कोठारी आयोग या राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के उच्च शिक्षा में सुधार के संदर्भ में सुझाव - Study Search Point

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कोठारी आयोग या राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के उच्च शिक्षा में सुधार के संदर्भ में सुझाव

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कोठारी आयोग या राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का उच्च शिक्षा में सुधार के संदर्भ में सुझाव

 

परिचय -

भारत सरकार ने शिक्षा के पुनर्गठन पर समग्र रूप से सोचने-समझने और देशभर के लिए समान शिक्षा नीति का निर्माण करने के उद्देश्य से 14 जुलाई, 1964 को डॉ० डी० एस० कोठारी (तत्कालीन अध्यक्ष : विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) की अध्यक्षता में 17 सदस्यीय राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन किया। इस आयोग को इसके अध्यक्ष के नाम पर 'कोठारी आयोग' (Kothari Commission) भी कहते हैं। 29 जून 1966 को इसने अपना प्रतिवेदन “शिक्षा एवं राष्ट्रीय प्रगति शीर्षक से भारत सरकार को दिया। इसमें कुल 692 पृष्ठ थे।

 

शिक्षा की संरचना सम्बन्धी सुझाव -

आयोग ने पूरे देश के लिए निम्नांकित शिक्षा संरचना का प्रस्ताव रखा -

1. पूर्व प्राथमिक शिक्षा - 1 से 3 वर्ष अवधि की।

2. निम्न प्राथमिक शिक्षा - 4 से 5 वर्ष अवधि की कक्षा 1 में प्रवेश की न्यूनतम आयु 6 वर्ष।

3. उच्च प्राथमिक शिक्षा 3 या 4 वर्ष अवधि की।

4. (a) माध्यमिक शिक्षा (सामान्य वर्ग ) - 2 वर्ष अवधि की।

(b) माध्यमिक शिक्षा (व्यावसायिक वर्ग) - 2 या 3 वर्ष अवधि की

5. (a) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (सामान्य वर्ग ) - 2 वर्ष अवधि की।

(b) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (व्यावसायिक वर्ग) - 2 या 3 वर्ष अवधि की।

6. (a) स्नातक शिक्षा (कला, विज्ञान, वाणिज्य ) - 3 वर्ष अवधि की।

(b) स्नातक शिक्षा (इंजीनियरिंग एवं मेडिकल ) - 3 या 4 वर्ष अवधि की।

7. परास्नातक शिक्षा (सभी विभाग ) - 2 या 3 वर्ष अवधि की।

8. अनुसन्धान कार्य 2 या 3 वर्ष अवधि की।

 

विशेष बल -

(1) सामान्य शिक्षा (प्राथमिक एवं माध्यमिक) की कुल अवधि 10 वर्ष की होनी चाहिए।

(2) उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अवधि सामान्य वर्ग की 2 वर्ष और व्यावसायिक वर्ग की 2 से 3 वर्ष की होनी चाहिए।

(3) विद्यालय संकुलों (School Complexes) का यथा शीघ्र निर्माण किया जाए। एक संकुल में एक माध्यमिक स्कूल और उसके निकटवर्ती सभी प्राथमिक स्कूल हों।

(4) प्रथम सार्वजनिक परीक्षा 10 वर्ष की सामान्य शिक्षा समाप्त करने पर होनी चाहिए।

 

'कोठारी आयोग' का लक्ष्य, उद्देश्य और कार्य –

कोठरी आयोग मुख्य रूप से पाँच लक्ष्यों पर केंद्रित था। जिसे पंचमुखी कार्यक्रम भी कहा जा सकता है जो –

Ø शिक्षा द्वारा उत्पादन में वृद्धि करना।

Ø शिक्षा द्वारा सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना।

Ø शिक्षा द्वारा लोकतंत्रीय मूल्यों का विकास करना।

Ø शिक्षा द्वारा राष्ट्र का आधुनिकीकरण करना।

Ø शिक्षा द्वारा सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना।

 

कोठारी आयोग ने जो विश्वविद्यालयी या उच्च शिक्षा के संदर्भ में जो सुझाव दिए वह निम्नलिखित है –

विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन सम्बन्धी सुझाव -

आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रशासन को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए निम्नलिखित दिए

((1) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) का पुनर्गठन किया जाए। इसके कुल सदस्यों के 1/3 सदस्य विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि होने चाहिए।

(2) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को और अधिक सशक्त बनाया जाए। इसे उच्च शिक्षा संस्थाओं को अनुदान देने के साथ-साथ उनके निरीक्षण का अधिकार भी दिया जाए और साथ ही उच्च शिक्षा का स्तर बनाए रखने का उत्तरदायित्व सौंपा जाए।

(3) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को विश्वविद्यालयों को उदारतापूर्वक अनुदान देना चाहिए, विशेषकर 'उच्च अध्ययन केन्द्रों' (Centres of Advanced Studies) की स्थापना हेतु

(4) कृषि इंजीनियरिंग और चिकित्सा की उच्च शिक्षा की देख रेख के लिए केन्द्र में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की भाँति अलग-अलग संस्थाएँ स्थापित की जाए।

(5) सभी विश्वविद्यालयों को 'अन्तर्विश्वविद्यालय परिषद (Inter-University Council) का सदस्य बनाया जाए।

(6) सभी विश्वविद्यालयों को और अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए जिससे वह अपने शिक्षण और अनुसंधान कार्य में सुधार कर सकें।

(7) विश्वविद्यालयों के प्रशासन तन्त्र का पुनर्गठन किया जाए। इनकी कोर्टों में सदस्यों की संख्या 100 से कम की जाए। सदस्यों में 50% सदस्य विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि और 50% बाह्य सदस्य रखे जाए। इस कोर्ट को नियम बनाने का अधिकार दिया जाए।

(8) विश्वविद्यालयों की कार्यकारिणी परिषद में 15 से 20 सदस्य होने चाहिए और विश्वविद्यालय का कुलपति इसका अध्यक्ष होना चाहिए। इस परिषद को नियमानुसार क्रियान्वयन का अधिकार एवं उत्तरदायित्व होना चाहिए।

(9) विश्वविद्यालयों की शैक्षिक परिषदों में छात्रों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इन परिषदों को पाठ्यक्रम निर्माण और शैक्षिक विषयों पर निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए।

(10) विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के चुनाव में स्वतन्त्रता होनी चाहिए। इस पद के लिए ऐसे व्यक्तियों का चुनाव करना चाहिए जो शिक्षाशास्त्री हों और जिन्हें प्रशासन का अनुभव हो। यह पद पूर्णकालिक और वैतनिक होना चाहिए। कुलपति का कार्यकाल 5 वर्ष होना चाहिए और उसकी सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष होनी चाहिए।

(11) विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम निर्माण, शिक्षकों की नियुक्ति, छात्रों के चयन और अनुसंधान कार्य के क्षेत्र में स्वायत्तता होनी चाहिए।

(12) विश्वविद्यालयों के विभागाध्यक्षों को अपने-अपने विभागों की व्यवस्था करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।

 

विश्वविद्यालयी शिक्षा के संगठन सम्बन्धी सुझाव

आयोग ने विश्वविद्यालयी शिक्षा की उचित व्यवस्था हेतु चार प्रकार की उच्च शिक्षा संस्थाओं के विकास पर बल दिया - सामान्य विश्वविद्यालय, वरिष्ठ विश्वविद्यालय, सामान्य महाविद्यालय और स्वायत्त महाविद्यालय साथ ही उसने नए विश्वविद्यालयों एवं वरिष्ठ विश्वविद्यालयों की स्थापना के सम्बन्ध में भी सुझाव दिए।

1. नए विश्वविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव

§  नए विश्वविद्यालय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्वीकृति के बाद ही स्थापित किए जाए।

§  नए विश्वविद्यालय उन्हीं स्थानों पर स्थापित किए जाए जहाँ कोई विश्वविद्यालय न हो और जहाँ उनकी आवश्यकता हो।

§  किसी भी नए विश्वविद्यालय की स्थापना तभी की जाए जब उससे उच्च शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाने में सहायता मिले।

§  जहाँ कई स्नातकोत्तर महाविद्यालय हो, उनको संगठित करके नए विश्वविद्यालय का रूप दिया जा सकता है।

 

2. वरिष्ठ विश्वविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव

(1) कुछ विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर शिक्षा और शोध कार्य पर विशेष बल दिया जाए और उन्हें वरिष्ठ विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जाए। प्रारम्भ में केवल 6 विश्वविद्यालयों को वरिष्ठ विश्वविद्यालयों के रूप में विकसित किया जाए।

(2) इन विश्वविद्यालयों का सम्पूर्ण वित्तीय भार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग पर हो।

(3) इन विश्वविद्यालयों में अति मेधावी छात्रों को प्रवेश दिया जाए।

(4) इन विश्वविद्यालयों में छात्रवृत्तियों की विशेष व्यवस्था की जाए।

(5) इन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर की जाए। इसके लिए योग्य शिक्षकों को अग्रिम वेतन वृद्धि दी जा सकती है।

(6) इन विश्वविद्यालयों में शिक्षकों को शोध कार्य के लिए विशेष सुविधाएँ दी जाएँ।

(7) इन विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा हेतु शिक्षकों का निर्माण किया जाए।

 

3. नए महाविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव

Ø नए महाविद्यालयों को मान्यता देने के स्थान पर पुराने महाविद्यालयों का विस्तार किया जाए।

Ø एक महाविद्यालय में 500 से 1000 तक छात्र-छात्राएँ होने चाहिए।

 

4. स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना सम्बन्धी सुझाव

(1) कुछ उत्तम श्रेणी के महाविद्यालयों को स्वायत्त महाविद्यालयों (Autonoms Colleges) के रूप में विकसित किया जाए।

(2) इन महाविद्यालयों को विश्वविद्यालयों की भाँति अपना पाठ्यक्रम बनाने और अपने छात्रों की परीक्षा लेने का अधिकार होगा, अन्य क्षेत्रों में ये सामान्य महाविद्यालयों की भाँति ही होंगे।

 

कोठारी आयोग के अंशकालिक शिक्षा और पत्राचार पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव दिए जो इस प्रकार थे – कुछ विश्वविद्यालयों द्वारा अंशकालिक शिक्षा और पत्राचार पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए। इस व्यवस्था के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अनुदान दे।

 

5. उच्च शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश सम्बन्धी सुझाव –

(1) सभी विश्वविद्यालयों में प्रवेश समितियों का गठन किया जाए। ये समितियाँ प्रवेश नियमों का निर्माण करें और सभी सम्बद्ध संस्थाएँ इनका अनुपालन करें।

(2) उच्च शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश छात्र-छात्राओं की योग्यता, प्रवेश स्थान और शिक्षकों की संख्या के आधार पर दिए जाए।

(3) किसी भी प्रकार की स्नातकोत्तर शिक्षा में प्रवेश के नियम और अधिक कठोर होने चाहिए।

(4) शोध कार्य के लिए केवल उन्हीं व्यक्तियों का चयन किया जाए जो शैक्षिक योग्यता के साथ-साथ अति प्रतिभाशाली हों, अति परिश्रमी हों और जिनकी शोध में रुचि हो, प्रवृत्ति हो।

 

विश्वविद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य सम्बन्धी सुझाव

आयोग ने भारतीय विश्वविद्यालयों के जो लक्ष्य निर्धारित किए हैं उन्हें ही हम उच्च शिक्षा के उद्देश्य मान सकते हैं।

·        नवीन ज्ञान की प्राप्ति एवं नए तथ्यों (सत्य) की खोज करना।

·        पुराने ज्ञान एवं विश्वासों का मूल्यांकन करना।

·        सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन देना और मूल्यों का विकास करना।

·        छात्रों और शिक्षकों में और उनके द्वारा समाज के व्यक्तियों में उचित मान्यताओं और दृष्टिकोणों का विकास करना।

·        सामाजिक एवं सांस्कृतिक विभिन्नताओं को कम करना।

·        प्रतिभाशाली युवकों की खोज करना और उन्हें अपनी प्रतिभाओं के विकास में सहायता करना।

·        जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने की कुशलता और नेतृत्व शक्ति का विकास करना।

·        कृषि, चिकित्सा, विज्ञान, तकनीकी एवं अन्य क्षेत्रों के लिए कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करना।

·        राष्ट्रीय चेतना का विकास करना।

 

विश्वविद्यालयी शिक्षा के पाठ्यक्रम सम्बन्धी सुझाव

(1) स्नातक स्तर का पाठ्यक्रम तीन वर्ष का किया जाए और इस स्तर पर सामान्य और ऑनर्स दोनों प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जाए।

(2) स्नातक स्तर पर पाठ्यक्रम में नए-नए विषयों का समावेश किया जाए और छात्र-छात्राओं को विषयों के चयन हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाए।

(3) स्नातक स्तर पर एक या दो विषयों में गहन अध्ययन आवश्यक हो।

(4) उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाओं और शास्त्रीय भाषाओं के अध्ययन की व्यवस्था की जाए।

(5) साथ ही विदेशी भाषाओं अंग्रेजी और रूसी भाषा आदि की शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

 

उच्च स्तर पर शिक्षण में सुधार और शिक्षा के माध्यम सम्बन्धी सुझाव

1. शिक्षण में सुधार हेतु सुझाव

(1) उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण प्रक्रिया में सुधार करने हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में एक विशेष समिति का गठन किया जाना चाहिए।

(2) छात्रों में रटने की प्रवृत्ति समाप्त की जानी चाहिए और चिन्तन की प्रवृत्ति का विकास किया जाना चाहिए।

(3) व्याख्यान के बाद उसकी सामग्री को आत्मसात् करने के लिए समय दिया जाना चाहिए।

(4) कक्षा शिक्षण को कुछ कम करके उसके स्थान पर स्वाध्याय, विचार-विमर्श, समस्या समाधान और लेखन को महत्त्व दिया जाए। इस हेतु सम्पन्न पुस्तकालयों और संगोष्ठी भवनों की उचित व्यवस्था की जाए।

(5) नए शिक्षकों की नियुक्ति ग्रीष्मावकाश में की जाए जिससे सत्र सुचारू रूप से चले।

(6) किसी शिक्षक को सत्र के बीच में संस्था छोड़ने की स्वीकृति न दी जाए।

(7) किसी भी शिक्षक को एक समय 7 दिन से अधिक का अवकाश न दिया जाए।

 

2. शिक्षा के माध्यम सम्बन्धी सुझाव

(1) स्नातक स्तर की शिक्षा क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से हो।

(2) स्नातकोत्तर स्तर की शिक्षा अंग्रेजी के माध्यम से दी जा सकती है।

(3) शिक्षकों को क्षेत्रीय भाषा और अंग्रेजी भाषा, दोनों का ज्ञान होना चाहिए।

 

विश्वविद्यालयी शिक्षा में मूल्यांकन सम्बन्धी सुझाव

आयोग विश्वविद्यालयों की तत्कालीन परीक्षा प्रणाली से सन्तुष्ट नहीं था। उसने उसमें सुधार के लिए लिखित सुझाव दिए।

(1) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से एक केन्द्रीय परीक्षा सुधार यूनिट' बनाई जाए जो विश्वविद्यालयों की परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव दे और नियम बनाए और इन निर्णयों से सभी विश्वविद्यालयों को अवगत कराए।

(2) बाह्य परीक्षाओं के स्थान पर आन्तरिक परीक्षाओं और सतत् मूल्यांकन को स्थान दिया जाए।

(3) उच्च शिक्षा संस्थाओं के शिक्षकों को सेमीनारों और कार्यशालाओं के माध्यम से मूल्यांकन की नवीन और उन्नत विधियों से अवगत कराया जाए।

(4) परीक्षकों को अधिक से अधिक 500 उत्तर पुस्तिकाएँ दी जाएँ।

(5) परीक्षकों को उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन हेतु कोई पारिश्रमिक न दिया जाए।

 

विश्वविद्यालयी शिक्षा के प्रसार सम्बन्धी सुझाव –

आयोग उस समय उच्च शिक्षा के प्रसार से सन्तुष्ट था। उसने उसके प्रसार को रोककर उसके उन्नयन पर अधिक बल दिया।

विश्वविद्यालयी शिक्षा के उन्नयन सम्बन्धी सुझाव –

आयोग ने उच्च शिक्षा के प्रशासन, संगठन, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, शिक्षण, माध्यम और मूल्यांकन के सम्बन्ध में जो भी सुझाव दिए हैं वे उसके स्तर को ऊँचा उठाने की दृष्टि से ही दिए हैं। उन्हें हम संक्षेप में इस प्रकार क्रमबद्ध कर सकते हैं –

(1) विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को और अधिक सशक्त किया जाए, उसे और अधिक अधिकार दिए जाएँ, उसे और अधिक उत्तरदायित्व सौंपे जाएँ। वह उच्च शिक्षा के स्तर के लिए उत्तरदायी हो।

(2) विश्वविद्यालयों के प्रशासन तन्त्र में सुधार किए जाएँ, उन्हें और अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए।

(3) कुछ उच्च श्रेणी के महाविद्यालयों को स्वायत्त महाविद्यालयों में विकसित किया जाए, उन्हें उच्च शिक्षा के स्तर को उठाने के अवसर प्रदान किए जाएँ।

(4) कुछ विश्वविद्यालयों को वरिष्ठ विश्वविद्यालयों में विकसित किया जाए। इनमें स्नातकोत्तर शिक्षा और शोध कार्य की विशेष व्यवस्था की जाए।

(5) उच्च शिक्षा में केवल मेधावी, योग्य और परिश्रमी छात्रों को प्रवेश दिया जाए।

(6) उच्च शिक्षा का उद्देश्य सुस्पष्ट किया जाए, इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों में उच्च ज्ञान की प्राप्ति, राष्ट्र को विशेषज्ञों की पूर्ति और नए-नए तथ्यों (सत्य) की खोज होना चाहिए।

(7) उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम को व्यापक और अद्यतन बनाया जाए। स्नातक स्तर का पाठ्यक्रम 2 वर्षीय के स्थान पर 3 वर्षीय किया जाए और जिन विषयों में आवश्यक हो उनमें स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को भी 2 वर्षीय के स्थान पर 3 वर्षीय किया जाए।

(8) उच्च कक्षाओं में शिक्षण इस प्रकार किया जाए कि छात्र-छात्राएँ रटने के स्थान पर समझने की ओर बढ़ें। इसके लिए व्याख्यान के साथ-साथ स्वाध्याय और विचार-विमर्श को बढ़ावा दिया जाए।

(9) उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षार्थियों के प्रवेश के नियम कठोर होने चाहिए, ऐसे कि योग्यतम छात्र- छाताएँ ही प्रवेश पा सकें।

(10) उच्च शिक्षा संस्थाओं में शिक्षकों की नियुक्ति राष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए। अति योग्य व्यक्तियों को अग्रिम वेतन वृद्धि भी दी जा सकती है।

(11) विश्वविद्यालयी परीक्षा एवं मूल्यांकन प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिए। बाह्य मूल्यांकन के स्थान पर आन्तरिक और सतत् मूल्यांकन को अधिक महत्त्व देना चाहिए।

 

उपसंहार –

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आयोग का प्रतिवेदन शिक्षा का विश्वकोश है, उसमें भारतीय शिक्षा के समस्त पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, परन्तु आयोग के अपने शब्दों में उसके सुझाव सर्वश्रेष्ठ और अन्तिम नहीं हैं, विकास तो निरन्तर प्रक्रिया है। और यह बात अपने में एकदम सही है। आयोग के कुछ सुझाव तो ऐसे हैं जो भारत के लिए तब, 1965-66 में भी उपयोगी थे और आज 21वीं शताब्दी में भी उपयोगी हैं, जैसे - शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय मानना, शिक्षा पर बजट का कम से कम 6 प्रतिशत व्यय करना, 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करना, माध्यमिक शिक्षा को अपने में एक पूर्ण इकाई बनाना, उच्च शिक्षा में केवल प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं को प्रवेश देना और देश में विज्ञान शिक्षा एवं शोध कार्य पर विशेष ध्यान देना, आदि। परन्तु उसके कुछ सुझाव अपने में अपूर्ण एवं अनुपयोगी हैं, जैसे - पूरे देश के लिए समान शिक्षा संरचना प्रस्तुत न करना, माध्यमिक स्तर पर विदेशी भाषाओं-अंग्रेजी, रूसी और फ्रेंच आदि भाषाओं के अध्ययन पर परोक्ष रूप से बल देना और कुछ विश्वविद्यालयों को वरिष्ठ विश्वविद्यालयों में बदलना। परन्तु कुछ भी हो राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने शिक्षा के क्षेत्र में एक नए युग का शुभारम्भ किया, उसके आधार पर शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय माना गया, शिक्षा की राष्ट्रीय नीति घोषित की गई और किसी भी स्तर की शिक्षा के प्रसार में कुछ तेजी आई और उसके उन्नयन की ओर कदम बढ़े।

 

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