राष्ट्रीय
पाठ्यचर्या की रूपरेखा,
2000 –
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में पूरे देश के
लिए 10+2+3 शिक्षा संरचना घोषित की गई और
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद ने 1975 में प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की
आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार कर यथा दस्तावेज प्रकाशित किया। राष्ट्रीय शिक्षा
नीति, 1986 में 10+2+3 शिक्षा संरचना को
सम्पूर्ण देश में अनिवार्य रूप से लागू करने की घोषणा की गई। इस बीच 1975 में तैयार की गई प्रथम
10 वर्षीय शिक्षा की
आधारभूत पाठ्यचर्या को कुछ प्रदेशों में लागू कर उसके गुण-दोष भी उजागर हो चुके
थे। परिषद ने इन अनुभवों एवं नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की घोषणाओं के
अनुरूप प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की
आधारभूत पाठ्यचर्या की नई रूपरेखा तैयार कर उसे 1988 में प्रकाशित
किया। इस पाठ्यक्रम का अनुपालन प्रान्तीय सरकारों ने
अपने-अपने तरीकों से किया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में यह घोषणा की
गई थी कि प्रत्येक 5 वर्ष बाद किसी भी
स्तर के पाठ्यक्रम का पुनर्निरीक्षण किया जाएगा और उसमें आवश्यक संशोधन किए जाएंगे।
दूसरी तरफ 1992 में केन्द्रीय सरकार ने संशोधित
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की घोषणा की। अब
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के सामने राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की घोषणा के
अनुपालन और संशोधित राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1992 की अपेक्षाओं के
अनुरूप प्रथम 10 वर्षीय शिक्षा की
संशोधित आधारभूत पाठ्यचर्या तैयार करने का प्रश्न था। उसने इस बार प्रथम
10 वर्षीय शिक्षा की
संशोधित आधारभूत पाठ्यचर्या को कुछ नया रूप दिया और उसे नवम्बर, 2000 में प्रकाशित
किया।
राष्ट्रीय
पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 –
2004 में केन्द्र में एनडीए की सरकार के स्थान
पर यूपीए की सरकार सत्तारूढ़ हुई। उसने कहा कि पूर्व, 2000 में पाठ्यचर्या का
भगवाकरण किया गया है जो कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए घातक है। अतः
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के अनुकूल नया पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए। इस हेतु
मानव संसाधन विकास मन्त्रालय द्वारा राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण
परिषद की कार्यकारिणी सभा बुलाई गई जो 14 जुलाई से 19 जुलाई, 2004 तक चली। इस सभा
में यह निर्णय लिया गया कि 21वीं शताब्दी के लिए
राष्ट्रीय पाठ्यक्रम तैयार किया जाए। वैसे भी प्रत्येक 5 वर्ष बाद
पाठ्यक्रम का पुनर्निरीक्षण और आवश्यक संशोधन करने की बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में कही गई थी और 2000 में बने पाठ्यक्रम
के पाँच वर्ष 2005 में पूरे होने वाले थे। इसी बीच वर्ष 2000 से सूचना संचार
प्रौद्योगिकी का समाज पर प्रभाव बहुत तेजी के साथ पड़ा और कम्प्यूटर की आधुनिक
दुनिया तैयार होने लगी। इसके कारण भी पाठ्यचर्या में संशोधन अपेक्षित था। अतः
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 तैयार की गई और
इसे राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (National
Curriculum Framework, 2005) के शीर्षक से दिसम्बर, 2005 में प्रकाशित किया
गया। इस फ्रेमवर्क में कक्षा 1 से कक्षा 12 तक कब, क्या,
क्यों और कैसे पढ़ाना-सिखाना है, इसकी पूरी रूपरेखा प्रस्तुत की गई है।
पाठ्यचर्या की यह रूपरेखा इस संबंध में एक
दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है कि हमारे बच्चों की शिक्षा के लिए क्या वांछनीय है। यह
उन लोगों को सशक्त करती है जो बच्चों और उनकी स्कूली शिक्षा से जुड़े हैं, तथा
उन्हें वह आधार प्रदान करती है जिनपर वे पाठ्यचर्या को तय करने वाले चुनाव कर
सकें। इसके लिए बच्चों के सीखने से जुड़े मुद्दों की समझ, ज्ञान की प्रकृति और
संस्था के रूप में स्कूल की समझ विकसित करनी होगी। पाठ्यचर्या का यह नज़रिया
विद्यालयी लोकाचार और संस्कृति, शिक्षक की कक्षा-संबंधी गतिविधियों, स्कूल के बाहर
शिक्षण के स्थान, अधिगम के संसाधनों के महत्त्व की ओर जितना ध्यान दिलाता है, उतना
ही उन आयामों की ओर भी जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं। बड़े
पैमाने पर पाठ्यचर्या संबंधी हस्तक्षेप की योजना बनानी हो तो यह भी सुनिश्चित करना
होगा कि मुख्य गतिविधियाँ यथा सामग्रियों का निर्माण, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक व
परीक्षा संबंधी सुधार परस्पर सुसंगत हों तथा इनका संबंध हमारे बच्चों को दी जाने
वाली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार एवं विकास के लिए निर्धारित शैक्षिक लक्ष्यों
से हो।
क्रम सं. |
अध्याय संख्या |
अध्याय में
वर्णित बिन्दु |
|
1. |
अध्याय एक |
विषय सूची |
|
परिप्रेक्ष्य |
परिचय |
||
पश्चावलोकन |
|||
राष्ट्रीय
पाठ्यचर्या की रूपरेखा |
|||
मार्गदर्शक सिद्धांत |
|||
गुणवत्ता के आयाम |
|||
शिक्षा का सामाजिक संदर्भ |
|||
शिक्षा के लक्ष्य |
|||
2. |
अध्याय दो |
सीखना और ज्ञान |
|
सक्रिय
विद्यार्थी की प्राथमिकता |
|||
विद्यार्थी को संदर्भ में रखना |
|||
विकास और सीखना |
|||
पाठ्यचर्या एवं व्यवहार के लिए निहितार्थ |
ज्ञान सृजन के लिए अध्यापन |
||
अंतःक्रिया का
मूल्य |
|||
शैक्षिक अनुभवों की रूपरेखा बनाना |
|||
नियोजन के उपागम |
|||
विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र |
|||
ज्ञान एवं समझ |
बुनियादी
क्षमताएँ |
||
व्यवहार में ज्ञान |
|||
समझ के रूप |
|||
ज्ञान को फिर से रचना |
|||
बच्चों का ज्ञान
और स्थानीय ज्ञान |
|||
स्कूली ज्ञान और समुदाय |
|||
कुछ विकासमूलक
विचार |
|||
3. |
अध्याय तीन |
पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएँ और आकलन |
|
भाषा |
भाषा शिक्षा |
||
घरेलू / प्रथम भाषाएँ या मातृभाषा शिक्षा |
|||
द्वितीय भाषा
सीखना |
|||
पढ़ना-लिखना सीखना |
|||
गणित |
स्कूली गणित का
दर्शन |
||
पाठ्यचर्या |
|||
कंप्यूटर विज्ञान |
|||
विज्ञान |
विभिन्न स्तरों पर पाठ्यचर्या |
||
दृष्टिकोण |
|||
सामाजिक विज्ञान |
प्रस्तावित ज्ञानमीमांसात्मक ढाँचा |
||
पाठ्यचर्या का
नियोजन |
|||
शिक्षाशास्त्र और संसाधनों के अभिगम |
|||
कला शिक्षा |
|||
स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा |
रणनीतियाँ |
||
काम और शिक्षा |
|||
शांति के लिए शिक्षा |
रणनीतियाँ |
||
आवास और सीखना |
|||
अध्ययन और आकलन की योजनाएँ |
प्रारंभिक बाल्यावस्था शिक्षा |
||
आरंभिक शिक्षा |
|||
माध्यमिक शिक्षा |
|||
उच्च माध्यमिक
शिक्षा |
|||
मुक्त विद्यालय और सेतु विद्यालय |
|||
आकलन और
मूल्यांकन |
आकलन का उद्देश्य |
||
शिक्षार्थियों का आकलन |
|||
शिक्षण के क्रम
में आकलन |
|||
पाठ्यचर्या के वे क्षेत्र जो अंकों के लिए जाँचे नहीं
जा सकते |
|||
आकलन की रूपरेखा
और उसका संचालन |
|||
स्व-आकलन और प्रतिपुष्टि |
|||
वे क्षेत्र जिनके
बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है |
|||
विभिन्न चरणों में आकलन |
|||
4. |
अध्याय चार |
विद्यालय एवं
कक्षा का वातावरण |
|
भौतिक वातावरण |
|||
सक्षम बनाने वाले
वातावारण का पोषण |
|||
सभी बच्चों की भागीदारी |
बच्चों के अधिकार |
||
समावेशन की नीति |
|||
अनुशासन और सहभागी प्रबंधन |
|||
अभिभावकों और
समुदाय के लिए स्थान |
|||
पाठ्यचर्या के स्थल और अधिगम के संसाधन |
पाठ और पुस्तकें |
||
पुस्तकालय |
|||
शैक्षिक तकनीकी |
|||
उपकरण और
प्रयोगशालाएँ |
|||
अन्य स्थल एवं अवसर |
|||
बहुलता और
वैकल्पिक सामग्रियों की आवश्यकता |
|||
संसाधनों का संयोजन एवं उनकी व्यवस्था |
|||
समय |
|||
शिक्षक की स्वायत्तता और व्यावसायिक स्वतंत्रता |
चिंतन और नियोजन के लिए समय |
||
5. |
अध्याय पाँच |
व्यवस्थागत सुधार |
|
गुणवत्ता को लेकर सरोकार |
अकादमिक नियोजन और गुणवत्ता प्रबोधन |
||
स्कूल प्रबोधन के
लिए स्कूलों में अकादमिक नेतृत्व |
|||
पंचायत और शिक्षा |
|||
पाठ्यचर्या
नवीकरण के लिए शिक्षक-शिक्षा |
शिक्षक-शिक्षा :
वर्तमान सरोकार |
||
शिक्षक का शिक्षा संबंधी दृष्टिकोण |
|||
शिक्षक-शिक्षा के
कार्यक्रम में बदलाव के कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदु |
|||
सेवाकालीन शिक्षक-शिक्षा और प्रशिक्षण |
|||
सेवारत
शिक्षक-शिक्षा की पहले और रणनीतियाँ |
|||
परीक्षा सुधार |
पर्चा- निर्धारण, परीक्षा और रपट |
||
आकलन में लचीलापन |
|||
अन्य स्तरों पर बोर्ड परीक्षाएँ |
|||
प्रवेश परीक्षाएँ |
|||
काम-केंद्रित शिक्षा |
व्यावसायिक शिक्षा और प्रशिक्षण |
||
विचार और व्यवहार
में नवाचार |
पाठ्यपुस्तकों की
बहुलता |
||
नवाचार को बढ़ावा |
|||
तकनीकी का उपयोग |
|||
नयी साझेदारियाँ |
गैर-सरकारी संगठन, नागरिक समाज समूह और शिक्षक
संगठनों की भूमिका |
राष्ट्रीय
पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के सभी पाँच अध्याओं का संक्षिप्त सार –
अध्याय एक का सार
(सारांश) –
·
शिक्षा की राष्ट्रीय व्यवस्था को
बहुलतावादी समाज में मजबूती प्रदान करना।
·
'शिक्षा बिना बोझ के' की सूझ के आधार पर
पाठ्यचर्या के बोझ को कम करना।
·
पाठ्यचर्या सुधार से सुसंगत व्यवस्थागत
परिवर्तन करना।
·
संविधान में उल्लिखित मूल्यों; जैसे
सामाजिक न्याय, समता एवं धर्मनिरपेक्षता पर आधारित पाठ्यचर्या अभ्यास।
·
सभी बच्चों के लिए गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा
सुनिश्चित करना।
·
ऐसे नागरिक वर्ग का निर्माण जो
लोकतांत्रिक व्यवहारों, मूल्यों के प्रति कटिबद्ध हो, लैंगिक न्याय के प्रति,
अनुसूचित जातियों-जनजातियों और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की समस्याओं एवं
आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील हो तथा उसमें राजनीतिक एवं आर्थिक प्रक्रियाओं में
भाग लेने की क्षमता हो।
अध्याय दो का सार
–
·
अध्यापन और अध्ययन संबंधी हमारी समझ का
पुनःअभिमुखीकरण।
·
विद्यार्थियों के विकास एवं अधिगम के
संबंध में सर्वांगीण दृष्टिकोण।
·
कक्षा में सभी विद्यार्थियों के लिए
समावेशी वातावरण तैयार करना।
·
ज्ञान निर्माण में विद्यार्थियों की
सहभागिता और रचनात्मकता को बढ़ावा।
·
प्रयोगात्मक माध्यमों द्वारा सक्रिय
शिक्षण।
·
पाठ्यचर्या की प्रक्रियाओं में बच्चों की
सोच, जिज्ञासा और प्रश्नों के लिए पर्याप्त स्थान।
·
ज्ञान को अनुशासनिक सीमाओं के पार जोड़ते
हुए ज्ञान के अन्तर्दृष्टिपूर्ण निर्माण के लिए एक व्यापक ढाँचा प्रदान करना।
·
विद्यार्थियों की सहभागिता के क्षेत्र -
अवलोकन, अन्वेषण, विश्लेषणात्मक विमर्श आदि भी
·
उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितनी कि ज्ञान
की विषय-वस्तु।
·
सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ पर विवेचनात्मक
परिप्रेक्ष्य को विकसित करने वाली प्रक्रियाओं को पाठ्यचर्या में स्थान देने की
आवश्यकता।
·
स्थानीय ज्ञान एवं बच्चों के अनुभव
पाठ्यपुस्तकों और अध्यापन प्रक्रियाओं के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
·
पर्यावरण संबंधी परियोजनाओं से जुड़े
विद्यार्थी ऐसे ज्ञान के निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं, जो भारतीय पर्यावरण
का एक पारदर्शी, सार्वजनिक आंकड़ा आधार तैयार करने में सहायक हो।
·
स्कूल के वर्ष बच्चों की तीव्र वृद्धि का
दौर होता है, उनकी क्षमताओं, अभिरुचियों व दृष्टिकोण में काफी बदलाव आते हैं।
इसलिए विषयवस्तु के चुनाव एवं व्यवस्था को तथा ज्ञान निर्माण की प्रक्रियाओं को
उनके हिसाब से अनुकूलित करना चाहिए।
अध्याय तीन का
सार –
भाषा –
·
लिखने-बोलने, सुनने एवं पढ़ने की भाषिक
क्षमताएँ स्कूल के सभी विषयों और अनुशासनों के शिक्षण से विकसित होती हैं।
प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक बच्चों के ज्ञान निर्माण में उनके
बुनियादी महत्त्व को समझना आवश्यक है।
·
त्रिभाषा फॉर्मूले को पुनः लागू किए जाने
की दिशा में काम किया जाना चाहिए, जिसमें बच्चों की घरेलू भाषाओं और मातृभाषाओं को
शिक्षण के माध्यम के रूप में मान्यता देने की ज़रूरत है। इनमें आदिवासी भाषाएँ भी
शामिल हैं।
·
अंग्रेज़ी को अन्य भारतीय भाषाओं के बीच
स्थान दिए जाने की आवश्यकता है।
·
भारतीय समाज के बहुभाषात्मक प्रकृति को
स्कूली जीवन की समृद्धि के लिए संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए।
गणित –
·
गणित-शिक्षण का मुख्य लक्ष्य गणितीकरण
(तार्किक ढंग से सोचने, अमूर्तनों का निर्माण करने तथा संचालित करने की योग्यताओं
का विकास) होना चाहिए न कि गणित का ज्ञान (औपचारिक एवं यांत्रिक प्रक्रियाओं का
ज्ञान)।
·
तार्किक ढंग से सोचने की क्षमता।
·
गणित की शिक्षा से बच्चों की तर्क, सोचने
की, अमूर्तनों के निर्माण तथा दृष्टिकरण की क्षमताओं एवं बच्चों में समस्या
सुलझाने की क्षमता का विकास हो। गणित की बेहतर शिक्षा का हक हर बच्चे को है।
विज्ञान –
·
विज्ञान की भाषा, प्रक्रिया एवं विषयवस्तु
विद्यार्थी की उम्र और उसकी ज्ञान की सीमा के अनुकूल होनी चाहिए।
·
विज्ञान शिक्षा को विद्यार्थियों को उन
तरीकों एवं प्रक्रियाओं का बोध कराने में सक्षम होना चाहिए जो उनकी रचनात्मकता और
जिज्ञासा को संपोषित करने वाली हों, विशेषकर पर्यावरण के संदर्भ में।
·
विज्ञान की शिक्षा को बच्चों के परिवेश के
व्यापक संदर्भ के अनुकूल होना चाहिए ताकि उनमें काम के संसार में प्रवेश करने लायक
जरूरी ज्ञान एवं कौशल विकसित हो सकें।
·
पर्यावरण की चिंताओं के प्रति जागरूकता को
संपूर्ण स्कूली पाठ्यचर्या में व्याप्त होना चाहिए।
सामाजिक विज्ञान –
·
सामाजिक विज्ञान की विषयवस्तु में
अवधारणात्मक समझ पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है बजाए इसके कि बच्चों के सामने परीक्षा
के लिए रटने वाली सामग्री का अंबार खड़ा कर दिया जाए। इससे उनमें सामाजिक मुद्दों
पर स्वतंत्र तथा आलोचनात्मक रूप से सोचने का अवसर मिलेगा।
·
प्रमुख राष्ट्रीय चिंताओं जैसे - लैंगिक
न्याय, मानव अधिकार और हाशिए के समूहों तथा अल्पसंख्यकों के प्रति संवेदनशीलता को
विकसित किए जाने के लिए अंतः अनुशासनात्मक दृष्टिकोण अपनाए जाने की ज़रूरत है।
·
नागरिक शास्त्र को राजनीतिशास्त्र में
तब्दील कर दिया जाए, तथा इतिहास को बच्चे की अतीत तथा नागरिकता की पहचान की
अवधारणा पर प्रभाव डालने वाले विषय के रूप में पहचाना जाए।
काम –
·
पूर्व-प्राथमिक से लेकर उच्च माध्यमिक
स्तर तक स्कूली पाठ्यचर्या को पुनर्गठित किए जाने की आवश्यकता है जिसमें ज्ञान
अर्जन, मूल्यों का विकास और बहुविध कौशलों के निर्माण के संदर्भ में काम की
शिक्षाशास्त्रीय संभावनाओं को देखा जा सके।
कला –
·
कलाओं (संगीत, नृत्य, दृश्यकलाएँ, कठपुतली
कला, मिट्टी की कला, नाटक आदि के लोक तथा शास्त्रीय रूपों) और धरोहर शिल्पों को
पाठ्यचर्या में समेकित घटकों के रूप में मान्यता।
·
वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक और
सौंदर्यात्मक आवश्यकताओं के संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता के बारे में माता-पिता,
स्कूली अधिकारियों और प्रशासकों में जागरूकता पैदा करना।
·
कला को स्कूली शिक्षा के हर स्तर पर शामिल
किए जाने पर बल।
शांति –
·
स्कूली शिक्षा के दौरान उपयुक्त
गतिविधियों के माध्यम से सभी विषयों में शांति के मूल्यों का संवर्द्धन।
·
शांति के लिए शिक्षा को शिक्षक-प्रशिक्षण
का भी एक अवयव बनाया जाना चाहिए।
स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा –
·
स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा
विद्यार्थियों के समग्र विकास के लिए आवश्यक है। स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा के
माध्यम से स्कूल में नामांकन, उपस्थिति एवं ठहराव आदि की समस्या से निपटा जा सकता
है।
आवास और अधिगम –
·
पर्यावरण शिक्षा सबसे अच्छी तरह विभिन्न
अनुशासनों की शिक्षा के साथ, उसके मुद्दों और चिंताओं को सभी स्तरों पर जोड़कर दी
जा सकती है। परंतु इसमें यह ध्यान देना आवश्यक है कि संबंधित गतिविधियों के लिए
पर्याप्त समय दिया जाए।
अध्याय चार का
सार –
·
शिक्षकों के प्रदर्शन को सुधारने के लिए
ढाँचागत और भौतिक सामग्री की न्यूनतम उपलब्धता और दैनिक योजना को लचीला बनाना
आवश्यक है।
·
बच्चों को सीखने वालों के रूप में पहचानने
वाली स्कूली संस्कृति हर बच्चे की रुचियों और उसकी संभावनाओं को और अधिक समृद्ध
करती है ।
·
ऐसी विशिष्ट गतिविधियों का आयोजन जिसमें
सक्षम और विभिन्न अक्षमताओं को झेल रहे बच्चे भी भाग ले सकें। यह सबके सीखने के
लिए एक अनिवार्य शर्त है।
·
लोकतांत्रिक तरीके द्वारा बच्चों में
स्व-अनुशासन का विकास हमेशा ही प्रासंगिक रहा है।
·
ज्ञान की प्रक्रिया में समुदाय के लोगों
को शामिल किए जाने से स्कूल और समुदाय में साझेदारी होने लगती है।
·
सीखने के लिए ज़रूरी संसाधनों के बारे में
इन संदर्भों में पुनर्विचार की आवश्यकता –
1)
पाठ्यपुस्तकों में अवधारणाओं की व्याख्या,
गतिविधियाँ, समस्याएँ और अभ्यास इस तरह से दिए गए हों कि वे उससे संबंधित चिंतन और
समूह कार्य को बढ़ावा देने वाले हों।
2)
सहायक पुस्तकें, कार्यपुस्तिकाएँ,
शिक्षकों के लिए मार्गदर्शिकाएँ आदि अभिनव चिंतन और नयी दृष्टियों पर आधारित हों।
3)
शिक्षा को इकतरफा रूप से प्राप्त की जाने
वाली वस्तु की जगह इसमें दोतरफा संवाद बनाने के लिए मल्टीमीडिया और सूचना एवं
संचार तकनीकी के साधनों का उपयोग।
4)
स्कूल का पुस्तकालय विद्यार्थियों,
शिक्षकों और समुदाय के लोगों के लिए ज्ञान को गहरा करने और विस्तृत संसार के साथ
जोड़ने का कार्य करे।
·
शिक्षा का माहौल को बनाने के लिए स्कूल
सारणी की विकेंद्रीकृत योजना तथा दैनिक सारणी और शिक्षक को पेशेवर कार्यों के लिए
स्वायत्तता अनिवार्य हैं।
अध्याय पाँच का
सार –
·
व्यवस्थागत सुधार का एक प्रमुख लक्षण है,
गुणवत्ता की चिंता जिसका मतलब हुआ कि संस्था में अपनी कमजोरियों की पहचान कर नयी
क्षमताओं का विकास करते हुए खुद को सुधारने की क्षमता हो।
·
यह वांछनीय है कि समान स्कूल व्यवस्था
विकसित की जाए ताकि देश के अलग-अलग क्षेत्रों की तुलनीय गुणवत्ता भी सुनिश्चित हो
सके क्योंकि जब अलग-अलग पृष्ठभूमियों के बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं तो इससे शिक्षण
की गुणवत्ता में विकास होता है और स्कूल का माहौल समृद्ध होता है।
·
आगामी योजना के लिए महत्त्वपूर्ण
क्षेत्रों की पहचान की शुरुआत स्कूलों से करते हुए, संकुल तथा खण्ड स्तर पर हो।
बाद में इनका समेकन करते हुए विस्तृत रूपरेखा बनाई जा सकती है। यह आगे जिला स्तर
पर विकेन्द्रीकरण योजना नीति बनाने में मदद कर सकती है।
·
प्रधानाध्यापक और शिक्षकों के सहयोग से
सार्थक अकादमिक योजना का विकास।
·
पठन-पाठन के संदर्भ में प्रत्येक स्कूल के
साथ सतत अन्तःक्रिया की जानी चाहिए ताकि गुणवत्ता का निरीक्षण किया जा सके।
·
शिक्षक-शिक्षा कार्यक्रमों का इस प्रकार
पुनसूत्रीकरण एवं शक्तिकरण किया जाए ताकि शिक्षक निम्नलिखित रूपों में अपनी भूमिका
निभा सके –
1)
अध्ययन-अध्यापन की परिस्थितियों को
शिक्षकों के लिए उत्साहवर्धक, सहयोगी और मानवीय बनाया जाए ताकि विद्यार्थियों को
अपनी शारीरिक तथा बौद्धिक संभावनाओं के पूर्ण विकास का मौका मिले। साथ ही,
जिम्मेदार नागरिक के रूप में अपनी भूमिका निभाने के लिए वांछनीय सामाजिक और मानवीय
मूल्यों के विकास का भी अवसर मिल सकें, और
2)
शिक्षक को ऐसे समूह का हिस्सा होना चाहिए,
जो लगातार सामाजिक और विद्यार्थियों की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर
पाठ्यचर्या सुधार में सजगता से लगें।
·
शिक्षक-शिक्षा का इस प्रकार पुनसूत्रीकरण
हो कि इसमें ज्ञान निर्माण में विद्यार्थी की सक्रिय भागीदारी, अधिगम के साझे
संदर्भ, ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में शिक्षक उत्प्रेरक का काम करे, आदि पर बल
दिया जाए। शिक्षक-शिक्षा का दृष्टिकोण बहु-अनुशासनात्मक हो, उसमें सिद्धांत और
व्यवहार अंतर्भूत हों तथा इसमें आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य विकसित करने की दृष्टि से
समकालीन भारतीय सामाजिक मुद्दों पर बातचीत हो।
·
शिक्षक-शिक्षा में भाषिक दक्षता को केंद्र
में रखा जाए और शिक्षक-शिक्षा का समेकित मॉडल विकसित किया जाए ताकि शिक्षकों के
पेशेवरपन को मजबूत किया जा सके। सेवाकालीन शिक्षण स्कूल में बदलाव का उत्प्रेरक हो।
·
लोकतांत्रिक सहभागिता को साकार करने हेतु
गाँव के स्तर पर समांतर संस्थाओं के क्रियाकलापों को नियंत्रित कर पंचायती राज
संस्थाओं को मज़बूती प्रदान की जा सके।
·
निम्नलिखित बिन्दुओं पर बल देकर परीक्षा
के कारण होने वाले तनाव में कमी लाई जा सकती है और सफलता बढ़ाई जा सकती है –
1)
विषयवस्तु के परीक्षण के बदले
शिक्षार्थियों की समस्या समाधान तथा समझ को जांचने की दिशा में बदलाव, इसके लिए
प्रश्न-पत्र के वर्तमान स्वरूप में परिवर्तन आवश्यक है।
2)
लघु परीक्षाओं की ओर बदलाव।
3)
लचीली समय सीमा के साथ परीक्षा।
4)
एक ऐसी नोडल एजेंसी की स्थापना जो प्रवेश
परीक्षाओं के डिज़ाइन बनाए तथा उन्हें संचालित कर सके।
·
स्कूली पाठ्यचर्या में पूर्व प्राथमिक से 12वीं कक्षा तक
काम-केंद्रित शिक्षा को, शिक्षा का अभिन्न अंग मान संस्थागत दर्जा दिया जाए। इससे
वैश्विक अर्थव्यवस्था की चुनौतियों का सामना करने के लिए व्यावसायिक शिक्षा की
पुनर्रचना हो सकेगी।
·
व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण (वेट) को
मिशन मोड के रूप में प्रारंभ करने तथा क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। इस
क्षेत्र में पहले से उपलब्ध सुविधाओं के सहयोग से गाँव, समुदाय और ब्लॉक स्तर से
लेकर अनुमण्डल/ज़िला, नगर और महानगर तक में व्यावसायिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण
केंद्रों और संस्थाओं की स्थापना की जाए।
·
शिक्षकों के चुनाव और बच्चों की
आवश्यकताओं तथा रुचियों की विविधता का विस्तार करने के लिए विविध पाठ्यपुस्तकों की
उपलब्धता।
·
शिक्षण अनुभवों तथा विविध कक्षा अभ्यासों
में साझेदारी को बढ़ावा देना ताकि नए विचार उत्पन्न हो सकें और नवाचार तथा प्रयोग
को बढ़ावा मिले।
·
विश्वविद्यालयों, गैर-सरकारी संस्थाओं तथा
शिक्षक संगठनों से शिक्षकों और विशेषज्ञों की मदद से विकेंद्रीकृत तरीके से सबकी
सहभागिता के साथ पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों तथा शिक्षण-अधिगम संसाधनों का विकास,
किया जा सकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें