खगोल विज्ञान : ताराभौतिकी या खगोलभौतिकी - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

खगोल विज्ञान : ताराभौतिकी या खगोलभौतिकी

Share This
ताराभौतिकी  (Astrophysics) खगोल विज्ञान का वह अंग है जिसके अंतर्गत खगोलीय पिंडो की रचना तथा उनके भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। प्रकृति के रहस्यों को समझने क उत्कट इच्छा से पेरित होकर मनुष्य ने आकाशीय पंडों का अध्ययन प्रारंभ किया। उसने इनके विषय में जितनी सूचना केवल नेत्रों की सहायता से प्राप्त की जा सकती थी प्राप्त की; उदाहरणत:, वह पृथ्वी की दैनिक तथा वार्षिक गतियों और उनसे संबद्ध भौतिक घटनाओं, चंद्रमा की कलाओं तथा चांद्र मास, ग्रहों की गतियों आदि को समझने लगा। परंतु जब तक सूर्य, चंद्रमा तथा ग्रहों को बिंब और तारों को प्रकाशबिंदु समझा जाता रहा, इनके विषय में अधिक न जाना जा सका। इटली के ज्योतिषी गैलिलीओं गैलिली (सन् 1564-1642) ने सन् 1612 में आकाशमंडल के अध्ययन में पहली बार दूरदर्शी का प्रयोग किया; किंतु जब तक दूरदर्शी की रचना में समुचित उन्नति नहीं हुई, इसके उपयोग से भी ग्रहपृष्ठों के अध्ययन के अतिरिक्त कोई और विशेष महत्वपूर्ण सूचना न प्राप्त की जा सकी। ज्यों ज्यों दूरदर्शी की रचना में सुधार होता गया, ज्योतिष संबंधी अनुसंधान में उसकी उपयोगिता बढ़ती गई, परंतु ताराभौतिकी का प्रारंभ तो 19वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में हुआ, जब सूर्य तथा अन्य तारों के प्रकाश के अध्ययन में जर्मनी के भौतिकविद्, गुस्तैफ रॉबर्ट किर्खहॉफ (सन् 1824-1887), द्वारा प्रतिपादितवर्णक्रमिकी के सिद्धांतों का उपयोग प्रारंभ हुआ। इस साधन के विकास में फोटोग्राफी से अत्यंत सहायता मिली, क्योंकि इसकी सहायता से आलोकित वर्णक्रमपट्ट स्थायी रूप से तुलनात्मक अध्ययन के लिये उपलब्ध होने लगे। इसी प्रकाशमिति (फोटोमीटरी) और वर्णक्रम की रेखाओं की तीव्रता नापने के साधनों ने वर्णक्रमिकी द्वारा किए गए अध्ययन में सहयोगी बनकर, खगोलीय पिंडों की भौतिक अवस्था के विषय में अमूल्य सूचना प्रदान की। जब कोई गैस जलाई जाती है तब, किर्खहॉफ के सिद्धांत के अनुसार, वह श्वेत प्रकाश का विकिरण न करके केवल विशेष वर्णों के प्रकाश का ही विकिरण करती है। इन वर्णों को गैस के लाक्षणिक वर्ण कहते हैं। इन वर्णों में कौन कौन से वर्ण प्रकट होंगे, यह उस भौतिक अवस्था में स्थित दीप्तिमान गैस में से यदि श्वेत प्रकाश गमन करे, तो श्वेत प्रकाश का वर्णक्रम संतत नहीं होता, वरन् उसमें गैस के लाक्षणिक वर्ण अनुपस्थित होते हैं। इसके अतिरिक्त यदि श्वेत प्रकाश के उद्गम का ताप गैस के ताप से ऊँचा हो, तो वर्णक्रमपट्ट में गैस के लाक्षणिक वर्णो के स्थान में काली रेखाएँ, जिन्हें फ्रौनहोफर (Fraunhofer) रेखाएँ कहते हैं, प्रकट होती हैं। इन काली रेखाओं के अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि श्वेत प्रकाश किस किस गैस में गमन करके वर्णक्रमदर्शी तक पहुँचा है तथा उसके गैस परमाणु किस भौतिक अवस्था में हैं।

किर्खहॉफ ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन प्रयोगों के आधार पर किया था। परंतु आगे चलकर परमाणुरचना के ज्ञान और क्वांटम सिद्धांत की सहायता से वर्णक्रमिकी के नियमों का प्रतिपादन सैद्धांतिक रूप से किया जा सका। उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि ताराभौतिकी के अध्ययन में वर्णक्रमिकी के साधन की उपयोगिता की एक स्वाभाविक सीमा है। यह इसलिए कि वर्णक्रमदर्शी पदार्थ की भौतिक अवस्था के विषय में तभी सूचना दे सकता है जब यह पदार्थ दीप्तिमान गैस के रूप में हो। अत: इस साधन से यह नहीं जाना जा सकेगा कि प्रकाश के पथ में स्थित पिंडखंड किन पदार्थों के बने हुए हैं तथा उनकी भौतिक अवस्था क्या है। खगोलीय पिंडों से जो प्रकाश आता है वह उसके आंतरिक भागों में उत्पन्न होता है, फिर भी उन भागों की रचना के विषय में वर्णक्रमदर्शी की सहायता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वह तो केवल इन पिंडों को घेरे हुए गैसमंडल के विषय में ही सूचना देने में समर्थ है। फलत: इन पिंडों के आंतरिक भागों की रचना तथा भौतिक अवस्था के विषय में जानने के लिये वर्णक्रमिकी से भिन्न साधनों की आवश्यकता है। इन साधनों का वर्णन आगे किया जाएगा। अघ्ययन के साधनों के विचार से तारापिंड को दो मुख्य भागों में विभक्त किया जा सकता है: (1) आंतरिक भाग और (2) गैसमंडल

तारों का आंतरिक संघटन 
तारों के आंतरिक संघटन को जानने का कोई भौतिक साधन उपलब्ध नहीं है। अत: इस संघटन का अध्ययन करने के लिये गणितीय साधनों का उपयोग करना पड़ता है। अवलोकित सामग्री तथा भौतिक सिद्धांतों के अनुकूल तारों के आंतरिक भाग के सरल प्रतिरूप (मॉडल model) की कल्पना की जाती है और फिर इस प्रतिरूप के भौतिक लक्ष्ण गणित की रीति से निश्चित किए होते हैं। यदि ये लक्षण तारों के आलोकित लक्षणों के समान हों, तो यह निष्कर्ष निकलता है कि तारे के आंतरिक भाग में भी वैसी ही भौतिक अवस्थाएँ विद्यमान हैं जैसी प्रतिरूप में। ऐसे कितने ही प्रतिरूपों का अध्ययन किया गया है। इसके फलस्वरूप तारों के आंतरिक भाग के संघटन के विषय में समुचित ज्ञान प्राप्त किया जा सका हैं।
कुछ प्रकार के तारों का पुंज और उनके अर्धव्यास ज्ञात हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक तारे का यह आवश्यक लक्षण है कि वह सतत आकाश में सब ओर ऊर्जा का विकिरण करता रहता है। ऊर्जा के विकिरण की दर, जिसे तारे की ज्योति (luninosity) कहते हैं, तारे का उतना ही महत्वपूर्ण लक्षण है जितने उसके पुंज और अर्धव्यास। यदि तारों के पुंज और उनते अर्धव्यासों का रेखाचित्र खींचा जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तारे लगभग तीन भागों में विभाजित किए जा सकते हैं। तारों के पुंज और ज्योतिषयों का रेखाचित्र भी इस कथन का समर्थन करता है। अधिकांश तारों के लिये उनकी ज्योति पुंज के लगभग 3.5 घात के अनुसार विचरण करती है। इन तारों के समूह को मुख्य श्रेणी कहते हैं। जो तारे इस श्रेणी से भिन्न हैं, वे दो प्रकार के होते हैं : (1) श्वेत वामन (white dwarfs) और (2) ट्रंपलर तारे। ट्रंपलर तारों की ज्योति उनके पुंज के अनुपात में विचरण करती है। यदि एक ही पुंज की मुख्य श्रेणी के तारों और श्वेत-वामन की ज्योतियों ओर अर्धव्यासों की तुलना करें, तो यह पाया जाता है कि श्वेत वातन मुख्य श्रेणी के तारे की अपेक्षा बहुत कम ज्येतिष्मान् होता है और उसका अर्धव्यास भी बहुत कम होता है। अत: श्वेत वामन का पदार्थ अत्यंत घन होना चाहिए। द्वितीय-लुब्धक (सीरियम-बी) श्वेत-वामन श्रेणी का प्रतिनिधि माना जाता है। इसका माध्य घनत्व लगभग 6.8 ज्र्104 ग्राम प्रति घन सेंमी0 है। यही यहीं, यदि एक ही प्रभावी ताप के मुख्य श्रेणी के तारों और श्वेत वामन की ज्योतियों की तुलना करें, तो श्वेत वामन मुख्य श्रेणी के तारे की अपेक्षा बहुत ही कम ज्येतिष्मान होता है। ये भिन्नताएँ तारों के आंतरिक संघटन की भिन्नता की द्योतक हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Pages