तारों के विषय में अनेक तथ्य ज्ञात किए जा चुके हैं जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित है : -
(1) सूर्य तथा अन्य तारे दीप्तिमान गैस के विशाल गोलीय पिंड हैं, जिनके आंतरिक भागों के पृष्ठ का ताप, जिसे पृष्ठीय कहते हैं, सहस्रों अंशों तक होता है। पृष्ठ से ज्यों ज्यों तारे के केंद्र की ओर बढ़ें, ताप में वृद्धि होती जाती है; यहाँ तक कि केंद्रीय ताप कई लाख पाया जाता है।?
(2) प्रत्येक तारे का आंतरिक भाग गैसमंडल से घिरा हुआ है। इन गैसमंडलों में जो तत्व पहचाने गए है वे सब पृथ्वी पर भी पाए जाते हैं। इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यहाँ पर पृथ्वी पर पाए जानेवाले तत्वों से भिन्न अन्य तत्व नहीं होंगे। वास्तव में तारों के वर्णक्रम में ऐसी फ्रौनहोफर रेखाएँ पाई जाती हैं जो पृथ्वी पर पाए जानेवाले किसी भी तत्व की रेखाओं से भिन्न हैं। तारों के गैस मंडल में मुख्य रूप से हाइड्रोजन, हीलियम, कार्बन, लोहा आदि उपस्थित होते हैं। भारतीय ज्योतिषी, मेघनाद साहा, ने सन् 1922 में अपने प्रसिद्ध ऊष्माअयनन सूत्र का प्रतिपादन किया, जिसकी सहायता से वर्णक्रम पट्टी का वास्तविक तथ्य समझा जा सकता है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध ज्योतिषी एडिंगटन के शब्दों में साहा सूत्र, दूरदर्शी के पश्चात्, ज्योतिष में सबसे अधिक महत्वपूर्ण आविष्कार है।
(3) तारे के सतत वर्णक्रम के अध्ययन से उसका प्रभावी (effective) ताप निश्चित किया जाता है। अन्वेषण में यह कल्पना की जाती है कि तारा एक आदर्श कृष्ण पिंड (black body) है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसका पृष्ठ इस प्रकार संगठित है कि वह उन सब विकिरणों का, जो उसपर निपात करते हैं, पूर्ण रूप सेअवशोषण कर लेता है। किर्खहॉफ और बैलफुर और स्टुअर्ट (B. Stewart) ने यह सिद्ध किया है कि यदि पिंड की ऊर्जा में परिवर्तन न हो, तो प्रत्येक वर्ण में उसके विकिरण और अवशोषण की मात्राएँ एक विशेष अनुपात में होती हैं। कृष्ण शब्द का पिंड के दृश्य रंग से कोई संबंध नहीं है। ऐसे पिंड के सैद्धांतिक, अथवा प्रयोगात्मक, अध्ययन ने यह सिद्ध किया है कि विशेष ताप पर प्रत्येक वर्ण की तीव्रता (intensity) निश्चित होती है। प्लांक ने ऊष्मागतिकी के आधार पर एक सूत्र का प्रतिपादन किया है, जो यह बताता है कि ऊष्मा गतिकीय साम्य (thermodynamic equilibrium) की अवस्था में आदर्श कृष्ण पिंड के अमुक वर्ण के विकिरण की अमुक तीव्रता होती है। ऊपर दिया रेखाचित्र तरंगदैध्र्य (wave length) और विकिरण की तीव्रता में संबंध बताता है।
पिंड के दिए हुए ताप के लिये वक्र और तरंगदैध्र्य के अक्ष के मध्य में सीमित क्षेत्रफल उस संपुर्ण ऊर्जा को निश्चित करता है जिसका विकिरण तारा आकाश में प्रति क्षण कर रहा है। इन वक्रों से यह भी स्पष्ट है कि पिंड के ताप में परिवर्तन के साथ ही साथ महत्तम तीव्रता के तरंगदैध्र्य में भी परिवर्तन हो जाता है। वस्तुत: ज्यों ज्यों पिंड के ताप में वृद्धि होती जाती है, महत्तम तीव्रता का तरंगदैध्र्य घटता जाता है, अर्थात् वह वर्णक्रम में दृश्य भाग की ओर हटता जाता है। आदर्श कृष्ण पिंड के लिये प्लांक नियम के अनुसार ताप और महत्तम तीव्रता के तरंगदैध्र्य के संबंध को प्रकट करनेवाला सूत्र सरलता से ज्ञात कर लिया जाता है। अत: तारे के प्रभावी ताप को निश्चित करने के लिये पहले उसके वर्णक्रम के अध्ययन से महत्तम तीव्रता के विकिरण का तरंगदैध्र्य ज्ञात किया जाता है। तारे का प्रभावी ताप वास्तव में उस आदर्श कृष्ण पिंड का ताप है जिसके विकिरण की महत्तम तीव्रता उसी तरंगदैध्र्य में है जिसमें तारे की।
(4) तारों के वर्णक्रम लेखों में बड़ी भिन्नता पाई जाती है, परंतु फिर भी यदि मुख्य मुख्य फ्रौनहोफर रेखाओं पर ही ध्यान दें तो इन वर्णक्रमपट्टों को कुछ वर्गों को कुछ वर्गों में बाँटा जा सकता है। गत शताब्दी में अनेक ज्योतिषियों ने तारों का वर्णक्रम के विचार से वर्गीकरण करने का प्रयत्न किया, परंतु प्रचलित वर्गीकरण वर्तमान शताब्दी के प्रथम वर्षो में हारवर्ड वेघशाला में प्रोफेसर मिकरिंग, श्रीमती फलेमिंग तथा कुमारी केनन द्वारा किया गया था। इस वर्गीकरण में कुछ अक्षरों का प्रयोग किया गया है, जिनके वरण का सुविधा के अतिरिक्त और कोई विशेष वैज्ञानिक आधार नहीं है। इस वर्गीकरण के मुख्य वर्ग ओ (O), ब (B), ए (A), फ (F), ग (G), क (K) तथा म (M) से चिह्नित किए जाते हैं सुविधा के लिये इनमें से प्रत्येक वर्ग दस उपवर्गों में विभाजित किया जाता है। व्यवहार में तारे के वर्ग का निश्चय उसके वर्णक्रमपट्ट की प्रमुख अवशोषण रेखाओं (£òÉèxɽþÉä¡ò®ú ®äúJÉÉ+Éå) की तीव्रता के आधार पर किया जाता है, जो ताप एवं दाब दोनों पर निर्भर करती हैं। अत: वर्गीकरण में ताप एवं दाब का प्रभाव इस प्रकार विचार मे लिया जाता है कि अधिकांश तारे दो मुख्य श्रेणियों में विभाजित किए जा सकें : (1) विशाल (giant) तारे और (2) वामन (dwarf) तारे और तब प्रत्येक श्रेणी में अवशोषण रेखाओं की तीव्रताएँ इतने नियमानुसार बदलती हैं कि दी हुई तीव्रताओं के लिये तारे के वर्ग का, फलत: उसके प्रभावी ताप का, निश्चय अनन्य रूप से किया जा सकता है। दिये हुए वर्ग के विशाल तारे का ताप उसी वर्ग के वामन तारे के ताप की अपेक्षा कम होता है। सूर्य वामन श्रेणी का सदस्य है।
निम्नांकित सारणी में इन वर्गों से संगत वामन श्रेणी के तारों के लिये प्रभावी ताप एवं वर्णक्रमपट्ट की विशेताएँ दी गई है:
वर्ग ताप (T) रंग वर्णपट्ट की विशेषता
ओ7 (O7) 28,750 नील हाइड्रोजन आयनिक हीलियम
बदृ (Bo) 21,390 नील हाइड्रोजन, हीलियम
ब5 (B5) 14,490 श्वेत हाइड्रोजन, आयनिक धातुएँ
अ0 (A0) 10,520 श्वेत आयनिक धातुएँ
अ5 (A5) 8,390 तृणपीत आयनिक एवं आयनिक धातुएँ
फ0 (F0) 7,300 पीत आयनिक धातुएँ
फ5(F5) 6.210 नारंगी परमाणु
ग0 (G0) 5,750 रक्त
ग5 (G5) 5,160
क0 (K0) 4,650
क5 (K5) 0.050
म0 (M0) 3,890
म5 (M5) 3,735
आगे चलकर अविशिष्ट अवलोकित तारों को वर्गीकरण में सम्मिलित करने के लिये इस वर्गीकरण के प्रारंभ में वर्ग व (W) और अंत में न (N), र (R) तथा स (S) वर्गों का योग कर दिया फलत: प्रचलित वर्गीकरण इस प्रकार है:
(5) वर्णक्रमिकी (Spectroscopy) के साधन ने यह भी प्रकट किया कि बहुत से तारे, जो बड़े से बड़े दूरदर्शी द्वारा लिए गए फोटोग्राफों में अकेले दिखाई देते हैं, वास्तव में दो तारे हैं, जो अपने गुरुत्वकेंद्र (centre of gravity) की परिक्रमा करते रहते हैं। इन तारों को वर्णक्रमदर्शीय युग्मक तारे (spectroscopic binaries) कहते हैं।
(6) चुंबकीय क्षेत्र में स्थित दीप्तिमान गैस की वर्णक्रम रेखाएँ साधारण दशा में विकीरित रेखाओं की अपेक्षा अधिक विस्तृत होती हैं तथा प्रत्येक दो में और कभी कभी अधिक उपरेखाओं में खंडित हो जाती है। इसे जेमान प्रभाव कहते हैं। बैबकाक ने कुछ तारों के वर्णक्रमपट्टों में इस प्रभाव को विद्यमान पाया, जिसके आधार पर उसने यह निष्कर्ष निकाला कि इन तारों में सूर्य की भाँति चुंबकीय क्षेत्र विद्यमान है।
(7) तारों के बीच के स्थान में संपूर्ण रूप से पदार्थ का अभाव नहीं है। वहाँ अत्यंत विसरित (diffused) धूलि तथा पिंडखंड विद्यमान हैं। उदाहरणार्थ, आकाशगंगा में सूर्य के समीप प्रति घन सेंमी0 में माध्यत: एक हाइड्रोजन परमाणु प्रति घन सेंमी0 और प्रति घन किमी0 में 10-5 सेंमी0 अर्धव्यास के लगभग 25 पिंडखंड पाए जाते हैं। इस प्रकार इस स्थान में स्थित पदार्थ का घनत्व लगभग 3न्10-24 ग्राम प्रति घन सेंमी0 है। तारों के गैसमंडल में भी पदार्थ का घनतव लगभग इतना ही होता है। यह कथन आकाशगंगा के अन्य भागों के विषय में सत्य नहीं है। अब यह निश्चित रूप से ज्ञात है कि प्रत्येक नीहारिका के भिन्न भिन्न भागों में घनत्व भिन्न है। तारे के भीतर के पदार्थ की प्रवृत्ति गैस के घने मेघों के रूप में विद्यमान होने की पाई जाती है। इन मेघों का पुंज तारों के पुंज और कभी कभी विशाल तारामंडल के पुंज, के समान होता है। यह मेघ अपने पीछे स्थित तारों के प्रकाश का अवशोषण ही नहीं, वरन् उसका प्रकीर्णन भी करते हैं, जिससे तारे का प्रकाश रक्त वर्ण का आभासित होने लगता है; उदाहरणार्थ, पृथ्वी के वायुमंडल के अणु संध्या समय सूर्य के प्रकाश का प्रकीर्णन कर सूर्य को रक्त वर्ण प्रदान करते हैं। इस प्रकीर्णन की मात्रा के अध्ययन से ही तारे के भीतर के पदार्थ में विद्यमान पिंडखंडों के माध्यपरिमाण का निश्चय किया जाता है।
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