भारत में प्रमुख शिक्षा आयोगों की परीक्षाओं में सुधार के लिए दिए गए सुझाव, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

भारत में प्रमुख शिक्षा आयोगों की परीक्षाओं में सुधार के लिए दिए गए सुझाव,

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“भारतीय शिक्षा में सुधार के लिए गठित प्रमुख शिक्षा आयोग”

 

जब से मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ है तभी से भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह सब भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार है कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी जीवित है। वर्तमान युग में भी महान दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्रियों इसी बात का प्रयास कर रहे हैं की शिक्षा भारत में प्रत्येक युग की शिक्षा के उद्देश्य अलग-अलग रहें हैं इसलिए वर्तमान भारत जैसे जनतंत्रीय देश के लिए उचित उद्देश्यों के निर्माण के सम्बन्ध में प्रकाश डालने से पूर्व हमें अतीत की ओर जाना होगा। भारत में शिक्षा को लेकर होने वाले प्रयासों की कहानी का एक सिरा आज़ादी के पूर्व के ब्रिटिश हुकूमत वाले दिनों की तरफ जाता है तो दूसरा सिरा स्वतंत्रता मिलने के बाद की कहानी से जुड़ा हुआ है।

भारत हजारों वर्षों तक दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। इसलिए न हमारी शिक्षा भारतीय संस्कृति पर ही आधारित रही और न ही हमारी शिक्षा का कोई राष्ट्रीय उद्देश्य रह सका। 15 अगस्त सन 1947 को हमारे यहाँ विदेशी नियंत्रण समाप्त हुआ। उसी दिन से भारत एक सर्वसत्ता लोकतंत्रात्मक गणराज्य है। ध्यान देने की बात है कि जनतंत्र की बागडोर उन नागरिकों के हाथ में होती है जो आज के स्कूलों में पढ़ रहे हैं। दुसरे शब्दों में, जनतंत्र की आत्मा शिक्षा होती है। अत: हमारी जनतंत्रीय सरकार, शिक्षाशास्त्रियों, दार्शनिकों तथा समाज सुधारकों ने शिक्षा को भारतीय संस्कृति पर आधारित करने तथा नये जनतांत्रिक समाज को सफल बनाने के लिए, शिक्षा के उचित उद्देश्यों के निर्माण की आवश्यकता अनुभव की। अत: भारत सरकार ने – 1. विश्वविधालय शिक्षा आयोग 2. माध्यमिक शिक्षा आयोग 3. कोठारी आयोग और अब नई शिक्षा नीति-2020 को क्रियान्वित किया जा रहा है। इन आयोगों ने समाज तथा व्यक्ति की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए भारतीय शिक्षा के अग्रलिखित उद्देश्यों को निर्धारित किया है –

 शिक्षा आयोगों की रिपोर्ट

भारत में स्वतंत्रता पूर्व बनी शिक्षा समितियां व आयोग

कलकत्ता विश्वविद्यालय परिषद– साल 1818

चार्ल्सवुड समिति– साल 1824: इसे भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा भी कहा जाता है।

डब्लू डब्लू हंटर शिक्षा आयोग– 1882 से 1883: भारत में महिला शिक्षा का विकास करना।

सर थॉमस रैले आयोग– 1902: इसी आयोग की रिपोर्ट पर 1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया था।

एम ई सैडलर आयोग– 1917: स्कूली शिक्षा को 12 वर्ष करने का सुझाव दिया गया।

सर फिलिप हार्टोग समिति– 1929: इसमें व्यावसायिक व औद्योगिक शिक्षा पर जोर दिया गया

सर जॉन सार्जेण्ट समिति– 1944: इसमें 6 से 11 साल की उम्र तक के बच्चों को निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा की बात कही गई।

भारत में स्वतंत्रता पश्चात बनी शिक्षा समितियां व आयोग

डॉ. एस. राधाकृष्णनन् आयोग– साल 1948-49: विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की स्थापना।

मुदालियर शिक्षा आयोग– साल 1952-53: इसे माध्यमिक शिक्षा आयोग भी कहा जाता है।

डॉ. डीएस कोठारी आयोग– साल 1968: इसमें सामाजिक उत्तरदायित्व व नैतिक शिक्षा पर ध्यान दिया गया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर पुनर्विचार– साल 1986(1992): एक सजग व मानवतावादी समाज के लिए शिक्षा का इस्तेमाल। इसे आचार्य राममूर्ति समिति भी कहा जाता है। इस शिक्षा नीति का 1992 में आचार्य राममूर्ति की अध्‍यक्षता में समीक्षा किया गया था। यह शिक्षा नीति 2020 तक लागू रही।

एम. बी. बुच समिति– साल 1989: दूरस्थ शिक्षा माध्यम पर बनी पहली शिक्षा समिति।

जी.राम रेड्डी समिति– साल 1992: दूरस्थ शिक्षा पर केन्द्रीय परामर्श समिति।

प्रोफ़ेसर यशपाल समिति– 1992: बोझमुक्त शिक्षा की संकल्पना।

रामलाल पारेख समिति– 1993: बी.एड पत्राचार समिति।

प्रो. खेरमा लिंगदोह समिति– 1994: पत्राचार बी.एड अवधि 14 माह तय की गई।

प्रो. आर टकवाले समिति– साल 1995: सेवारत अध्यापकों हेतु पत्राचार से बीएड।

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग– 2005: ज्ञान आधारित समाज की संकल्पना व प्राथमिक स्तर से अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा को अनिवार्य करने की सिफारिश की गई।

जस्टिस जे एस वर्मा समिति – 2012: शिक्षकों की क्षमता की समय-समय पर जांच।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति– 2017: राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2017 का मसौदा तैयार करने के लिए अंतरिक्ष वैज्ञानिक एवं पद्मविभूषण डॉ के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में 9 सदस्यीय समिति का गठन किया गया है। इसे साल 2020 में लागू कर दिया गया।


राधाकृष्णन् आयोग या विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग, 1948-49

15 अगस्त, 1947 को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ। हमने अपने राष्ट्र के पुनर्निर्माण के सम्बन्ध में कुछ अपने ढंग से सोचना शुरू किया। हर क्षेत्र में परिवर्तन और सुधार की प्रक्रिया आरम्भ हुई, शिक्षा के क्षेत्र में भी। सबसे पहले हमारा ध्यान गया तत्कालीन उच्च शिक्षा पर उस समय यह सैद्धान्तिक अधिक और व्यावहारिक कम थी. इसका स्तर भी अन्य देशों की तुलना में नीचा था। 'केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड' और 'अन्तर्विश्वविद्यालय शिक्षा परिषद' ने भारत सरकार को यह सुझाव दिया कि वह एक ऐसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की नियुक्ति करे जो विश्वविद्यालयी शिक्षा में सुधार के लिए सुझाव दे। भारत सरकार ने इनके सुझाव पर 04 नवम्बर, 1948 को डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में 'विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग' की नियुक्ति की।

अध्यक्ष - डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

अन्य सदस्य - डॉ. तारा चंद, सर जेम्स ए. डफ़, डॉ. ज़ाकिर हुसैन, डॉ. आर्थर मॉर्गन, डॉ. ए लक्ष्मणस्वामी मुदालियर, डॉ. मेघनाद साहा, डॉ. कर्म नारायण बहल, डॉ. जॉन जे. टिगेरट, श्री निर्मल कुमार सिद्धांता।

आयोग की आख्या को पूर्ण होने में 9 महीने लगे। आख्या का कार्य 4 नवंबर 1948 में शुरू हुआ और 25 अगस्त 1949 में आयोग ने आख्या को भारत सरकार को सौंप दिया। आख्या को संपन्न करने में 747 पृष्ठ लगे जिसे 15 अध्यायों में विभाजित किया गया था। आयोग के अध्यक्ष के नाम पर इसे राधाकृष्णन् आयोग भी कहते हैं। यह स्वतन्त्र भारत का सबसे पहला शिक्षा आयोग था।

परीक्षाओं में सुधार के लिए दिए गए सुझाव -

आयोग ने अनुभव किया कि तत्कालीन विश्वविद्यालयी परीक्षाएँ बहुत दोषपूर्ण हैं। उनमें केवल तोतई ज्ञान की परीक्षा होती थी और वह भी अधूरे रूप में। वे चान्स फैक्टर पर निर्भर थी। वे ना तो वैध थीं और ना विश्वसनीय। इस सम्बन्ध में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए –

  • ·        निबन्धात्मक परीक्षाओं में सुधार किया जाए और साथ ही वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ शुरू की जाएँ।
  • ·        प्रत्येक विश्वविद्यालय में एक परीक्षा बोर्ड स्थापित किया जाए जो विश्वविद्यालयी और महाविद्यालयी प्राध्यापकों को वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ निर्मित करने का प्रशिक्षण दे।
  • 1)     विश्वविद्यालय का कालेज के अध्यापकों को 'वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की नयी योजनाओं को बनाने में परामर्श प्रदान करना और पाठ्यक्रम संशोधन के लिए सामग्री देना ।
  • 2)    सम्बद्ध कालेज के विद्यार्थियों का समय-समय पर प्रगति परीक्षाओं के द्वारा परीक्षण करना।
  • ·        स्नातक और परास्नातक, दोनों स्तरों पर प्रत्येक वर्ष के अन्त में विश्वविद्यालयी परीक्षाएँ हो और उनमें प्रतिवर्ष उत्तीर्ण होना आवश्यक हो।
  • ·        प्रायोगिक विषयों की परीक्षा में लिखित, प्रायोगिक और मौखिक तीनों प्रकार की परीक्षाएँ हों।
  • ·        परीक्षकों का चुनाव सही ढंग से किया जाए, 5 वर्ष से अधिक शिक्षण अनुभव प्राप्त प्राध्यापका को ही परीक्षक नियुक्त किया जाए और एक बार में उनका परीक्षकत्व काल 3 वर्ष का हो।
  • ·        स्नातक कोर्स के तृतीय वर्ष और परास्नातक कोर्स के द्वितीय वर्ष में उत्तीर्ण होने पर क्रमश तीनों और दोनों वर्षों के संयुक्त प्राप्तांकों के आधार पर उत्तीर्ण श्रेणी प्रदान की जाए। 70% पर प्रथम, 55% पर द्वितीय और 40% पर तृतीय श्रेणी दी जाए।
  • ·        कृपांक (ग्रेस) देने की प्रणाली समाप्त की जाए।

स्त्री शिक्षा पर सुझाव -

  • आयोग की सम्मति में शिक्षित महिलाओं के अभाव में पुरुषों को भी शिक्षित नहीं किया जा सकता अतः उनकी शिक्षा की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। आयोग ने सुझाव दिए -
  • ·        स्त्री शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उन्हें सुमाता और सुगृहिणी बनाना होना चाहिए।
  • ·        स्त्रियों की शिक्षा के पाठ्यक्रम में गृह प्रबन्ध, गृह अर्थशास्त्र और पोषण की शिक्षा को स्थान देना चाहिए।
  • ·        उच्च शिक्षा स्तर पर सहशिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

निष्कर्ष -

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राधाकृष्णन् आयोग ने उच्च शिक्षा में सुधार हेतु बहुत ठोस सुझाव दिए थे। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी के शब्दों में 'आयोग ने हमारी विश्वविद्यालयी शिक्षा पर गम्भीरतापूर्वक मनन करके प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है और साथ ही अमूल्य सुझाव दिए हैं।" परन्तु ऐसा भी नहीं है कि उसके सभी सुझाव उपयोगी थे। कुछ सुझाव तो एकदम अव्यवहारिक थे, जैसे - देशभर में ग्रामीण विश्वविद्यालयों और उनसे सम्बद्ध छोटे-छोटे ग्रामीण महाविद्यालयों की स्थापना। यह अच्छी बात है कि हमारी सरकार ने इस आयोग के काफी सुझावों को स्वीकार किया और उससे उच्च शिक्षा में सुधार किया। परन्तु इनकी गति बहुत धीमी रही। काश सरकार ने इसके उपयोगी सुझावों का तत्काल से पालन शुरू कर दिया होता तो आज उच्च शिक्षा का नक्शा ही कुछ और होता।

 

आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय 1952-53

उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले 1939 में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था, उसे आचार्य नरेन्द्र देव समिति प्रथम के नाम से जाना जाता है। इस समिति ने उस समय प्रदेश की तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा में सुधार हेतु अनेक सुझाव दिए थे और स्वतन्त्र होते ही 1948-49 में इन्हें लागू कर दिया गया था। प्रदेश सरकार ने 4 वर्ष बाद ही इसके प्रभाव को देखने-समझन और तद्नुकूल आवश्यक सुधार करने हेतु सुझाव देने के लिए 18 मार्च, 1952 को आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में ‘माध्यमिक शिक्षा पुनर्गठन समिति' का गठन किया। अध्यक्ष के नाम पर इसे आचार्य नरेन्द्र देव समिति द्वितीय कहते हैं।

माध्यमिक परीक्षा में सुधार सम्बन्धी सुझाव -

  • Ø कक्षा 6, 7, 8, 9 और 11 की परीक्षा आन्तरिक हो, इस परीक्षा में कक्षोन्नति के निश्चित नियम हो, वर्ष में तीन परीक्षाएँ हों और उनके आधार पर कक्षोन्नति दी जाए। यदि कोई छात्र किसी विशेष कारण से इनमें से किसी एक परीक्षा में न बैठ पाए तो प्रधानाचार्य के सन्तुष्ट होने पर उसे दो परीक्षाओं के आधार पर ही कक्षोन्नति दी जाए।
  • Ø हाई स्कूल के संस्थागत छात्रों की परीक्षा आन्तरिक हो परन्तु जो छात्र बोर्ड की परीक्षा में बैठना चाहें उन्हें उसमें बैठने की इजाजत दी जाए।
  • Ø हाई स्कूल के व्यक्तिगत छात्रों की परीक्षा बोर्ड द्वारा ही ली जाए। हाई स्कूल की व्यक्तिगत परीक्षा में बैठने की इजाजत उन्हीं छात्रों को दी जाए जो मान्यता प्राप्त जूनियर हाई स्कूलों से जूनियर हाई स्कूल परीक्षा उत्तीर्ण हों या मान्यता प्राप्त हाई स्कूल से कक्षा 8 उत्तीर्ण करने के दो वर्ष बाद या कक्षा 9 उत्तीर्ण करने के एक वर्ष बाद इस परीक्षा में बैठ रहे हों।
  • Ø इण्टरमीडिएट के छात्रों की अन्तिम परीक्षा बोर्ड द्वारा ही ली जाए।
  • Ø हाई स्कूल और इण्टरमीडिएट की परीक्षाओं में संस्थागत छात्रों के रूप में बैठने के लिए स्कूलों में कम से कम 75% उपस्थिति अनिवार्य हो ।
  • Ø हाई स्कूल की परीक्षा में बैठने के लिए न्यूनतम आयु 14 वर्ष और इण्टरमीडिएट की परीक्षा में बैठने के लिए 16 वर्ष हो।
  • Ø समिति ने निबन्धात्मक परीक्षाओं के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ परीक्षाएँ शुरू करने का सुझाव दिया। ये दोनों प्रकार की परीक्षाएँ एक-दूसरे की कमियों की पूर्ति करती हैं, इनके संयुक्त प्रयोग से ही छात्रों की योग्यता का सही मूल्यांकन किया जा सकता है।
  • Ø मूल्यांकन कार्य में सुधार किया जाए। आन्तरिक परीक्षाओं में छात्रों को उनकी मूल्यांकित उत्तर पुस्तकें दिखाई जाएँ।
  • Ø परीक्षाफल में श्रेणी देने के स्थान पर ग्रेड देने के सम्बन्ध में शोध कार्य हो और यदि इसे उपयुक्त पाया जाए तो लागू किया जाए।

निष्कर्ष -

आचार्य नरेन्द्र देव समिति (द्वितीय) के कुछ सुझाव काफी अच्छे थे; जैसे - सभी शिक्षा संस्थाओं को शिक्षा विभाग के अधीन करना, पाठ्यपुस्तकों के निर्माण में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देना और शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन हेतु स्कूली शिक्षकों को प्रशिक्षित करना। इन सुझाओं से जिनको लागू किया गया उनसे कुछ लाभ भी हुए। परन्तु उसके द्वारा दिए गए अधिकतर सुझाव तर्कहीन थे जैसे - हाई स्कूल और इण्टर स्तर पर इतने अधिक वर्गों का निर्माण, विद्यालयों में पारी प्रणाली की समाप्ति और स्त्रियों के लिए भिन्न प्रकार की शिक्षा व्यवस्था। अच्छा ही हुआ कि हमारी प्रान्तीय सरकार ने इस समिति के सुझाव कम और माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझाव अधिक माने। वैसे लाभ तो माध्यमिक शिक्षा आयोग के सुझावों से भी कोई विशेष नहीं हुआ, परंतु आचार्य नरेन्द्र देव समिति के मुकाबले अधिक संगत रही।

 

माध्यमिक शिक्षा आयोग या मुदालियर आयोग, 1952-53 –

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने सर्वप्रथम 1948 में विश्वविद्यालय आयोग या राधाकृष्णन कमीशन का गठन किया जिसने अपनी रिपोर्ट 1949 में प्रस्तुत की। इस आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिए जिनमें एक सुझाव यह भी था कि विश्वविद्यालयी शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पूर्व की माध्यमिक शिक्षा के स्तर को ऊंचा उठाया जाए। उसी समय सन् 1948 में भारत सरकार ने माध्यमिक शिक्षा की समीक्षा करने और उसका स्तर ऊँचा उठाने के लिए सुझाव देने। 'ताराचन्द समिति' का गठन किया था। इस समिति ने भी अपनी रिपोर्ट 1949 में प्रस्तुत की थी।

सरकार ने 23 सितम्बर, 1952 को मद्रास विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ० लक्ष्मण स्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में 'माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया। 29 सितंबर 1953 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।

इस आयोग के अध्यक्ष सहित 10 सदस्य थे - डॉ. ए. लक्ष्मण मुदालियर (अध्यक्ष), श्री जॉन क्रिस्टी, डॉ. केनेथ रस्ट विलियम, श्री के. जी. सैयदीन, डॉ० के० एल० माली, श्रीमति हंसा मेहता, श्री के. ए. तारापुरवाला, श्री एस० एन० बसु, श्री एम. टी. व्यास तथा डॉ. एस. चारी ( आयोग के सचिव)। इस आयोग को अध्यक्ष के नाम पर मुदालियर आयोग भी कहते हैं।

इस समिति ने माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध जो सुझाव दिए, उनमें मुख्य सुझाव थे -

  • §  जूनियर बेसिक 5 वर्ष, सीनियर बेसिक 3 वर्ष और माध्यमिक शिक्षा 4 वर्ष की की जाए।
  • §  माध्यमिक स्तर पर बहुउद्देशीय स्कूल खोले जाएँ जिनमें विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक एवं तकनीकी पाठ्यक्रम चलाए जाएँ।
  • §  जूनियर बेसिक स्तर पर केवल मातृभाषा की शिक्षा दी जाए, सीनियर बेसिक स्तर पर मातृभाषा के साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाए और जब देश में उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो जाए तब माध्यमिक स्तर पर भी राष्ट्रभाषा हिन्दी की शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाए।
  • §  बाह्य परीक्षाओं का आयोजन केवल माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर हो।
  • §  विश्वविद्यालयों में प्रवेश माध्यमिक परीक्षा के परिणाम के आधार पर दिया जाए और यदि विश्वविद्यालय चाहें तो वे प्रवेश परीक्षा का आयोजन भी कर सकते हैं।
  • §  शिक्षकों के वेतनमान और सेवाशर्तें 'केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड' के प्रस्तावों के अनुकूल हों।

माध्यमिक विद्यालयी छात्रों की परीक्षा सम्बन्धी सुझाव –

  • §  बाह्य परीक्षाएँ कम की जाएँ, यह केवल माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर ही हों।
  • §  निबन्धात्मक परीक्षाओं में सुधार किया जाए, विचार प्रधान प्रश्न पूछे जाएँ।
  • §  परीक्षाओं को वस्तुनिष्ठ बनाने हेतु वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का भी प्रयोग किया जाए।
  • §  माध्यमिक शिक्षा की समाप्ति पर अन्तिम मूल्यांकन केवल बाह्य परीक्षा पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए, उसमें छात्रों के नियमित कार्यों और आन्तरिक परीक्षाओं के परिणामों को भी स्थान देना चाहिए।
  • §  छात्रों की प्रगति का ब्यौरा रखने के लिए संचयी अभिलेख का प्रयोग किया जाए।
  • §  मूल्यांकन परिणाम प्रतिशत अंकों में प्रकट न कर ग्रेडों में प्रकट किए जाएँ। इसके लिए पंच पद श्रेणी (Five Points Scale) उत्तम होगी।
  • §  बाह्य परीक्षा में किसी एक विषय में अनुत्तीर्ण छात्रों के लिए संविभागीय परीक्षा की व्यवस्था की जाए।

स्त्री शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव –

  • §  बालकों की तरह बालिकाओं को भी किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार हो।
  • §  बालिकाओं के लिए गृह विज्ञान के अध्ययन की व्यवस्था की जाए।
  • §  माध्यमिक स्तर पर गृह विज्ञान वर्ग की अलग से व्यवस्था की जाए।
  • §  आवश्यकतानुसार बालिका विद्यालय खोले जाए।
  • §  जहाँ बालिका विद्यालय खोलना सम्भव न हो वहाँ सहशिक्षा की स्वीकृति दी जाए।

निष्कर्ष –

कुल मिलाकर यह मानना पड़ेगा कि माध्यमिक शिक्षा आयोग ने तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के समस्त पहलुओं का अध्ययन किया था, शिक्षा कमियों को उजागर किया था और उसमें सुधार के लिए अनेक उत्तम सुझाव दिए थे। भारतीय सन्दर्भ में माध्यमिक शिक्षा को अधिकांश (70%) बच्चों के लिए पूर्ण शिक्षा मानना और उसे पूर्ण इकाई के रूप में विकसित करने पर बल देना, एक ऐसी पूर्ण इकाई के रूप में कि जिसे पूरा करने के बाद अधिकांश बच्चे अपनी रोजी-रोटी कमा सकें, सामान्य जीवन जी सके और समाज में सम्मानपूर्वक रह सकें, अपने में एक व्यावहारिक सुझाव था।

यह बात दूसरी है कि नई शिक्षा संरचना 10+2+3 में यह कार्य +2 पर करना उचित समझा जा रहा है। सच बात यह है कि माध्यमिक शिक्षा आयोग ने माध्यमिक शिक्षा में सुधार के लिए जो भी सुझाव दिए उनसे माध्यमिक शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में सुधार की प्रक्रिया शुरू हुई। दूसरी तरफ 5+6+3 शिक्षा संरचना लागू करने, बहुविकल्पीय पाठ्यक्रम लागू करने और बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना करने से जो हानियाँ हुईं उनसे हमें सबक लेना चाहिए, भूलों को दोहराने से बचना चाहिए।

 

राष्ट्रीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग, 1964-66 –

स्वतन्त्र होते ही हमने अपने देश की शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए प्रयास शुरू किए। इस सन्दर्भ में भारत सरकार का पहला बड़ा कदम था 'विश्वविद्यालय आयोग' या राधाकृष्णन् कमीशन की नियुक्ति। इस आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन, संगठन और उसके स्तर को ऊँचा उठाने सम्बन्धी अनेक ठोस सुझाव दिए। उसके कुछ सुझावों का क्रियान्वयन भी किया गया; उससे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कुछ सुधार भी हुआ, परन्तु वह सब हाथ नहीं लगा जिसे हम प्राप्त करना चाहते थे। शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार का दूसरा बड़ा कदम था 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' या मुदालियर कमीशन की नियुक्ति। इस आयोग ने तत्कालीन माध्यमिक शिक्षा के दोषों को उजागर किया और उसके पुनर्गठन हेतु अनेक ठोस सुझाव दिए। अतः भारत सरकार ने शिक्षा के पुनर्गठन पर समग्र रूप से सोचने-समझने और देशभर के लिए समान शिक्षा नीति का निर्माण करने के उद्देश्य से 14 जुलाई, 1964 को डॉ० दौलत सिंह कोठारी (तत्कालीन अध्यक्ष, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) की अध्यक्षता में 17 सदस्यीय राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन किया। जिनमें 11 भारतीय तथा 6 विदेशी सदस्य थे। इस रिपोर्ट को ’शिक्षा एवं राष्ट्रीय प्रगति’ का नाम दिया गया। इस आयोग को इसके अध्यक्ष के नाम पर 'कोठारी आयोग' भी कहते हैं। इसके सचिव जे. पी. नाइक और संयुक्त सचिव जे. एफ. मैकड्गल थे।

शिक्षा की संरचना सम्बन्धी सुझाव -

आयोग ने पूरे देश के लिए निम्नांकित शिक्षा संरचना का प्रस्ताव रखा -

  • Ø पूर्व प्राथमिक शिक्षा 1 से 3 वर्ष अवधि की।
  • Ø निम्न प्राथमिक शिक्षा 4 से 5 वर्ष अवधि की कक्षा 1 में प्रवेश की।
  • Ø उच्च प्राथमिक शिक्षा - नं० 2 के क्रम में 4 या 3 वर्ष अवधि की ।
  • ·        माध्यमिक शिक्षा (सामान्य वर्ग ) - 2 वर्ष अवधि की।
  • ·        माध्यमिक शिक्षा (व्यावसायिक वर्ग) - 2 या 3 वर्ष अवधि की ।
  • ·        उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (सामान्य वर्ग) - 2 वर्ष अवधि की।
  • ·        उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (व्यावसायिक वर्ग ) - 2 या 3 वर्ष अवधि की ।
  • ·        स्नातक शिक्षा (कला, विज्ञान, वाणिज्य)- 3 वर्ष अवधि की ।
  • ·        स्नातक शिक्षा (इंजीनियरिंग एवं मेडिकल ) - 3 या 4 वर्ष अवधि की।
  • Ø परास्नातक शिक्षा (सभी विभाग ) – 2 या 3 वर्ष अवधि की।
  • Ø अनुसन्धान कार्य- 2 या 3 वर्ष अवधि का।

विद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन सम्बन्धी सुझाव -

आयोग की दृष्टि में शिक्षा के किसी भी स्तर पर मूल्यांकन की प्रक्रिया एक सतत् प्रक्रिया होनी चाहिए। किसी कक्षा के छात्रों का मूल्यांकन पूरे वर्ष चलना चाहिए और आन्तरिक मूल्यांकन को विशेष महत्त्व देना चाहिए। उसने विद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन सम्बन्धी निम्नलिखित सुझाव दिए–

  • v कक्षा 1 से 4 तक के छात्रों का मूल्यांकन केवल आन्तरिक हो, उन्हें योग्यता के आधार पर कक्षोन्नति दी जाए।
  • v प्राथमिक स्तर के अन्त में जिले स्तर पर बाह्य परीक्षा होनी चाहिए। इसकी व्यवस्था जिला शिक्षा अधिकारी करे। वही उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र दे।
  • v कक्षा 10 के अन्त में पूरे प्रदेश में सार्वजनिक परीक्षा होनी चाहिए। इसकी व्यवस्था माध्यमिक शिक्षा बोर्ड करे। उत्तीर्ण छात्रों को प्रमाणपत्र दे।
  • v लिखित परीक्षा को वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय और व्यावहारिक बनाने के लिए प्रयास किए जाए। इसके लिए निबन्धात्मक, लघुउत्तरीय और वस्तुनिष्ठ, तीनों प्रकार के प्रश्न पूछे जाए।
  • v छात्र-छात्राओं की जिन उपलब्धियों का मापन एवं मूल्यांकन लिखित परीक्षाओं द्वारा सम्भव न हो, उनका मापन मौखिक एवं प्रायोगिक परीक्षाओं द्वारा किया जाए। इन्हें भी वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय और व्यावहारिक बनाया जाए।
  • v माध्यमिक स्तर पर लिखित परीक्षाओं के साथ मौखिक एवं प्रायोगिक परीक्षाओं का आयोजन किया जाए।
  • v आन्तरिक मूल्यांकन में संचयी अभिलेख को महत्त्व दिया जाए।
  • v बाह्य परीक्षाओं के प्रश्नपत्र बनाने वाले शिक्षकों को प्रश्नों की रचना करने में प्रशिक्षित किया जाए।
  • v उत्तरों पर अंक देने को वस्तुनिष्ठ बनाने का प्रयत्न किया जाए।
  • v आन्तरिक और बाह्य परीक्षाओं के प्राप्तांक अलग-अलग दिखाए जाए।
  • v बोर्ड की परीक्षा में श्रेणी के स्थान पर ग्रेड प्रणाली का प्रयोग किया जाए।

विश्वविद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन सम्बन्धी सुझाव –

आयोग विश्वविद्यालयों की तत्कालीन परीक्षा प्रणाली से सन्तुष्ट नहीं था। उसने उसमें सुधार के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए।

  • v विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से एक 'केन्द्रीय परीक्षा सुधार यूनिट' बनाई जाए जो विश्वविद्यालयों की परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव दे और नियम बनाए और इन निर्णयों से सभी विश्वविद्यालयों को अवगत कराए।
  • v बाह्य परीक्षाओं के स्थान पर आन्तरिक परीक्षाओं और सतत् मूल्यांकन को स्थान दिया जाए। उच्च शिक्षा संस्थाओं के शिक्षकों को सेमिनारों और कार्यशालाओं के माध्यम से मूल्यांकन की नवीन और उन्नत विधियों से अवगत कराया जाए।
  • v परीक्षकों को अधिक से अधिक 500 उत्तर पुस्तिकाएँ दी जाए।
  • v परीक्षकों को उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन हेतु कोई पारिश्रमिक न दिया जाए।

स्त्री शिक्षा सम्बन्धी सुझाव –

आयोग की सम्मति में बच्चों के चरित्र निर्माण, परिवारों की उन्नति और राष्ट्रीय मानव संसाधनों के विकास के लिए स्त्रियों की शिक्षा पुरुषों की शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसने इस बात पर बल दिया कि स्त्री शिक्षा के प्रसार एवं उन्नयन के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। आयोग के स्त्री शिक्षा सम्बन्धी सुझाव निम्नलिखित है –

  • v बालिकाओं के लिए 20 वर्षों के अन्दर, इतने प्राथमिक विद्यालय खोले जाए कि सभी बालिकाओं को प्राथमिक शिक्षा सुलभ हो सके।
  • v बालिकाओं के लिए 20 वर्षों के अन्दर, कम से कम इतने माध्यमिक विद्यालय खोले जाए कि इस स्तर पर पढ़ने वाले बालक-बालिकाओं का अनुपात 2:1 हो जाए।
  • v जहाँ महिलाओं की उच्च शिक्षा की अधिक माँग हो वहाँ अलग से महिला महाविद्यालय स्थापित किए जाए।
  • v स्त्रियों के लिए पत्राचार पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।
  • v प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रमों में स्त्रियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए।

निष्कर्ष –

अंत में कहा जा सकता है कि आयोग का प्रतिवेदन शिक्षा का विश्वकोश है, उसमें भारतीय शिक्षा के समस्त पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, परन्तु आयोग के अपने शब्दों में उसके सुझाव सर्वश्रेष्ठ और अन्तिम नहीं हैं, विकास तो निरन्तर प्रक्रिया है। और यह बात अपने में एकदम सही है। आयोग के कुछ सुझाव तो ऐसे हैं जो भारत के लिए तब 1964-66 में भी उपयोगी थे और आज 21वीं शताब्दी में भी उपयोगी हैं। जैसे - शिक्षा को राष्ट्रीय महत्व का विषय मानना, शिक्षा पर बजट का कम से कम 6 प्रतिशत व्यय करना, 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करना, माध्यमिक शिक्षा को अपने में एक पूर्ण इकाई बनाना, उच्च शिक्षा में केवल प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं को प्रवेश देना और देश में विज्ञान शिक्षा एवं शोध कार्य पर विशेष ध्यान देना, आदि। परन्तु उसके कुछ सुझाव अपने में अपूर्ण एवं अनुपयोगी हैं। जैसे - पूरे देश के लिए समान शिक्षा संरचना प्रस्तुत न करना, माध्यमिक स्तर पर विदेशी भाषाओं - अंग्रेजी, रूसी और फ्रेंच आदि भाषाओं के अध्ययन पर परोक्ष रूप से बल देना और कुछ विश्वविद्यालयों को वरिष्ठ विश्वविद्यालयों में बदलना। परन्तु कुछ भी हो राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र में एक नए युग का शुभारम्भ किया, उसके आधार पर शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय माना गया, शिक्षा की राष्ट्रीय नीति घोषित की गई और किसी भी स्तर की शिक्षा के प्रसार में कुछ तेजी आई और उसके उन्नयन की ओर कदम बढ़े।

 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968

कोठारी आयोग, 1964-66 ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को 29 जून, 1966 को प्रस्तुत की। उसके लगभग 6 माह बाद भारत सरकार ने 5 अप्रैल, 1967 को संसद सदस्यों की एक समिति का गठन किया और इस समिति को तीन कार्य सौंपे पहला कोठारी आयोग के सुझावों पर गम्भीरता से विचार करना, दूसरा राष्ट्रीय शिक्षा नीति का ड्राफ्ट तैयार करना और तीसरा प्राथमिकताओं के आधार पर उसके क्रियान्वयन की रूपरेखा तैयार करना। इस संसद समिति ने कोठारी आयोग के सुझावों का गम्भीरता से अध्ययन किया और उसके बाद उसके सुझावों के बारे में अपना अभिमत सरकार को प्रस्तुत किया।

समिति ने सर्वप्रथम शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने पर बल दिया। इसके बाद सामाजिक समानता की प्राप्ति के लिए आयोग द्वारा प्रस्तावित सामान्य विद्यालय को पड़ौस विद्यालय के रूप में स्वीकार किया। समिति ने भाषा नीति, कार्यानुभव, चरित्र निर्माण, विज्ञान शिक्षा एवं शोध और शैक्षिक अवसरों की समानता पर विस्तार से विचार प्रकट किए और शिक्षा के सभी स्तरों में गुणात्मक सुधार पर बल दिया। उसने केन्द्र और राज्य सरकारों के शैक्षिक उत्तरदायित्व निश्चित किए। समिति की रिपोर्ट 1968 में संसद के शीतकालीन अधिवेशन में प्रस्तुत की गई। संसद में इस पर लम्बी चर्चा हुई और राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अन्तिम रूप दिया गया। 24 जुलाई, 1968 को सरकार ने इसकी विधिवत् घोषणा की।

मुख्य संस्तुतियाँ -

  • §  निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा
  • §  14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की माँग करने वाले संविधान के अनुच्छेद 45 को शीघ्र परिपूर्ण करने के जोरदार प्रयास पर यह नीति बल देती है।

परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव –

  • Ø बाह्य परीक्षाओं के महत्त्व को कम किया जाएगा और तरिक एवं सतत् मूल्यांकन की योजना बनाई जाएगी।
  • Ø माध्यमिक स्तर पर कक्षा 10 के बाद पहली सार्वजनिक परीक्षा होगी। किसी भी स्तर की परीक्षा को विश्वसनीय एवं वैध बनाया जाएगा।
  • Ø परीक्षा परिणामों में बाह्य और आन्तरिक मूल्यांकन के प्राप्तांक अलग-अलग दिखाए जाएंगे और श्रेणी के स्थान ग्रेड दिए जाएंगे।

निष्कर्ष –

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में वायदे तो बहुत अच्छे किए गए थे, परन्तु उन वायदों को पूरा करने के लिए ना तो पूरी योजना तैयार की गई थी और ना उसके लिए पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था की गई थी। संसाधनों के अभाव में इस नीति का ईमानदारी से पालन नहीं किया जा सका। एक-दूसरे पर दोषारोपण अधिक और उपलब्धियाँ अपेक्षाकृत बहुत कम हुईं। परन्तु यह नीति थी देश के अनुकूल। यही कारण है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में इसी नीति का समर्थन किया गया है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1968 और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986 में जो थोड़ा बहुत अन्तर दिखाई देता है, वह केवल भाषायी अन्तर है और डिग्री का अन्तर है।

 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1979

24 जुलाई, 1968 को राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 की घोषणा की गई और उसके कुछ दिन बाद ही प्रान्तीय सरकारों से उसके अनुसार अपनी शिक्षा योजनाएँ बनाने का अनुरोध किया गया। कुछ प्रान्तीय सरकारों ने अगले सत्र से अपने प्रान्तों में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू कर दी, यह बात दूसरी है कि यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 की मूल भावना के अनुकूल नहीं की जा सकी थी। प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण और माध्यमिक शिक्षा के प्रसार के लिए भी कदम बढ़ाए गए। कुछ प्रान्तों में कृषि, व्यावसायिक, तकनीकी और इंजीनियरिंग शिक्षा में भी प्रसार किया गया। परन्तु इस सबकी गति बहुत मन्द थी।

तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने इस शिक्षा नीति को ईमानदारी से लागू करने पर अनेक बार बल दिया, परन्तु संसाधनों की कमी के कारण प्रान्तीय सरकारें इसे पूर्ण रूप में लागू नहीं कर सकीं। तभी केन्द्र में जनता दल सत्तारूढ़ हो गया, मोरारजी देसाई प्रधानमन्त्री बने। सत्ता सम्भालने के कुछ ही दिन बाद मोरारजी ने 10+2+3 के स्थान पर 8+4+3 की बात कही और प्रथम 8 वर्षीय शिक्षा को अनिवार्य एवं निःशुल्क करने की बात कही। जनता दल के सांसद पहली बार सत्ता में आए थे, उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लिए आवाज उठानी शुरू की। बस क्या था, तत्कालीन केन्द्रीय शिक्षा मन्त्री श्री प्रतापचन्द्र चन्दर ने कुछ शिक्षाविदों और संसद सदस्यों के सहयोग से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति तैयार की और अप्रैल, 1979 में उसकी घोषणा कर दी।

मूल्यांकन प्रणाली में सुधार के लिए दिए गए सुझाव –

  • o   कक्षा 8 तक केवल आन्तरिक मूल्यांकन होगा, परन्तु किसी भी छात्र को फेल नहीं किया जाएगा।
  • o   प्रथम सार्वजनिक परीक्षा कक्षा 10 के बाद, द्वितीय सार्वजनिक परीक्षा कक्षा 12 के बाद और तृतीय विश्वविद्यालयी परीक्षा स्नातक स्तर के अन्त में होगी।
  • o   इन परीक्षाओं को वस्तुनिष्ठ बनाने के लिए क्रेडिट प्रणाली लागू की जाएगी। साथ ही आन्तरिक एवं सतत् मूल्यांकन को महत्त्व दिया जाएगा।

शिक्षक प्रशिक्षण में सुधार के सुझाव –

शिक्षकों के सेवा पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम को व्यावहारिक बनाया जाएगा। सेवारत शिक्षकों को शिक्षण सम्बन्धी अद्यतन जानकारी देने हेतु सेवाकालीन कार्यक्रम की व्यवस्था की जाएगी।

निष्कर्ष –

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1979 में कुछ भी नया नहीं था, पुराने निर्णयों को ही भाषायी हेर-फेर के साथ प्रस्तुत किया गया था। 10 वर्ष के अन्दर अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करना और 5 वर्ष के अन्दर 10 करोड़ निरक्षर प्रौढ़ों को साक्षर बनाने की बात हवाई किला नहीं तो और क्या था। क्या जनता सरकार को कोई अलाउद्दीन का चिराग हाथ लग गया था। सामान्य पड़ौस स्कूलों की स्थापना, पब्लिक स्कूलों पर अंकुश, ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की व्यवस्था और कमजोर वर्ग के लिए विशेष शैक्षिक सुविधाएँ सुलभ कराने की बात राजनीतिक झूठे वायदों के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। यह बात अवश्य है कि इस शिक्षा नीति की घोषणा के बाद सरकार ने अपने बजट में प्राथमिक और प्रौढ़ शिक्षा के लिए एक बड़ी धनराशि आवंटित की थी और बड़े जोर-शोर के साथ कुछ कार्य भी शुरू किए थे, परन्तु परिणाम ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुआ। सच बात यह है कि यह शिक्षा नीति वोट की राजनीति पर आधारित थी, इसमें हवाई किले अधिक और वास्तविकता कम थी।

 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 –

हमारे देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यहाँ अभी तक शिक्षा के क्षेत्र में आधारभूत नीति का निर्माण नहीं हो पाया है, परिणाम यह है कि सरकार बदलते ही नीति बदल जाती है, कार्यक्रम बदल जाते 1968 में केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की थी, उसका अमल होना भी शुरू हो गया था। कई प्रान्तों में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू हो गई थी, कई प्रान्तों ने अपने-अपने ढंग से त्रिभाषा सूत्र लागू कर दिया था, कई प्रान्तों में कृषि, व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा, विज्ञान शिक्षा और वैज्ञानिक शोधों के लिए विशेष प्रावधान किए जाने लगे थे, प्रायः सभी प्रान्तों में परीक्षा प्रणाली में सुधार की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। आधुनिकीकरण के नाम पर विज्ञान एवं गणित की शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी और शैक्षिक अवसरों की समानता के लिए कदम उठाए जाने लगे थे।

युवा प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने हर क्षेत्र में आन्दोलनकारी कदम उठाने शुरू किए। सर्वप्रथम सरकार ने तत्कालीन शिक्षा का सर्वेक्षण कराया और उसे 'शिक्षा की चुनौती: नीति सम्बन्धी परिप्रेक्ष्य' नाम से अगस्त, 1983 में प्रकाशित किया। इस दस्तावेज में भारतीय शिक्षा की 1951 से 1983 तक की प्रगति यात्रा का सांख्यिकीय विवरण, उसकी उपलब्धियों एवं असफलताओं का यथार्थ चित्रण और उसके गुण-दोषों का सम्यक् विवेचन किया गया है। सरकार ने इस दस्तावेज को जनता के हाथों में पहुँचाया और इस पर देशव्यापी बहस शुरू की। सभी प्रान्तों के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से सुझाव प्राप्त हुए। केन्द्रीय सरकार ने इन सुझावों के आधार पर एक नई शिक्षा नीति तैयार की और उसे संसद के बजट अधिवेशन, 1986 में प्रस्तुत किया। संसद में पास कराने के बाद इसे मई, 1986 में प्रकाशित किया गया। इस शिक्षा नीति की घोषणा के कुछ माह बाद इसकी कार्य योजना नामक दस्तावेज प्रकाशित किया गया।

मूल्यांकन प्रक्रिया तथा परीक्षा सुधार को लेकर सुझाव -

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के आठवें भाग के अन्त में तत्कालीन परीक्षा प्रणाली और मूल्यांकन प्रक्रिया में सुधार की चर्चा की गई है।
  • ·        राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में केवल 10 तथा 12 कक्षाओं के अन्त में सार्वजनिक परीक्षा करने, सतत् मूल्यांकन करने और ग्रेड प्रणाली अपनाने की बात कही गई है।
  • ·        साथ ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में राष्ट्रीय परीक्षण सेवा शुरू करने एवं नकल विरोधी कानून बनाने की बात कही गई है।
  • ·        राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के आठवें भाग में बाह्य मूल्यांकन के स्थान पर आन्तरिक मूल्याकंन को अधिक महत्त्व दिया जाएगा।
  • ·        परीक्षाओं को वैध और विश्वसनीय बनाया जाएगा, प्रश्नपत्रों की रचना और उत्तर पुस्तकों के मूल्यांकन को वस्तुनिष्ठ बनाया जाएगा और श्रेणी के स्थान पर ग्रेड सिस्टम लागू किया जाएगा।

शिक्षकों के स्तर और शिक्षक प्रशिक्षण में सुधार हेतु सुझाव –

शिक्षकों का चयन उनकी योग्यता के आधार पर किया जाएगा। उनके स्तर को उठाने के लिए उनके वेतनमान बढ़ाए जाएंगे और सेवाशर्तों को आकर्षक बनाया जाएगा। पूरे देश में समान कार्य के लिए समान वेतनमान के सिद्धान्त को लागू किया जाएगा, साथ ही सेवापूर्व और सेवाकालीन शिक्षक प्रशिक्षण में सुधार किया जाएगा।

प्रत्येक जिले में 'जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान' (DIET) की स्थापना की जाएगी जिनमें प्राथमिक शिक्षकों और निरौपचारिक शिक्षा (NFE) तथा प्रौढ़ शिक्षा के कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था होगी और साथ ही अल्पकालीन प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएंगे और इस क्षेत्र में शोध कार्य किए जाएंगे। घटिया किस्म के प्राथमिक शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालयों को बन्द कर दिया जाएगा।

निष्कर्ष -

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के दस्तावेज में तत्कालीन शिक्षा में सुधार हेतु सुझाव अधिक हैं और नीति सम्बन्धी घोषणाएँ कम हैं। फिर जो नीति सम्बन्धी घोषणाएँ की भी गई है उनमें कुछ मानने योग्य है। जैसे - पूरे देश में 10+2+3 शिक्षा संरचना लागू करना, प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा के लिए आधारभूत पाठ्यचर्या होना, +3 की शिक्षा को राष्ट्र की माँग के अनुसार नियोजित करना और तकनीकी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था करना आदि। साथ ही कुछ घोषणाएँ मानने योग्य नहीं हैं। जैसे - माध्यमिक स्तर पर त्रिभाषा सूत्र लागू करना, कार्यानुभव पर आवश्यकता से अधिक बल देना, उच्च शिक्षा को सर्वसुलभ करना, कैपीटेशन फीस से चलने वाले विद्यालयों के लिए स्वीकृति देना और शैक्षिक अवसरों की समानता के नाम पर क्षेत्र, लिंग, जाति और धर्म के आधार पर विशेष सुविधाएँ देना आदि। नवोदय विद्यालय भी सफेद हाथी साबित हुए है। कैपीटेशन फीस की स्वीकृति से तो शिक्षा अपने में एक व्यवसाय बन गई है और उच्च शिक्षा के निजीकरण करने की ओर कदम बढ़ाने से उच्च शिक्षा का स्तर गिर रहा है और साथ ही शिक्षार्थियों का शोषण बढ़ रहा है। सच बात यह है कि जब तक सत्ता में बैठे लोग नहीं सुधरते देश के किसी भी क्षेत्र में सुधार नहीं हो सकता।

 

राम मूर्ति समीक्षा समिति, 1990

मई, 1986 में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई और उसी वर्ष माह नवम्बर में, इसकी कार्य योजना प्रकाशित की गई और 1987 से इसे क्रियान्वित करना शुरू कर दिया गया। उसी बीच 1989 में केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा सत्ता में आ गया। सरकार बदलते ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति में परिवर्तन की आवाज उठी और तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मई, 1990 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की समीक्षा हेतु आचार्य राम मूर्ति की अध्यक्षता में एक 17 सदस्यीय समिति का गठन कर दिया। इसे राम मूर्ति समीक्षा समिति-1990 कहा जाता है। सरकार ने इस समिति को तीन कार्य सौंपे -

  • o   राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की समीक्षा करना।
  • o   राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में संशोधन हेतु सुझाव देना और
  • o   संशोधित नीति के क्रियान्वयन हेतु सुझाव देना।

समिति ने अपनी रिपोर्ट-प्रबुद्ध एवं मानवीय समाज की ओर शीर्षक से 26 दिसम्बर, 1990 को प्रस्तुत की। यह रिपोर्ट 16 अध्यायों में विभाजित थी।

 

जनार्दन रेड्डी समिति, 1992

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के क्रियान्वयन की समीक्षा हेतु बनाई गई राममूर्ति समीक्षा समिति ने अपना प्रतिवेदन दिसम्बर, 1990 में प्रस्तुत किया था। अभी इस समिति के प्रतिवेदन पर विचार भी शुरू नहीं हुआ था कि केन्द्र में कांग्रेस पुनः सत्ता में आ गई। इस सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के क्रियान्वयन की समीक्षा करने और शिक्षा की तत्कालीन समस्याओं के समाधान के उपाय सुझाने हेतु श्री जनार्दन रेड्डी की अध्यक्षता में एक नई समिति का गठन किया जिसे अध्यक्ष के नाम पर जनार्दन रेड्डी समिति, 1992 कहा जाता है।

जनार्दन रेड्डी समिति के सुझाव –

समिति ने देखा कि सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में निर्देशित नीति के अनुसार ना तो शिक्षा का प्रशासन सही ढंग से कर पा रही थी और न उसकी वित्त व्यवस्था सही ढंग से कर पा रही थी। इस सन्दर्भ में समिति के मुख्य सुझाव निम्न थे -

  • §  प्रत्येक जिले में जिला शिक्षा परिषदों की स्थापना शीघ्रातिशीघ्र की जाए।
  • §  राज्य प्राथमिक शिक्षा को वरीयता दे और अपने संसाधनों का सर्वाधिक प्रयोग इसके सार्वभौमीकरण पर करे।
  • §  राज्य उच्च एवं तकनीकी शिक्षा को धीरे-धीरे स्ववित्तपोषित बनाए।

 

संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 (1992)

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में यह घोषणा की गई थी कि प्रत्येक 5 वर्ष बाद इस नीति के क्रियान्वयन और उसके परिणामों की समीक्षा की जाएगी। परन्तु केन्द्र सरकार ने 3 वर्ष बाद, 1990 में ही इसकी समीक्षा हेतु 'राममूर्ति समीक्षा समिति, 1990' का गठन कर दिया था। अभी इस समिति के प्रतिवेदन पर विचार भी शुरू नहीं हुआ था कि केन्द्र की नई सरकार ने 1992 में इस नीति के क्रियान्वयन एवं परिणामों की समीक्षा हेतु 'जनार्दन रेड्डी समिति, 1992' का गठन कर दिया। इन दोनों समितियों की रिपोर्टों के आधार पर सरकार ने 1992 में ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में कुछ संशोधन कर दिए। मई 1986 को नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई जिसमे 1992 मे कुछ संशोधन किए गए थे इस दस्तावेज को लगभग 12 भागों में बांटा गया है जो कि इस प्रकार है। जिनमें कुल 157 बिन्दुओं के अंतर्गत नई शिक्षा नीति को लिपिबद्ध किया गया है।

कार्य योजना, 1992 का दस्तावेज –

भारत सरकार ने 1992 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में संशोधन करने के साथ-साथ उसकी कार्य योजना में भी कुछ संसोधन किए और उसे कार्य योजना, 1992 के नाम से प्रकाशित किया। कार्य योजना, 1986, 24 भागों में विभाजित थी, कार्य योजना, 1992 को 23 भागों में विभाजित किया गया था।

मूल्यांकन प्रक्रिया एवं परीक्षा सुधार के लिए सुझाव –

  • ·        राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 में इक्कीसवें भाग पर प्राथमिक स्तर पर सभी कक्षाओं और सभी विषयों में न्यूनतम अधिगम स्तर निश्चित करने, माध्यमिक स्तर पर सतत् मूल्यांकन की लोचनीय योजना बनाने पर जोर दिया।
  • ·        उच्च स्तर पर प्रवेश परीक्षाओं द्वारा प्रवेश देने, परीक्षाओं में अनुचित साधनों के प्रयोग को रोकने लिए कानून के निर्माण की बात कही गई है।
  • ·        नई शिक्षा नीति में परीक्षा प्रणाली के सुधार पर बल दिया गया है। इसके लिए श्रेणी' के स्थान पर 'ग्रेड' देने का सुझाव दिया गया है। इस नीति में 45 से 50 या 45 से 55 प्रतिशत अंक पाने वाले को 'बी' B या 'सी' C ग्रेड प्रदान किया जायेगा।
  • ·        ग्रेड का निर्धारण समस्त छात्रों की उपलब्धियों के आधार पर किया जायेगा। इसके अतिरिक्त नई शिक्षा नीति में सामयिक परीक्षाओं की संस्तुति की गयी है।
  • ·        अंतिम मूल्यांकन में आंतरिक परीक्षा और विद्यालय अभिलेखों को महत्व देना चाहिए।
  • ·        केवल एक परीक्षा के आधार पर छात्रों का मूल्यांकन करना उपयुक्त नहीं है। इसी प्रकार इस शिक्षा नीति में 'बाह्य परीक्षकों' की नियुक्ति को भी ठीक नहीं माना गया है।
  • ·        इसमें छात्रों के मूल्यांकन का सारा दायित्व अध्यापकों पर डाला गया है। इससे एक तो अध्यापकों का महत्व बढ़ जायेगा, दूसरे छात्रों में बढ़ती हुई अनुशासनहीनता कम होगी और तीसरे मूल्यांकन भी अधिक युक्तिसंगत होगा।
  • ·        छात्रों की सैर वांगणी प्रगति एवं उपलब्धियों को जानने के लिए समय-समय पर उनके द्वारा किए गए कार्यों को अभिलेखों का भी मूल्यांकन करना चाहिए।

नारी शिक्षा और समानता के लिए सुझाव –

  • ·        राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 के प्रथम भाग में नारी समानता और सशक्तीकरण हेतु बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा पर विशेष ध्यान देने, स्कूल छोड़ने वाली बालिकाओं के लिए अनौपचारिक शिक्षा की व्यवस्था करने पर दिया जाएगा।
  • ·        बालिकाओं को व्यावसायिक एवं तकनीकी शिक्षा की ओर आकर्षित करने और प्रौढ़ शिक्षा में 15-35 आयु वर्ग की महिलाओं की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने पर बल दिया गया है।

आपरेशन ब्लैक बोर्ड -

नई शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा' के द्रुत गति से प्रचार एवं प्रसार हेतु 'आपरेशन ब्लैक बोर्ड' की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया है जिसका अर्थ है 'शैक्षिक साधनों एवं उपकरणों का न्यूनतम प्रावधान' इस प्रावधान के अन्तर्गत प्राथमिक स्कूल को कम से कम बड़े कमरे, कुछ आवश्यक चार्ट एवं मानचित्र, श्यामपट, टाट-पट्टी तथा अन्य उपयोगी आवश्यक सामग्री उपलब्ध कराई जायेगी।

 

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 / राइट टू एजुकेशन एक्‍ट 2009 –

शिक्षा के अधिकार अधिनियम की एक बहुत ही लंबी कहानी है। प्रारंभ में भारत के संविधान के अनुच्छेद 45 में शिक्षा की घोषणा की गई थी, कि सभी राज्य संविधान के प्रारंभ से 10 वर्ष के अंदर सभी बालक और बालिकाओं को 14 वर्ष की आयु समाप्ति तक निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगी। तभी से राज्यों ने 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा व्यवस्था के प्रयास शुरू कर दिए। आगे चलकर 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद 21क को जोड़ दिया गया जो निम्न प्रकार से है :-

  • o   राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की एक ऐसी नीति बनाएगा जो राज्य विधि द्वारा आधारित उपबंध हो।

इसी 86 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग 4 क में वर्णित मूल कर्तव्यों में एक नया मूल कर्तव्य 51 (ट) जोड़ा गया जो इस प्रकार से है :-

  • o   माता-पिता या संरक्षक 6 से 14 वर्ष तक की आयु वाले अपने यथास्थिति बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करें।

देश में बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए राइट टू एजुकेशन एक्‍ट 2009 (RTE) लाया गया था। यह 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को कक्षा 1 से 8 तक की नि:शुल्क शिक्षा की गारंटी देता है। भारत की संसद ने 4 अगस्त 2009 को इस एक्‍ट को अधिनियमित किया और यह 1 अप्रैल, 2010 को लागू हुआ। इस एक्‍ट के इस प्रवर्तन ने भारत को दुनिया के उन 135 देशों में से एक बना दिया, जिनके पास शिक्षा का मौलिक अधिकार है। हालांकि इसके बाद भी कई ऐसी खामियां व चुनौतियां हैं, जिसके कारण देश के हजारों बच्‍चे अनिवार्य शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।

शिक्षा के अधिकार अधिनियम में परीक्षा और मूल्यांकन के सुझाव –

शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अध्याय 5 में प्रारंभिक शिक्षा का पाठ्यक्रम और उसका पूरा किया जाना विषय के तहत पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रक्रिया को उल्लेखित किया गया है जो निम्नलिखित रूप में है –

  • ·        प्रारंभिक शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम और उसकी मूल्यांकन प्रक्रिया समुचित सरकार द्वारा, अधिसूचना द्वारा, विनिर्दिष्ट किए जाने वाले शिक्षा प्राधिकारी द्वारा अधिकथित की जाएगी।
  • ·        शिक्षा प्राधिकारी, उपधारा (1) के अधीन पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रक्रिया अधिकथित करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखेगा, अर्थात् :-

(क) संविधान में प्रतिष्ठापित मूल्यों से अनुरूपता।

(ख) बालक का सर्वांगीण विकास

(ग) बालक के ज्ञान, अन्तः शक्ति, योग्यता का निर्माण करना

(घ) पूर्णतम मात्रा तक शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का विकास

(ङ) बाल अनुकूल और बालकेन्द्रित रीति में क्रियाकलापों, प्रकटीकरण और खोज के द्वारा शिक्षण

(च) शिक्षा का माध्यम, जहां तक साध्य हो बालक की मातृभाषा में होगा

(छ) बालक को भय, मानसिक अभिघात और चिन्तामुक्त बनाना और बालक को स्वतंत्र रूप से मत व्यक्त करने में सहायता करना

(ज) बालक के समझने की शक्ति और उसे उपयोग करने की उसकी योग्यता का व्यापक और सतत मूल्यांकन।

परीक्षा और समापन प्रमाणपत्र –

  • ·        किसी बालक से प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक कोई बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करने की अपेक्षा नहीं की जाएगी।
  • ·        प्रत्येक बालक को, जिसने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर ली है, ऐसे प्ररूप और ऐसी रीति में, जो विहित की जाए एक प्रमाणपत्र दिया जाएगा।


नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 -

जैसे की हम जानते ही हैं कि “शिक्षा” व्यक्ति के संपूर्ण विकास के लिए बहुत आवश्यक है। इसलिए ये ज़रूरी है की शिक्षा की गुणवत्ता बनाये रखने के लिए वक्त के साथ शिक्षा नीति में भी बदलाव किया जाता रहे। नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 – नई शिक्षा नीति भी समय की मांग और जरुरत के हिसाब से देश की शिक्षा व्यवस्था को प्रभावी बनाये रखने के लिए लाई गयी है। 1986 में राजीव गांधी की सरकार थी और उस समय 1986 शिक्षा नीति से लेकर  अब 2020 में नई शिक्षा नीति लागू हुई है। यानी 34 वर्ष बाद नई शिक्षा नीति लागू हुई है। 2015 में पूर्व केबिनेट सचिव टी. एस. आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में 5 सदस्य कमेटी बनाई गई थी। पहली कमेटी 2015 में बनाई गई थी, इसका कार्य नई शिक्षा नीति को लेकर एक मसौदा बनाना था। परन्तु यह मसौदा सरकार के द्वारा स्वीकार नहीं किया गया।

दूसरी कमेटी 2016 में बनाई गई, यह कमेटी अन्तरिक्ष वैज्ञानिक डाँ. के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में बनाई गई। डाँ. के. कस्तूरीरंगन द्वारा जो मसौदा बनाया गया उसे 31 मई 2019 को सरकार के समक्ष प्रस्तुत कर दिया गया। यह मसौदा 29 जुलाई 2020 को लागू कर दिया गया।

इसका नाम मानव विकास मंत्रालय से बदल कर ‘शिक्षा मंत्रालय’ रख दिया गया है। इस शिक्षा नीति में 10+2 के फार्मेट को पूरी तरह खत्म कर दिया गया है। अब इसे 10+2 से बांटकर 5+3+3+4 फार्मेट में ढाला गया है।

पाठ्यक्रम और मूल्यांकन संबंधी सुधार -

  • v इस नीति में प्रस्तावित सुधारों के अनुसार, कला और विज्ञान, व्यावसायिक तथा शैक्षणिक विषयों एवं पाठ्यक्रम व पाठ्येतर गतिविधियों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होगा।
  • v कक्षा-6 से ही शैक्षिक पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को शामिल कर दिया जाएगा और इसमें इंटर्नशिप की व्यवस्था भी दी जाएगी।
  • v ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ (NCERT) द्वारा ‘स्कूली शिक्षा के लिये राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा’ तैयार की जाएगी।
  • v छात्रों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कक्षा-10 और कक्षा-12 की परीक्षाओं में बदलाव किये जाएंगे। इसमें भविष्य में समेस्टर या बहुविकल्पीय प्रश्न आदि जैसे सुधारों को शामिल किया जा सकता है।
  • v छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन के लिये मानक-निर्धारक निकाय के रूप में ‘परख’ (PARAKH) नामक एक नए ‘राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ की स्थापना की जाएगी।
  • v छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन तथा छात्रों को अपने भविष्य से जुड़े निर्णय लेने में सहायता प्रदान करने के लिये ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ आधारित सॉफ्टवेयर का प्रयोग।
  • v शिक्षकों की नियुक्ति में प्रभावी और पारदर्शी प्रक्रिया का पालन तथा समय-समय पर लिये गए कार्य-प्रदर्शन आकलन के आधार पर पदोन्नति।
  • v राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद वर्ष 2022 तक ‘शिक्षकों के लिये राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक’ (National Professional Standards for Teachers- NPST) का विकास किया जाएगा।
  • v राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा NCERT के परामर्श के आधार पर ‘अध्यापक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ [National Curriculum Framework for Teacher Education-NCFTE) का विकास किया जाएगा।
  • v वर्ष 2030 तक अध्यापन के लिये न्यूनतम डिग्री योग्यता 4-वर्षीय एकीकृत बी.एड. डिग्री का होना अनिवार्य किया जाएगा।
  • v नेशनल एजुकेशन पॉलिसी 2020 में प्रगति कार्ड एक समग्र, 360-डिग्री, बहु-आयामी कार्ड होगा जिसमें प्रत्येक विद्यार्थी के संज्ञानात्मक, भावात्मक, साइकोमोटर डोमेन में विकास का बारीकी से किये गए विश्लेषण का विस्तृत विवरण, विद्यार्थियों की विशिष्टताओं समेत दिया जाएगा। इसमें स्व-मूल्यांकन, सहपाठी मूल्यांकन, प्रोजेक्ट कार्य और खोज-आधारित अध्ययन में प्रदर्शन, क्विज, रोल प्ले, समूह कार्य, पोर्टफोलियो आदि शिक्षक मूल्यांकन सहित शामिल होगा।

निष्कर्ष

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 21वीं सदी के भारत की जरूरतों को पूरा करने के लिये भारतीय शिक्षा प्रणाली में बदलाव हेतु जिस नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 को मंज़ूरी दी है अगर उसका क्रियान्वयन सफल तरीके से होता है तो यह नई प्रणाली भारत को विश्व के अग्रणी देशों के समकक्ष ले आएगी। नई शिक्षा नीति, 2020 के तहत 3 साल से 18 साल तक के बच्चों को शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 के अंतर्गत रखा गया है। 34 वर्षों पश्चात् आई इस नई शिक्षा नीति का उद्देश्य सभी छात्रों को उच्च शिक्षा प्रदान करना है जिसका लक्ष्य 2025 तक पूर्व-प्राथमिक शिक्षा (3-6 वर्ष की आयु सीमा) को सार्वभौमिक बनाना है। स्नातक शिक्षा में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, थ्री-डी मशीन, डेटा-विश्लेषण, जैवप्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों के समावेशन से अत्याधुनिक क्षेत्रों में भी कुशल पेशेवर तैयार होंगे और युवाओं की रोजगार क्षमता में वृद्धि होगी।

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