1857 ई. से पूर्व के विद्रोह : -
1857 ई. में क्रांति का जो विस्फोट हुआ था, वह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय जनता में लम्बे समय से असंतोष चल आ रहा था तथा 1857 ई. से पूर्व भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध छिट पुट विद्रोह हो चूके थे। 1757 ई. से लेकर 1856 ई. तक ब्रिटिश-सरकार व भारत के बीच हुए आंदोलन, विद्रोह तथा सैनिक विप्लव का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-;
पूर्वी भारत तथा बंगाल में विद्रोह : -
(1) संन्यासियों का विद्रोहः बंगाल पर अधिकार करने के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने वहाँ नई अर्थव्यवस्था स्थापित की, जिसके कारण ज़मींदार, कृषक एवं शिल्पी आदि नष्ट हो गए। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल को वहाँ के लोगों ने कंपनी के पदाधिकारियों की देन समझा। ब्रितानियों ने तीर्थ स्थानों में आने-जाने पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए, इससे संन्यासी लोग क्षुब्ध हो गए। संन्यासियों ने इस अन्याय के विरूद्ध विद्रोह किया। उन्होंने जनता के सहयोग से कँपनी कोठियों तथा कोषों पर आक्रमण किए। इन लोगों ने कँपनी के सैनिकों के विरुद्ध बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। अंत में वारेन हेस्टिंग्स को एक लम्बे अभियान के पश्चात् इस विद्रोह को दबाने में सफलता मिली। इस संन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास घ् आनंद मठ ' में मिलता है।
(2) चुआर और हो का विद्रोह : मिदानपुर ज़िले की आदिम जाति के चुआर लोगों में अकाल एवं भूमि कर में वृद्धि तथा अन्य आर्थिक कठिनाइयों के विरुद्ध असंतोष था। अतः इन लोगों ने भी बग़ावत कर दी। कैलापाल, ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने 1768 ई. में एक साथ विद्रोह किया। इस प्रदेश में 18वीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक उपद्रव होते रहे।
इस प्रकार छोटा नागपुर तथा सिंहभूम ज़िले के हो तथा मुंडा लोगों ने भी 1820-22 तक एवं पुनः 1831 ई. में विद्रोह कर दिया और कंपनी की सेना का मुक़ाबला किया। यह प्रदेश भी 1837 ई. तक उपद्रवग्रस्त रहा।
(3) कोलों का विद्रोह : ब्रितानियों ने नागपुर के कोलों के मुखिया मुंडों से उनकी भूमि छील ली और उन्हें मुस्लिम कृषकों तथा सिक्खों को दे दी। अतः कोलों ने हथियार उठा लिए। उन्होंने 1831 ई. में लगभग 1000 विदेशियों को या तो जला दिया या मौत के घाट उतार दिया। यह विद्रोह शीघ्र हीरांची, सिंहभूम, हजारीबाग, पालामऊ तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैल गया। एक दीर्घकालीन और विस्तृत सैन्य अभियान द्वारा इस विद्रोह का दमन कर शांति स्थापित की गई।
(4) संथालों का विद्रोह : राजमहल ज़िले के संथाल लोगों में राजस्व अधिकारियों के दुर्व्यवहार, पुलिस के अत्याचार, तथा ज़मींदारों एवं साहुकारों की ज़्यादतियों के विरुद्ध असंतोष था। अतः उन्होंने अपने नेता सिंधु तथा कान्हू के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और कंपनी के शासन के अंत होने की घोषणा कर दी तथा अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। सरकारी सेना और पुलिस ने 1856 ई. तक इस विद्रोह पर क़ाबू पा लिया। सरकार ने इन लोगों के लिए पृथक संथाल परगना बना दिया, जिससे वहाँ शांति स्थापित हो गई।
(5) अहोम विद्रोह : कँपनी ने आसाम के अहोम अभिजात वर्ग के लोगों को वचन दिया था कि बरमा युद्ध के पश्चात् उसकी सेनाएँ लौट जाएँगी, जिसे कँपनी ने पूरा नहीं किया। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों ने अहोम प्रदेश को भी कंपनी राज्य में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया। परिमाण स्वरूप अहोम के लोगों ने विद्रोह कर दिया। 1828 में उन्होंने गोमधर कुँवर को अपना राजा घोषित कर दिया और रंगपुर पर आक्रमण करने की योजना बनाई। कंपनी ने अपनी शक्तिशाली सेना के द्वारा इस विद्रोह का दमन कर दिया। अहोम लोगों ने 1830 ई. में दूसरी बार विद्रोह करने की योजना बनाई, परंतु इस अवसर पर कंपनी ने शांति की नीति का पालन किया और उतरी आसाम के प्रदेश एवं कुछ अन्य क्षेत्र महाराज पुरंदर सिंह को दे दिए।
(6) खासी विद्रोह : कंपनी ने पूर्व दिशा में जैन्तिया तथा पश्चिम में गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ब्रितानियों ने ब्रह्मपुत्र घाटी को सिल्हट से जोड़ने हेतु एक सैनिक मार्ग बनाने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु बहुत से ब्रितानी, बंगाली एवं अन्य लोग वहाँ भेजे गए। ननक्लों के राजा तीर्थ सिंह ने इस कार्य का विरोध किया और गारो, खाम्पटी एवं सिंहपो लोगों के सहयोग से ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही इसने लोकप्रिय आंदोलन का रूप ले लिया। 1833 ई. में सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही ब्रिटिश सरकारें को इस विद्रोह का दमन करने में सफलता प्राप्त हुई।
(7) पागल पंथियों और फरैजियों का विद्रोह : उतरी बंगाल में करमशाह के कुछ हिंदू-मुसलमान अनुयायी थे, जो अपने को पागलपन्थी कहते थे। करम शाह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र टीपूँ नामक फ़क़ीर को किसानों ने अपना नेता बनाया। टीपूँ ने ज़मीदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने 1825 ईं. में शेरपुर पर अधिकार कर लिया और अपने आपको राजा घोषित कर दिया। उसके नेतृत्व में गारो की पहाड़ियों तक उपद्रव हुए। इस क्षेत्र में 1840 तथा 1850 तक उपद्रव होते रहे।
फरैजी लोग बंगाल के फरीदपुर के वासी हाजी शरियतुल्ला द्वारा चलाए गए संप्रदाय के अनुयायी थे। ये लोग धार्मिक, सामाजिक तथा राज नैतिक क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे। शरियतुल्ला के पुत्र दादूमियां (1819-60) ने ब्रितानियों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनाई। उन्होंने ज़मीदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध किसानों को विद्रोह करने के लिए उकसाया। फरैजी उपद्रव 1838 से 1857 तक चलते रहे तथा अंत में इस संप्रदाय के अनेक अनुयायी वहाबी दल में शामिल हो गए।
पश्चिमी भारत में विद्रोह : -
(1) भीलों का विद्रोह : भीलों की आदिम जाति पश्चिमी तट के खानदेश ज़िले में रहती थी। 1812-19 तक इन लोगों ने ब्रिटिश सरकारें के विरूद्ध हथियार उठा लिए। कंपनी के अधिकारियों का मानना था कि पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्रिम्बकजी दांगलिया के उकसाने के कारण ही यह विद्रोह हुआ था। वास्तव में कृषि संबंधी कष्ट एवं नवीन सरकार से भय ही इस विद्रोह का प्रमुख कारण था। ब्रिटिश सेना ने इस विद्रोह का दमन का प्रयास किया, तो भीलों में उत्तेजना और भी बढ़ गई, विशेषतया उस समय, जब उन्हें बरमा में ब्रिटिश सरकारें की असफलता की सूचना मिली। उन्होंने 1825 ई. में पुनः विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का नेतृत्व सेवरम ने किया। 1831 एवं 1846 में पुनः उपद्रव उठ खड़े हुए। इससे पता चलता है कि इसने ब्रिटिश विरोधी लोकप्रिय आंदोलन का रूप धारण कर लिया था।
(2) कोल विद्रोह : कोल भीलों के पड़ौसी थे। ब्रिटिश सरकारें ने उनके दुर्ग नष्ट कर दिए थे, अतः वे उनसे अप्रसन्न थे। उसके अतिरिक्त ब्रिटिश शासन के दौरान उनमें बेरोज़गारी बढ़ गई। कोलों ने ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध 1829, 1839 तथा पुनः 1844 से 1848 ई. तक विद्रोह किए। कंपनी की सेना ने इन सब विद्रोहों का दमन कर दिया।
(3) कच्छ का विद्रोह : कच्छ तथा काठियावाड़ में भी ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध असंतोष विद्यामान था। संघर्ष का प्रमुख कारण कच्छ के राजा भारमल्ल और झरेजा के समर्थक सरदारों में व्याप्त रोष था। 1819 ई. में ब्रिटिश सरकारें ने भारमल्ल को पराजित कर दिया और उसके स्थान पर उसके अल्प-वयस्क पुत्र को शासक बना दिया। इस प्रदेश के शासन का संचालन करने हेतु एक प्रति शासक परिषद् (Council of Regency) की स्थापना की गई, जो एक ब्रिटिश रेज़िडेंट के निर्देशन में कार्य करती थी। इस परिषद् द्वारा किए गए परिवर्तनों तथा भूमि कर में अत्यधिक वृद्धि के कारण लोगों में बहुत रोष था। बरमा युद्ध में ब्रितानियों की पराजय का समाचार मिलते ही इन लोगों ने विद्रोह कर दिया और भारमल्ल को पुनः शासन बनाने की माँग की। ब्रिटिश सरकारें ने इस विद्रोह का दमन करने के लिए चंबे समय तक सैनिक कार्यवाही की। 1831 ईं. में पुनः विद्रोह हो गया तथा अंत में कंपनी ने अनुरंजन की नीति अपनाई।
(4) बघेरों का विद्रोह : ओखा मंडल के बघेरों में आरंभ से ही ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध रोष विद्यामान था। जब बड़ौदा के गयाकवाड़ ने कंपनी की सेना के सहयोग में इन लोगों से अधिक कर वसूल करने का प्रयत्न किया, तो बघेरों ने अपने सरकार के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध हथियार उठा लिए। यहीं नहीं, उन्होंने 1818-19 ई. के बीच कंपनी अधिकृत प्रदेश पर हमला भी कर दिया। अंत में 1820 ई. में यहाँ शांति स्थापित हो गई।
(5) सूरत का नमक आंदोलन : ब्रिटिश सरकारें ने 1844 ई. में नमक पर 1/2 रूपया प्रति मन से बढ़ाकर एक रुपया प्रति मन कर दिया, जिसके कारण सूरत के लोगों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध रोष फैल गया। अतः यहाँ के लोगों ने हथियार उठा लिए। उन्होंने कुछ युरोपीय लोगों पर प्रहार भी किए। ब्रिटिश सरकारें ने सशक्त विरोध को देखकर अतिरिक्त कर हटा दिए। इसी प्रकार, 1848 में सरकार ने एक मानक (Standard) नाप और तौल लागू करने का प्रयत्न किया, तो यहाँ के लोगों ने इसका बहिष्कार किया और इसके विरूद्ध सत्याग्रह भी किया। अतः सरकार ने इसे भी वापस ले लिया।
(6) रमोसियों का विद्रोह : रमोसी एक आदिम जाती थी, जो पश्चिमी घाट में निवास करती थी। इस जाति के लोगों में ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध असंतोष विद्यमान था। 1822 ई. में रमोसियों ने अपने सरदार चित्तरसिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया तथा सतारा के आस-पास के प्रदेश में लूटमार की। 1825-26 में पुनः उपद्रव हुए। यह क्षेत्र 1829 ई. तक उपद्रवग्रस्त बना रहा।
इसी प्रकार सितम्बर, 1839 में सतारा के राजा राजप्रतापसिंह को सिंहासन के हटाकर देश से निष्कासित कर दिया गया, जिसके कारण समस्त प्रदेश में रोष फैल गया। परिणामस्वरूप 1840-41 ई. में विस्तृत दंगे हुए। विद्रोहियों का नेतृत्व नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने किया। उन्होंने बहुत से सैनिक एकत्रित कर लिए तथा बादामी के दुर्ग पर अधिकार करके सतारा के राजा का ध्वज लहरा दिया। ब्रितानियों के विस्तृत सैन्य अभियान के पश्चात् ही यहाँ शान्ति स्थापित हो सकी।
(7) कोल्हापुर एवं सावन्तवाड़ी में विद्रोह : कंपनी की सरकार ने 1844 के पश्चात् कोल्हापुर राज्य में प्रशासनिक पुनर्गठन किया, जिसके विरूद्ध वहाँ के लोगों में भयंकर असंतोष उत्पन्न हो गया। गाडकारी एक वंशानुगत सैनिक जाति थी, जो मराठों के दुर्गों में सैनिकों के रूप में काम करती थी। कंपनी की सरकार ने उनकी छटनी कर दी, जिसके कारण गाडकारी जाति के लोग बेरोजगार हो गए। अतः विविश होकर उन्होंने ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। गाडकारियों ने समनगढ़ एवं भूदरगढ़ के दुर्गो पर अधिकार कर लिया। इसी प्रकार सावन्तवाड़ी में भी विद्रोह हुआ। विस्तृत सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही ब्रितानियों को विद्रोहों का दमन करने में सफलता प्राप्त हई।
दक्षिणी भारत में विद्रोह : -
(1) विजयनगर के शासन का विद्रोह : 1765 ई. में कम्पनी ने उत्तरी सरकार के जिलों को प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात् कठोरतापूर्वक कार्य किया गया। 1794 ई. में कम्पनी ने राजा को अपनी सेना भंग कर देने की माँग की और उसे तीन लाख रूपए उपहार में देने हेतु बाध्य किया गया। जब राजा ने इन शर्तो को मानने से इन्कार कर दिया, तो कम्पनी ने उनकी जागीर छीन ली। अतः विवश होकर राजा ने ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में उन्हें अपनी प्रजा तथा सेना का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। राजा ब्रितानियों के विरूद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद कम्पनी को सुध आई तथा उन्होंने राजा के बड़े पुत्र को जागीर वापस लौटा दी तथा धन की माँग भी कम कर दी।
इसी प्रकार, डिंडीगुल और मालावार में पॉलीगार के लोगों में ब्रितानियों की भूमिकर व्यवस्था के विरूद्ध भयंकर असन्तोष विद्यामान था। अतः उन्होंने भी ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। 1801-1805 तक अभ्यर्पति जिलों (ceded districts) एवं उत्तरी अरकाट जिलों के पॉलीगारों का विद्रोह चलता रहा। इन पॉलीगारों के छूट-पुट विद्रोह मद्रास प्रेजिडेन्सी में भी 1856 ई. तक चलते रहे।
(2) दीवान वेला टम्पी का विद्रोह : 1805 ई. में वेलेजली ने ट्रानवकोर के महाराजा को सहायक सन्धि करने हेतु बाध्य किया। महाराज सन्धि की शर्तो से नाराज थे। अतः उन्होंने सहायक कर (Subsidy) नहीं चुकाया, जिससे उस पर यह धन बकाया होता चला गया। यहाँ के ब्रिटिश रेजीडेण्ट का व्यवहार भी बहुत धृष्टापूर्ण था। अतः दीवान वेला टम्पी विद्रोह करने हेतु बाध्य हो गए, जिसमें उन्हेंे नायर बटालियन का सहयोग भी प्राप्त हुआ। अधिक शक्तिशाली ब्रिटिश सेना को ही इस विद्रोह का दमन करनें में सफलता प्राप्त हुई।
वहाबी आन्दोलन : -
वहाबी आंदोलन उन्नीसवी शताब्दी के चौथे दशक के सातवें दशक तक चला। इसने सुनियोजित रूप से ब्रिटिश प्रभुसत्ता को सबसे गम्भीर चुनौती दी। इस आंदोलन के प्रवर्तक सैयद अहमद (1786-1831) थे, जो रायबरेली के निवासी थे। वह दिल्ली के एक सन्त शाह वली उल्ला (1702-62) से बहुत अधिक प्रभावित हुए। सैयद अहमद इस्लाम में परिवर्तनों और सुधारों के विरूद्ध थे। वह रूढ़िवादी होने के कारण मुहम्मद के समय के इस्लाम धर्म को पुनः स्थापित करना चाहते थे। वस्तुतः यह पुनरूत्थान आंदोलन था। सैयद अहमद ने वहाबी आंदोलन का नेतृत्व किया और अपनी सहायता के लिए चार खलीफे नियुक्त किए, ताकि देशव्यापी आंदोलन चलाया जा सके। उन्होंने इस आंदोलन का केन्द्र उतर पश्चिमी कबाइली प्रदेश में सिथाना बनाया। भारत में इसका मुख्य केन्द्र पटना और इसकी शाखाएँ हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, यू. पी. एवं बम्बई में स्थापित की गईं।
सैयद अहमद काफिरों के देश (दार-उल हर्ब) को मुसलामानों के देश (दारूल इस्लाम) में बदलना चाहते थे। अतः उन्होंने पंजाब में सिक्खों के राज्य के विरूद्ध जिहाद की घोषणा की। उन्होंने 1830 ई. में पेशावर पर विजय प्राप्त की, परन्तु शीघ्र ही वह उनके हाथ से निकल गया और सैयद अहमद युद्ध में लड़ते हुए मारे गए। 1849 ईं. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सिक्ख राज्य को समाप्त कर पंजाब को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित कर लिया, तो भारत के समस्त ब्रिटिश प्रदेशों के वहाबियों ने अपना दुश्मन मान लिया। 1857 ई. के विद्रोह के समय वहाबियों ने ब्रिटिश विरोधी भावनाओं का प्रसार किया, परन्तु ब्रिटिश विरोधी सैनिक गतिविधि में उन्होंने कोई भाग नहीं लिया।
ब्रितानियों को भय था कि वहाबियों को अफगानिस्तान अथवा रूस से सहायता प्राप्त न हो जाए। 1860 ई. के बाद ब्रिटिश सरकार ने वहाबियों का दमन करने के लिए एक विशाल पैमाने पर सैनिक अभियान आरम्भ किया तथा सिथाना पर चारों ओर से सैनिक दबाव डाला गया। इसके अतिरिक्त भारत में वहाबियों पर देश द्रोह का आरोप लगाया गया और उनके विरूद्ध न्यायालयों में अभियोग चलाए गए। वहाबी आंदोलन बहुत समय तक चलता रहा और उन्नीसर्वी शताब्दी के अन्तिम 20 वर्षों तक उन्होंने पहाड़ी सीमावर्ती कबीलों की सहायता की, परन्तु इसके बाद यह आंदोलन धीमा होता चला गया।
यह आंदोलन मुसलमानों का, मुसलमानों द्वारा मुसलमानों के लिए ही चलाया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य भारत को मुसलमानों के देश में परिवर्तित करना था। यह आंदोलन रूढ़िवादी विचारधारा के कारण कभी भी राष्ट्रीय आंदोलन का रूप धारण नहीं कर सका, अपितु इसने देश के मुसलमानों में पृथकवाद की भावना जाग्रत की।
सैनिक विद्रोह : -
ईस्ट इंडिया कंपनी को साम्राज्य विस्तार के लिए एक विशाल सेना की आवश्यकता थी। जैसे-जैसे ब्रितानियों के साम्राज्य का विस्तार होता चला गया, वैसे-वैसे उनकी सैनिक भर्ती की आवश्यकताओं में वृद्धि होती चली गई। भारतीय ब्रिटिश सेना में वेतन भोगी भारतीय सैनिक थे, जो बहुत स्वामिभक्त थे, परंतु उनका वेतन तथा भत्ता ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में बहुत कम था। अतः भारतीय सैनिकों में कंपनी सरकार के विरुद्ध रोष व्याप्त था। अतएव समय-समय पर बहुत से विद्रोह हुए, जो प्रायः स्थानीय रूप के ही थे।
1857 ई. में क्रांति का जो विस्फोट हुआ था, वह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय जनता में लम्बे समय से असंतोष चल आ रहा था तथा 1857 ई. से पूर्व भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध छिट पुट विद्रोह हो चूके थे। 1757 ई. से लेकर 1856 ई. तक ब्रिटिश-सरकार व भारत के बीच हुए आंदोलन, विद्रोह तथा सैनिक विप्लव का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है-;
पूर्वी भारत तथा बंगाल में विद्रोह : -
(1) संन्यासियों का विद्रोहः बंगाल पर अधिकार करने के पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने वहाँ नई अर्थव्यवस्था स्थापित की, जिसके कारण ज़मींदार, कृषक एवं शिल्पी आदि नष्ट हो गए। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। इस अकाल को वहाँ के लोगों ने कंपनी के पदाधिकारियों की देन समझा। ब्रितानियों ने तीर्थ स्थानों में आने-जाने पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिए, इससे संन्यासी लोग क्षुब्ध हो गए। संन्यासियों ने इस अन्याय के विरूद्ध विद्रोह किया। उन्होंने जनता के सहयोग से कँपनी कोठियों तथा कोषों पर आक्रमण किए। इन लोगों ने कँपनी के सैनिकों के विरुद्ध बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। अंत में वारेन हेस्टिंग्स को एक लम्बे अभियान के पश्चात् इस विद्रोह को दबाने में सफलता मिली। इस संन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिम चंद्र चटर्जी के उपन्यास घ् आनंद मठ ' में मिलता है।
(2) चुआर और हो का विद्रोह : मिदानपुर ज़िले की आदिम जाति के चुआर लोगों में अकाल एवं भूमि कर में वृद्धि तथा अन्य आर्थिक कठिनाइयों के विरुद्ध असंतोष था। अतः इन लोगों ने भी बग़ावत कर दी। कैलापाल, ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने 1768 ई. में एक साथ विद्रोह किया। इस प्रदेश में 18वीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक उपद्रव होते रहे।
इस प्रकार छोटा नागपुर तथा सिंहभूम ज़िले के हो तथा मुंडा लोगों ने भी 1820-22 तक एवं पुनः 1831 ई. में विद्रोह कर दिया और कंपनी की सेना का मुक़ाबला किया। यह प्रदेश भी 1837 ई. तक उपद्रवग्रस्त रहा।
(3) कोलों का विद्रोह : ब्रितानियों ने नागपुर के कोलों के मुखिया मुंडों से उनकी भूमि छील ली और उन्हें मुस्लिम कृषकों तथा सिक्खों को दे दी। अतः कोलों ने हथियार उठा लिए। उन्होंने 1831 ई. में लगभग 1000 विदेशियों को या तो जला दिया या मौत के घाट उतार दिया। यह विद्रोह शीघ्र हीरांची, सिंहभूम, हजारीबाग, पालामऊ तथा मानभूम के पश्चिमी क्षेत्रों में फैल गया। एक दीर्घकालीन और विस्तृत सैन्य अभियान द्वारा इस विद्रोह का दमन कर शांति स्थापित की गई।
(4) संथालों का विद्रोह : राजमहल ज़िले के संथाल लोगों में राजस्व अधिकारियों के दुर्व्यवहार, पुलिस के अत्याचार, तथा ज़मींदारों एवं साहुकारों की ज़्यादतियों के विरुद्ध असंतोष था। अतः उन्होंने अपने नेता सिंधु तथा कान्हू के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया और कंपनी के शासन के अंत होने की घोषणा कर दी तथा अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। सरकारी सेना और पुलिस ने 1856 ई. तक इस विद्रोह पर क़ाबू पा लिया। सरकार ने इन लोगों के लिए पृथक संथाल परगना बना दिया, जिससे वहाँ शांति स्थापित हो गई।
(5) अहोम विद्रोह : कँपनी ने आसाम के अहोम अभिजात वर्ग के लोगों को वचन दिया था कि बरमा युद्ध के पश्चात् उसकी सेनाएँ लौट जाएँगी, जिसे कँपनी ने पूरा नहीं किया। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों ने अहोम प्रदेश को भी कंपनी राज्य में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया। परिमाण स्वरूप अहोम के लोगों ने विद्रोह कर दिया। 1828 में उन्होंने गोमधर कुँवर को अपना राजा घोषित कर दिया और रंगपुर पर आक्रमण करने की योजना बनाई। कंपनी ने अपनी शक्तिशाली सेना के द्वारा इस विद्रोह का दमन कर दिया। अहोम लोगों ने 1830 ई. में दूसरी बार विद्रोह करने की योजना बनाई, परंतु इस अवसर पर कंपनी ने शांति की नीति का पालन किया और उतरी आसाम के प्रदेश एवं कुछ अन्य क्षेत्र महाराज पुरंदर सिंह को दे दिए।
(6) खासी विद्रोह : कंपनी ने पूर्व दिशा में जैन्तिया तथा पश्चिम में गारो पहाड़ियों के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। ब्रितानियों ने ब्रह्मपुत्र घाटी को सिल्हट से जोड़ने हेतु एक सैनिक मार्ग बनाने का निश्चय किया। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु बहुत से ब्रितानी, बंगाली एवं अन्य लोग वहाँ भेजे गए। ननक्लों के राजा तीर्थ सिंह ने इस कार्य का विरोध किया और गारो, खाम्पटी एवं सिंहपो लोगों के सहयोग से ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही इसने लोकप्रिय आंदोलन का रूप ले लिया। 1833 ई. में सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही ब्रिटिश सरकारें को इस विद्रोह का दमन करने में सफलता प्राप्त हुई।
(7) पागल पंथियों और फरैजियों का विद्रोह : उतरी बंगाल में करमशाह के कुछ हिंदू-मुसलमान अनुयायी थे, जो अपने को पागलपन्थी कहते थे। करम शाह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र टीपूँ नामक फ़क़ीर को किसानों ने अपना नेता बनाया। टीपूँ ने ज़मीदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। उन्होंने 1825 ईं. में शेरपुर पर अधिकार कर लिया और अपने आपको राजा घोषित कर दिया। उसके नेतृत्व में गारो की पहाड़ियों तक उपद्रव हुए। इस क्षेत्र में 1840 तथा 1850 तक उपद्रव होते रहे।
फरैजी लोग बंगाल के फरीदपुर के वासी हाजी शरियतुल्ला द्वारा चलाए गए संप्रदाय के अनुयायी थे। ये लोग धार्मिक, सामाजिक तथा राज नैतिक क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे। शरियतुल्ला के पुत्र दादूमियां (1819-60) ने ब्रितानियों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनाई। उन्होंने ज़मीदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध किसानों को विद्रोह करने के लिए उकसाया। फरैजी उपद्रव 1838 से 1857 तक चलते रहे तथा अंत में इस संप्रदाय के अनेक अनुयायी वहाबी दल में शामिल हो गए।
पश्चिमी भारत में विद्रोह : -
(1) भीलों का विद्रोह : भीलों की आदिम जाति पश्चिमी तट के खानदेश ज़िले में रहती थी। 1812-19 तक इन लोगों ने ब्रिटिश सरकारें के विरूद्ध हथियार उठा लिए। कंपनी के अधिकारियों का मानना था कि पेशवा बाजीराव द्वितीय तथा उसके प्रतिनिधि त्रिम्बकजी दांगलिया के उकसाने के कारण ही यह विद्रोह हुआ था। वास्तव में कृषि संबंधी कष्ट एवं नवीन सरकार से भय ही इस विद्रोह का प्रमुख कारण था। ब्रिटिश सेना ने इस विद्रोह का दमन का प्रयास किया, तो भीलों में उत्तेजना और भी बढ़ गई, विशेषतया उस समय, जब उन्हें बरमा में ब्रिटिश सरकारें की असफलता की सूचना मिली। उन्होंने 1825 ई. में पुनः विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का नेतृत्व सेवरम ने किया। 1831 एवं 1846 में पुनः उपद्रव उठ खड़े हुए। इससे पता चलता है कि इसने ब्रिटिश विरोधी लोकप्रिय आंदोलन का रूप धारण कर लिया था।
(2) कोल विद्रोह : कोल भीलों के पड़ौसी थे। ब्रिटिश सरकारें ने उनके दुर्ग नष्ट कर दिए थे, अतः वे उनसे अप्रसन्न थे। उसके अतिरिक्त ब्रिटिश शासन के दौरान उनमें बेरोज़गारी बढ़ गई। कोलों ने ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध 1829, 1839 तथा पुनः 1844 से 1848 ई. तक विद्रोह किए। कंपनी की सेना ने इन सब विद्रोहों का दमन कर दिया।
(3) कच्छ का विद्रोह : कच्छ तथा काठियावाड़ में भी ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध असंतोष विद्यामान था। संघर्ष का प्रमुख कारण कच्छ के राजा भारमल्ल और झरेजा के समर्थक सरदारों में व्याप्त रोष था। 1819 ई. में ब्रिटिश सरकारें ने भारमल्ल को पराजित कर दिया और उसके स्थान पर उसके अल्प-वयस्क पुत्र को शासक बना दिया। इस प्रदेश के शासन का संचालन करने हेतु एक प्रति शासक परिषद् (Council of Regency) की स्थापना की गई, जो एक ब्रिटिश रेज़िडेंट के निर्देशन में कार्य करती थी। इस परिषद् द्वारा किए गए परिवर्तनों तथा भूमि कर में अत्यधिक वृद्धि के कारण लोगों में बहुत रोष था। बरमा युद्ध में ब्रितानियों की पराजय का समाचार मिलते ही इन लोगों ने विद्रोह कर दिया और भारमल्ल को पुनः शासन बनाने की माँग की। ब्रिटिश सरकारें ने इस विद्रोह का दमन करने के लिए चंबे समय तक सैनिक कार्यवाही की। 1831 ईं. में पुनः विद्रोह हो गया तथा अंत में कंपनी ने अनुरंजन की नीति अपनाई।
(4) बघेरों का विद्रोह : ओखा मंडल के बघेरों में आरंभ से ही ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध रोष विद्यामान था। जब बड़ौदा के गयाकवाड़ ने कंपनी की सेना के सहयोग में इन लोगों से अधिक कर वसूल करने का प्रयत्न किया, तो बघेरों ने अपने सरकार के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकारें के विरुद्ध हथियार उठा लिए। यहीं नहीं, उन्होंने 1818-19 ई. के बीच कंपनी अधिकृत प्रदेश पर हमला भी कर दिया। अंत में 1820 ई. में यहाँ शांति स्थापित हो गई।
(5) सूरत का नमक आंदोलन : ब्रिटिश सरकारें ने 1844 ई. में नमक पर 1/2 रूपया प्रति मन से बढ़ाकर एक रुपया प्रति मन कर दिया, जिसके कारण सूरत के लोगों में ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध रोष फैल गया। अतः यहाँ के लोगों ने हथियार उठा लिए। उन्होंने कुछ युरोपीय लोगों पर प्रहार भी किए। ब्रिटिश सरकारें ने सशक्त विरोध को देखकर अतिरिक्त कर हटा दिए। इसी प्रकार, 1848 में सरकार ने एक मानक (Standard) नाप और तौल लागू करने का प्रयत्न किया, तो यहाँ के लोगों ने इसका बहिष्कार किया और इसके विरूद्ध सत्याग्रह भी किया। अतः सरकार ने इसे भी वापस ले लिया।
(6) रमोसियों का विद्रोह : रमोसी एक आदिम जाती थी, जो पश्चिमी घाट में निवास करती थी। इस जाति के लोगों में ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध असंतोष विद्यमान था। 1822 ई. में रमोसियों ने अपने सरदार चित्तरसिंह के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया तथा सतारा के आस-पास के प्रदेश में लूटमार की। 1825-26 में पुनः उपद्रव हुए। यह क्षेत्र 1829 ई. तक उपद्रवग्रस्त बना रहा।
इसी प्रकार सितम्बर, 1839 में सतारा के राजा राजप्रतापसिंह को सिंहासन के हटाकर देश से निष्कासित कर दिया गया, जिसके कारण समस्त प्रदेश में रोष फैल गया। परिणामस्वरूप 1840-41 ई. में विस्तृत दंगे हुए। विद्रोहियों का नेतृत्व नरसिंह दत्तात्रेय पेतकर ने किया। उन्होंने बहुत से सैनिक एकत्रित कर लिए तथा बादामी के दुर्ग पर अधिकार करके सतारा के राजा का ध्वज लहरा दिया। ब्रितानियों के विस्तृत सैन्य अभियान के पश्चात् ही यहाँ शान्ति स्थापित हो सकी।
(7) कोल्हापुर एवं सावन्तवाड़ी में विद्रोह : कंपनी की सरकार ने 1844 के पश्चात् कोल्हापुर राज्य में प्रशासनिक पुनर्गठन किया, जिसके विरूद्ध वहाँ के लोगों में भयंकर असंतोष उत्पन्न हो गया। गाडकारी एक वंशानुगत सैनिक जाति थी, जो मराठों के दुर्गों में सैनिकों के रूप में काम करती थी। कंपनी की सरकार ने उनकी छटनी कर दी, जिसके कारण गाडकारी जाति के लोग बेरोजगार हो गए। अतः विविश होकर उन्होंने ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। गाडकारियों ने समनगढ़ एवं भूदरगढ़ के दुर्गो पर अधिकार कर लिया। इसी प्रकार सावन्तवाड़ी में भी विद्रोह हुआ। विस्तृत सैन्य कार्यवाही के पश्चात् ही ब्रितानियों को विद्रोहों का दमन करने में सफलता प्राप्त हई।
(1) विजयनगर के शासन का विद्रोह : 1765 ई. में कम्पनी ने उत्तरी सरकार के जिलों को प्राप्त कर लिया। इसके पश्चात् कठोरतापूर्वक कार्य किया गया। 1794 ई. में कम्पनी ने राजा को अपनी सेना भंग कर देने की माँग की और उसे तीन लाख रूपए उपहार में देने हेतु बाध्य किया गया। जब राजा ने इन शर्तो को मानने से इन्कार कर दिया, तो कम्पनी ने उनकी जागीर छीन ली। अतः विवश होकर राजा ने ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में उन्हें अपनी प्रजा तथा सेना का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। राजा ब्रितानियों के विरूद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद कम्पनी को सुध आई तथा उन्होंने राजा के बड़े पुत्र को जागीर वापस लौटा दी तथा धन की माँग भी कम कर दी।
इसी प्रकार, डिंडीगुल और मालावार में पॉलीगार के लोगों में ब्रितानियों की भूमिकर व्यवस्था के विरूद्ध भयंकर असन्तोष विद्यामान था। अतः उन्होंने भी ब्रितानियों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। 1801-1805 तक अभ्यर्पति जिलों (ceded districts) एवं उत्तरी अरकाट जिलों के पॉलीगारों का विद्रोह चलता रहा। इन पॉलीगारों के छूट-पुट विद्रोह मद्रास प्रेजिडेन्सी में भी 1856 ई. तक चलते रहे।
(2) दीवान वेला टम्पी का विद्रोह : 1805 ई. में वेलेजली ने ट्रानवकोर के महाराजा को सहायक सन्धि करने हेतु बाध्य किया। महाराज सन्धि की शर्तो से नाराज थे। अतः उन्होंने सहायक कर (Subsidy) नहीं चुकाया, जिससे उस पर यह धन बकाया होता चला गया। यहाँ के ब्रिटिश रेजीडेण्ट का व्यवहार भी बहुत धृष्टापूर्ण था। अतः दीवान वेला टम्पी विद्रोह करने हेतु बाध्य हो गए, जिसमें उन्हेंे नायर बटालियन का सहयोग भी प्राप्त हुआ। अधिक शक्तिशाली ब्रिटिश सेना को ही इस विद्रोह का दमन करनें में सफलता प्राप्त हुई।
वहाबी आन्दोलन : -
वहाबी आंदोलन उन्नीसवी शताब्दी के चौथे दशक के सातवें दशक तक चला। इसने सुनियोजित रूप से ब्रिटिश प्रभुसत्ता को सबसे गम्भीर चुनौती दी। इस आंदोलन के प्रवर्तक सैयद अहमद (1786-1831) थे, जो रायबरेली के निवासी थे। वह दिल्ली के एक सन्त शाह वली उल्ला (1702-62) से बहुत अधिक प्रभावित हुए। सैयद अहमद इस्लाम में परिवर्तनों और सुधारों के विरूद्ध थे। वह रूढ़िवादी होने के कारण मुहम्मद के समय के इस्लाम धर्म को पुनः स्थापित करना चाहते थे। वस्तुतः यह पुनरूत्थान आंदोलन था। सैयद अहमद ने वहाबी आंदोलन का नेतृत्व किया और अपनी सहायता के लिए चार खलीफे नियुक्त किए, ताकि देशव्यापी आंदोलन चलाया जा सके। उन्होंने इस आंदोलन का केन्द्र उतर पश्चिमी कबाइली प्रदेश में सिथाना बनाया। भारत में इसका मुख्य केन्द्र पटना और इसकी शाखाएँ हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, यू. पी. एवं बम्बई में स्थापित की गईं।
सैयद अहमद काफिरों के देश (दार-उल हर्ब) को मुसलामानों के देश (दारूल इस्लाम) में बदलना चाहते थे। अतः उन्होंने पंजाब में सिक्खों के राज्य के विरूद्ध जिहाद की घोषणा की। उन्होंने 1830 ई. में पेशावर पर विजय प्राप्त की, परन्तु शीघ्र ही वह उनके हाथ से निकल गया और सैयद अहमद युद्ध में लड़ते हुए मारे गए। 1849 ईं. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सिक्ख राज्य को समाप्त कर पंजाब को ब्रिटिश राज्य में सम्मिलित कर लिया, तो भारत के समस्त ब्रिटिश प्रदेशों के वहाबियों ने अपना दुश्मन मान लिया। 1857 ई. के विद्रोह के समय वहाबियों ने ब्रिटिश विरोधी भावनाओं का प्रसार किया, परन्तु ब्रिटिश विरोधी सैनिक गतिविधि में उन्होंने कोई भाग नहीं लिया।
ब्रितानियों को भय था कि वहाबियों को अफगानिस्तान अथवा रूस से सहायता प्राप्त न हो जाए। 1860 ई. के बाद ब्रिटिश सरकार ने वहाबियों का दमन करने के लिए एक विशाल पैमाने पर सैनिक अभियान आरम्भ किया तथा सिथाना पर चारों ओर से सैनिक दबाव डाला गया। इसके अतिरिक्त भारत में वहाबियों पर देश द्रोह का आरोप लगाया गया और उनके विरूद्ध न्यायालयों में अभियोग चलाए गए। वहाबी आंदोलन बहुत समय तक चलता रहा और उन्नीसर्वी शताब्दी के अन्तिम 20 वर्षों तक उन्होंने पहाड़ी सीमावर्ती कबीलों की सहायता की, परन्तु इसके बाद यह आंदोलन धीमा होता चला गया।
यह आंदोलन मुसलमानों का, मुसलमानों द्वारा मुसलमानों के लिए ही चलाया गया था। इसका प्रमुख उद्देश्य भारत को मुसलमानों के देश में परिवर्तित करना था। यह आंदोलन रूढ़िवादी विचारधारा के कारण कभी भी राष्ट्रीय आंदोलन का रूप धारण नहीं कर सका, अपितु इसने देश के मुसलमानों में पृथकवाद की भावना जाग्रत की।
सैनिक विद्रोह : -
ईस्ट इंडिया कंपनी को साम्राज्य विस्तार के लिए एक विशाल सेना की आवश्यकता थी। जैसे-जैसे ब्रितानियों के साम्राज्य का विस्तार होता चला गया, वैसे-वैसे उनकी सैनिक भर्ती की आवश्यकताओं में वृद्धि होती चली गई। भारतीय ब्रिटिश सेना में वेतन भोगी भारतीय सैनिक थे, जो बहुत स्वामिभक्त थे, परंतु उनका वेतन तथा भत्ता ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में बहुत कम था। अतः भारतीय सैनिकों में कंपनी सरकार के विरुद्ध रोष व्याप्त था। अतएव समय-समय पर बहुत से विद्रोह हुए, जो प्रायः स्थानीय रूप के ही थे।
- 1764 :बक्सर के युद्ध में हैक्टर मुनरो की एक बटालियन बंगाल के शासक मीरकासिम से जा मिली थी।
- 1806 :कंपनी सरकार ने भारतीय सैनिकों के माथे पर जाति सूचक तिलक लगाने अथवा पगड़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा दिए, जिसके विरोध में वेल्लौर के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया तथा मैसूर के राजा का झंडा फहरा दिया।
- 1824 : में जब बैरकपुर रेजिमेंट को समुद्र मार्ग से बरमा जाने का आदेश दिया गया (समुद्र यात्रा जातीय परंपराओं के विरुद्ध थी); तब उस रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया।
- 1824 : वेतन के प्रश्न पर बंगाल की सेना ने विद्रोह कर दिया।
- 1825 : असम की रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया।
- 1838 :शोलापुर स्थित एक भारतीय टुकड़ी को जब पुरा भत्ता नहीं दिया गया, तो उसने विद्रोह कर दिया।
- 1844 : 34वीं N. I. 64वीं रेजिमेंट ने कुछ अन्य लोगों की सहायता से पुराना भत्ता न दिए जाने तक सिंध के अभियान में भाग लेने से इन्कार कर दिया।
- 1849-50 : पंजाब पर अधिकार करने वाली कंपनी की सेना में विद्रोह की भावना पनप रही थी। अतः 1850 में गोविन्दगढ़ की रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया।
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