खगोलीय स्पेक्ट्रमिकी (Astronomical spectroscopy) वह विज्ञान है जिसका उपयोग आकाशीय पिंडों के परिमंडल की भौतिक अवस्थाओं के अध्ययन के लिए किया जाता है। प्लैस्केट के मतानुसार भौतिकविद् के लिए स्पेक्ट्रमिकी वृहद् शस्त्रागार में रखे हुए अनेक अस्त्रों में से एक अस्त्र है। खगोल भौतिकविद् के लिए आकाशीय पिंडों के परिमंडल की भौतिक अवस्थाओं के अध्ययन का यह एकमात्र साधन है।
1675 ई. में न्यूटन ने सर्वप्रथम श्वेत प्रकाश की संयुक्त प्रकृति का पता लगाया। इसके सौ वर्ष से कुछ अधिक समय के पश्चात् 1802 ई. में वुलैस्टन (Wollastan) ने प्रदर्शित किया कि सौर स्पेक्ट्रम में काली रेखाएँ होती हैं। उन्होंने सूर्य के प्रकाश के एक संकीर्ण किरणपुंज को एक छिद्र में से अँधेरे कक्ष में प्रविष्ट कराकर प्रिज़्म द्वारा देखा। उन्होंने देखा कि यह किरणपुंज काली रेखाओं द्वारा चार रंगों में विभक्त हो गई। यह भी देखा कि एक मोमबत्ती की ज्वाला के निचले भाग के नीले प्रकाश को एक प्रिज़्म के द्वारा देखने पर बहुत से चमकीले प्रतिबिंब दिखाई पड़ते हैं, जिनमें से एक और स्पेक्ट्रम के नीले और बैंगनी रंगों के बीच की काली रेखा का संपाती होता है। बाद में 1814 ई. में फ्राउनहोफर (Fraunhofer) ने काली रेखाओं की दूरदर्शी और संकीर्ण रेखाछिद्र से विस्तृत परीक्षा की और वे स्पेक्ट्रम में 574 तक काली रेखाओं को गिन सके थे। उन्होंने उनमें से कुछ प्रमुख रेखाओं का नाम A, a, B, C, D, E, b इत्यादि दिया जो आज भी प्रचलित हैं। उन्होंने यह भी देखा कि सौर स्पेक्ट्रम की क़् रेखाएँ दीपक की ज्वाला के स्पेक्ट्रम में दिखाई पड़नेवाली काली रेखाओं की संपाती होती हैं। इस संपात की सार्थकता तब तक अज्ञात रही जब तक किरचॉफ (Kirchhoff) ने 1859 ई. में एक साधारण प्रयोग द्वारा यह स्पष्ट नहीं किया कि स्पेक्ट्रम में D रेखाओं की उपस्थिति इनके तरंगदैर्ध्य पर तीव्रता की दुर्बलता के कारण है, जिसका कारण सूर्य में सोडियम वाष्प की तह को उपस्थिति है और इससे उन्होंने सूर्य में सोडियम की उपस्थिति को सिद्ध किया। इस महत्वपूर्ण सुझाव का उपयोग हिगिंज (Huygens) ने किचॉफ़ की खोजों को तारकीय स्पेक्ट्रम के अध्ययन में प्रयुक्त कर किया। प्राय: उसी समय रोम में सेकी (Secchi) ने तारकीय स्पेक्ट्रम को देखना प्रारंभ किया और यह शीघ्र ही स्पष्ट हो गया कि तारे भी लगभग उन्हीं पदार्थों से बने हैं जिनसे सूर्य बना है।
किर्खहॉफ़, हगिंज और सेकी के प्रारंभिक कार्य के बाद यग, जान्सेन, लॉकयर, फोगेल (Vogel) और इनके पश्चात् डिस्लैंड्रिस पिकरिंग, किलर, डुनर (Duner), हेल (Hele) बेलोपोल्सकी (Belopolsky) और अन्य लोगों ने इस दिशा में कार्य किया।
1873 ई. में लॉकयर ने सर्वप्रथम प्रदर्शित किया कि एक तत्व एक से अधिक विशिष्ट स्पेक्ट्रम उत्सर्जित परमाणु के ऊपर प्रयुक्त उद्दीपन पर निर्भर करता है। जब लॉकयर ने स्पेक्ट्रम को उत्तेजित करने के लिए आर्क के बाद अधिक उग्र स्फुलिंग विधि का प्रयोग किया तब जो स्पेक्ट्रम रेखाएँ और तीव्र हो गई उन्हें उन्होंने वर्धित रेखाओं का नाम दिया। ये यह प्रदर्शित करनेवाले प्रथम व्यक्ति थे कि सूर्य के वर्णमंडल (Chromosphere) का स्पेक्ट्रम मंडलक और सूर्यकलंक (Sunspot) के स्पेक्ट्रम से भिन्न है और इससे निष्कर्ष निकाला कि प्रकाशमंडल (photosphere) के ताप की अपेक्षा वर्णमंडल का ताप अधिक और सूर्यकलंकों का ताप कम होता है। लॉकयर ने यह ज्ञात किया कि यौगिकों के ज्वाला स्पेक्ट्रम (Flame Spectrum) में पट्टियों (प्रत्येक रेखाओं के समूह से युक्त होती है) अनुक्रम दिखाई पड़ता है। ये पट्टियाँ घटक (Constituent) परमाणुओं द्वारा प्राप्त रेखिल स्पेक्ट्रम (line spectrum) से भिन्न होती हैं। परंतु जब ताप बढ़ा दिया गया, तब पट्टियाँ लुप्त हो गईं और घटक तत्वों के रेखिल स्पेक्ट्रम प्रकट हो गए। इस प्रेक्षण से लॉकयर ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि स्फुलिंग स्पेक्ट्रम में तत्वों की वर्धित रेखाएँ साधारण तत्वों के वियोजन (dissociation) से प्राप्त होनेवाले प्रोटोएलिमेंट (proto element) के कारण होती हैं। इस प्रकार आज की ज्ञात पिंकरिंग श्रेणी जो आयनित हीलियम परमाणु के कारण है उसे प्रोटो हाइड्रोजन (Proto hydrogen) स्पेक्ट्रम कहा गया। आज हम जानते हैं कि ये प्रोटोएलिमेंट मात्रा वे ही तत्व हैं जिनके परमणु आयनित हो गए हैं। लॉकयर ने अनेक तारों का प्रेक्षण किया और यह निष्कर्ष निकाला कि वे विभिन्न प्रकार के स्पेक्ट्रम केवल इसलिए प्रदर्शित करते हैं कि उनका ताप विभिन्न है। सन् 1921 तक यह विवेकपूर्ण सुझाव उपेक्षित ही रहा जब तक कि साहा (Saha) ने स्पेक्ट्रम अनुक्रम के बारे में सही व्याख्या नहीं की। इनके अनुसार तारों की भिन्नता का कारण उनकी आंतरिक रसायनिक रचना नहीं है अपितु उनके ताप और दबाव की भिन्नता है। 1900 ई. के लगभग यंग के विचारों के आधार पर तारकीय परिमंडल (Stellar atmosphere) के बारे में एक पर्याप्त संतोषजनक गुणात्मक सिद्धांत प्रतिपादित हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार परिमंडल का निम्नतम स्तर एक अपारदर्शी प्रकाशमंडल है जिसमें गैसीय माध्यम में संघनित धातु या कार्बन वाष्प तैरते रहते हैं। प्रेक्षित संतत स्पेक्ट्रम का उद्गम इसी स्तर से होता है। इस स्तर के ऊपर अपेक्षाकृत ठंढा परिमंडल रहता है जो वरणात्मक अवशोषण (Selective absorption) द्वारा प्रेक्षित काली रेखाएँ उत्पन्न करता है।
19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में तारों, विशेषत: सूर्य के परिमंडल का विस्तृत गुणात्मक विश्लेषण किया गया। अनेक अन्वेषकों, मुख्यरूप से रोलैंड (Roland), ने स्पेक्ट्रम रेखाओं की पहचान तरंगदैर्ध्य के संबंध के आधार पर करने का प्रयास किया। सूर्य का तल, सूर्य धब्बों के बदलते हुए दृश्य, सौर ज्वाला का अध्ययन किया गया। अनेक ग्रहणों के अध्ययन से सौर वर्णमंडल और किरीट (Corona) की संरचनाओं के बारे में बहुमूल्य सूचनाएँ प्राप्त हुई। बहुत सी नई समस्याएँ, जैसे किरीट रेखाओं की पहचान आदि पैदा हो गई। ग्रहों के अध्ययन के लिए स्पेक्ट्रमिकी का उपयोग भी किया गया, यद्यपि कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं प्राप्त हुआ। 1900 ई. तक स्पेक्ट्रमिकीय युग्मतारों (Spectroscopic binaries), वे तारे जो देखने में एकल दिखाई देते हैं परंतु वास्तव में युग्म तारे हैं और जिनसे स्पेक्ट्रम रेखाओं में कभी कभी आवर्ती द्विगुण उत्पन्न हो जाते हैं) का पता लगा। विभिन्न वेधशालाओं में अनेक स्पेक्ट्रमलेखी (Spectrographs) कार्य में लाए गए और अनेक अन्वेषकों द्वारा, विशेषत: लिंक वेधशाला में कैंपबेल द्वारा, त्रिज्य वेग (radial velocity) का स्पेक्ट्रमी मापन प्रारंभ हुए। ऐसा कहा जा सकता है कि इसी के साथ खगोलीय स्पेक्ट्रमिकी के प्रथम चरण का समापन हुआ।
19वीं शताब्दी की खगोलभौतिकी (astrophysics) तारकीय स्पेक्ट्रम की गुणात्मक व्याख्या तक ही सीमित थी। बीसवीं सदी से परिमाणात्मक व्याख्या का प्रारंभ हुआ। 1900 ई. के प्लैक के विकिरण नियम परमाणु ऊर्जास्तर की मान्यता आयनन विभव (ionisation potential) एवं विस्तृत प्रयोगशाला और परमाणु स्पेक्ट्रमी (atomic spectra) के सैद्धांतिक अन्वेषण से तारों की भौतिक दशा और उनके संघटन का परिणात्मक अध्ययन संभव हो सका है। ऐसा कहा जा सकता है कि इन्हीं अन्वेषणों से खगोलीय स्पेक्ट्रमिकी के द्वितीय चरण का प्रारंभ हुआ। शुस्टर (Schuster) ने सन् 1902 में खगोलभौतिकी जर्नल में एक लेख प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने सौर मंडलक के छोर (limb) की ओर के प्रेक्षित अँधेरों को विकरित परिमंडल द्वारा समझाने का प्रयास किया। कुछ वर्षों के पश्चात् उन्होंने दूसरा निबंध प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने तारकीय स्पेक्ट्रमों में अवशोषण और उत्सर्जन रेखाओं की व्याख्या करने का प्रयत्न किया इन खोजों के पश्चात् श्वार्ट्स चाइल्ड के (Schwarzschild), मिल्न (Milne), एडिंगटन (Eddington), फाउलर (Fowler) और इनके पश्चात् अनसॉल्ड (Unsold), चंद्रशेखर, स्टामग्रेन (Stromgren) तथा अन्य लोगों ने इस दिशा में कार्य किया।
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