1784 ई. में पिट्स इण्डिया के द्वारा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की स्थापना हुई थी। उसके द्वारा कम्पनी के प्रशासन पर नियंत्रण स्थापित हो चुका था। परन्तु ब्रिटिश सरकार इससे पूर्णतया सन्तुष्ट नहीं थी। अतः आगामी 70 वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने कम्पनी के प्रशासन पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया। अपनी इस नीति के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने 1857 से 1853 के बीच चार चार्टन एक्ट्स पारित किए, जिससे कम्पनी की शक्तियाँ कम होती गईं और भारत में एक शासकीय पद्धति का विकास हुआ।
1. 1793 का चार्टर एक्ट -
लार्ड कार्नवालिस के शासन काल के अन्तिम दिनों में संसद ने 1793 का चार्टर एक्ट पारित किया। इस एक्ट की धाराएँ संख्या में बहुत अधिक थीं, परन्तु इसके द्वारा कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए। कीथ ने लिखा है कि यह एक्ट संगठन की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पग था, जिसमे पूर्वगामी एक्टों की बहुत-सी धाराओं को सम्मिलित किया गया था। डॉ. बनर्जी ने कहा कि, "दृढ़ भूतिकरण की संविधि द्वारा कोई बड़ा संवैधानिक परिवर्तन नहीं लाया गया।
एक्ट के पास होने के कारण-
1773 ई. में कम्पनी को बीस वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने की आज्ञा दी गई थी। यह समय 1793 ई. मे समाप्त हो गया। अतः कम्पनी के अधिकारियों ने चार्टर एक्ट के नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की। कम्पनी के सौभाग्य से उस समय सारे राष्ट्र की रूचि फ्रांस के साथ हो रहे युद्ध में थी। अतः इंग्लैण्ड के कुछ ही नगरों के व्यापारियों ने यह माँग कि भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता सबको दी जाए, लेकिन बोर्ड ऑफ कण्ड्रोल का अध्यक्ष तथा पिट कम्पनी के पक्ष में थे, इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने बिना किसी विशेष आनाकानी के 1793 के एक्ट पारित कर कम्पनी के चार्टर का बीस वर्ष के लिए नवीनीकरण कर दिया। पिट के शब्दों में, यह एक्ट इतनी शान्ति के पास हुआ कि उसका उदाहरण संसद के इतिहास में उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि समाचार-पत्रों में भी इस एक्ट को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। कीथ के शब्दों में, यह सारतः एक संघटित करने वाली कार्यवाही थी और इसमें जोर परिवर्तन हुए थे, उसका असर तफसील की बातों पर पड़ता था। डॉ. बनर्जी ने भी कहा है कि, इस संघटन के अधिनियम (स्टेच्यूट) द्वारा कोई संवैधानिक परिवर्तन नहीं किया गया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ -
(1) इस एक्ट द्वारा कम्पनी को 20 वर्ष के लिए दुबारा पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया।
(2) इस अधिकार-पत्र के द्वारा कम्पनी के आर्थिक ढाँचे को नियमित किया गया। वह अनुमान लगाया गया कि कम्पनी को प्रतिवर्ष 12,39,241 पौण्ड की बचत होगी। इस वार्षिक बचत में से पाँच लाख पौण्ड तो कम्पनी के ऋणों को चुकाने के लिए दिए जाएँगे और पाँच लाख पौण्ड का उपयोग लाभांश को 8 से 10 प्रतिशत करने के लिए किया जाएगा। लेकिन जी.एन. सिंह के शब्दों में, यह कल्पित बचत कभी फलीभूत नहीं हुई और हालाँकि अंशधारियों को यह लाभ हो गया कि लाभांश 8 से 10 प्रतिशत कर दिया गया, किन्तु ब्रिटेन को अपने हिस्से के पाँच लाख पौण्ड प्रतिवर्ष कभी प्राप्त नहीं हुए।
(3) नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों और कर्मचारियों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। इस प्रथा के कई दुष्परिणाम निकले परन्तु यह प्रथा 1919 के अधिनियम के लागू होने तक जारी रही।
(4) प्रत्येक प्रान्त का शासन एक गवर्नर और तीन सदस्यों की कौंसिल को सौंप दिया गया। प्रान्तीय कौंसिल के सदस्य केवल वही व्यक्ति हो सकते थे, जिन्हें नियुक्ति के समय कम्पनी के कर्मचारी के रूप में काम करते हुए भारत में कम से कम बारह वर्ष हो गए हों।
(5) गवर्नर जनरल तथा गवर्नर को अपनी कौंसिल के उन निर्णयों की उपेक्षा करने का अधिकार दिया गया, जिनसे भारत में शान्ति-व्यवस्था, सुरक्षा तथा अंग्रेजी प्रदेशों के हितों पर किसी प्रकार का भी प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो। उन्हें न्याय, विधि तथा कर सम्बन्धी मामलों में कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था।
(6) प्रधान सेनापति किसी भी कौंसिल का सदस्य नहीं होता, जब तक उसको विशेष रूप से संचालकों द्वारा सदस्य नियुक्त न किया जाए। इससे पूर्व प्रधान सेनापति के लिए कौंसिल का सदस्य होना जरूरी था।
(7) सपरिषद् गवर्नर जनरल को प्रान्तीय सरकारों के सैनिक तथा असैनिक शासन प्रबन्ध, राजस्व संग्रह तथा भारतीय रियासतों के साथ युद्ध और सन्धि से सम्बन्धित मामलों पर नियंत्रण तथा निर्देशन का अधिकार दिया गया।
(8) गवर्नर जनरल, गवर्नर, प्रधान सेनापति तथा कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को भारत से बाहर जाने की छुट्टी नहीं मिल सकती थी, जब तक वे अपने पद पर कार्य करेंगे। यदि कोई अधिकाबी बिना अनुमति लिए भारत से बाहर जाएगा, तो उसका त्याग-पत्र समझा जाएगा।
(9) यह व्यवस्था की गई कि जब गवर्नर जनरल किसी प्रान्त का दौरा करेगा, तो उस समय प्रान्तयी शासन प्रबनध गवर्नर के स्थान पर गवर्नर जनरल के हाथों में होगा। गवर्नर जनरल बंगाल में अपने अनुपस्थिति के समय का काम चलाने के लिए किसी भी कौंसिल के सदस्य को अपनी कौंसिल का उपाध्यक्ष नियुक्त कर देगा।
(10) कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय का नौसैनिक क्षेत्राधिकार बढ़ाकर खुले समुद्रों तक कर दिया गया।
(11) इस अधिनियम में यह बात फिर दुहराई गई कि भारत में कम्पनी द्वारा राज्य विस्तार करना और विजय की योजनाओं चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, प्रतिष्ठा और उसके मान के विरूद्ध है। परन्तु जैसाकि जी.एन.सिंह ने लिखा है, परिस्थितियों के दबाव के कारण और मौके पर काम कर रहे व्यक्तियों की महत्त्वकांक्षाओ के कारण वास्तविक व्यवहार में इससे ठीक उल्टी ही नीति अपनाई गई।
(12) यह व्यवस्था की गई कि नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के लिए प्रिवी कौंसिलर होना आवश्यक नहीं था।
(13) गवर्नर जनरल, गवर्नरों और प्रधान सेनापति की नियुक्ति के लिए इंग्लैण्ड के सम्राट की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई।
(14) कम्पनी के कर्मचारियों के सम्बन्ध में ज्येष्ठता के सिद्धान्त का कठरोता से पालन किया जाएगा। दूसरे शब्दों में, यदि गवर्नर जनरल या गवर्नर का पद रिक्त हो जाए, तो उस पद पर स्थायी नियुक्ति होने तक परिषद् के सदस्यों में सबसे ऊँचे ओहदे वाला सदस्य (प्रधान सेनापति के सिवाय) उस पद पर काम करेगा।
(15) शराब बेचने वालों के लिए लाइसैन्स आवश्यक कर दिया गया।
(16) सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रेसीडेन्सी (बम्बई या मद्रास) के नागरिक सेवा के किसी भी सदस्य को शान्ति के न्यायाधीश नामक न्यायाधिकारी नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त किया गया। ये अधिकार कम्पनी के सम्मति-पत्रित कर्मचारियों में से नियुक्त किए जाने थे। (17) उपहार आदि लेना दुराचरण तथा अपराध घोषित किया गया और इसके लिएं दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(18) कम्पनी के असैनिक कर्मचारियों को पदोन्नति देने के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।
(19) गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को प्रेसीडेन्सी नगरों में सड़कों की सफाई, देख-रेख और मराम्मत करने के लिए मेहतरों की नियुक्ति करने का अधिकार दिया गया। वे इन बस्तियों में स्वच्छता कर उप-शुल्क लगाकर इस कार्य के लिए आवश्यक घन भी प्राप्त कर सकते थे।
(20) कम्पनी को 20 वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया था, परन्तु साथ ही निजी व्यापार के लिए तीन हजार टन का माल व्यापार करने की अनुमति दे दी गई थी। परन्तु इस अधिकार के प्रयोग में अनेक प्रतिबन्ध थे। अतः इसका कभी भी प्रयोग नहीं किया गया।
एक्ट का महत्त्व -
इस एक्ट का कोई संवैधानिक महत्त्व नहीं था। इसके द्वारा भारतीय शासन व्यवस्था में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था। फिर भी, भारतीय संविधान पर इसका प्रभाव बहुत लम्बी अवधि तक रहा। इस चार्टर की मुख्य विशेषता यह थी कि इसके द्वारा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्यों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। यह गन्दी प्रथा 1919 का एक्ट पास होने तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप भारत को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। जी.एन.सिंह ने लिखा है कि इस चार्टर के साथ यह बुरी रूढ़ि स्थापित हुई, जो 1919 ई. तक अपने बुरे परिणामों के साथ चलती रही।
पी.ई. रॉबर्टस् ने इस चार्टर एक्ट के सम्बन्ध में लिखा है, संयोग देखिए कि इधर कार्नवालिस कम्पनी की सेवा से निवृत हुआ और उधर कम्पनी के राजपत्र के नवीनीकरण की तिथि आ पहुँची। यह यह तिथि इस समय से एकवर्ष पहले उपस्थित हुई होती, तो कम्पनी को सचमुच एक भयंकर समस्या का सामना करना पड़ता, क्योंकि उस समय जन-भावना कम्पनी के कुशासन एवं व्यावसायिक एकाधिकार के एकदम विरूद्ध थी, किन्तु अब स्थिति कुछ ओर थी। कार्नवालिस के सुधारों ने जनाक्रोश को ठण्डा कर दिया था। इसलिए जब लिवरपूल, बिस्टल, ग्लासगो, मैनचेस्टर, नार्विख, पेल्जे तथा एक्जीटर नामक महत्त्वपूर्ण नगरों के कम्पनी के भारत व्यापार में हिस्सा बँटाने की याचिका प्रस्तुत की, तो मंत्रिमण्डल ने कम्पनी के राजपत्र की अवधि 24 वर्ष और बढ़ा दी एवं निजी समुद्र व्यापारियों को केवल 3000 टन वार्षिक पोत परिवहन की अनुमति दी।
2. 1813 का चार्टर एक्ट -
1793 के चार्टर के बाद सन् 1813 में एक और एक्ट पास किया गया। यह एक्ट पहले चार्टर एक्ट की अपेक्षा में अधिक महत्त्वपूर्ण था। इस एक्ट से कम्पनी के एकाधिकार को आघात पहुँचा। इसमें भारतीयों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त इस एक्ट में कम्पनी के भारतीय प्रदेशों पर ब्रिटिश सम्राट की प्रभुसत्ता पर बल दिया गया।
एक्ट के पास होने के कारण -
1793 ई. के एक्ट के द्वारा कम्पनी को पूर्वी देशों (भारत एवं चीन आदि) के साथ व्यापार करने का एकाधिकार 20 वर्ष के लिए दिया गया था। यह अवधि 1813 ई. में समाप्त हो गई थी। अतः कम्पनी के संचालकों ने अधिकार-पत्र के नवीनीकरण के लिए संसद से प्रार्थना की। उस समय परिस्थिति बहुत बदल चुकी थी तथा अनेक नई समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं। निम्नलिखित कारणों से कम्पनी के व्यापारिक विशेषाधिकारों को जारी रख पाना सम्भव नहीं था।
(1) कम्पनी के एकाधिकार के विरोध का प्रथम कारण यह था कि 1808 ई. से फ्रान्स के शासक नेपोलियन ने ब्रिटिश व्यापार के लिए यूरोप महाद्वीप की नाकेबन्दी कर दी थी जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों के व्यापार को बहुत गहरा धक्का पहुँचा था। इसलिए अंग्रेज व्यापारियों ने कहा कि कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर सब देशवासियों को भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता दी जाए, ताकि नेपोलियन की महाद्वीपीय व्यवस्था से हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति हो सके।
(2) कम्पनी के दुर्भाग्य से उस समय ऐडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित व्यक्तिवादी सिद्धान्त इंग्लैण्ड में बहुत लोकप्रिय था। अतः वहाँ का व्यापारी वर्ग कम्पनी के एकाधिकार पर आक्रमण करने लगा। उसने यह माँग की कि पूर्वीं देशों से व्यापार करने का अधिकार केवल कम्पनी को ही नहीं होना चाहिए, बल्कि सारी ब्रिटिश प्रजा को होना चाहिए। इस प्रकार, व्यापारिक वर्ग ने सभी लोगों को स्वतंत्र व्यापार का अधिकार देने के लिए आन्दोलन चलाया। सरकार के लिए इस माँग की अवहेलना करना कठिन हो गया। लार्ड मैलविल्ले ने इन परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए ही सन् 1811 में संचलाक मण्डल को यह चेतावनी दी थी, यदि कम्पनी के कर्त्ता-धर्त्ता के व्यापारियों को भारत में व्यापार में भाग नहीं लेने देंगे, तो ब्रिटिश सरकार के लिए संसद के पास कम्पनी के पक्ष में सिफारिश करना असम्भव होगा। संक्षेप में, इंग्लैण्ड में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का प्रबल विरोध हो रहा था।
(3) ईसाई धर्म प्रचारकों ने पार्लियामेन्ट के अन्दर और बाहर यह आन्दोलन चलाया कि उन्हें भारत में धर्म प्रचार के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। विलम्बर फोर्स तथा कुछ अन्य लोगों ने भारत सरकार को प्रेरणा दी कि वह भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए सक्रिय कदम उठाए। कम्पनी के संचालक ईसाइयत के प्रचार के ईच्छुक नहीं थे। अतः उन्होंने इस सम्बन्ध में निम्मलिखित युक्तियाँ भी दीं-प्रथम, कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने पर उनके लिए भारतीय प्रशासन को कुशलतापूर्वक चलाना कठिन हो जाएगा। दूसरे, यदि सब अंग्रेजों को भारत के साथ व्यापार करने की खुली छुट दे दी गई तो ऐसे अंग्रेज वहाँ जाएँगे जिन्हें भारतीयों के रीति-रिवाजों का ज्ञान नहीं है। उनकी गतिविधियों से कम्पनी के लिए विभिन प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी। संचालकों की इन युक्तियों का समर्थन कर्नल मैल्कम, कर्नल मुनरो, वारेन हेस्टिंग्स, चार्ल्स ग्राण्ट जैसे कुछ व्यक्तियों ने भी किया, जो कि भारत में अपने जीवन का कुछ समय व्यतीत कर चुके थे।
(4) वेलेजली ने भारत में युद्ध और विजय की नीति का अनुसरण किया, जिसके कारण भारत में ब्रिटिश राज्य क्षेत्र का बहुत अधिक विस्तार हो गया था। कम्पनी एक व्यापारिक संस्था से अधिक राजनीतिक सम्प्रभु बन गई थी। अतः पार्लियामेन्ट का हस्तक्षेप आवश्यक हो गया था।
(5) लार्ड वेलेजली की युद्धि नीती के कारण कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत शोचनीय हो गई थी। वह कर्ज के बोझ से दब गई थी। अतः संसद ने 11 मार्च, 1808 ई. को कम्पनी के मामलों की जाँच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी नेआगामी पाँच वर्षों में पाँच रिपोर्टें पेश कीं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध पाँचवी रिपोर्ट थी। इल्बर्ट के शब्दों में, यह रिपोर्ट अब भी अपने समय की राजस्व, न्याय तथा पुलिस सम्बन्धी व्यवस्था के बारे में आदर्श प्रमाण है। इन रिपोर्टों के आधार पर ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने कम्पनी के मामलों में हस्तक्षेप किया और 1813 ई. का चार्टर एक्ट पास किया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ- इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं।
(1) इस एक्ट द्वारा ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को आगामी 20 वर्ष के लिए भारत के साथ व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई।
(2) कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सभी अंग्रेज व्यापारियों को भारत से व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई। परन्तु व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने के लिए लाइसेन्स और परमिट लेना जरूरी कर दिया गया। ये लाइसेन्स संचालक मण्डल से या उसके इन्कार करने पर नियंत्रण मण्डल से प्राप्त होते थे।
(3) इस एक्ट के अनुसार चाय का व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार का एकाधिकार कम्पनी के हाथों में ही सुरक्षित रहने दिया गया। यह सुविधा इसलिए दी गई थी, ताकि वह इ साधनों की आय से अपना भारतीय शासन प्रबन्ध आसानी से चला सके।
(4) भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए अनुमति दे दी गई और इसके लिए अधिकारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। इस एक्ट में कहा गया था कि, भारत में रहने वाले तथा वहाँ जाने वाले सभी लोगों को भारतीयों में उपयोगी ज्ञान, धर्म तथा नैतिक उत्थान के प्रचार का अधिकार होगा। इस तरह से भारत में ईसाई धर्म तथा पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के लिए यह पहला कदम था। परन्तु इस उद्देश्य को छुपाने के लिए एक्ट में यह कहा गया कि कम्पनी की नीति भारतीयों को अनपे धर्म का पूर्ण पालन करने की स्वतंत्रता देने की है।
(5) कम्पनी ने भारतीयों में शिक्षा प्रसार, उनके साहित्य का उत्थान और उनमें विज्ञान के प्रचार के लिए एक लाख प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की।
(6) कम्पनी को अपने व्यापारिक तथा शासन सम्बन्धी खातों को अलग-अलग रखने का आदेश दिया गया।
(7) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की शक्तियाँ निश्चित की गई और इसकी निगरानी तथा आदेश जारी करने की शक्तियों को और अधिक बढ़ा दिया गया। कम्पनी के मामलों में अन्तिम निर्णय ब्रिटिश सम्राट का माना जाएगा, परन्तु दीवानी प्रबन्ध कम्पनी के पास ही रखा गया।
(8) भारत में कम्पनी के प्रदेशों की स्थानीय सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में रहते हुए वहाँ की जनता पर टैक्स लगाने का अधिकार दिया गया और टैक्स न देने वालों के लिए दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(9) इस एक्ट में भारतीय राजस्व से वेतन पाने वाली ब्रिटिश सेना की संख्या 29,000 निश्चित की गई। इसके अतिरिक्त कम्पनी को यह शक्ति प्रदान की गई कि वह भारतीय सैनिकों के लिए कानून तथा नियम बना सके।
(10) जिन मुकदमों में एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ भारतीय थे, उनके निर्णय की विशेष व्यवस्था की गई। चोरी, जालसाजी तथा सिक्क बनाने वालों के लिए विशेष प्रकार का दण्ड देने हेतु नियम बनाए गए।
(11) गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापति और प्रान्तीय गवर्नरों की नियुक्ति कम्पनी के संचालकों द्वारा की जाती थी, परन्तु उन नियुक्तियों के लिए अन्तिम स्वीकृति ब्रिटिश सम्राट से प्राप्त करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त उन पर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष के हस्ताक्षर भी आवश्यक थे।
(12) भारत में रहने वाले यूरोपियनों की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कलकत्ता में एक बिशप तथा उसके अधीन तीन पादरी नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस तरह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए भारत में एक सरकारी गिरजे की स्थापना करना अनिवार्य हो गया।
(13) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के नागरिक तथा फौजी कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई। हेलबरी का कॉलेज, ऐटिसकौम्बी का सैनिक शिक्षणालय को बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की देख-रेख में रखने का निश्चय किया गया। कलकत्ता तथा मद्रास के कॉलेजों को भी बोर्ड ऑफ कण्ट्राल के नियमों के अनुसार चलाने की व्यवस्था की गई।
(14) इस एक्ट में कम्पनी के ऋण को घटना के लिए भी कदम उठाए गए।
एक्ट का महत्त्व
पूर्ववर्ती अधिनियम की भाँति 1813 के चार्टर एक्ट का भी विशेष महत्त्व नहीं था। फिर भी यह एकदम महत्त्वहीन नहीं कहा जा सकता है। इसके द्वारा भारतीय व्यापार पर कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सम्पूर्ण ब्रिटिश प्रजा को भारत से व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया। अतः अनेक अंग्रेज व्यापारी भारतवर्ष के साथ वाणिज्य तथा व्यापार करने लगे। इंग्लैण्ड का व्यापार आगामी 50 वर्षों में सात गुणा हो गया और वहाँ के देशवासियों ने अपार धन कमाया। व्यापार की इस वृद्धि से अंग्रेज लोक नेपोलियन द्वारा की गई महाद्वीपीय नाकेबन्दी के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक हानि की पूर्ति भली-भाँति कर सके।
ब्रिटिश पूँजी और उद्यम के स्वतंत्र आगमन ने भारत में शोषण का एक युग शुरू किया। अंग्रेज व्यापारियों ने अपने बढ़िया तथा सस्ते माल के बल पर भारतीय व्यापार तथा उद्योगों को गहरी चोट पहुँचाई। इसके बाद भारत उद्योग-प्रधान देश न रहकर कृषि-प्रधान देश रह गया। सर एल्फ्रेड लायल के शब्दों में, भारतीय करधों का बना हुआ कपड़ा लंकाशायर के कारखानों में तैयार हुए माल का मुकाबला न कर सका। धीरे-धीरे भारत उद्योग-क्षेत्र में बहुत पीछे रह गया और जनता का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया। डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने भी इस सम्बन्ध में लिखा है, लगभग इसी समय से भारतीयों के उद्योगों का विनाश आरम्भ हुआ, उनकी कृषि पर निर्भरता बढ़ने लगी और देश उत्तरोत्तर निर्धन होता गया।
यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कम्पनी के प्रदेशों पर वास्तविक सत्ता इंग्लैण्ड नरेश की मानी गई थी। संवैधानिक दृष्टिकोण से यह घोषणा बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी।
इंग्लैण्ड में बहुत समय से लोकमत कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का विरोध कर रहा था और सबको भारत से स्वतंत्र व्यापार का अधिकार दिए जाने की माँग कर रहा था। यद्यपि कम्पनी ने इस बात का विरोध किया, परन्तु पार्लियामेन्ट के लिए लोकमत की अवहेलना करना सम्भव नहीं था। अतः संसद ने जनता की इच्छा का आदर करते हुए कम्पनी के एकाधिकार पर गहरी चोट की।
इस एक्ट का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसके द्वारा भारतीयों की शिक्षा के लिए भी एक लाख रूपये प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की गई। यद्यपि इस दिशा में आगामी बीस वर्षों तक कोई ठोस पग नहीं उठाया जा सका और एक लाख रूपया प्रतिवर्ष जमा होता रहा, तथापि यह एक्ट इस श्रेय का अधिकारी है कि इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार ने पहली बार भारतीयों के सैनिक तता बौद्धिक उत्थान का दायित्व अपने ऊपर लिया। इसके अतिरिक्त इस एक्ट ने शिक्षा क्षेत्र में पग उठाने के लिए आधार भी प्रदान किया।
इस एक्ट द्वारा भारत में ईसाई मिशनरियों को ईसाई धर्म का प्रचार करने की आज्ञा दे दी गई। इसलिए उन्हों ने भारत में अनेक स्थानों पर गिरजे, स्कूल तथा कॉलेज स्थापित किए और उनके माध्य से भारतीयों में धर्म प्रचार किया। परिणामस्वरूप हजारों हिन्दुओं ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया, जिससे भारतीय समाज में एक नये सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इसलिए बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती और विवेकानन्द ने इस प्रचार को रोकने के लिए बड़ा भारी प्रयत्न किया।
3. 1833 का चार्टर एक्ट -
1833 के चार्टर एक्ट ने कम्पनी के प्रशासन में बहुमुखी तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। मार्लें ने 1908 ई. में संसद के समक्ष भाषण देते हुए कहा कि, यह एक्ट 19वीं शताब्दी के पास होने वाले भारत सम्बन्धी एक्टों में सबसे महत्त्वपूर्ण था।
एक्ट के पास होने के कारण -
1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी को भारतीय प्रदेश तथा उनका राजस्व प्रबन्ध 20 वर्षों के लिए सौंपा गया। यह समय 1833 ईं. में समाप्त हुआ और कम्पनी के संचालको ने चार्टर के नवीनीकरण हेतु संसद को प्रार्थना की। उन दिनों इंग्लैण्ड के राजनीतिक वातावरण पर उदारवादी अर्थशास्त्रियों, उपयोगवादियों और मानवतावादियों का प्रभुत्व छाया हुआ था। मानव अधिकार का सिद्धान्त सबकी जबान पर था। दास व्यापार का अन्त हो गया था। दास प्रथा समाप्त कर दी गई थी और प्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई थी। एक वर्ष पूर्व ही रिफार्म एक्ट पास हुआ था, जिसके द्वारा संसदीय व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किए गए थे। मुक्त व्यापार के सिद्धान्त ने जनता पर जादू कर रखा था। ब्रिटिश राजनीति पर उन दिनों ग्रे, मैकाले और जेम्स मिल जैसे सुधारवादियों का ही आधिपत्य था। मैकाले संसद का सदस्य और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का सचिव था। प्रधानमंत्री ग्रे भी महान् सुधारवादी था और बेंथम का शिष्य जेम्स मिल संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाऊस में महत्त्वपूर्ण अधिकारी था। उसका मुख्य कार्य संचालकों और भारत सरकार के मध्य होने वाले पत्र-व्यवहार का निरीक्षण करना था। ऐसे सुधारवादियों का एक्ट की रूपरेखा पर प्रभाव होना स्वाभिवाक था। सी.एल. आनन्द के शब्दों में, सुधार और उत्साह के इस वातावरण में संसद को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चार्टर को नया करने का अवसर मिला।
इस विधेयक को पार्लियामेन्ट में पेश करने पर गरमा-गरम बहस हुई। इस बहस में कम्पनी को एक साथ व्यापारिक तथा शासकीय संस्था बनाए रखने की कड़ी आलोचना की गई। बकिंधम ने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, भारत जैसे देश का प्रबन्ध जो अपनी जनसंख्या, सैन्य शक्ति तथा वित्तीय साधनों में इंग्लैण्ड से भी महान है-एक कम्पनी के हाथों में सौंपे रखना सर्वथा अनुचित है। बकिंधम ने यह सुझाव दिया कि, भारत की सर्वोच्च परिषद् में भारत में रहने वाले अंग्रेजों के और साथ ही लोगों के कुछ प्रतिनिधि सम्मिलित किए जाएँ, जिससे अन्त में स्वशासन की उस प्रणाली का आरम्भ हो सके, जिसकी ओर हमारे अन्य सब उपनिवेशो के साथ उन्हें यथा सम्भव तीव्रतम गति से बढ़ना चाहिए। लार्ड मैकाले इस सुझाव से समहत नहीं थे। उसने बकिंघम के विचारों का सफलतापूर्वक खण्डन किया और भारतीय प्रशासन को कम्पनी के हाथों में रखने पर ही बल दिया। लार्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि, भारत में प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना नहीं हो सकती तथा कम्पनी ही ब्रिटिश सरकार के अंग के रूप में भारत में शासन कर सकती है, क्योंकि संसद को भारतीय मामलों का न तो ज्ञान है और न समय ही। भारतीय मामलों के प्रति इंग्लैण्ड की जनता की उदासीनता की ओर संकेत करते हुए मि. मैकाले ने कहा कि, भारतवर्ष के तीन घमासान युद्ध लड़े जाने पर भी हमारी जनता में इतनी सनसनी नहीं फैलती जितना इंग्लैण्ड में किसी व्यक्ति के सिर फूटने की दुर्घटना से...और भारत के करोड़ो मनुष्यों के शासन से सम्बन्धित पग पर विचार करने के लिए हाऊस ऑफ कॉमन्स के इतने सदस्य उपस्थित नहीं होते, जितने कि यहाँ के एक मामूली से बिल पर वाद-विवाद के लिए इकट्ठे होते हैं।
लार्ड मैकाल ने कम्पनी के पक्ष में एक और यह तर्क भी दिया कि ईश्ट इण्डिया कम्पनी देश को राजनीतिक और धार्मिक प्रभावों से मुक्त है। अतः उसका अन्य कोई विकल्प आसानी से नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त यह कम्पनी इंग्लैण्ड की राजनीति को दृष्टि में रखकर नहीं, अपितु भारत की राजनीति को दृष्टि में रखकर काम करती है। लार्ड मैकाले की इ सार्थक युक्तियों का पार्लियामेन्ट के संसद सदस्यों पर अत्याधिक प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि घोर विरोध के बावजूद भी 23 अगस्त, 1833 ई. में चार्टर को पास कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार को 20 वर्षों के लिए नया कर दिया गया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ -
लार्ड विलियम बैंटिक के शासनकाल में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा 1833 का चार्टर एक पारित किया गया। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी की स्थिति, उसके संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में मह्त्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-
(1) स्वदेश में कम्पनी के प्रशासन में परिवर्तन
(i) इस एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी का शासन और राजनीतिक सत्ता की अवधि 20 वर्ष तक के लिए बढ़ा दी गई।
(ii) कम्पनी की कुछ व्यापारिक सुविधाओं को छीन लिया गया तथा चीन के साथ व्यापार करने का इसका एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। उससे कहा गया कि वह अपना व्यापार सुविधापूर्वक जल्दी से जल्दी समेट ले। कम्पनी की हानि को पूरा करने के लिए उसके हिस्सेदारों को उनकी पूँजी के अनुसार 101/2 प्रतिशत दर से लाभांश देने की व्यवस्था की गई। ये लाभांश उन्हें भारतीय राजस्व से आगामी 40 वर्ष तक देने का आश्वास दिया गया।
(iii) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के शासन सम्बन्धी अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया। एक्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारतीय प्रदेश कम्पनी के पास ब्रिटिश सम्राट तथा उसके उत्तराधिकारियों की अमानत के रूप में होगा।
(iv) नियंत्रण मण्डल के संविधान में कुछ परिवर्तन किए गए।
(v) कौंसिल के लार्ड प्रेसीडैन्ट, लार्ड प्रिवीसिल, ट्रेजरी के प्रथम लार्ड, राज्यच के प्रधान सचिव और चांसलर ऑफ द एक्ट चेकर भारतीय मामलों के लिए प्रदेश कमिश्नर नियुक्त किए गए।
(vi) इस एक्ट के पूर्व अंग्रेज व्यापारियों और मिशनरियों को भारत आने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था। परन्तु 1833 के एक्ट के द्वारा लाइसेन्स लेने का प्रतिबन्ध हटा दिया गया तथा अंग्रेजों को भारत के किसी भी भाग में बसने, भूमि खरीदने तथा निवास स्थान बनाने का अधिकार दे दिया गया। लेकिन सपरिषद् गवर्नर जनरल से यह अपेक्षा की गई कि, वे कानून द्वारा या नियम बनाकर जल्दी से जल्दी इन प्रदेशों के देशी निवासियों की अपमान से और उनके शरीर, धर्म या सम्मतियों पर अत्याचार से रक्षा की व्यवस्था करेंगे।
(2) भारत की केन्द्रीय सरकार में परिवर्तन
पुन्निया के शब्दों में, भारत सरकार तथा प्रशासन में विस्तृत परिवर्तन लाये गए, जिसके लिए एक शब्द-केन्द्रीकरण का प्रयोग किया जा सकता है।
(i) इस एक्ट द्वारा केन्द्रीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि कर दी गई तता प्रान्तीय सरकारों की स्थित को घटा दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत अंग्रेजों के अधीन हो चुका छा। गवर्नर जनरल को कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के समस्त सैनिक तथा असैनिक प्रशासन प्रबन्ध का नियंत्रण निर्देशन और अधीक्षण करने के अधिकार दिए गए।
(ii) सपरिषद् गवर्नर जनरल को समस्त भारतीय प्रदेशों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया। इस कार्य के लिए परिषद् में एक चौथा सदस्य और बढ़ा दिया गया, उसको कानून निर्माण में सहायता देने के लिए रखा गया था। इसलिए उसको कानून सदस्य कहा जाने लगा। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा होती थी तथा वह कम्पनी का कर्मचारी नहीं होता था। वह कौंसिल की केवल न बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून तथा अधिनियम आदि बनाने के लिए बुलाई गई हों। प्रथम लॉ मैम्बर बनने का सौभाग्य लार्ड मैकाले को प्राप्त हुआ।
(iii) भारत में प्रचिलत विभिन्न प्रकार के कानूनों और नियमों को संहिताबद्ध करने के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरलस को भारतीय विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। इस आयोग का कार्य न्यायालयों तथा पुलिस कर्मचारियों के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों की जाँच-पड़ताल करना था। इसके अतिरिक्त इसे समस्त प्रकार की न्याय विधियों तथा कानून की छानबीन करनी थी। इस आयोग ने कई रिपोर्टें प्रस्तुत कीं, जिनमैं मैकाले द्वारा तैयार किया हुआ पेन कोड बहुत प्रसिद्ध है।
(iv) इस सम्बन्ध में सपरिषद् गवर्नर जनरल का क्षेत्राधिकार अधिकृत भारतीय प्रदेशों तथा हर भाग के निवासियों, न्यायालयों, स्थानों तथा चीजों पर लागू कर दिया गया।
(v) भारत में कानून बनाने की शक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल के हाथ में केन्द्रित कर दी गई। इसके पूर्व भारत में कानूनों की बहुत भिन्नता थी। बम्बई तथा मद्रास की सरकारें अपनी इच्छानुसार कानून बनाती थी। बंगाल की सरकार के साथ उनका इस विषय में कोई मेल नहीं होता था। इसलिए इस एक्ट द्वारा बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों और उनकी कौंसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। सपरिषद् कानून गवर्नर जनरल को सारे देश के लिए समरूप बनाने का अधिकार दिया गया।
प्रान्तों की सरकारों में परिवर्तन
(i) प्रान्तीय सरकारों के प्रशासन के लिए गवर्नर तथा परिषद् की पूर्ववर्ती व्यवस्था कायम रही। (ii) प्रत्येक प्रान्तीय सरकार को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह जिन कानूनों या विनियमों को बनाना आवश्यक समझती है, उनके प्रारूप सपरिषद् गवर्नर जनरल के सम्मुख प्रस्तुत कर सके। सपरिषद् गवर्नर जनरल उस पर विचार-विर्मश कर उसकी सुचना सम्बन्धित प्रेसीडेन्सी को देता था।
(iii) मद्रास तथा बम्बई के गवर्नरों और उनकी कौसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इस एक्ट में यह भि निश्चित किया गया कि सपरिषद् गवर्नर किसी भी दशा में किसी भी कानून को निलम्बित नहीं कर सकेगा।
(iv) वित्तीय मामलों में प्रान्तीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार के अधीन कर दिया गया। कोई भी प्रान्तीय गवर्नर बिना गवर्नर जनरल की आज्ञा के किसी पद की व्यवस्था नहीं कर सकता था और न ही उसे किसी नये वेतन या भत्ते स्वीकृत करने का अधिकार था।
(v) प्रान्तयी सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों तथा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
(vi) हर प्रान्तीय सरकार के लि े सपरिषद् गवर्नर जनरल को सभी आदेशों तथा अधिनियमों की प्रतिलिपियाँ भेजना अनिवार्य कर दिया गया।
(vii) प्रान्तीय सरकारों को संचालक मण्डल से सीधा पत्र-व्यवहार करने की छूट थी, लेकिन पत्रों की एक प्रतिलिपि उन्हें गवर्नर जनरल को भेजनी पड़ती थी।
(viii) गवर्नर जनरल को बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में भी काम करना पड़ता था। अतः उसने अपनी कौंसिल के एक सदस्य को बंगाल का डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की।
(ix) बंगाल प्रान्त को दो प्रान्तों-बंगाल और आगार में विभाजित करने की व्यवस्था की गई, लेकिन इस योजना को कभी क्रियान्वित नहीं किया गया।
सामान्य उपबन्ध अथवा धाराए
(i) इस एक्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि सरकारी सेवाओं में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के योग्यतानुसार नौकरी दी जाएगी अर्थात् धर्म, जन्म, स्थान, वंश, जाति और रंग के आधार पर सरकारी सेवा में प्रवेश के लिए कोई भेदभाव नहीं बरता जाएगा। यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति का प्रतीक थी। इसका तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन इस उपबन्ध के आधार पर लार्ड मार्ले ने 1833 के अधिनियम को 1909 तक संसद द्वारा पारित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भारतीय अधिनियम कहा।
(ii) इस एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल को आदेश दिया गया कि वह अपनी कौंसिल के सदस्यों की सहायता से भारत में दास प्रथा को समाप्त करने का प्रयत्न करे तथा दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाए।
(iii) भारत में ईसाइयों के लाभ के लिए बंगाल, बम्बई तता मद्रास में बिशपों (बड़े पादरियों) की नियुक्ति की व्यस्था की गई और कलकत्ता के बिशप को इनका प्रधान बना दिया गया।
(iv) कम्पनी के लोक सेवकों के प्रशिक्षण के लिए हेरबरी कॉलेज में व्यवस्था की गई और उस कॉलेज में प्रवेश के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।
(v) कम्पनी का नाम द युनाईटेड कम्पनी ऑफ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू द ईश्ट इण्डिया से बदलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी कर दिया गया।
एक्ट का महत्त्व
1833 ई. का एक ब्रिटिश संसद द्वारा 19वीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। लार्ड मार्ले ने ठीक ही कहा था कि, यह एक्ट 1784 के पिट अधिनिय तथा 1858 में साम्राज्ञी द्वारा भारतीय सत्ता को हस्तगत करने के बीच में सर्वाधिक व्यापाक तथा महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। वस्तुतः इस एक्ट ने न केवल भारत के प्रशासन में महान् तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया, अपितु कई दयालुतापूर्ण घोषणाएँ भी कीं और व्यापाक मानवतावादी सिद्धान्तों का अनुपालन भी किया।
(1) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। इसलिए अब वह व्यापारिक तथा शासकीय संस्था के स्थान पर केवल शासकीय संस्था ही रह गई। अब भारत का शासन चलाते समय इसका केवल व्यापारिक दृष्टिकोण समाप्त हो गया। चूँकि अब कम्पनी केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतः ब्रिटिश सरकार को इस पर नियंत्रण बढ़ता गया। वह नियंत्रण 1858 ई. में यहाँ तक बढ़ा कि कम्पनी के शासन का अन्त कर दिया गया।
(2) कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार समाप्त होने पर वह केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतःसंचालक मण्डल कम्पनी के शासन सम्बन्धी मामलों में अधिक रूचि लेने लगे, जिससे शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। मार्शमैन के शब्दों में, राज्य सम्बन्धी तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों के एक-दूसरे से पृथक् होने का प्रभाव संचालकों की नीति तथा उनके विचारों पर भी पड़ा। उनके दृष्टिकोण में परम्परागत संकीर्णता के स्थान पर कुछ उदारता आ गई और उनकी प्रेरणा से भारत में काम करने वाले अधिकारियों ने कुछ ऐसे पग उठाए, जो दयालुता तथा बुद्धिमत्ता से ओत-प्रोत थे।
(3) डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है, इस एक्ट का महत्त्व इसलिए भी है, क्योंकि इसके द्वारा भारतीय विधान-मण्डल की नींव रखी गई। इस एक्ट का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों को बानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया और गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को सारे ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने की शक्ति दे दी गई। इस हेतु गवर्नर जनरल की कौंसिल में कानून सदस्य की वृद्धि की गई। इसके अतिरिक्त प्रादेशिक सरकारों के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। बित्तीय मामलों में प्रादेशिक सरकारों पर गवर्नर जनरल का नियंत्रण सामान्य रूप से स्थापित किया गया। सारांश यह है कि इस एक्ट द्वारा प्रादेशिक सरकारों पर केन्द्रीय नियंत्रण पहले से अधिक दृढ़ तथा व्यापक बना दिया गया। इस नई व्यवस्था से भारतीय प्रशासन में एकरूपता आ गई। वस्तुतः देश की एकता की दिशा में यह एक महान् कदम था।
(4) इस एक्ट के अनुसार भारत सरकार को दासता समाप्त करने और दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाने का अधिकार दिया गया।
(5) इस अधिनियम की एक बहुत बड़ी देन यह थी कि इसके द्वारा विधि अयोग की स्थापना की गई। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1837 ई. में इण्डियन पेनल कोड का प्रलेख तैयार हुआ जिसने संशोधित होने पर 1860 ई. में कानून का रूप धारण कर लिया। इण्डियन पेनल कोड तैयार करने में विधि आयोग के अध्यक्ष मैकाले ने बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। मि. एल्फ्रेड लायल के शब्दों में, इण्डियन पेनल कोड लार्ड मैकाले की कानून-क्षेत्र में योग्यता तथा निपुणता के प्रति एक स्थायी श्रद्धांजली है।
इस आयोग के पास के फलस्वरूप सारे भारत के लिए दण्ड संहिता तथा दिवानी और फौजदारी प्रक्रिया का संकलन हुआ। इससे कानून में एकरूपता आ गई और केन्द्रीय सरकार की केन्द्रीयकरण की नीति को बल प्राप्त हुआ।
4. 1853 का चार्टर एक्ट -
1853 के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन किए गए, परन्तु इससे शासकीय नीति तथा प्रशासन की कार्यकुशलता में बिल्कुल वृद्धि नहीं हुई।
एक्ट के पास होने के कारण
1853 के चार्टर की पृष्ढभूमि अनोखी थी। जिस समय ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में 1833 के एक्ट पर विचार-विमर्श चल रहा था, उस समय केवल अंग्रेज व्यापारियों तथा ईसाई मिशनरियों ने उसका विरोध किया था। जब 1853 में इस अधिकार-पत्र को फिर से नया करने का समय आया, तब इस अधिनियम के विरोध में भारतीयों ने भी उनका साथ दिया। बंगाल, मद्रास तथा बम्बई प्रान्तों के निवासियों ने बहुत बड़ी संख्या में हस्ताक्षरों से एक प्रार्थना-पत्र ब्रिटिश पार्लियामेन्ट को भेजा, जिसमें कम्पनी के अधिकार-पत्र की अवधि बढ़ाने का विरोध किया गया था।
सन् 1833 के एक्ट की धारा 87 की घोषणा से भारतीयों को बहुत प्रोत्साहन मिला था। अनेक भारतीय युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गए, लेकिन भारत लौटने पर उन्हें निराश ही हाथ लगी, क्योंकि उन्हें काले-गोरे की भेद नीति के कारण उच्च पदों पर नौकरी नहीं मिल सकी। गवर्नर जनरल की कौंसिल के एक सदस्य मि. कैमरोन ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार कहा, पिछले 20 वर्षों एक भी भारतीय को किसी ऐसे पद की प्राप्ति नहीं हुई, जिस पर वह सन् 1833 से पूर्व नियुक्त होने का अधिकारी नहीं था।
इस व्यवस्था से भारतीयों को बहुत दुःख तथा निराशा हुई तथा उनमें तीव्रगति से असन्तोष फैला। बंगाल, बम्बई तथा मद्रास के निवासियों ने भारतीय प्रशासन में परिवर्तन के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट को प्रार्थना-पत्र भी भेजे। इन प्रार्थना-पत्रों में कलकत्ता के निवासियों द्वारा भेजा गया पत्र विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इसमें-
(i) भारत में कानून बनाने के लिए एक अलग विधान-मण्डल की व्यवस्था करने
(ii) प्रादेशिक सरकारों को आन्तरिक स्वतंत्रता देने की
(iii) भारत पर शासन करने का अधिकार एक भारत सचिव तथा उसकी कौंसिल को सौंप देने की
(iv) ब्रिटिश सिविल परीक्षा के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था करने की माँग की गई थी।
इसके अतिरिक्त कम्पनी के प्रशासन की त्रुटियों को दूर करने के लिए कुछ और भी सुझाव दिए गए। इस प्रकार, विभिन्न प्रेसीडेन्सियों की सरकारों की ओर से संसद में भारतीय प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए अनेक प्रभावशाली सुझाव पेश किए गए थे। अतः ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1852 में इन सब बातों की जाँच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की और उसकी रिपोर्ट के आधार पर 1853 का चार्टर एक्ट पास किया गया था।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबन्ध - 1853 ई. के एक्ट की धाराएँ अथवा उबन्ध निम्नलिखित थे-
(1) कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था को सम्बन्धित धाराएँ
(i) इस एक्ट द्वारा भारतीय प्रदेशों तथा उनके राजस्व का प्रबन्ध कम्पनी को सौंप दिया गया, परन्तु पहले की तरह उसमे कोई निश्चित अवधि नियत नहीं की गई, केवल इतना कहा गया कि कम्पनी का शासन भारत में तब तक चलता रहेगा, जब तक कि ब्रटिश संसद कोई अन्य व्यवस्था न करे अर्थात् ब्रिटिश संसद को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह किसी भी समय भारतीय प्रदेशों का शासन अपने हाथ में ले सकती थी। इस प्रकार, कम्पनी को भारतीय प्रदेशों पर अपना आधिपत्य ब्रिटिश साम्राज्ञी तथा उसके उत्तराधिकारियों की ओर से ट्रस्ट के रूप में रखने की आज्ञा दी गई।
(ii) इस एक्ट में संचालक मण्डल की शक्ति को कम करने के लिए उनके सदस्यों की संख्या 24 में घटाकर 18 कर दी गई। इनमें से 6 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। इसी प्रकार संचालक मण्डल की बैठकों में कोरम की पूर्ति के लिए सदस्यों की संख्या 13 से घटाकर 10 कर दी गई, जिससे सम्राट द्वारा नियुक्त सदस्यों का बहुमत सम्भव हो सके। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी के मामलों में ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण और अधिक प्रभावी हो गया।
(iii) नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों का वेतन कम्पनी देगी। उनके वेतन का निर्धारण साम्राज्ञी द्वारा किया जाएगा। अधिनियम में यह कहा गया था कि बोर्ड के अध्यक्ष का वेतन किसी भी दशा में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के वेतन से कम नहीं होगा।
(iv) संचालकों से कम्पनी के उच्च सैनिक पदाधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार छीन लिया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल से नियुक्तियों के बारे में नियम बनाने का अधिकार दिया गया। भविष्य में अनुबन्धित सेवाओं में रिक्त स्थानों पर नियुक्ति प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर करने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार सिविल सर्विस में भर्ती के लिए लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। इस परीक्षा में भारतीय युवकों को भी भाग लेने की सुविधा दी गई।
(v) न्यायिक, वित्तीय और राजनीतिक विषयों की देखभाल के लिए संचालकों ने तीन उप-समितियाँ बनाई। तीन संचालकों की गुप्त समिति पूर्ववरत् बनी रही।
(2) भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i) गवर्नर जनरल को बंगाल के शासन भारत से मुक्त कर दिया गया। बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस एक्ट द्वारा यह भी निश्चित किया गया कि बंगाल के गवर्नर नियुक्त होने तक, गवर्नर जनरल संचालक मण्डल की अनुमति से बंगाल के लिए एक लेफ्टिनेन्ट गवर्नर नियुक्त कर सकता है। बंगाल में अलग गवर्नर तो 1912 ई. तक नियुक्त नहीं किया गया, परन्तु 1854 में एक लेफ्टिनेंट गवर्नर बंगाल के लिए और दूसरा पंजाब के लिए नियुक्त कर दिया गया।
(ii) कम्पनी के भारतीय भू-क्षेत्र के बढ़ जाने से संचालक मण्डल को मद्रास तथा बम्बई की भाँति एक अन्य प्रेसीडेन्सी के निर्माण का अधिकार दिया गया। परिणामस्वरूप 1859 में पंजाब के प्रान्त की रचना हुई।
(iii) 1833 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कौंसिल में बढ़ाया गया था, जो कानून बनाने के कार्य में उसकी सहायता करता था। विधि सदस्य कौंसिल की केवल उन्हीं बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून के उद्देश्य से बुलाई गई हों। इसलिए उसको शासन सम्बन्धी मामलों का ठीक तरह से ज्ञान नहीं हो सकता था। 1853 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का नियमित सदस्य बना दिया गया। अब उसे शासन सम्बन्धी कार्यों पर विचार करने के लिए बुलाई गई बैठकों में बाग लेने तथा वोट देने का अधिकार दिया गया।
(iv) इस एक्ट द्वारा पहली बार सपरिषद् गवर्नर जनरल की विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। विधि निर्माण के उद्देश्य से 6 और सदस्य बढ़ाकर गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्ताक कर दिया गया। ये अतिरिक्त सदस्य थे-बंगाल का मुख्य न्यायधीश, सुप्रीम कोर्ट का एक जज तथा बम्बई, बंगाल, मद्रास एवं उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त की सरकारों के 4 प्रतिनिधि। प्रान्त के 4 प्रतिनिधियों की नियुक्ति प्रान्तीय सरकारों उच्च पदाधिकारियों में से करती थीं। इस तरह से कानून बनाने के लिए परिषद् में 12 सदस्य हो गए-गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापित, गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य तथा 6 नये सदस्य। वैध रूप से हो रही परिषद् की बैठक के लिए सात सदस्यों को कोरम नियत गया था। विधान-मण्डल द्वारा पास किए गए सब विधेयक गवर्नर जनरल की स्वीकृति प्राप्त होने पर अधिनियम बन सकते थे। गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को रद्द कर सकती थी। पुन्निया के शब्दों में, 1853 के अधिनियम के विधि-निर्माण सम्बन्धी उपबन्धों में कार्यकारिणी परिषद् से भिन्न एक विधान परिषद् का आभार स्पष्ट रूप में दिखाई पडता है।
(v) गवर्नर जनरल की कौंसिल में ब्रिटिश संसद से मिलता-जुलता कानून बनाने का तरीका अपनाया गया। इसे कार्यपालिका से प्रश्न पूछने तथा उसकी नीतियों पर वाद-विवाद करने का अधिकार दिया गया।
(vi)एक्ट ने भारतीय विधि आयोग, जो समाप्त हो चुका था, सिफारिशों की जाँच और उन पर विचार करने के लिए एक इंग्लिश लॉ कमिश्न की नियुक्ति की व्यवस्था की। इस कमीशन के प्रयत्नों के फलस्वरूप इण्डियन पेनल कोर्ड तथा दीवानी और फौजदारी कार्यविधियों को कानून का रूप दिया गया।
एक्ट का महत्त्व -
1853 के एक्ट के द्वारा यद्यपि सरकार की नीति तथा प्रशासन में किसी नवीनता का संचार नहीं हुआ, तथापि यह एक्ट संवैधानिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण पग था। विभिन्न विशेषताओं के कारण इस एक्ट का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
(i) 1853 के एक्ट के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारतीय प्रशासन उसी समय तक कम्पनी के अधिकार में रहेगा, जब तक कि पार्लियामेन्ट अन्य कोई व्यवस्था न कर दे। कम्पनी के अधिकार-पत्र को निश्चित अवधि के लिए न बढ़ाकर यह स्पष्ट कर दिया गया कि उसका अन्त बहुत निकट है। इस एक्ट के बनने के केवल पाँच वर्ष बाद ही पार्लियामेन्ट ने भारतीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया। इस प्रकार, भारत से कम्पनी का राज्य सदा केलिए समाप्त हो गया।
(ii) इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल की शक्तियाँ घटा दी गईं, जिसके कारण उसकी सत्ता तथा सम्मान को गहरा आघात पहुँचा। इसके सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें से 6 सदस्य ब्रिटिश सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। संचालकों को भारत के अधिकारियों को नियुक्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इसके स्थान पर हाऊस ऑफ कॉमन्स को संचालकों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया। अब सरकार के लिए भारतीय मामलों से परिचित कम्पनी के रिटायर्ड कर्मचारियों को संचालक मण्डल का सदस्य नियुक्त करना भी सम्भव हो गया। इस नई व्यवस्था के परिणामस्वरूप संचालकों की सत्ता तथा सम्मान को भारी आघात पहुँचा और उन पर ब्रिटिश सम्राट का प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया। पुन्निया के शब्दों में, इसलिए इन परिस्थितियों में जब 1873 ई. में पार्लियामेन्ट स्वाभाविक रूप से इस विषय पर विचाकर करती, तब भारतीय राज्य-क्षेत्र को कम्पनी से सम्राट को हस्तान्तरित करने में कोई बाधा न होती। विद्रोह ने तो केवल इतना किया हि इस प्रक्रिया की चाल को तेज कर दिया।
(iii) इस अधिनियम ने भारत के प्रशासनिक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए। पहले गवर्नर जनरल अन्य प्रदेशों की निगारनी के अतिरिक्त बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य करता था, परन्तु इस एक्ट के अनुसार बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर की व्यवस्था की गई, जिससे गवर्नर जनरल का काफी बोझ हल्का हो गया। अब उसके लिए सारे भारत के शासन की देखभाल के लिए ध्यान देना आसान हो गया। इस तरह से प्रशासनिक कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। भारत के प्रशासनिक ढाँचे में वस्तुतः यह एक बहुत बड़ा सुधार था।
(iv) इस एक्ट ने नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष का वेतन इंग्लैण्ड के एक सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के बराबर नियत किया। इससे अध्यक्ष की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।
(v) 1853 के एक्ट द्वारा 1833 की महान् घोषणा को व्यावहारिक रूप दिया गया। अब भारतीयों के लिए सब पद खोल दिए गए और इस हेतु उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने की अनुमति दे दी गई। इस एक्ट द्वारा सिविल सर्विस में भर्ती के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा का स्थान निश्चित किया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को इस सम्बन्ध में नियम और विनियम बनाने का आदेश दिया। इस तरह से नौकरियों में नामजदगी के सिद्धान्त का महत्त्व समाप्त हो गया। इतना सब कुछ होते हुए भी भारतीयों को व्यावहारिक रूप में इस नई व्यवस्था से कोई लाभ नहीं हुआ। प्रथम तो इसलिए कि परीक्षाएँ लन्दन में होती थी। अतः प्रत्येक भारतीय उम्मीदवार के लिए धन खर्च करके परीक्षा के लिए लन्दन जाना सम्भव नहीं था। दूसरे, इस परीक्षा में बैठने की आयु बहुत कम रखी गई। तीसरे, परीक्षा प्रश्नों के उत्तर अंग्रेजी भाषा में देने पड़ते थे। अंग्रेजों की मातृभाषा अंग्रेजी होने के कारण वे भारतीय उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक निपुण सिद्ध होते थे।
(vi) इंग्लिश लॉ कमीशन की नियुक्ति करके भी इस एक्ट ने बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस कमीशन के 8 सदस्यों ने लॉ कमीशन के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए तीन वर्ष तक अथक परिश्रम किया। उनके प्रयासों से भारतीय दण्ड संहिता और दीवानी तथा फोजदारी कार्यविधियों की संहिताओं को कानून का रूप दिया गया। उन्हें इस एक्ट का महत्त्वपूर्ण योगदान समझा जा सकता है।
(vii) एक्ट का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्तार कर दिया गया। मोंटफोर्ड रिपोर्ट के रचियताओं ने इस सम्बन्ध में लिखा है, 1853 में ही विधि निर्माण को पहली बार शासन का एक ऐसा विशेष कृत्य माना गया, जिसके लिए यंत्रजात और विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।
वस्तुतः इस अधिनयिम ने छोटे से विधायी निकाय को एक छोटी पार्लियामेंट का रूप दे दिया। इसने बिल को पास करने के लिए वही तरीका अपनाया, जो आजकल भी प्रचलित है। गवर्नर जनरल की इस कानून बनाने वाली कौंसिल में सरकार की नीति की आलोचना की जाती थी। इस तरह 1853 ई. में एक ऐसी संस्था का आरम्भ हुआ, जिसका विकिस रूप आज भारतीय संसद के रूप में विद्यिमान है।
एक्ट के दोष
इन महत्त्वपूर्ण देनों के बावजूद भी यह एक्ट दोषमुक्त नहीं था। इसके प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(i) इस एक्ट द्वारा कानून बनाने वाली कौंसिल में केवल अंग्रेज सदस्यों को ही रखा गया, जिन्हें भारतीय दशाओं का ज्ञान नहीं था। भारतीयों को इस कौंसिल में न रखने से असंतोष बढ़ा और यह बात विद्रोह का एक सबसे बडा कारण सिद्ध हुई।
(ii) अनेक प्रकार के भेदभावों, अत्यधिक खर्च तथा इंग्लैण्ड की लम्बी दूरी के कारण भारतीयों को कम्पनी सरकार में उच्च पद प्राप्त करना सपना ही रहा।
(iii) बंगाल के लोगों ने जो प्रान्तीय स्वराज्य के लिए प्रार्थना-पत्र दिया था, उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया।
(iv) इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि इससे इंग्लैण्ड में दोषपूर्ण द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त नहीं किया गया।
1854 का गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया एक्ट -
ब्रिटिश संसद ने 1854 ई. में भारत अधिनियम पास किया। इसके द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन किए गए। इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह संचालक मण्डल तथा विधान-मण्डल की स्वीकृति से कम्पनी के किसी भी क्षेत्र की व्यवस्था और नियंत्रण को अपने हाथ में ले सकता है। उसे उस क्षेत्र के प्रशासन के सम्बन्ध में सब आवश्यक आदेश तथा निर्देश जारी करने का अधिकार भी दिया गया। उपर्युक्त उपबन्धों के आधार पर असम, मध्य प्रदेश, उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त, बर्मा, बिलोचिस्तान और दिल्ली में चीफ कमिश्नरों की नियुक्ति की गई।
सी. एल. आनन्द के शब्दों में, इस अधिनियम का प्रभाव यह हुआ कि सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रान्त के ऊपर सीधा नियंत्रण रखने के कार्य से छुटकारा मिल गया। इसके बाद से भारत सरकार ने देश के समूचे प्रशासन पर केवल पर्यवेक्षक और निदेशक प्राधिकारी का ही रूप धारण कर लिया।
इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति भी प्रदान की गई कि वह प्रान्तों की सीमाओं को समीति और निर्धारित कर सके। इस एक्ट में यह भी कहा गया कि गवर्नर जनरल अब से बंगाल का गवर्नर की उपाधि धारण नहीं करेगा।
1. 1793 का चार्टर एक्ट -
लार्ड कार्नवालिस के शासन काल के अन्तिम दिनों में संसद ने 1793 का चार्टर एक्ट पारित किया। इस एक्ट की धाराएँ संख्या में बहुत अधिक थीं, परन्तु इसके द्वारा कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए। कीथ ने लिखा है कि यह एक्ट संगठन की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पग था, जिसमे पूर्वगामी एक्टों की बहुत-सी धाराओं को सम्मिलित किया गया था। डॉ. बनर्जी ने कहा कि, "दृढ़ भूतिकरण की संविधि द्वारा कोई बड़ा संवैधानिक परिवर्तन नहीं लाया गया।
एक्ट के पास होने के कारण-
1773 ई. में कम्पनी को बीस वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने की आज्ञा दी गई थी। यह समय 1793 ई. मे समाप्त हो गया। अतः कम्पनी के अधिकारियों ने चार्टर एक्ट के नवीनीकरण के लिए ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की। कम्पनी के सौभाग्य से उस समय सारे राष्ट्र की रूचि फ्रांस के साथ हो रहे युद्ध में थी। अतः इंग्लैण्ड के कुछ ही नगरों के व्यापारियों ने यह माँग कि भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता सबको दी जाए, लेकिन बोर्ड ऑफ कण्ड्रोल का अध्यक्ष तथा पिट कम्पनी के पक्ष में थे, इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने बिना किसी विशेष आनाकानी के 1793 के एक्ट पारित कर कम्पनी के चार्टर का बीस वर्ष के लिए नवीनीकरण कर दिया। पिट के शब्दों में, यह एक्ट इतनी शान्ति के पास हुआ कि उसका उदाहरण संसद के इतिहास में उपलब्ध नहीं होता। यहाँ तक कि समाचार-पत्रों में भी इस एक्ट को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। कीथ के शब्दों में, यह सारतः एक संघटित करने वाली कार्यवाही थी और इसमें जोर परिवर्तन हुए थे, उसका असर तफसील की बातों पर पड़ता था। डॉ. बनर्जी ने भी कहा है कि, इस संघटन के अधिनियम (स्टेच्यूट) द्वारा कोई संवैधानिक परिवर्तन नहीं किया गया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ -
(1) इस एक्ट द्वारा कम्पनी को 20 वर्ष के लिए दुबारा पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया।
(2) इस अधिकार-पत्र के द्वारा कम्पनी के आर्थिक ढाँचे को नियमित किया गया। वह अनुमान लगाया गया कि कम्पनी को प्रतिवर्ष 12,39,241 पौण्ड की बचत होगी। इस वार्षिक बचत में से पाँच लाख पौण्ड तो कम्पनी के ऋणों को चुकाने के लिए दिए जाएँगे और पाँच लाख पौण्ड का उपयोग लाभांश को 8 से 10 प्रतिशत करने के लिए किया जाएगा। लेकिन जी.एन. सिंह के शब्दों में, यह कल्पित बचत कभी फलीभूत नहीं हुई और हालाँकि अंशधारियों को यह लाभ हो गया कि लाभांश 8 से 10 प्रतिशत कर दिया गया, किन्तु ब्रिटेन को अपने हिस्से के पाँच लाख पौण्ड प्रतिवर्ष कभी प्राप्त नहीं हुए।
(3) नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों और कर्मचारियों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। इस प्रथा के कई दुष्परिणाम निकले परन्तु यह प्रथा 1919 के अधिनियम के लागू होने तक जारी रही।
(4) प्रत्येक प्रान्त का शासन एक गवर्नर और तीन सदस्यों की कौंसिल को सौंप दिया गया। प्रान्तीय कौंसिल के सदस्य केवल वही व्यक्ति हो सकते थे, जिन्हें नियुक्ति के समय कम्पनी के कर्मचारी के रूप में काम करते हुए भारत में कम से कम बारह वर्ष हो गए हों।
(5) गवर्नर जनरल तथा गवर्नर को अपनी कौंसिल के उन निर्णयों की उपेक्षा करने का अधिकार दिया गया, जिनसे भारत में शान्ति-व्यवस्था, सुरक्षा तथा अंग्रेजी प्रदेशों के हितों पर किसी प्रकार का भी प्रभाव पड़ने की सम्भावना हो। उन्हें न्याय, विधि तथा कर सम्बन्धी मामलों में कौंसिल के निर्णयों को रद्द करने का अधिकार नहीं था।
(6) प्रधान सेनापति किसी भी कौंसिल का सदस्य नहीं होता, जब तक उसको विशेष रूप से संचालकों द्वारा सदस्य नियुक्त न किया जाए। इससे पूर्व प्रधान सेनापति के लिए कौंसिल का सदस्य होना जरूरी था।
(7) सपरिषद् गवर्नर जनरल को प्रान्तीय सरकारों के सैनिक तथा असैनिक शासन प्रबन्ध, राजस्व संग्रह तथा भारतीय रियासतों के साथ युद्ध और सन्धि से सम्बन्धित मामलों पर नियंत्रण तथा निर्देशन का अधिकार दिया गया।
(8) गवर्नर जनरल, गवर्नर, प्रधान सेनापति तथा कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को भारत से बाहर जाने की छुट्टी नहीं मिल सकती थी, जब तक वे अपने पद पर कार्य करेंगे। यदि कोई अधिकाबी बिना अनुमति लिए भारत से बाहर जाएगा, तो उसका त्याग-पत्र समझा जाएगा।
(9) यह व्यवस्था की गई कि जब गवर्नर जनरल किसी प्रान्त का दौरा करेगा, तो उस समय प्रान्तयी शासन प्रबनध गवर्नर के स्थान पर गवर्नर जनरल के हाथों में होगा। गवर्नर जनरल बंगाल में अपने अनुपस्थिति के समय का काम चलाने के लिए किसी भी कौंसिल के सदस्य को अपनी कौंसिल का उपाध्यक्ष नियुक्त कर देगा।
(10) कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय का नौसैनिक क्षेत्राधिकार बढ़ाकर खुले समुद्रों तक कर दिया गया।
(11) इस अधिनियम में यह बात फिर दुहराई गई कि भारत में कम्पनी द्वारा राज्य विस्तार करना और विजय की योजनाओं चलाना ब्रिटिश राष्ट्र की नीति, प्रतिष्ठा और उसके मान के विरूद्ध है। परन्तु जैसाकि जी.एन.सिंह ने लिखा है, परिस्थितियों के दबाव के कारण और मौके पर काम कर रहे व्यक्तियों की महत्त्वकांक्षाओ के कारण वास्तविक व्यवहार में इससे ठीक उल्टी ही नीति अपनाई गई।
(12) यह व्यवस्था की गई कि नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों के लिए प्रिवी कौंसिलर होना आवश्यक नहीं था।
(13) गवर्नर जनरल, गवर्नरों और प्रधान सेनापति की नियुक्ति के लिए इंग्लैण्ड के सम्राट की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गई।
(14) कम्पनी के कर्मचारियों के सम्बन्ध में ज्येष्ठता के सिद्धान्त का कठरोता से पालन किया जाएगा। दूसरे शब्दों में, यदि गवर्नर जनरल या गवर्नर का पद रिक्त हो जाए, तो उस पद पर स्थायी नियुक्ति होने तक परिषद् के सदस्यों में सबसे ऊँचे ओहदे वाला सदस्य (प्रधान सेनापति के सिवाय) उस पद पर काम करेगा।
(15) शराब बेचने वालों के लिए लाइसैन्स आवश्यक कर दिया गया।
(16) सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रेसीडेन्सी (बम्बई या मद्रास) के नागरिक सेवा के किसी भी सदस्य को शान्ति के न्यायाधीश नामक न्यायाधिकारी नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त किया गया। ये अधिकार कम्पनी के सम्मति-पत्रित कर्मचारियों में से नियुक्त किए जाने थे। (17) उपहार आदि लेना दुराचरण तथा अपराध घोषित किया गया और इसके लिएं दोषी व्यक्ति को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(18) कम्पनी के असैनिक कर्मचारियों को पदोन्नति देने के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।
(19) गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को प्रेसीडेन्सी नगरों में सड़कों की सफाई, देख-रेख और मराम्मत करने के लिए मेहतरों की नियुक्ति करने का अधिकार दिया गया। वे इन बस्तियों में स्वच्छता कर उप-शुल्क लगाकर इस कार्य के लिए आवश्यक घन भी प्राप्त कर सकते थे।
(20) कम्पनी को 20 वर्ष के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया था, परन्तु साथ ही निजी व्यापार के लिए तीन हजार टन का माल व्यापार करने की अनुमति दे दी गई थी। परन्तु इस अधिकार के प्रयोग में अनेक प्रतिबन्ध थे। अतः इसका कभी भी प्रयोग नहीं किया गया।
एक्ट का महत्त्व -
इस एक्ट का कोई संवैधानिक महत्त्व नहीं था। इसके द्वारा भारतीय शासन व्यवस्था में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था। फिर भी, भारतीय संविधान पर इसका प्रभाव बहुत लम्बी अवधि तक रहा। इस चार्टर की मुख्य विशेषता यह थी कि इसके द्वारा बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के सदस्यों को भारतीय कोष से वेतन देने की व्यवस्था की गई। यह गन्दी प्रथा 1919 का एक्ट पास होने तक जारी रही। इसके परिणामस्वरूप भारत को भारी आर्थिक हानि उठानी पड़ी। जी.एन.सिंह ने लिखा है कि इस चार्टर के साथ यह बुरी रूढ़ि स्थापित हुई, जो 1919 ई. तक अपने बुरे परिणामों के साथ चलती रही।
पी.ई. रॉबर्टस् ने इस चार्टर एक्ट के सम्बन्ध में लिखा है, संयोग देखिए कि इधर कार्नवालिस कम्पनी की सेवा से निवृत हुआ और उधर कम्पनी के राजपत्र के नवीनीकरण की तिथि आ पहुँची। यह यह तिथि इस समय से एकवर्ष पहले उपस्थित हुई होती, तो कम्पनी को सचमुच एक भयंकर समस्या का सामना करना पड़ता, क्योंकि उस समय जन-भावना कम्पनी के कुशासन एवं व्यावसायिक एकाधिकार के एकदम विरूद्ध थी, किन्तु अब स्थिति कुछ ओर थी। कार्नवालिस के सुधारों ने जनाक्रोश को ठण्डा कर दिया था। इसलिए जब लिवरपूल, बिस्टल, ग्लासगो, मैनचेस्टर, नार्विख, पेल्जे तथा एक्जीटर नामक महत्त्वपूर्ण नगरों के कम्पनी के भारत व्यापार में हिस्सा बँटाने की याचिका प्रस्तुत की, तो मंत्रिमण्डल ने कम्पनी के राजपत्र की अवधि 24 वर्ष और बढ़ा दी एवं निजी समुद्र व्यापारियों को केवल 3000 टन वार्षिक पोत परिवहन की अनुमति दी।
1793 के चार्टर के बाद सन् 1813 में एक और एक्ट पास किया गया। यह एक्ट पहले चार्टर एक्ट की अपेक्षा में अधिक महत्त्वपूर्ण था। इस एक्ट से कम्पनी के एकाधिकार को आघात पहुँचा। इसमें भारतीयों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त इस एक्ट में कम्पनी के भारतीय प्रदेशों पर ब्रिटिश सम्राट की प्रभुसत्ता पर बल दिया गया।
एक्ट के पास होने के कारण -
1793 ई. के एक्ट के द्वारा कम्पनी को पूर्वी देशों (भारत एवं चीन आदि) के साथ व्यापार करने का एकाधिकार 20 वर्ष के लिए दिया गया था। यह अवधि 1813 ई. में समाप्त हो गई थी। अतः कम्पनी के संचालकों ने अधिकार-पत्र के नवीनीकरण के लिए संसद से प्रार्थना की। उस समय परिस्थिति बहुत बदल चुकी थी तथा अनेक नई समस्याएँ उत्पन्न हो गई थीं। निम्नलिखित कारणों से कम्पनी के व्यापारिक विशेषाधिकारों को जारी रख पाना सम्भव नहीं था।
(1) कम्पनी के एकाधिकार के विरोध का प्रथम कारण यह था कि 1808 ई. से फ्रान्स के शासक नेपोलियन ने ब्रिटिश व्यापार के लिए यूरोप महाद्वीप की नाकेबन्दी कर दी थी जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजों के व्यापार को बहुत गहरा धक्का पहुँचा था। इसलिए अंग्रेज व्यापारियों ने कहा कि कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर सब देशवासियों को भारत के साथ व्यापार करने की स्वतंत्रता दी जाए, ताकि नेपोलियन की महाद्वीपीय व्यवस्था से हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति हो सके।
(2) कम्पनी के दुर्भाग्य से उस समय ऐडम स्मिथ द्वारा प्रतिपादित व्यक्तिवादी सिद्धान्त इंग्लैण्ड में बहुत लोकप्रिय था। अतः वहाँ का व्यापारी वर्ग कम्पनी के एकाधिकार पर आक्रमण करने लगा। उसने यह माँग की कि पूर्वीं देशों से व्यापार करने का अधिकार केवल कम्पनी को ही नहीं होना चाहिए, बल्कि सारी ब्रिटिश प्रजा को होना चाहिए। इस प्रकार, व्यापारिक वर्ग ने सभी लोगों को स्वतंत्र व्यापार का अधिकार देने के लिए आन्दोलन चलाया। सरकार के लिए इस माँग की अवहेलना करना कठिन हो गया। लार्ड मैलविल्ले ने इन परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए ही सन् 1811 में संचलाक मण्डल को यह चेतावनी दी थी, यदि कम्पनी के कर्त्ता-धर्त्ता के व्यापारियों को भारत में व्यापार में भाग नहीं लेने देंगे, तो ब्रिटिश सरकार के लिए संसद के पास कम्पनी के पक्ष में सिफारिश करना असम्भव होगा। संक्षेप में, इंग्लैण्ड में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का प्रबल विरोध हो रहा था।
(3) ईसाई धर्म प्रचारकों ने पार्लियामेन्ट के अन्दर और बाहर यह आन्दोलन चलाया कि उन्हें भारत में धर्म प्रचार के लिए विशेष सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। विलम्बर फोर्स तथा कुछ अन्य लोगों ने भारत सरकार को प्रेरणा दी कि वह भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए सक्रिय कदम उठाए। कम्पनी के संचालक ईसाइयत के प्रचार के ईच्छुक नहीं थे। अतः उन्होंने इस सम्बन्ध में निम्मलिखित युक्तियाँ भी दीं-प्रथम, कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करने पर उनके लिए भारतीय प्रशासन को कुशलतापूर्वक चलाना कठिन हो जाएगा। दूसरे, यदि सब अंग्रेजों को भारत के साथ व्यापार करने की खुली छुट दे दी गई तो ऐसे अंग्रेज वहाँ जाएँगे जिन्हें भारतीयों के रीति-रिवाजों का ज्ञान नहीं है। उनकी गतिविधियों से कम्पनी के लिए विभिन प्रकार की कठिनाइयाँ उत्पन्न होंगी। संचालकों की इन युक्तियों का समर्थन कर्नल मैल्कम, कर्नल मुनरो, वारेन हेस्टिंग्स, चार्ल्स ग्राण्ट जैसे कुछ व्यक्तियों ने भी किया, जो कि भारत में अपने जीवन का कुछ समय व्यतीत कर चुके थे।
(4) वेलेजली ने भारत में युद्ध और विजय की नीति का अनुसरण किया, जिसके कारण भारत में ब्रिटिश राज्य क्षेत्र का बहुत अधिक विस्तार हो गया था। कम्पनी एक व्यापारिक संस्था से अधिक राजनीतिक सम्प्रभु बन गई थी। अतः पार्लियामेन्ट का हस्तक्षेप आवश्यक हो गया था।
(5) लार्ड वेलेजली की युद्धि नीती के कारण कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत शोचनीय हो गई थी। वह कर्ज के बोझ से दब गई थी। अतः संसद ने 11 मार्च, 1808 ई. को कम्पनी के मामलों की जाँच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की। इस कमेटी नेआगामी पाँच वर्षों में पाँच रिपोर्टें पेश कीं, जिनमें से सबसे प्रसिद्ध पाँचवी रिपोर्ट थी। इल्बर्ट के शब्दों में, यह रिपोर्ट अब भी अपने समय की राजस्व, न्याय तथा पुलिस सम्बन्धी व्यवस्था के बारे में आदर्श प्रमाण है। इन रिपोर्टों के आधार पर ब्रिटिश पार्लियामेन्ट ने कम्पनी के मामलों में हस्तक्षेप किया और 1813 ई. का चार्टर एक्ट पास किया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ- इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं।
(1) इस एक्ट द्वारा ब्रिटिश संसद ने कम्पनी को आगामी 20 वर्ष के लिए भारत के साथ व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई।
(2) कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सभी अंग्रेज व्यापारियों को भारत से व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई। परन्तु व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार करने के लिए लाइसेन्स और परमिट लेना जरूरी कर दिया गया। ये लाइसेन्स संचालक मण्डल से या उसके इन्कार करने पर नियंत्रण मण्डल से प्राप्त होते थे।
(3) इस एक्ट के अनुसार चाय का व्यापार तथा चीन के साथ व्यापार का एकाधिकार कम्पनी के हाथों में ही सुरक्षित रहने दिया गया। यह सुविधा इसलिए दी गई थी, ताकि वह इ साधनों की आय से अपना भारतीय शासन प्रबन्ध आसानी से चला सके।
(4) भारत में ईसाई धर्म के प्रचार के लिए अनुमति दे दी गई और इसके लिए अधिकारियों की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। इस एक्ट में कहा गया था कि, भारत में रहने वाले तथा वहाँ जाने वाले सभी लोगों को भारतीयों में उपयोगी ज्ञान, धर्म तथा नैतिक उत्थान के प्रचार का अधिकार होगा। इस तरह से भारत में ईसाई धर्म तथा पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार के लिए यह पहला कदम था। परन्तु इस उद्देश्य को छुपाने के लिए एक्ट में यह कहा गया कि कम्पनी की नीति भारतीयों को अनपे धर्म का पूर्ण पालन करने की स्वतंत्रता देने की है।
(5) कम्पनी ने भारतीयों में शिक्षा प्रसार, उनके साहित्य का उत्थान और उनमें विज्ञान के प्रचार के लिए एक लाख प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की।
(6) कम्पनी को अपने व्यापारिक तथा शासन सम्बन्धी खातों को अलग-अलग रखने का आदेश दिया गया।
(7) बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की शक्तियाँ निश्चित की गई और इसकी निगरानी तथा आदेश जारी करने की शक्तियों को और अधिक बढ़ा दिया गया। कम्पनी के मामलों में अन्तिम निर्णय ब्रिटिश सम्राट का माना जाएगा, परन्तु दीवानी प्रबन्ध कम्पनी के पास ही रखा गया।
(8) भारत में कम्पनी के प्रदेशों की स्थानीय सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में रहते हुए वहाँ की जनता पर टैक्स लगाने का अधिकार दिया गया और टैक्स न देने वालों के लिए दण्ड देने की व्यवस्था की गई।
(9) इस एक्ट में भारतीय राजस्व से वेतन पाने वाली ब्रिटिश सेना की संख्या 29,000 निश्चित की गई। इसके अतिरिक्त कम्पनी को यह शक्ति प्रदान की गई कि वह भारतीय सैनिकों के लिए कानून तथा नियम बना सके।
(10) जिन मुकदमों में एक तरफ अंग्रेज और दूसरी तरफ भारतीय थे, उनके निर्णय की विशेष व्यवस्था की गई। चोरी, जालसाजी तथा सिक्क बनाने वालों के लिए विशेष प्रकार का दण्ड देने हेतु नियम बनाए गए।
(11) गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापति और प्रान्तीय गवर्नरों की नियुक्ति कम्पनी के संचालकों द्वारा की जाती थी, परन्तु उन नियुक्तियों के लिए अन्तिम स्वीकृति ब्रिटिश सम्राट से प्राप्त करना अनिवार्य था। इसके अतिरिक्त उन पर बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष के हस्ताक्षर भी आवश्यक थे।
(12) भारत में रहने वाले यूरोपियनों की आध्यात्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कलकत्ता में एक बिशप तथा उसके अधीन तीन पादरी नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस तरह ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए भारत में एक सरकारी गिरजे की स्थापना करना अनिवार्य हो गया।
(13) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के नागरिक तथा फौजी कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की गई। हेलबरी का कॉलेज, ऐटिसकौम्बी का सैनिक शिक्षणालय को बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल की देख-रेख में रखने का निश्चय किया गया। कलकत्ता तथा मद्रास के कॉलेजों को भी बोर्ड ऑफ कण्ट्राल के नियमों के अनुसार चलाने की व्यवस्था की गई।
(14) इस एक्ट में कम्पनी के ऋण को घटना के लिए भी कदम उठाए गए।
एक्ट का महत्त्व
पूर्ववर्ती अधिनियम की भाँति 1813 के चार्टर एक्ट का भी विशेष महत्त्व नहीं था। फिर भी यह एकदम महत्त्वहीन नहीं कहा जा सकता है। इसके द्वारा भारतीय व्यापार पर कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया और सम्पूर्ण ब्रिटिश प्रजा को भारत से व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया। अतः अनेक अंग्रेज व्यापारी भारतवर्ष के साथ वाणिज्य तथा व्यापार करने लगे। इंग्लैण्ड का व्यापार आगामी 50 वर्षों में सात गुणा हो गया और वहाँ के देशवासियों ने अपार धन कमाया। व्यापार की इस वृद्धि से अंग्रेज लोक नेपोलियन द्वारा की गई महाद्वीपीय नाकेबन्दी के कारण उत्पन्न हुई आर्थिक हानि की पूर्ति भली-भाँति कर सके।
ब्रिटिश पूँजी और उद्यम के स्वतंत्र आगमन ने भारत में शोषण का एक युग शुरू किया। अंग्रेज व्यापारियों ने अपने बढ़िया तथा सस्ते माल के बल पर भारतीय व्यापार तथा उद्योगों को गहरी चोट पहुँचाई। इसके बाद भारत उद्योग-प्रधान देश न रहकर कृषि-प्रधान देश रह गया। सर एल्फ्रेड लायल के शब्दों में, भारतीय करधों का बना हुआ कपड़ा लंकाशायर के कारखानों में तैयार हुए माल का मुकाबला न कर सका। धीरे-धीरे भारत उद्योग-क्षेत्र में बहुत पीछे रह गया और जनता का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया। डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने भी इस सम्बन्ध में लिखा है, लगभग इसी समय से भारतीयों के उद्योगों का विनाश आरम्भ हुआ, उनकी कृषि पर निर्भरता बढ़ने लगी और देश उत्तरोत्तर निर्धन होता गया।
यह एक्ट इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि कम्पनी के प्रदेशों पर वास्तविक सत्ता इंग्लैण्ड नरेश की मानी गई थी। संवैधानिक दृष्टिकोण से यह घोषणा बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी।
इंग्लैण्ड में बहुत समय से लोकमत कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार का विरोध कर रहा था और सबको भारत से स्वतंत्र व्यापार का अधिकार दिए जाने की माँग कर रहा था। यद्यपि कम्पनी ने इस बात का विरोध किया, परन्तु पार्लियामेन्ट के लिए लोकमत की अवहेलना करना सम्भव नहीं था। अतः संसद ने जनता की इच्छा का आदर करते हुए कम्पनी के एकाधिकार पर गहरी चोट की।
इस एक्ट का महत्त्व इस बात में भी निहित है कि इसके द्वारा भारतीयों की शिक्षा के लिए भी एक लाख रूपये प्रतिवर्ष खर्च करने की व्यवस्था की गई। यद्यपि इस दिशा में आगामी बीस वर्षों तक कोई ठोस पग नहीं उठाया जा सका और एक लाख रूपया प्रतिवर्ष जमा होता रहा, तथापि यह एक्ट इस श्रेय का अधिकारी है कि इसके द्वारा ब्रिटिश सरकार ने पहली बार भारतीयों के सैनिक तता बौद्धिक उत्थान का दायित्व अपने ऊपर लिया। इसके अतिरिक्त इस एक्ट ने शिक्षा क्षेत्र में पग उठाने के लिए आधार भी प्रदान किया।
इस एक्ट द्वारा भारत में ईसाई मिशनरियों को ईसाई धर्म का प्रचार करने की आज्ञा दे दी गई। इसलिए उन्हों ने भारत में अनेक स्थानों पर गिरजे, स्कूल तथा कॉलेज स्थापित किए और उनके माध्य से भारतीयों में धर्म प्रचार किया। परिणामस्वरूप हजारों हिन्दुओं ने ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया, जिससे भारतीय समाज में एक नये सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इसलिए बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती और विवेकानन्द ने इस प्रचार को रोकने के लिए बड़ा भारी प्रयत्न किया।
3. 1833 का चार्टर एक्ट -
1833 के चार्टर एक्ट ने कम्पनी के प्रशासन में बहुमुखी तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। मार्लें ने 1908 ई. में संसद के समक्ष भाषण देते हुए कहा कि, यह एक्ट 19वीं शताब्दी के पास होने वाले भारत सम्बन्धी एक्टों में सबसे महत्त्वपूर्ण था।
एक्ट के पास होने के कारण -
1813 ई. के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी को भारतीय प्रदेश तथा उनका राजस्व प्रबन्ध 20 वर्षों के लिए सौंपा गया। यह समय 1833 ईं. में समाप्त हुआ और कम्पनी के संचालको ने चार्टर के नवीनीकरण हेतु संसद को प्रार्थना की। उन दिनों इंग्लैण्ड के राजनीतिक वातावरण पर उदारवादी अर्थशास्त्रियों, उपयोगवादियों और मानवतावादियों का प्रभुत्व छाया हुआ था। मानव अधिकार का सिद्धान्त सबकी जबान पर था। दास व्यापार का अन्त हो गया था। दास प्रथा समाप्त कर दी गई थी और प्रेस को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई थी। एक वर्ष पूर्व ही रिफार्म एक्ट पास हुआ था, जिसके द्वारा संसदीय व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन किए गए थे। मुक्त व्यापार के सिद्धान्त ने जनता पर जादू कर रखा था। ब्रिटिश राजनीति पर उन दिनों ग्रे, मैकाले और जेम्स मिल जैसे सुधारवादियों का ही आधिपत्य था। मैकाले संसद का सदस्य और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल का सचिव था। प्रधानमंत्री ग्रे भी महान् सुधारवादी था और बेंथम का शिष्य जेम्स मिल संचालक मण्डल के कार्यालय इण्डिया हाऊस में महत्त्वपूर्ण अधिकारी था। उसका मुख्य कार्य संचालकों और भारत सरकार के मध्य होने वाले पत्र-व्यवहार का निरीक्षण करना था। ऐसे सुधारवादियों का एक्ट की रूपरेखा पर प्रभाव होना स्वाभिवाक था। सी.एल. आनन्द के शब्दों में, सुधार और उत्साह के इस वातावरण में संसद को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चार्टर को नया करने का अवसर मिला।
इस विधेयक को पार्लियामेन्ट में पेश करने पर गरमा-गरम बहस हुई। इस बहस में कम्पनी को एक साथ व्यापारिक तथा शासकीय संस्था बनाए रखने की कड़ी आलोचना की गई। बकिंधम ने इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे, भारत जैसे देश का प्रबन्ध जो अपनी जनसंख्या, सैन्य शक्ति तथा वित्तीय साधनों में इंग्लैण्ड से भी महान है-एक कम्पनी के हाथों में सौंपे रखना सर्वथा अनुचित है। बकिंधम ने यह सुझाव दिया कि, भारत की सर्वोच्च परिषद् में भारत में रहने वाले अंग्रेजों के और साथ ही लोगों के कुछ प्रतिनिधि सम्मिलित किए जाएँ, जिससे अन्त में स्वशासन की उस प्रणाली का आरम्भ हो सके, जिसकी ओर हमारे अन्य सब उपनिवेशो के साथ उन्हें यथा सम्भव तीव्रतम गति से बढ़ना चाहिए। लार्ड मैकाले इस सुझाव से समहत नहीं थे। उसने बकिंघम के विचारों का सफलतापूर्वक खण्डन किया और भारतीय प्रशासन को कम्पनी के हाथों में रखने पर ही बल दिया। लार्ड मैकाले ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि, भारत में प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना नहीं हो सकती तथा कम्पनी ही ब्रिटिश सरकार के अंग के रूप में भारत में शासन कर सकती है, क्योंकि संसद को भारतीय मामलों का न तो ज्ञान है और न समय ही। भारतीय मामलों के प्रति इंग्लैण्ड की जनता की उदासीनता की ओर संकेत करते हुए मि. मैकाले ने कहा कि, भारतवर्ष के तीन घमासान युद्ध लड़े जाने पर भी हमारी जनता में इतनी सनसनी नहीं फैलती जितना इंग्लैण्ड में किसी व्यक्ति के सिर फूटने की दुर्घटना से...और भारत के करोड़ो मनुष्यों के शासन से सम्बन्धित पग पर विचार करने के लिए हाऊस ऑफ कॉमन्स के इतने सदस्य उपस्थित नहीं होते, जितने कि यहाँ के एक मामूली से बिल पर वाद-विवाद के लिए इकट्ठे होते हैं।
लार्ड मैकाल ने कम्पनी के पक्ष में एक और यह तर्क भी दिया कि ईश्ट इण्डिया कम्पनी देश को राजनीतिक और धार्मिक प्रभावों से मुक्त है। अतः उसका अन्य कोई विकल्प आसानी से नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त यह कम्पनी इंग्लैण्ड की राजनीति को दृष्टि में रखकर नहीं, अपितु भारत की राजनीति को दृष्टि में रखकर काम करती है। लार्ड मैकाले की इ सार्थक युक्तियों का पार्लियामेन्ट के संसद सदस्यों पर अत्याधिक प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि घोर विरोध के बावजूद भी 23 अगस्त, 1833 ई. में चार्टर को पास कर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकार को 20 वर्षों के लिए नया कर दिया गया।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ -
लार्ड विलियम बैंटिक के शासनकाल में ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा 1833 का चार्टर एक पारित किया गया। इस एक्ट के द्वारा कम्पनी की स्थिति, उसके संविधान तथा उसके भारतीय प्रशासन में मह्त्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस एक्ट की प्रमुख धाराएँ निम्नलिखित थीं-
(1) स्वदेश में कम्पनी के प्रशासन में परिवर्तन
(i) इस एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी का शासन और राजनीतिक सत्ता की अवधि 20 वर्ष तक के लिए बढ़ा दी गई।
(ii) कम्पनी की कुछ व्यापारिक सुविधाओं को छीन लिया गया तथा चीन के साथ व्यापार करने का इसका एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। उससे कहा गया कि वह अपना व्यापार सुविधापूर्वक जल्दी से जल्दी समेट ले। कम्पनी की हानि को पूरा करने के लिए उसके हिस्सेदारों को उनकी पूँजी के अनुसार 101/2 प्रतिशत दर से लाभांश देने की व्यवस्था की गई। ये लाभांश उन्हें भारतीय राजस्व से आगामी 40 वर्ष तक देने का आश्वास दिया गया।
(iii) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के शासन सम्बन्धी अधिकारों को भी सीमित कर दिया गया। एक्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया कि भारतीय प्रदेश कम्पनी के पास ब्रिटिश सम्राट तथा उसके उत्तराधिकारियों की अमानत के रूप में होगा।
(iv) नियंत्रण मण्डल के संविधान में कुछ परिवर्तन किए गए।
(v) कौंसिल के लार्ड प्रेसीडैन्ट, लार्ड प्रिवीसिल, ट्रेजरी के प्रथम लार्ड, राज्यच के प्रधान सचिव और चांसलर ऑफ द एक्ट चेकर भारतीय मामलों के लिए प्रदेश कमिश्नर नियुक्त किए गए।
(vi) इस एक्ट के पूर्व अंग्रेज व्यापारियों और मिशनरियों को भारत आने के लिए लाइसेन्स लेना पड़ता था। परन्तु 1833 के एक्ट के द्वारा लाइसेन्स लेने का प्रतिबन्ध हटा दिया गया तथा अंग्रेजों को भारत के किसी भी भाग में बसने, भूमि खरीदने तथा निवास स्थान बनाने का अधिकार दे दिया गया। लेकिन सपरिषद् गवर्नर जनरल से यह अपेक्षा की गई कि, वे कानून द्वारा या नियम बनाकर जल्दी से जल्दी इन प्रदेशों के देशी निवासियों की अपमान से और उनके शरीर, धर्म या सम्मतियों पर अत्याचार से रक्षा की व्यवस्था करेंगे।
(2) भारत की केन्द्रीय सरकार में परिवर्तन
पुन्निया के शब्दों में, भारत सरकार तथा प्रशासन में विस्तृत परिवर्तन लाये गए, जिसके लिए एक शब्द-केन्द्रीकरण का प्रयोग किया जा सकता है।
(i) इस एक्ट द्वारा केन्द्रीय सरकार की शक्तियों में वृद्धि कर दी गई तता प्रान्तीय सरकारों की स्थित को घटा दिया गया। बंगाल के गवर्नर जनरल को समस्त भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया, क्योंकि पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत अंग्रेजों के अधीन हो चुका छा। गवर्नर जनरल को कम्पनी के भारतीय प्रदेशों के समस्त सैनिक तथा असैनिक प्रशासन प्रबन्ध का नियंत्रण निर्देशन और अधीक्षण करने के अधिकार दिए गए।
(ii) सपरिषद् गवर्नर जनरल को समस्त भारतीय प्रदेशों के लिए कानून बनाने का अधिकार दिया गया। इस कार्य के लिए परिषद् में एक चौथा सदस्य और बढ़ा दिया गया, उसको कानून निर्माण में सहायता देने के लिए रखा गया था। इसलिए उसको कानून सदस्य कहा जाने लगा। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा होती थी तथा वह कम्पनी का कर्मचारी नहीं होता था। वह कौंसिल की केवल न बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून तथा अधिनियम आदि बनाने के लिए बुलाई गई हों। प्रथम लॉ मैम्बर बनने का सौभाग्य लार्ड मैकाले को प्राप्त हुआ।
(iii) भारत में प्रचिलत विभिन्न प्रकार के कानूनों और नियमों को संहिताबद्ध करने के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरलस को भारतीय विधि आयोग नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। इस आयोग का कार्य न्यायालयों तथा पुलिस कर्मचारियों के अधिकार क्षेत्र और शक्तियों की जाँच-पड़ताल करना था। इसके अतिरिक्त इसे समस्त प्रकार की न्याय विधियों तथा कानून की छानबीन करनी थी। इस आयोग ने कई रिपोर्टें प्रस्तुत कीं, जिनमैं मैकाले द्वारा तैयार किया हुआ पेन कोड बहुत प्रसिद्ध है।
(iv) इस सम्बन्ध में सपरिषद् गवर्नर जनरल का क्षेत्राधिकार अधिकृत भारतीय प्रदेशों तथा हर भाग के निवासियों, न्यायालयों, स्थानों तथा चीजों पर लागू कर दिया गया।
(v) भारत में कानून बनाने की शक्ति सपरिषद् गवर्नर जनरल के हाथ में केन्द्रित कर दी गई। इसके पूर्व भारत में कानूनों की बहुत भिन्नता थी। बम्बई तथा मद्रास की सरकारें अपनी इच्छानुसार कानून बनाती थी। बंगाल की सरकार के साथ उनका इस विषय में कोई मेल नहीं होता था। इसलिए इस एक्ट द्वारा बम्बई तथा मद्रास के गवर्नरों और उनकी कौंसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। सपरिषद् कानून गवर्नर जनरल को सारे देश के लिए समरूप बनाने का अधिकार दिया गया।
प्रान्तों की सरकारों में परिवर्तन
(i) प्रान्तीय सरकारों के प्रशासन के लिए गवर्नर तथा परिषद् की पूर्ववर्ती व्यवस्था कायम रही। (ii) प्रत्येक प्रान्तीय सरकार को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह जिन कानूनों या विनियमों को बनाना आवश्यक समझती है, उनके प्रारूप सपरिषद् गवर्नर जनरल के सम्मुख प्रस्तुत कर सके। सपरिषद् गवर्नर जनरल उस पर विचार-विर्मश कर उसकी सुचना सम्बन्धित प्रेसीडेन्सी को देता था।
(iii) मद्रास तथा बम्बई के गवर्नरों और उनकी कौसिलों को कानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इस एक्ट में यह भि निश्चित किया गया कि सपरिषद् गवर्नर किसी भी दशा में किसी भी कानून को निलम्बित नहीं कर सकेगा।
(iv) वित्तीय मामलों में प्रान्तीय सरकारों को केन्द्रीय सरकार के अधीन कर दिया गया। कोई भी प्रान्तीय गवर्नर बिना गवर्नर जनरल की आज्ञा के किसी पद की व्यवस्था नहीं कर सकता था और न ही उसे किसी नये वेतन या भत्ते स्वीकृत करने का अधिकार था।
(v) प्रान्तयी सरकारों के लिए गवर्नर जनरल के आदेशों तथा निर्देशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया।
(vi) हर प्रान्तीय सरकार के लि े सपरिषद् गवर्नर जनरल को सभी आदेशों तथा अधिनियमों की प्रतिलिपियाँ भेजना अनिवार्य कर दिया गया।
(vii) प्रान्तीय सरकारों को संचालक मण्डल से सीधा पत्र-व्यवहार करने की छूट थी, लेकिन पत्रों की एक प्रतिलिपि उन्हें गवर्नर जनरल को भेजनी पड़ती थी।
(viii) गवर्नर जनरल को बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में भी काम करना पड़ता था। अतः उसने अपनी कौंसिल के एक सदस्य को बंगाल का डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की।
(ix) बंगाल प्रान्त को दो प्रान्तों-बंगाल और आगार में विभाजित करने की व्यवस्था की गई, लेकिन इस योजना को कभी क्रियान्वित नहीं किया गया।
(i) इस एक्ट में यह भी उल्लेख किया गया कि सरकारी सेवाओं में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के योग्यतानुसार नौकरी दी जाएगी अर्थात् धर्म, जन्म, स्थान, वंश, जाति और रंग के आधार पर सरकारी सेवा में प्रवेश के लिए कोई भेदभाव नहीं बरता जाएगा। यह घोषणा ब्रिटिश सरकार की भारतीयों के प्रति उदार नीति का प्रतीक थी। इसका तात्कालिक प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन इस उपबन्ध के आधार पर लार्ड मार्ले ने 1833 के अधिनियम को 1909 तक संसद द्वारा पारित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भारतीय अधिनियम कहा।
(ii) इस एक्ट द्वारा गवर्नर जनरल को आदेश दिया गया कि वह अपनी कौंसिल के सदस्यों की सहायता से भारत में दास प्रथा को समाप्त करने का प्रयत्न करे तथा दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाए।
(iii) भारत में ईसाइयों के लाभ के लिए बंगाल, बम्बई तता मद्रास में बिशपों (बड़े पादरियों) की नियुक्ति की व्यस्था की गई और कलकत्ता के बिशप को इनका प्रधान बना दिया गया।
(iv) कम्पनी के लोक सेवकों के प्रशिक्षण के लिए हेरबरी कॉलेज में व्यवस्था की गई और उस कॉलेज में प्रवेश के सम्बन्ध में नियम बनाए गए।
(v) कम्पनी का नाम द युनाईटेड कम्पनी ऑफ इंग्लैण्ड ट्रेडिंग टू द ईश्ट इण्डिया से बदलकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी कर दिया गया।
एक्ट का महत्त्व
1833 ई. का एक ब्रिटिश संसद द्वारा 19वीं शताब्दी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। लार्ड मार्ले ने ठीक ही कहा था कि, यह एक्ट 1784 के पिट अधिनिय तथा 1858 में साम्राज्ञी द्वारा भारतीय सत्ता को हस्तगत करने के बीच में सर्वाधिक व्यापाक तथा महत्त्वपूर्ण अधिनियम था। वस्तुतः इस एक्ट ने न केवल भारत के प्रशासन में महान् तथा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया, अपितु कई दयालुतापूर्ण घोषणाएँ भी कीं और व्यापाक मानवतावादी सिद्धान्तों का अनुपालन भी किया।
(1) इस एक्ट द्वारा कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। इसलिए अब वह व्यापारिक तथा शासकीय संस्था के स्थान पर केवल शासकीय संस्था ही रह गई। अब भारत का शासन चलाते समय इसका केवल व्यापारिक दृष्टिकोण समाप्त हो गया। चूँकि अब कम्पनी केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतः ब्रिटिश सरकार को इस पर नियंत्रण बढ़ता गया। वह नियंत्रण 1858 ई. में यहाँ तक बढ़ा कि कम्पनी के शासन का अन्त कर दिया गया।
(2) कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार समाप्त होने पर वह केवल शासन करने वाली संस्था रह गई थी। अतःसंचालक मण्डल कम्पनी के शासन सम्बन्धी मामलों में अधिक रूचि लेने लगे, जिससे शासन प्रबन्ध की कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। मार्शमैन के शब्दों में, राज्य सम्बन्धी तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों के एक-दूसरे से पृथक् होने का प्रभाव संचालकों की नीति तथा उनके विचारों पर भी पड़ा। उनके दृष्टिकोण में परम्परागत संकीर्णता के स्थान पर कुछ उदारता आ गई और उनकी प्रेरणा से भारत में काम करने वाले अधिकारियों ने कुछ ऐसे पग उठाए, जो दयालुता तथा बुद्धिमत्ता से ओत-प्रोत थे।
(3) डॉ. ईश्वरीप्रसाद ने लिखा है, इस एक्ट का महत्त्व इसलिए भी है, क्योंकि इसके द्वारा भारतीय विधान-मण्डल की नींव रखी गई। इस एक्ट का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रशासन का केन्द्रीकरण किया गया। प्रादेशिक सरकारों को बानून बनाने के अधिकार से वंचित कर दिया और गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल को सारे ब्रिटिश भारत के लिए कानून बनाने की शक्ति दे दी गई। इस हेतु गवर्नर जनरल की कौंसिल में कानून सदस्य की वृद्धि की गई। इसके अतिरिक्त प्रादेशिक सरकारों के लिए सपरिषद् गवर्नर जनरल के आदेशों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। बित्तीय मामलों में प्रादेशिक सरकारों पर गवर्नर जनरल का नियंत्रण सामान्य रूप से स्थापित किया गया। सारांश यह है कि इस एक्ट द्वारा प्रादेशिक सरकारों पर केन्द्रीय नियंत्रण पहले से अधिक दृढ़ तथा व्यापक बना दिया गया। इस नई व्यवस्था से भारतीय प्रशासन में एकरूपता आ गई। वस्तुतः देश की एकता की दिशा में यह एक महान् कदम था।
(4) इस एक्ट के अनुसार भारत सरकार को दासता समाप्त करने और दासों के सुधार के लिए अच्छे नियम बनाने का अधिकार दिया गया।
(5) इस अधिनियम की एक बहुत बड़ी देन यह थी कि इसके द्वारा विधि अयोग की स्थापना की गई। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1837 ई. में इण्डियन पेनल कोड का प्रलेख तैयार हुआ जिसने संशोधित होने पर 1860 ई. में कानून का रूप धारण कर लिया। इण्डियन पेनल कोड तैयार करने में विधि आयोग के अध्यक्ष मैकाले ने बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। मि. एल्फ्रेड लायल के शब्दों में, इण्डियन पेनल कोड लार्ड मैकाले की कानून-क्षेत्र में योग्यता तथा निपुणता के प्रति एक स्थायी श्रद्धांजली है।
इस आयोग के पास के फलस्वरूप सारे भारत के लिए दण्ड संहिता तथा दिवानी और फौजदारी प्रक्रिया का संकलन हुआ। इससे कानून में एकरूपता आ गई और केन्द्रीय सरकार की केन्द्रीयकरण की नीति को बल प्राप्त हुआ।
4. 1853 का चार्टर एक्ट -
1853 के चार्टर एक्ट द्वारा कम्पनी के प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन किए गए, परन्तु इससे शासकीय नीति तथा प्रशासन की कार्यकुशलता में बिल्कुल वृद्धि नहीं हुई।
एक्ट के पास होने के कारण
1853 के चार्टर की पृष्ढभूमि अनोखी थी। जिस समय ब्रिटिश पार्लियामेन्ट में 1833 के एक्ट पर विचार-विमर्श चल रहा था, उस समय केवल अंग्रेज व्यापारियों तथा ईसाई मिशनरियों ने उसका विरोध किया था। जब 1853 में इस अधिकार-पत्र को फिर से नया करने का समय आया, तब इस अधिनियम के विरोध में भारतीयों ने भी उनका साथ दिया। बंगाल, मद्रास तथा बम्बई प्रान्तों के निवासियों ने बहुत बड़ी संख्या में हस्ताक्षरों से एक प्रार्थना-पत्र ब्रिटिश पार्लियामेन्ट को भेजा, जिसमें कम्पनी के अधिकार-पत्र की अवधि बढ़ाने का विरोध किया गया था।
सन् 1833 के एक्ट की धारा 87 की घोषणा से भारतीयों को बहुत प्रोत्साहन मिला था। अनेक भारतीय युवक उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गए, लेकिन भारत लौटने पर उन्हें निराश ही हाथ लगी, क्योंकि उन्हें काले-गोरे की भेद नीति के कारण उच्च पदों पर नौकरी नहीं मिल सकी। गवर्नर जनरल की कौंसिल के एक सदस्य मि. कैमरोन ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार कहा, पिछले 20 वर्षों एक भी भारतीय को किसी ऐसे पद की प्राप्ति नहीं हुई, जिस पर वह सन् 1833 से पूर्व नियुक्त होने का अधिकारी नहीं था।
इस व्यवस्था से भारतीयों को बहुत दुःख तथा निराशा हुई तथा उनमें तीव्रगति से असन्तोष फैला। बंगाल, बम्बई तथा मद्रास के निवासियों ने भारतीय प्रशासन में परिवर्तन के लिए ब्रिटिश पार्लियामेंट को प्रार्थना-पत्र भी भेजे। इन प्रार्थना-पत्रों में कलकत्ता के निवासियों द्वारा भेजा गया पत्र विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण था क्योंकि इसमें-
(i) भारत में कानून बनाने के लिए एक अलग विधान-मण्डल की व्यवस्था करने
(ii) प्रादेशिक सरकारों को आन्तरिक स्वतंत्रता देने की
(iii) भारत पर शासन करने का अधिकार एक भारत सचिव तथा उसकी कौंसिल को सौंप देने की
(iv) ब्रिटिश सिविल परीक्षा के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था करने की माँग की गई थी।
इसके अतिरिक्त कम्पनी के प्रशासन की त्रुटियों को दूर करने के लिए कुछ और भी सुझाव दिए गए। इस प्रकार, विभिन्न प्रेसीडेन्सियों की सरकारों की ओर से संसद में भारतीय प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए अनेक प्रभावशाली सुझाव पेश किए गए थे। अतः ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 1852 में इन सब बातों की जाँच करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की और उसकी रिपोर्ट के आधार पर 1853 का चार्टर एक्ट पास किया गया था।
एक्ट की प्रमुख धाराएँ अथवा उपबन्ध - 1853 ई. के एक्ट की धाराएँ अथवा उबन्ध निम्नलिखित थे-
(1) कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित शासकीय व्यवस्था को सम्बन्धित धाराएँ
(i) इस एक्ट द्वारा भारतीय प्रदेशों तथा उनके राजस्व का प्रबन्ध कम्पनी को सौंप दिया गया, परन्तु पहले की तरह उसमे कोई निश्चित अवधि नियत नहीं की गई, केवल इतना कहा गया कि कम्पनी का शासन भारत में तब तक चलता रहेगा, जब तक कि ब्रटिश संसद कोई अन्य व्यवस्था न करे अर्थात् ब्रिटिश संसद को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह किसी भी समय भारतीय प्रदेशों का शासन अपने हाथ में ले सकती थी। इस प्रकार, कम्पनी को भारतीय प्रदेशों पर अपना आधिपत्य ब्रिटिश साम्राज्ञी तथा उसके उत्तराधिकारियों की ओर से ट्रस्ट के रूप में रखने की आज्ञा दी गई।
(ii) इस एक्ट में संचालक मण्डल की शक्ति को कम करने के लिए उनके सदस्यों की संख्या 24 में घटाकर 18 कर दी गई। इनमें से 6 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार इंग्लैण्ड के सम्राट को दिया गया। इसी प्रकार संचालक मण्डल की बैठकों में कोरम की पूर्ति के लिए सदस्यों की संख्या 13 से घटाकर 10 कर दी गई, जिससे सम्राट द्वारा नियुक्त सदस्यों का बहुमत सम्भव हो सके। इसका परिणाम यह हुआ कि कम्पनी के मामलों में ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण और अधिक प्रभावी हो गया।
(iii) नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों का वेतन कम्पनी देगी। उनके वेतन का निर्धारण साम्राज्ञी द्वारा किया जाएगा। अधिनियम में यह कहा गया था कि बोर्ड के अध्यक्ष का वेतन किसी भी दशा में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के वेतन से कम नहीं होगा।
(iv) संचालकों से कम्पनी के उच्च सैनिक पदाधिकारियों की नियुक्ति करने का अधिकार छीन लिया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल से नियुक्तियों के बारे में नियम बनाने का अधिकार दिया गया। भविष्य में अनुबन्धित सेवाओं में रिक्त स्थानों पर नियुक्ति प्रतियोगिता परीक्षाओं के आधार पर करने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार सिविल सर्विस में भर्ती के लिए लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। इस परीक्षा में भारतीय युवकों को भी भाग लेने की सुविधा दी गई।
(v) न्यायिक, वित्तीय और राजनीतिक विषयों की देखभाल के लिए संचालकों ने तीन उप-समितियाँ बनाई। तीन संचालकों की गुप्त समिति पूर्ववरत् बनी रही।
(2) भारत में केन्द्रीय सरकार से सम्बन्धित उपबन्ध
(i) गवर्नर जनरल को बंगाल के शासन भारत से मुक्त कर दिया गया। बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस एक्ट द्वारा यह भी निश्चित किया गया कि बंगाल के गवर्नर नियुक्त होने तक, गवर्नर जनरल संचालक मण्डल की अनुमति से बंगाल के लिए एक लेफ्टिनेन्ट गवर्नर नियुक्त कर सकता है। बंगाल में अलग गवर्नर तो 1912 ई. तक नियुक्त नहीं किया गया, परन्तु 1854 में एक लेफ्टिनेंट गवर्नर बंगाल के लिए और दूसरा पंजाब के लिए नियुक्त कर दिया गया।
(ii) कम्पनी के भारतीय भू-क्षेत्र के बढ़ जाने से संचालक मण्डल को मद्रास तथा बम्बई की भाँति एक अन्य प्रेसीडेन्सी के निर्माण का अधिकार दिया गया। परिणामस्वरूप 1859 में पंजाब के प्रान्त की रचना हुई।
(iii) 1833 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कौंसिल में बढ़ाया गया था, जो कानून बनाने के कार्य में उसकी सहायता करता था। विधि सदस्य कौंसिल की केवल उन्हीं बैठकों में भाग ले सकता था, जो कानून के उद्देश्य से बुलाई गई हों। इसलिए उसको शासन सम्बन्धी मामलों का ठीक तरह से ज्ञान नहीं हो सकता था। 1853 के एक्ट के अनुसार विधि सदस्य को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का नियमित सदस्य बना दिया गया। अब उसे शासन सम्बन्धी कार्यों पर विचार करने के लिए बुलाई गई बैठकों में बाग लेने तथा वोट देने का अधिकार दिया गया।
(iv) इस एक्ट द्वारा पहली बार सपरिषद् गवर्नर जनरल की विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। विधि निर्माण के उद्देश्य से 6 और सदस्य बढ़ाकर गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्ताक कर दिया गया। ये अतिरिक्त सदस्य थे-बंगाल का मुख्य न्यायधीश, सुप्रीम कोर्ट का एक जज तथा बम्बई, बंगाल, मद्रास एवं उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त की सरकारों के 4 प्रतिनिधि। प्रान्त के 4 प्रतिनिधियों की नियुक्ति प्रान्तीय सरकारों उच्च पदाधिकारियों में से करती थीं। इस तरह से कानून बनाने के लिए परिषद् में 12 सदस्य हो गए-गवर्नर जनरल, प्रधान सेनापित, गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी के सदस्य तथा 6 नये सदस्य। वैध रूप से हो रही परिषद् की बैठक के लिए सात सदस्यों को कोरम नियत गया था। विधान-मण्डल द्वारा पास किए गए सब विधेयक गवर्नर जनरल की स्वीकृति प्राप्त होने पर अधिनियम बन सकते थे। गवर्नर जनरल तथा उसकी कौंसिल के द्वारा पास किए गए किसी भी बिल को रद्द कर सकती थी। पुन्निया के शब्दों में, 1853 के अधिनियम के विधि-निर्माण सम्बन्धी उपबन्धों में कार्यकारिणी परिषद् से भिन्न एक विधान परिषद् का आभार स्पष्ट रूप में दिखाई पडता है।
(v) गवर्नर जनरल की कौंसिल में ब्रिटिश संसद से मिलता-जुलता कानून बनाने का तरीका अपनाया गया। इसे कार्यपालिका से प्रश्न पूछने तथा उसकी नीतियों पर वाद-विवाद करने का अधिकार दिया गया।
(vi)एक्ट ने भारतीय विधि आयोग, जो समाप्त हो चुका था, सिफारिशों की जाँच और उन पर विचार करने के लिए एक इंग्लिश लॉ कमिश्न की नियुक्ति की व्यवस्था की। इस कमीशन के प्रयत्नों के फलस्वरूप इण्डियन पेनल कोर्ड तथा दीवानी और फौजदारी कार्यविधियों को कानून का रूप दिया गया।
एक्ट का महत्त्व -
1853 के एक्ट के द्वारा यद्यपि सरकार की नीति तथा प्रशासन में किसी नवीनता का संचार नहीं हुआ, तथापि यह एक्ट संवैधानिक दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण पग था। विभिन्न विशेषताओं के कारण इस एक्ट का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है।
(i) 1853 के एक्ट के अनुसार यह घोषणा की गई थी कि भारतीय प्रशासन उसी समय तक कम्पनी के अधिकार में रहेगा, जब तक कि पार्लियामेन्ट अन्य कोई व्यवस्था न कर दे। कम्पनी के अधिकार-पत्र को निश्चित अवधि के लिए न बढ़ाकर यह स्पष्ट कर दिया गया कि उसका अन्त बहुत निकट है। इस एक्ट के बनने के केवल पाँच वर्ष बाद ही पार्लियामेन्ट ने भारतीय प्रदेशों का शासन प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया। इस प्रकार, भारत से कम्पनी का राज्य सदा केलिए समाप्त हो गया।
(ii) इस एक्ट द्वारा संचालक मण्डल की शक्तियाँ घटा दी गईं, जिसके कारण उसकी सत्ता तथा सम्मान को गहरा आघात पहुँचा। इसके सदस्यों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गई, जिसमें से 6 सदस्य ब्रिटिश सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। संचालकों को भारत के अधिकारियों को नियुक्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। इसके स्थान पर हाऊस ऑफ कॉमन्स को संचालकों की नियुक्ति का अधिकार दे दिया। अब सरकार के लिए भारतीय मामलों से परिचित कम्पनी के रिटायर्ड कर्मचारियों को संचालक मण्डल का सदस्य नियुक्त करना भी सम्भव हो गया। इस नई व्यवस्था के परिणामस्वरूप संचालकों की सत्ता तथा सम्मान को भारी आघात पहुँचा और उन पर ब्रिटिश सम्राट का प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया। पुन्निया के शब्दों में, इसलिए इन परिस्थितियों में जब 1873 ई. में पार्लियामेन्ट स्वाभाविक रूप से इस विषय पर विचाकर करती, तब भारतीय राज्य-क्षेत्र को कम्पनी से सम्राट को हस्तान्तरित करने में कोई बाधा न होती। विद्रोह ने तो केवल इतना किया हि इस प्रक्रिया की चाल को तेज कर दिया।
(iii) इस अधिनियम ने भारत के प्रशासनिक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन कर दिए। पहले गवर्नर जनरल अन्य प्रदेशों की निगारनी के अतिरिक्त बंगाल के गवर्नर के रूप में भी कार्य करता था, परन्तु इस एक्ट के अनुसार बंगाल के लिए एक अलग गवर्नर की व्यवस्था की गई, जिससे गवर्नर जनरल का काफी बोझ हल्का हो गया। अब उसके लिए सारे भारत के शासन की देखभाल के लिए ध्यान देना आसान हो गया। इस तरह से प्रशासनिक कार्यकुशलता में वृद्धि हुई। भारत के प्रशासनिक ढाँचे में वस्तुतः यह एक बहुत बड़ा सुधार था।
(iv) इस एक्ट ने नियंत्रण मण्डल के अध्यक्ष का वेतन इंग्लैण्ड के एक सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के बराबर नियत किया। इससे अध्यक्ष की प्रतिष्ठा में काफी वृद्धि हुई।
(v) 1853 के एक्ट द्वारा 1833 की महान् घोषणा को व्यावहारिक रूप दिया गया। अब भारतीयों के लिए सब पद खोल दिए गए और इस हेतु उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने की अनुमति दे दी गई। इस एक्ट द्वारा सिविल सर्विस में भर्ती के लिए प्रतियोगिता परीक्षा की व्यवस्था की गई। लन्दन में प्रतियोगिता परीक्षा का स्थान निश्चित किया गया और बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल के अध्यक्ष को इस सम्बन्ध में नियम और विनियम बनाने का आदेश दिया। इस तरह से नौकरियों में नामजदगी के सिद्धान्त का महत्त्व समाप्त हो गया। इतना सब कुछ होते हुए भी भारतीयों को व्यावहारिक रूप में इस नई व्यवस्था से कोई लाभ नहीं हुआ। प्रथम तो इसलिए कि परीक्षाएँ लन्दन में होती थी। अतः प्रत्येक भारतीय उम्मीदवार के लिए धन खर्च करके परीक्षा के लिए लन्दन जाना सम्भव नहीं था। दूसरे, इस परीक्षा में बैठने की आयु बहुत कम रखी गई। तीसरे, परीक्षा प्रश्नों के उत्तर अंग्रेजी भाषा में देने पड़ते थे। अंग्रेजों की मातृभाषा अंग्रेजी होने के कारण वे भारतीय उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक निपुण सिद्ध होते थे।
(vi) इंग्लिश लॉ कमीशन की नियुक्ति करके भी इस एक्ट ने बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस कमीशन के 8 सदस्यों ने लॉ कमीशन के अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिए तीन वर्ष तक अथक परिश्रम किया। उनके प्रयासों से भारतीय दण्ड संहिता और दीवानी तथा फोजदारी कार्यविधियों की संहिताओं को कानून का रूप दिया गया। उन्हें इस एक्ट का महत्त्वपूर्ण योगदान समझा जा सकता है।
(vii) एक्ट का महत्त्व इस बात में निहित है कि इसके द्वारा विधायी तथा कार्यपालिका सम्बन्धी कार्यों को पृथक् कर दिया गया। कानून बनाने के लिए गवर्नर जनरल की कौंसिल का विस्तार कर दिया गया। मोंटफोर्ड रिपोर्ट के रचियताओं ने इस सम्बन्ध में लिखा है, 1853 में ही विधि निर्माण को पहली बार शासन का एक ऐसा विशेष कृत्य माना गया, जिसके लिए यंत्रजात और विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है।
वस्तुतः इस अधिनयिम ने छोटे से विधायी निकाय को एक छोटी पार्लियामेंट का रूप दे दिया। इसने बिल को पास करने के लिए वही तरीका अपनाया, जो आजकल भी प्रचलित है। गवर्नर जनरल की इस कानून बनाने वाली कौंसिल में सरकार की नीति की आलोचना की जाती थी। इस तरह 1853 ई. में एक ऐसी संस्था का आरम्भ हुआ, जिसका विकिस रूप आज भारतीय संसद के रूप में विद्यिमान है।
एक्ट के दोष
इन महत्त्वपूर्ण देनों के बावजूद भी यह एक्ट दोषमुक्त नहीं था। इसके प्रमुख दोष निम्नलिखित थे-
(i) इस एक्ट द्वारा कानून बनाने वाली कौंसिल में केवल अंग्रेज सदस्यों को ही रखा गया, जिन्हें भारतीय दशाओं का ज्ञान नहीं था। भारतीयों को इस कौंसिल में न रखने से असंतोष बढ़ा और यह बात विद्रोह का एक सबसे बडा कारण सिद्ध हुई।
(ii) अनेक प्रकार के भेदभावों, अत्यधिक खर्च तथा इंग्लैण्ड की लम्बी दूरी के कारण भारतीयों को कम्पनी सरकार में उच्च पद प्राप्त करना सपना ही रहा।
(iii) बंगाल के लोगों ने जो प्रान्तीय स्वराज्य के लिए प्रार्थना-पत्र दिया था, उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया गया।
(iv) इस एक्ट का सबसे बड़ा दोष यह था कि इससे इंग्लैण्ड में दोषपूर्ण द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त नहीं किया गया।
1854 का गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया एक्ट -
ब्रिटिश संसद ने 1854 ई. में भारत अधिनियम पास किया। इसके द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन किए गए। इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति प्रदान की गई थी कि वह संचालक मण्डल तथा विधान-मण्डल की स्वीकृति से कम्पनी के किसी भी क्षेत्र की व्यवस्था और नियंत्रण को अपने हाथ में ले सकता है। उसे उस क्षेत्र के प्रशासन के सम्बन्ध में सब आवश्यक आदेश तथा निर्देश जारी करने का अधिकार भी दिया गया। उपर्युक्त उपबन्धों के आधार पर असम, मध्य प्रदेश, उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त, बर्मा, बिलोचिस्तान और दिल्ली में चीफ कमिश्नरों की नियुक्ति की गई।
सी. एल. आनन्द के शब्दों में, इस अधिनियम का प्रभाव यह हुआ कि सपरिषद् गवर्नर जनरल को किसी भी प्रान्त के ऊपर सीधा नियंत्रण रखने के कार्य से छुटकारा मिल गया। इसके बाद से भारत सरकार ने देश के समूचे प्रशासन पर केवल पर्यवेक्षक और निदेशक प्राधिकारी का ही रूप धारण कर लिया।
इस एक्ट द्वारा सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह शक्ति भी प्रदान की गई कि वह प्रान्तों की सीमाओं को समीति और निर्धारित कर सके। इस एक्ट में यह भी कहा गया कि गवर्नर जनरल अब से बंगाल का गवर्नर की उपाधि धारण नहीं करेगा।
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