाए रखना उचित समझा। इसके अतिरिक्त संचालकों को अपनी इच्छा के विरूद्ध बोर्ड ऑफ कंट्रोल द्रारा नियुक्ति कए गए व्यक्तियों को भारत से वापस बुला लेने का भी अधिकार था। इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का उल्लेख करना उपयोगी होगा। सन् 1825 ई. में संचालकों ने लार्ड एम्हर्स्ट को बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की इच्छा के विरूद्ध भारत से वापस बुलाने की धमकी दी और 1844 ई. में एलबरो को वापस बुला लिया। कम्पनी के संचालकों के अधीन हजारों अनुभवी अधिकारी काम करते थे और कम्पनी के कार्यालय, ईश्ट इण्डिया हाऊस के सभी रिकार्ड उनके अधिकार में थेे। अतः भारत के शासन सम्बन्धी नई योजनाएँ बोर्ड की अपेक्षा वे अधिक सुगमता तथा योग्यता से तैयार कर सकते थे। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की दिलचस्पी साधारयता भारती अधिकारियों की विदेशी नीति निर्धारित करने तथा राजनीतिक मामलों को सुलझाने में होती थी, जिसके कारण संचालकों को कम्पनी के आन्तरिक शासन कार्य में महत्त्वपूर्ण भाग लेने का अवसल मिल जाता था। संचालकों को यह भी अधिकार था कि वे दूषित प्रशासन के उदाहरणों को जनता के सम्मुख खोलकर रख सके। संचालक मण्डल के अध्यक्ष श्री टक्कर के शब्दों में, जब तक इस समिति में स्वतंत्र और प्रतिष्ठित व्यक्ति रहेंगे, तब तक वे न केवल अपने ज्ञान और अनुभव द्वारा सरकार की मशीन को उचित निर्देश देने में सहायता दे सकते हैं, अपितु वे किसी बेईमान सरकार की मनमानी की रोकथाम करने में भी बड़ा स्वस्थ प्रभाव डाल सकते हैं।
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि संचालक मण्डल का कम्पनी के मामलों पर अब भी काफी प्रभाव था। इसके अतिरिक्त व्यापारिक मामलों में संचालकों के हाथ में पूर्ण शक्ति थी। इसलिए यह कह सकते हैं कि बोर्ड ऑफ कंट्रोल की सर्वोच्चता के होते हुए भी संचालकों के हाथ में काफी शक्तियाँ रह गई थीं। सन् 1918 की संवैधानिक रिपोर्ट का उल्लेख करने वालों ने इस द्वैध शासन व्यवस्था का मूल्यांकन इन शब्दों में किया थाष हमें वह परिणाम नहीं निकालना चाहिए कि नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष के सर्वाधिक महत्त्व ने संचालकों के हाथों में कोई वास्तविक नियंत्रण नहीं दिया था। वे अब भी शक्ति सम्पन्न थे। उनके पास अब भी कार्य को आरम्भ करने का अधिकार था। वे ब्रिटिश सरकार के पास भारतीय मामलों के सम्बन्ध में जानने के लिए ज्ञान का भण्डार थे। शासन की जिम्मेदारी बेशक मण्डल के कन्धों पर थी, लेकिन उसकी कार्य-विधि पर संचालकों का प्रभाव अवश्य था।
इस सब बातों के होते हुए भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने संचालक मण्डल को शनैः शनैः उसकी शक्तियों से वंचित कर दिया। पुन्निया के शब्दों में, ज्यों-ज्यों इस शताब्दी के वर्ष बीतते गए, त्यों-त्यों उनसे एक के बाद एक शक्ति छिनती गई।
द्वैध शासन व्यवस्था की समीक्षा पिट्स इण्डिया एक्ट द्वारा स्थापित द्वैध शासन व्यवस्था मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण थी। उसका अधिक तक सुचारू रूप से कार्य करना कठिन था। इसका जन्मदाता पिट भी सव्यं उसकी त्रुटियों को भली-भाँति जानता था।उसने बिल पस्तुत करते समय यह शब्द कहे, भारत जैसे विशाल तथा सुदूर देश के लिए मेरे या किसी अन्य व्यक्ति के लिए एक त्रुटि-रहित शासन पद्धति की व्यवस्था करना असम्भव है। मि फॉक्स ने भी अनेक सबल तर्कों के आधार पर इस शासन व्यवस्था की बड़े प्रभावशाली शब्दों में निन्दा की थी। इस व्यवस्था के मुख्य-मुख्य गुणों तथा अवगुणों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
द्वैध शासन व्यवस्था के दोष -
द्वैध शासन व्यवस्था के प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(1) इस द्वैध शासन व्यवस्था की प्रथम त्रुटि यह थी कि यह प्रणाली अस्वस्थ सिद्धान्तों पर आधिरत थी। इसके अतिरिक्त बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दो ऐसे शासकीय संगठन थे, जो परस्पर हितों के विरोधी होने के कारण सुचारू रूप से काम नहीं कर सकते थे। अतः वे मतभेद होने की अवस्था में प्रायः षड्यन्त्र रचते थे, जो कि शासन प्रबन्ध की कुशलता तथा सुदृढ़ता के लिए घातक सिद्ध होते थे।
(2) इस शासन व्यवस्था की दूसरी त्रुटि यह थीकि इसमें बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से निश्चित नहीं थीं। इसलिए इनमें झगड़ा होना स्वाभाविक था। चूँकि इस एक्ट के किसी मामले के लिए जिम्मेदारी निश्चित करना कठिन था, अतः इससे गैर-जिम्मेदारी की भावना उत्पन्न हुई। परिणामस्वरूप सरकार की एकता नष्ट हो गई। 1853 ई. में लार्ड डिजरैली ने शासन की इस त्रुटि की ओर संकेत करते हुए कहा था, मेरी समझ में नहीं आता कि भारत जैसे विशाल साम्राज्य का वास्तविक शासन कौहन है और किसको इस शासन के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।
(3) इस दोहरी शासन व्यवस्था की तीसरी त्रुटि यह थी कि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल भारतीय शासन के सम्बन्ध में नीति तो निर्धारित करता था, परन्तु उसको लागू करने के लिए पदाधिकारी नियुक्त करना संचालक मण्डल का काम था। अतः संचालक जिन बातों को नहीं चाहता था, उसको लागू करने में बहाने कर विलम्ब कर सकता था। प्रो. एस.आर. शर्मा के शब्दों में, यदि कानून का अक्षरशः पालन किया जाता, इंग्लैण्ड स्थिति नियंत्रण मण्डल तथा संचालक मण्डल में भारतीय मामलों के नियंत्रण के सम्बन्ध में अनेक कठिनाइयाँ उतपन्न होतीं और शीघ्र ही दोहरी शासन प्रणाली का पतन हो जाता। परन्तु सौभाग्य से ये दोनों अंग अपना-अपना कार्य इस प्रकार करते रहे कि त्रुटिपूर्ण होने परभी यह पद्धति 1858 ई. तक कम्पनी के भारतीय प्रशासन का आधार बनी रही।
(4) चौथी त्रुटि यह थी कि इसमें देरी होने की बहुत सम्भावना थी। प्रत्येक कार्य सम्पन्न होने में आवश्यकता से अधिक समय लग जाता था। जब कोई भी आदेश-पत्र भारत में भेजना होता था, तो उसको पहले संचालक मण्डल तैयार करता था। पिर उसे बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष की सहमति के लिए प्रस्तुत किए जाता था। वहाँ पर उस पर विचार करने और संशोधित करने में कई दिन लग जाते थे। फिर वह संचालक मण्डल के पास भेजा जाता था। इस संशोधित पत्र के अनुसार संचालक मण्डल फिर एक नया प्रलेख तैयार करता था। इस तरह किसी काम को निपटाने में महीनों लग जाते थे। साधारणता भारत सरकार द्वारा लन्दन भेजे गये पत्र का उत्तर दो वर्ष के बाद प्राप्त होता था। इस असाधरण विलम्ब के लिए प्रशासन की इस त्रुटि पर प्रकाश डालते हुए कहा था, लन्दन से भारत को भेज जाने वाले प्रत्येक महत्त्वपूर्ण आदेश-पत्र को मण्डल के कार्यालय कैनन रो और संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाउस के बीच कई बार उधर से इधर और इधर से उधर आना-जाना पड़ता था। कार्य-विधि के चक्कर में उसे काफी देर लग जाती थी।
इस अनावश्यक तथा असाधारण देरी के कारण जब भारत सरकार को महीनों तक किसी मामले पर निर्देश प्राप्त नहीं होते थे, तो उसको विभिन्न शासकीय कठिनाइयों को समाना करना पड़ता था और अत्यावश्यक मामलों को भारत सरकार अपनी इच्छानुसार मजबूर होकर निपटा देती थी। परिणामस्वरूप बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल की ओर सेबाद में पहुँचने वाले आदेश-पत्र निरर्थक हो जाते थे। एस.आर.शर्मा के शब्दों में, इंग्लैण्ड से भारतीय मामलों का संचालक बहुत बार मरणोत्तर जाँच जैसा होता था।
(5) इस शासन व्यवस्था में कम्पनी के भारतीय प्रशासन पर ब्रिटिश पार्लियामेंट का प्रभावशाली नियंत्रण नहीं था, क्योंकि बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को भारत सरकार के खर्चे और आमदनी के वार्षिक हिसाब को पार्लियामेन्ट में रखना नहीं पड़ता था।
(6) इस शासन व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण दोष यह भी था कि गवर्नर जनरल को वापस बुलाने की शक्ति बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल दोनों के पास थी। कई बार दोनों गवर्नर जनरल से अपनी-अपनी परस्पर विरोधी बातों के अनुसार कार्य करने के लिए दबाव डालते थे। इसलिए गवर्नर जनरल को विचित्र कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। वैसे भी उसके लिए दोनों स्वामियों को सन्तुष्ट तथा प्रसन्न रखना कठिन कार्य था। इससे भारतीय शासन में अदक्षता उत्पन्न होती थी।
(7) द्वैध शासन व्यवस्था 1784 ई. से 1858 ई. तक प्रचलित रही। इस दीर्घकाल में सिर्फ अफगान युद्ध के मामले को लेकर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल तथा संचालक मण्डल में मतभेद हुआ था। अधिकांश छगड़े उच्च पदाथिकारियों की नियुक्ति, उसको पदोन्नति देने अथवा व्यक्तिगत मतभेद के कारण होते रहे। 1786 ई. में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल ने कम्पनी के खर्चे पर चार ब्रिटिश रेजीमेण्ट भारत भेजी। इस प्रश्न को लेकर बोर्ड और संचालक मण्डल के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। संचालकों ने बोर्ड के इस पग का विरोध किया, क्योंकि उनके मतानुसार बोर्ड को ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था। वह विवाद दो वर्ष तक चलता रहा। अन्त में पिटने 1788 में एक बिल पेश किया, जिसके द्वारा बोर्ड को इस सम्बन्ध में सर्वोच्च अधिकार दे दिए गए।
द्वैध शासन व्यवस्था के गुण -
यद्यपि द्वैध शासन व्यवस्था में अनेक दोष विद्यमान थे, तथापि वह अनेक गुणों के कारण 1858 ई. तक कम्पनी के शासन का आधार बनी रही। इस व्यवस्था की प्रथम विशेषता यह थी कि कम्पनी का व्यापारिक प्रबन्ध तथा पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार संचालक मण्डल के पास था। अतः संचालक भी इस अधिकारों से सन्तुष्ट थे। इसके अतिरिक्त भारत का प्रशान संचालकों के हातों मे ही रहने दिया गया, परन्तु बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का उन पर अन्तिम नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। मि. पिट ने इस व्यवस्था के सम्बन्ध में यह शब्द कहे थे, इस नई शासन प्रणाली की व्यवस्था करने में न तो कम्पनी के अधिकार-पत्र में हस्तक्षेप किया गया है और नही उसे भारतीय प्रदेशों के वंचित किया गया है। केवल कम्पनी के संविधान में इस प्रकार के परिवर्तन किए गए हैं, जिनसे वह राष्ट्रीय हितों की उचित ढंग से सेवा कर सके।
1786 का अानिियम -
रेल्गूलेटिंग एक्ट का एक प्रमुख दोष यह था कि गवर्नर जनरल अपनी कौंसिल को समक्ष असहाय था। इस दोष को दूर करने के लिए 1786 ई. तक कोई कदम नहीं उठाया गया। जब लार्ड कार्नवालिस वारेन हेस्टिंग्स के स्थान पर गर्वनर जनरल बना, तब उसने गर्वनर जनरल के पद को स्वीकार करने के लिए अपनी एक शर्त रखी कि गवर्नर जनरल को कौंसिल के निर्णय पर वीटो लगाने और विशेष परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार अपनी इच्छापूर्वक काम करने का अधिकार दिया जाए। 1786 ई. में 1784 एक्ट का संशोधन कर दिया गया और लार्ड कार्नवालिस को निषेधाधिकार प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त उसे कौंसिल की इच्छा के विरूद्ध निर्णय लेने का अधिकार भी दिया गया।
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