1857 से पहले का इतिहास (1600-1858 ई. तक) भाग - 2, - Study Search Point

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1857 से पहले का इतिहास (1600-1858 ई. तक) भाग - 2,

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आंग्ल-मैसूर संघर्ष : -
हैदर अली एक महान सेनापति थे। वह अपनी योग्यता से एक साधरण सैनिक से सुल्तान की गद्दी तक पहुँच गए। उन्होंने प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध (1767-69) में ब्रितानियों को करारी शिकस्त दी। ब्रितानियों ने मराठों द्वारा उनके राज्य पर आक्रमण करने पर उसकी सहायता का वचन दिया, किन्तु 1771 ई. में मराठों के मैसूर आक्रमण के समय ब्रितानियों ने अपने वचन का पालन नहीं किया। अतः हैदर अली ब्रितानियों से बहुत नाराज हुए। उन्होंने द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध में ब्रितानियों को परास्त कर अरकाट पर अधिकार कर लिया। 1782 ई. में हैदर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र टीपु सुल्तान गद्दी पर बैठे। उन्होंने ब्रितानियों से संघर्ष जारी रखा। उन्होंने जनरल मैथ्यु को परास्त किया। 1783 ई. की वर्साय की संधी द्वारा फ्राँसीसियों ने टीपू का साथ छोड़ दिया। मार्च, 1784 ई. में मंगलौर की संधि द्वारा ब्रितानियों एवं टीपू सुल्तान के एक-दूसरे के विजित प्रदेश लौटा दिये। निजाम ने ब्रितानियों से साठ-गाठ कर ली थी। टीपू दक्षिणी भारत में ब्रितानियों द्वारा बाहर निकालने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। 1790 ई. में तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध प्रारम्भ हो गया। लार्ड कार्नवालिस ने निजाम एव मराठों को अपनी तरफ मिलाकर मैसूर पर चारों ओर से आक्रमण किये। टीपू दो वर्ष तक ब्रितानियों को लोहे के चने चबवाते रहे। इसके पश्चात् लार्ड कार्नवालिस ने स्वयं मोर्चा संभाला एवं बंगलौर पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात् मार्च, 1791 ई. में कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया। साधनों के अभाव के कारण टीपू अधिक समय तक संघर्ष न कर सके। ब्रितानियों ने मैसूर के कई दुर्गों पर अधिकार कर लिया एवं फरवरी, 1792 ई. में श्री रंगपट्टम की बाहरी रक्षा दीवार को ध्वस्त कर दिया। विवश होकर टीपू ने मार्च, 1792 ई. में रंगपट्टम की संधि कर ली। टीपू को 3 करोड़ रूपये युद्ध का हर्जाना तथा अपने राज्य का कुछ भाग देना पड़ा, जिसे ब्रितानियों, मराठों तथा निजाम ने बाट लिया।
तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध से टीपू को बहुत क्षति हुई थी। उनके कई प्रदेशों पर ब्रितानियों, मराठों तथा निजाम का अधिकार था। टीपू एक पराक्रमी तथा उत्साही शासक थे। फ्रांसीसी क्रांति से उनमें राष्ट्रीयता की नयी भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने अपनी सेना का गठन फ्रेंच आधार पर किया एवं अपनी सेना में कई फ्रांसीसी अधिकारी रखें। उन्होंने अपनी सेना को यूरोपियन ढंग से प्रशिक्षण दिया। लार्ड वेलेजली टीपू की फ्रांसीसियों से सांठ-गांठ को खतरे की दृष्टि से देखता था। उन्होंने 1799 ई. में टीपू के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर  दी। निजाम ने ब्रितानियों का साथ दिया। टीपू को किसी भी शासक से कोई सहायता नही मिली। लार्ड वेलेजली ने अपने छोटे भाई सर आर्थर वेलेजली को युद्ध का मोर्चा सोंपा एवं स्वय भी मद्रास आ गया। आर्थर वेलेजली एवं जनरल हैरिस ने मल्लावली नामक स्थान पर टीपू को पराजित किया। जनरल स्टुअर्ट ने 1799 ई. में सेदासरी के युद्ध में टीपू को शिकस्त दी। टीपू ने को ब्रितानियों से अपमानजक संधि करने से इन्कार कर दिया एवं श्री रंगपट्टम भाग गया, वहाँ वह युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुआ। अनपी देशभक्ति तथा स्वतंत्रता के लिए अपने संगर्ष के कारण टीपू का नाम भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में सदैव स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।
अब मैसूर के हैदरअली से पूर्व के हिन्दू राजा के वंशज को गद्दी पर बैठाया गया तथा उनसे सहायक संधि की गई। अब मैसूर राज्य की शक्ति का पूर्णतया अन्त हो चुका था एवं दक्षिण भारत में मराठे ही ब्रितानियों के एक मात्र शत्रु रह गए थे।

मैसूर के पतन के प्रभाव : कार्ल मार्कस का विश्लेषण -
कार्ल मार्क्स ने मैसूर के पतन के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि इससे मराठों को छोड़कर समूचा दक्षिणी भारत ब्रितानियों के अधिपत्य में आ गया। मैसूर के 30 वर्ष लम्बे संघर्ष का अन्त हो गया। हैदरअली पहला शासक था, जिसने ब्रितानियों को देशी राजाओं के लिए सबसे बड़ा खतरा माना। उसने ब्रितानियों के साथ मित्रता या कोई भी समझौता करने से इन्कार कर दिया। कालर्म मार्कस ने आगे लिखा है-हैदरअली तथा टीपू सुलतान ने कुरान पर हाथ रखकर ब्रिटिश शासकों के विरूद्ध स्थायी घृणा की शपथ ली। यद्यपि मैसूर ने लम्बे समय तक ब्रितानियों से संघर्ष किया, किन्तु अपने सीमित साधनों के कारण अन्त में उसने परास्त होना पड़ा। मैसूर के साथ संघर्ष के फलस्वरूप ब्रितानी एक विशाल स्थायी सेना रखने पर विवश हुए। मैसूर के पतन से ब्रितानियों की शक्ति में काफी वृद्धि हुई और अब उन्होंने मराठों से मुकाबला करने का निश्चय किया।

आंग्ला-मराठा संघर्ष : -

दक्षिणी भारत में ब्रितानियों का सबसे बड़ा प्रतिरोध मराठों ने किया। नाना फड़नवीस ने 1772 ई. से लेकर 1800 ई. तक मराठों की एकता के सूत्र में बांधे रखा। उनके नेतृत्व में मराठों ने ब्रितानियों से भीषण संघर्ष किया। उन्होंने 1779 ई. में प्रथम आंग्लय मराठा युद्ध में ब्रितानियों को करारी पराजय की। ब्रितानियों का मानना था कि नाना के रहते मराठों पर विजय संभव नहीं है। वस्तुतः नाना फड़नवीस अपने समय का भारत का नहीं, अपितु एशिया का महान् कूटनीतिज्ञ था।
13 मार्च, 1800 ई. को नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ ही मराठों की एकता भी नष्ट हो गई। गायकवाड़-बडौदा, भोंसले-नागपुर, होल्कर-इंद्रौर एवं सिंधिया-ग्वालियर आदि मराठा सरदारों के आपसी झगड़ों से परेशान होकर पेशवा व जीराव द्वितीय अंग्रेजो के संरक्षण में चला गया। उसने दिसम्बर, 1802 ई. में बेसीन की संधि द्वारा सहायक संधि स्वीकार कर ली। इसके अनुसार पेशवा ने अपने राज्य में अपने व्यय पर 6,000 ब्रितानी सैनिकों की सेना रखना स्वीकार कर लिया। अपने राज्य में ब्रितानियों के अतिरिक्त अन्य किसी यूरोपियन को नौकरी न देना स्वीकार कर लिया तथा अपने वैदेशिक सम्बन्धों के संचालन पर ब्रिटिश नियंत्रण स्वीकार कर लिया। अब ब्रितानियों ने पेशवा को पुनः पूना की गद्दी पर बैठा दिया। इसने मराठा सरदार क्रुद्ध हो उठे, क्योंकि बेसीन सन्धि द्वारा पेशवा ने मराठों की स्वतंत्रता को बेच दिया था। अब दौलतराव सिन्धिया एवं रघुजी भौंसले ने मिलकर ब्रितानियों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
इस प्रकार द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध आरम्भ हुआ। लार्ड वेलेजली ने लार्ड लेक को उत्तरी भारत में तथा आर्थर वेलेजली को दक्षिणी भारत में मराठों के विरूद्ध मोर्चा सौंपा। आर्थ वेलेजली ने अहमदनगर पर अधिकार कर लिया। उन्होंने भोंसले एवं सिंधिया को असई, अरगाँव तथा उड़ीसा में परास्त किया। भोंसले ने अन्त में बाध्य होकर देवगाँव की संधि कर ली। उन्होंने सहायक सन्धि को स्वीकार कर लिया तथा कटक एवं बालासोर के प्रान्त ब्रितानियों को दे दिये। उधर उत्तरी भारत में लार्ड लेक ने सिंधिया को परास्त करके दिल्ली, अलीगढ़ एवं आगार पर अधिकार कर लिया। सिंधिया को विवश होकर सुर्जी अर्जुनगाँव की सन्धि करनी पड़ी। इसके द्वारा अहमदनगर, भड़ौच, दिल्ली एवं आगरा का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर दिया गया। इन सन्धियों के फलस्वरूप ब्रितानियों का साम्राज्य बहुत अधिक विस्तृत हो गया। वे भारत की सर्वोच्च शक्ति बन गये। मराठों की शक्ति क्षीण होने लगी थी।
जसवन्त होलक्र द्वारा द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध में भाग न लेने से उनकी प्रतिष्ठा को क्षति पहुँची थी। उन्होंने जयपुर पर 1804 ई. में आक्रमण कर दिया। चूँकि जयपूर का शासक सहायक सन्धि को स्वीकार कर चुका था, अतः वेलेजली ने होल्कर के विरूय्ध युद्ध घोषित कर दिया। होल्कर ने कर्नल मानसन को करारी शिकस्त दी। लार्ड लेक ने डीग एवं फर्रूखाबाद आदि स्थानों पर होल्कर को परास्त किया, किन्तु ब्रितानी भरतपुर के दुर्ग पर अधिकार न कर सके। होल्कर ने पंजाब जाकर महाराज रणजीत सिंह से ब्रितानियों के विरूद्ध सहायता माँगी, किन्तु रणजीत सिंह ने उसे सहायता देने से इन्कार कर दिया। वेलेजली की साम्राज्यवादी नीति से रूष्ट होकर डायरेक्टरों ने उसके स्थान पर जार्ज बालों को गवर्नर जनरल बनाया। उसने फरवरी, 1806 में होल्कर से संघि कर ली। इसके अनुसार होल्कर ने चम्बल नदी के उत्तर के प्रदेश ब्रितानियों को सौंप दिए। ब्रितानियों ने चम्बल नदी के दक्षिणी प्रदेश होल्कर को लौटा दिए।
मराठे अपनी आपसी फूस के कारण परास्त हुए थे। पेशवा बाजीराव द्वितीय ब्रितानियों के बढ़ते प्रभुत्व से चिंतित थे एवं मराठा सरदारों में एकता स्थापित करना चाहता था। पूना में ब्रिटिश रेजीडेण्ट एलफिन्स्टिन पेशवा की गतिविधियों को संदिग्ध मानता था। इस समय गायकवाड़ ब्रिटिश संरक्षण में चला गया था। पेशवा तथा गायकवाड़ के बीच कुछ विवाद होने पर गायकवाड़ ने इसके निपटारे हेतु अपने मंत्री गंगाधर राव को पूना भेजा, जहाँ उनकी हत्या हो गई। इसके लिए ब्रितानी पेशवा को जिम्मेदार मानते थे। 13 जून, 1817 को एक सन्धि के द्वारा ब्रितानियों ने पेशवा की शक्ति को समाप्त कर दिया। अतः पेशवा ने ब्रितानियों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
मराठों ने पूना के समीप किर्की की रेजीडेन्सी को जलाकर नष्ट कर दिया। मराठों ने पुनः किर्की में ब्रिटिश सेना को परास्त किया। इसी समय पूना पर ब्रितानियों का अधिकार हो गया, अतः पेशवा सतारा भाग गए। ब्रितानियों ने गाँव एवं अश्ति नामक स्थानों पर मराठों को परास्त किया। इसी समय नागपुर के अप्पा साहब तथा होल्कर भी युद्ध में शामिल हो गए, किन्तु वे क्रमश सीतालब्दी एवं महिदपुर में परास्त हुए। अन्त में पेशवा ने 3 जून, 1818 ई. को आत्मसमर्पण कर दिया। चतुर्थ आंग्ल मराठा युद्ध में सिंधिया एवं गायकवाड़ तटस्थ रहे।
मराठों की पराजय के प्रभाव : -
मराठों की पराजय न केवल मराठों के लिए, अपितु सम्पूर्ण भारत के लिए एक बहुत बड़ी क्षति थी। अब ब्रितानियों के अधीन सिन्ध एवं पंजाब को छोड़कर समूचा भारत आ गया। उनके सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी मराठों की शक्ति समाप्त हो गई थी। चतुर्थ आंग्ल मराठा युद्ध के बाद पेशवा का पद समाप्त कर दिया गया। पेशवा को वार्षिक पेन्शन देकर बिठूर भेज दिया गया। मराठों का संतुष्ट करने के लिए सतारा एवं कोल्हापुर को छत्रपति शिवाजीं के वंशजों को सौंप दिया गया तथा शेष प्रदेश बम्बई प्रान्त में सम्मिलित कर लिए गये।

आंग्ल-सिक्ख संघर्ष : -
महाराज रणजीत सिंह ने जुलाई, 1799 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। उन्होंने 1805 ई. में अमृतसर पर अधिकार कर लिया। रजणीत सिंह ने 1806 तथा 1807 ई. में दो बार पटियाला, नाभा एवं जीद पर आक्रमण किया। ये राज्य ब्रिटिश संरक्षण में चले गए। 1809 ई. में अमृतसर में ब्रितानियों तथा रणजीत सिंह के मध्य एक सन्धि हो गए। इसके अनुसार रणजीत सिंह ने सतलज एवं यमुना के बीच की सिक्ख रियासतों पर ब्रितानियों का प्रभाव मानते हुए उन पर आक्रमण करना स्वीकार किया। वहीं ब्रितानियों ने सतलज तथा सिन्धु नदी के बीच के प्रदेश पर रणजीतसिंह का प्रभाव मानते हुए उनमें हस्तक्षेप न करना स्वीकार कर लिया।
रणजीत सिंह ने झेलम से सिन्धु नदी के मध्य अनेक सिक्ख राज्यों पर अधिकार कर लिया। उन्होंने कसूर, झंग, कांगड़ा, अटक, मुल्तान, कश्मीर, पेशावर तथा लद्दाख आदि राज्यों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने 1820 में डेरा गाजी खाँ को तथा 1822 ई. में डेरा इस्माइल खाँ को परास्त किया।
27 जून, 1839 ई. को रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु के समय वह एक विशाल साम्राज्य छोड़कर गए थे, जो उत्तर में लद्दाख व इस्कार्टु तक, उत्तर-पश्चिम में सुलेमान पहाड़ियों तक, दक्षिण-पूर्व में सतलज नदी तक एवं दक्षिण पश्चिम में शिकारपुर-सिंध तक विस्तृत था। रणजीत सिंह ने ब्रितानियों से सौहाद्रपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखे। नाभा, पटियाला व जींद के मामलें में तथा तत्पश्चात् सिन्ध के मामले (1831-31) एवं शिकारपुर के मामले (1836) में उन्होंने धैर्य से काम लेकर अनावश्यक संघर्ष को टाला। लार्ड आकलैण्ड ने दिसम्बर, 1838 ई. में पंजाब की यात्रा की तथा रणजीत सिंह से मुलाकात की। उन्होंने दरबार में जाकर ब्रितानियों तथा सिक्खों की स्थायी मित्रता की प्रार्थना की। इसके बाद लाहौर में रणजीत सिंह से एक सन्धि की गई, जिसके द्वारा ब्रितानियों ने अफगानिस्तान के मामले में रणजीत सिंह का सहयोग प्राप्त कर लिया। इस समय ब्रितानियों का पंजाब एवं सिन्ध को छोड़कर सम्पूर्ण भारत पर अधिकार था एवं वे बहुत शक्तिशाली थे। रणजीत सिंह जानते थे कि अगर ब्रितानियों से संघर्ष किया गया, तो उसका राज्य नष्ट हो जाएगा। अतः उन्होंने ब्रितानियों से सौहाद्रपूर्ण सम्बन्ध बनाये रखे। वस्तुतः ब्रितानियों के नियंत्रण से मुक्त एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना करना रणजीत सिंह की एक महान सफलता थी। रणजीत सिंह ने धार्मिक भेद-भावों के बिना सभी जातियों के व्यक्तियों को योग्यतानुसार उच्च पदों पर नियुक्त किया। उनके प्रधानमंत्री डोगरा राजपुत राजा ध्यान सिंह एवं विदेश मंत्री फकीर अजीजुद्दीन थे। वस्तुतः रणजीत सिंह एक महान् एवं दूरदर्शी शासक थे, जिनकी सहिष्णुता की भावना की सभी इतिहासकारों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी अयोग्य एवं निर्बल थे, अतः उनकी मृत्यु के 10 वर्षों बाद ही उनके साम्राज्य पर ब्रितानियों का अधिकार हो गया।

प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध : -
महाराज रणजीत सिंह के कई पुत्र थे, अतः उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्रों में गद्दी के लिए संघर्ष छिड़ गया। इस संघर्ष में कई राजकुमार मारे गए। प्रत्येक राजकुमार सिक्ख सेना को अपने साथ मिलना चाहता था। अतः सिक्ख सेना राजकीय नियंत्रण से मुक्त हो गई। सिक्ख सेना ने महारानी जिन्दाँ के भाई प्रधानमंत्री जवाहर सिंह की हत्या कर दी एवं रानी जिन्दाँ का अपमान किया। रानी जिन्दाँ ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए ब्रितानियों सेे सांठ-गांठ की तथा उन्हें लाहौर पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। ब्रितानी अवसर की तलाश में थे। जब ब्रितानी फीरोजपुर में लाहौर पर आक्रमण की तैयारी कर रहे थे, तोरानी जिन्दाँ ने सिक्ख सेना को सतलज के पुल के पार ब्रिटिश सेना की गतिविधियों को देखने के लिए प्रोत्साहित किया। सिक्ख सेना रानी के षड्यंत्र से अनभिज्ञ थी एवं सेना का प्रधान तेजसिंह रानी का विश्वासपात्र था। दिसम्बर, 1845 ई. में सिक्ख सेना सतलज नही को पार कर फीरोजपुर के समीप पहुँच गई। गवर्नर जनरल लार्ड हाडिंग ने 13 दिसम्बर, 1845 ई. को सिक्खों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सर्वप्रथम फीरोजपुर के समीप मुदकी नामक स्थान पर 18 दिसम्बर, 1845 ई. को ब्रितानियों एवं सिक्खों में घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्रितानियों का सेनापति ह्यूज गफ था। युद्ध के आरम्भ में सिक्खों का पलड़ा भारी रहा, किन्तु बाद में लालसिंह के विश्वासघात के कारण सिक्ख परास्त हुए। इस युद्ध में ब्रितानियों तथा सिक्खों दोनों को ही भारी हानि हुई तथा ब्रितानी समझ गए कि सिक्खों को परास्त करना आसान कार्य नहीं है। तत्पश्चात् 21 दिसम्बर, 1845 ई. में फीरोजपुर में सिक्खों एवं ब्रितानियों में पुनः संघर्ष हुआ। इसमें सिक्ख सेना बड़ी बहादुरी से लड़ी, किन्तु तेजसिंह की गद्दारी के कारण उन्हेंपरास्त होना पड़ा। 28 जनवरी, 1846 ई. को अलीवाल में पुनः सिक्खों व ब्रितानियों में कड़ा संघर्ष हुआ। अन्त में सबराऊ के युद्ध में ब्रितानियों ने सिक्खों को निर्णायक रूप से परास्त किया। इस युद्ध में सरदार श्यामसिंह अटारी वाल ने अद्भूत वीरता दिखाई। 20 फरवरी, 1846 ई. को ब्रितानियों ने लाहौर पर अधिकार कर लिया।

लाहौर की सन्धि : -
9 मार्च, 1846 ई. को ब्रितानियों ने सिक्खों को लाहौर की अपमानजक सन्धि करने के लिए विवश किया, उसकी शर्ते इस प्रकार थीं ->
सिक्ख सेना को घटाकर 25 पैदल बटालियन एवं 12,000 घुड़सवार सैनिक को रखा गया।
सिक्खों ने ब्रितानियों से छिनी उनकी 34 तोपें लौटा दीं।
ब्रितानियों ने सतलज व व्यास नदी के बीच का प्रदेश तथा कांगड़ा का प्रदेश सिक्खों से छीन लिया।
युद्ध क्षतिपूर्ति डेढ़ करोड़ रूपया निश्चित की गई। चूँकि सिक्खों के पास इतना धन नहीं था, अतः उन्होंने अपने जम्मू तथा कश्मीर के प्रान्त को एक करोड़ रूपये में महाराजा गुलाब सिंह को बेचकर वह धन ब्रितानियों को सौंप दिया। दिसम्बर, 1846 ई. में सिक्खों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने के लिए सर हेनरी लारेन्स, जान लारेन्स एवं एक अन्य ब्रितानी को मिलाकर एक बोर्ड की स्थापना की गई।
अवयस्क दीलीप सिंह को रानी जिन्दाँके संरक्षण में गद्दी पर बैठाया गया।
लाल सिंह को प्रधानमंत्री रहने दिया गया।

द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1849 ई. : -

लाहौर की सन्धि की अपमानजनक शर्तों को स्वतंत्रता प्रेमी सिक्ख सहन नहीं कर सकते थे। सर हेनरी लारेन्स नेरानी जिन्दाँ पर कुछ आरोप लगाकर उसे कैद कर बनारस भेज दिया। समूचे पंजाब के सिक्ख सरदार अपनी महारानी के अपमान के विरूद्ध उठ खड़े हुए। मुल्तान के गवर्नन मूलराज ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह के दमन के लिए भेजा गया शेर सिंह भी उनके साथ मिल गए। धीरे-धीरे विद्रोह पंजाब में फैलने लगया। यदि गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी (1848-56 ई.) चाहता, तो इस समय विद्रोह को दबा सकता था, किन्तु उसने विद्रोह को पंजाब में फैलने दिया, ताकि इसकी आड़ में पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय हो सके।
लार्ड डलहौडी ने 10 अक्टूबर, 1848 ई. को सिक्खों के विरूद्ध संघर्ष की घोषणा कर दी। सिक्खों ने शेर सिंह के नेतृत्व में युद्ध किया। 13 जनवरी, 1849 ई. को चिलियांवाला नामक स्थान पर सिक्खों ने ब्रितानियों को परास्त किया। अन्त में ब्रिटिश सेनापति सर ह्जू गफ ने 21 फरवरी, 1849 ई. को गुजरात (चिनाब नदी के पास का कस्बा) नामक स्थान पर सिक्खों को निर्णायक रूप से परास्त किया। गुजरात का युद्ध भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण युद्धों में से एक था। इस युद्ध में सिक्ख बड़ी बहादुरी से लड़े, किन्तु अपने सीमित साधनों के कारण वे परास्त हुए। इस युद्ध में जहाँ सिक्खों के पास मात्र 21 तोपों तथा 61,500 सैनिक थे, वहीं ब्रितानियों के पास 100 तोपें तथा 2.50 लाख सैनिक थे। 13 मार्च, 1849 ई. को सिक्खों ने आत्मसमर्पण इस युद्ध के पश्चात् 1849 ई. में पंजाब का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर दिया गया। अब समूचा भारत ब्रितानियों के आधिपत्य में आ गया था।
सिक्ख सेना को दुर्बल बना दिया गया। बड़े-बड़े सिक्ख सरदारों की सम्पत्ति छीनकर ब्रितानियों ने अपने विश्वासपात्र सिक्खों में बांट दी। दिलीप सिंह को ईसाई बनाकर 1860 में अपनी माता के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया गया। यद्यपि बाद में दिलीप सिंह ने पुनः सिक्ख धर्म ग्रहण कर लिया था, किन्तु फिर भी उन्हें पुनः भारत नहीं आने दिया गया। लाहौर में ब्रिटिश सेना की छावनी स्थापित की गई। पंजाब में प्रशासनिक सुधार किए गए तथा सर हेनरी लारेन्स के स्थान पर सर जॉन लारेन्स को पंजाब का चीफ कमीश्नर बनाया गया, जो बडे सख्त थे। उन्होंने सिक्ख दरबारियों से कहा कि क्या आप कलम का शान चाहते हैं अथवा तलवार का, इन दोनों में से एक को चुन लीजिए (Will you be governed by the pen, or sword, choose)।
इस प्रकार पंजाब के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय के साथ ही आंग्ल-सिक्ख संघर्ष समाप्त हो गया। अब समूचा भारतवर्ष ब्रितानियों के प्रभुत्व में आ चुका था।

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