प्रायद्वीप में नए राज्यों का गठन और ग्राम-विस्तार., - Study Search Point

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प्रायद्वीप में नए राज्यों का गठन और ग्राम-विस्तार.,

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प्रायद्वीप में नई अवस्था -
लगभग 300 ईस्वी से 750 ईसवी तक का काल विंध्य से दक्षिण के प्रदेशों में द्वितीय ऐतिहासिक चरण का काल कहा जा सकता है, इस काल में प्रथम ऐतिहासिक चरण (लगभग ईसा पूर्व 200 से सन 300 ईसवी तक) वाली प्रक्रियाएं चलती रही।
 इसी प्रथम चरण में हम दक्कन पर सातवाहनों के तथा तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों पर तमिल राज्य के बढ़ते हुए प्रभुत्व को देख पाते हैं।
 सन 300 ईसवी से लेकर सन 600 ईसवी के बीच विदर्भ के क्षेत्र में भी हम लगभग आधा दर्जन राज्य उदित होते हुए देख सकते हैं, जिसका पता हमें अनुदानपत्रों से चलता है।
 सातवीं सदी के आरंभ तक कांची के पल्लव, बादामी के चालुक्य, और मदुरई के पांड यह तीनों प्रमुख राज्यों के रूप में उदित हुए।
 द्वितीय चरण में आकर व्यापार नगर और सिक्के तीनों का हास्य प्रतीत होता है, ब्राह्मणों के लिए कर मुक्त भूमि का अनुदान भारी संख्या में दिखाई देता है जो इस चरण का प्रमुख लक्षण है
 इस अवस्था में तमिलनाडु के पल्लव और कर्नाटक में बादामी के चालुक्य ने शासन में शिव और विष्णु के प्रस्तर मंदिरों का निर्माण भी आरंभ हुआ।
 प्रथम चरण में हम आंध्र और महाराष्ट्र दोनों प्रदेशों में बड़े-बड़े बौद्ध स्मारक भी देखते हैं।
 ईसा पूर्व दूसरी सदी और ईसा की तीसरी सदी के बीच के लगभग सभी अभिलेख प्राकृत भाषा के हैं, तमिलनाडु में मिले ब्राह्मण अभिलेखों में भी प्राकृत भाषा के शब्द दिखाई देते हैं।
 लगभग सन् 400 ईसवी से इस प्रायद्वीप में संस्कृत राजभाषा हो गई, और अधिकांश शासन पत्र (सनद) संस्कृत में ही मिलते हैं।
दक्कन और दक्षिण भारत के राज्य -
उत्तरी महाराष्ट्र और विदर्भ (बेरार) में सातवाहनों के स्थान पर एक स्थानीय शक्ति वाकाटको ने अपने प्रभुत्व जमाया, यह शासक ब्राह्मण थे।
 चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के द्वारा वाकाटकों की सहायता से चौथी सदी के अंतिम चरण में शक क्षत्रप से गुजरात और उससे संलग्न पश्चिमी भारत के हिस्से जीत लिए गए।
 संस्कृति सांस्कृतिक दृष्टि से वाकाटक राज्य ने ब्राह्मण धर्म के आदर्शों और सामाजिक संस्थाओं को दक्षिण की ओर बढ़ने में सेतु का कार्य किया।
 वाकाटक के बाद चालुक्यों का प्रभाव बढ़ा, उन्होंने सन 757 ईसवी तक लगभग 200 वर्षों तक दक्कन और दक्षिण भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, बाद में इन्हीं के सामंतों राष्ट्रकूंटों ने इन्हें अपदस्थ कर दिया।
 चालुक्य लोग अपने को ब्रह्मा, चन्द्र, या मनु के वंशज मानते थे। वास्तव में प्रतीत होता है कि वह किसी स्थानीय कन्नड़ जाति के थे।
 चालुक्यों ने छठी सदी में पश्चिमी दक्कन में अपना राज्य स्थापित कर वातापी वर्तमान बादामी में राजधानी बनाई, बाद में ये कई स्वतंत्र राजघरानों में बट गए। मुख्य घराना वातापी ने 200 वर्षों तक राज किया।
 प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में सातवाहनों के अवशेष पर कृष्णा गंटूर क्षेत्र में इक्ष्वाकुओं का उदय हुआ, इक्ष्वाकुओं के नागार्जुनकोंडा और धरणी कोटा में अनेक स्मारक मिलते हैं।
 कृष्णा गंटूर क्षेत्र में इश्वाकुओं ने भूमि अनुदान की प्रथा भी चलाई, इनके ताम्रपत्र (सनद) यहां पाए गए हैं।
 इक्ष्वाकु को अपदस्थ कर अपनी जगह पर पल्लव आए, पल्लव का अर्थ है लता और पल्लव शब्द टोडाई का रूपांतरण है।
 संभवतः पल्लवों की एक स्थानीय जाती थी, जिसने टोडाईनाडु अर्थात लताओं के देश में अपनी सत्ता स्थापित की, तमिल भाषा में पल्लव का अर्थ डाकू होता है।
 पल्लव शासकों का अधिकार उत्तरी आंध्र तथा दक्षिणी आंध्र दोनों में था, उन्होंने कांची (कांचीपुरम) को अपनी राजधानी बनाई।
 पल्लवों का आरंभ में कदंब शासकों से संघर्ष हुआ, कदम्बों ने चौथी सदी में उत्तरी कर्नाटक और कोंकण में अपनी सत्ता कायम की, वह ब्राह्मण होने का दावा करते थे।
 कदंब राज्य की स्थापना मयूरशर्मन ने की थी, कहा जाता है कि मयूरशर्मन ने 18 अश्वमेघ यज्ञ कराएं, कदम्बों ने अपनी राजधानी कर्नाटक के उत्तरी केनरा जिले में वैजयंती या वनवासी में बनाई थी।
 पल्लवों के दूसरे महत्वपूर्ण समसामयिक गंग थे, गंगों ने चौथी सदी के आसपास दक्षिणी कर्नाटक में अपना शासन कायम किया।
 गंगों का राज्य पूर्व में पल्लवों से तथा पश्चिम में कदम्बों के राज्य से लगता हुआ दोनों के बीच में स्थित था।
यह पश्चिमी गंग या मैसूर के गंग कहलाते हैं, क्योंकि पूर्वी गंग इनसे भिन्न थे, पश्चिमी गंग पल्लव के सामंत रहेइनकी पहली राजधानी कोलार में थी, जहां सोने की खान होने के कारण इस राजवंश का उत्थान हुआ।
 कदम्बों तथा पश्चिमी गंग राजाओं ने भूमि अनुदान अधिकार जैनों को दिया, पर कदम्ब ब्राह्मणों की ओर अधिक झुके।
 आरंभिक पल्लवों के 16 भूमि अनुदान पत्र मिलते हैं, इनमें अधिकतर पुराने हैं जो पत्थरों पर प्राकृत भाषा में खुदे हैं, अधिकांश ताम्रपत्र के अनुदान पत्र संस्कृत भाषा के हैं।
 ब्राह्मणों को दिए गए गांव राज्य को मिलने वाले सभी करों से और बेगार (श्रम कर) से मुक्त किया गया था।
 सन 300 ईसवी से और 750 ईसवी के बीच की अवधि राज्य के गठन और कृषि विस्तार की दृष्टि से इस प्रायद्वीप में अत्यंत ही महत्वपूर्ण रही
 छठी सदी में कलभ्रों के नेतृत्व में एक विद्रोह हुआ, जिसका असर पल्लवों और इसके समकालीन पड़ोसियों पर हुआ। कलभ्रों को दुष्ट राजा कहा जाता है।
 कलभ्रों ने अनेक राजाओं को उखाड़ फेंका तथा तमिल क्षेत्र में अधिकार कर लिया। ब्राह्मणों को मिले ब्रह्मदेय अधिकारों को समाप्त कर दिया, कलभ्र कल बौद्ध धर्म के अनुयाई थे।
 कहा जाता है कि कलभ्रों ने चोल पांडय और चेर राजाओं को बंदी बनाया था, कलभ्रों के विद्रोह से पता चलता है कि सन 300 ईसवी से 500 ईसवी के बीच ब्राह्मणों को कुछ भूमिदान सुदूर दक्षिण के राजाओं ने दिए थे।

पल्लव एवं चालुक्य के बीच संघर्ष -
 छठी सदी में से आठवीं सदी तक प्रायद्वीप में कांची के पल्लव और बादामी के चालुक्य के बीच प्रभुता को लेकर संघर्ष जारी रहा जिसमें पांडय भी उलझ गए।
 दोनों राजवंशों ने कृष्णा नदी - तुंगभद्रा नदी दोआब पर प्रभुत्व जमाने की चेष्टा की, उत्तर मध्यकाल में यही दोआब विजयनगर तथा बहमनी राज्यों के बीच संघर्ष का कारण बना।
 लंबे संघर्ष के बाद एक महत्वपूर्ण घटना चालुक्य के राजा पुलकेशिन द्वितीय (सन 609 से 642 ईसवी) के समय घटी इसकी जानकारी एहोल अभिलेख से मिलती है, इस अभिलेख को इसके राजदरबारी कवि रवि कीर्ति द्वारा रचित प्रशस्ति (उत्कीर्ण) है।
 पुलकेशिन द्वितीय ने कदंबों से उसकी राजधानी बनवासी छीन ली, कर्नाटक के गंगों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली, साथ ही नर्मदा नदी के किनारे हर्ष को दक्षिण की ओर बढ़ने से रोका।
 पुलकेशिन लड़ते-लड़ते पल्लवों की राजधानी तक पहुंच गया, पल्लवों ने प्रांत का उत्तरी भाग देकर संधि कर ली।
 पुलकेशिन द्वितीय ने 610 ईसवी में पल्लव से कृष्णा नदी, गोदावरी नदी दोआब छीन लिया, यह दोआब वैगी प्रांत के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैगी राज्य को पूर्वी चालुक्य राजवंश के नाम से जानते हैं।
 पल्लवों पर दूसरा हमला विफल रहा, परंतु पल्लव राजा नरसिंह वर्मन (630 ईसवी से 668 ईसवी) ने चालुक्यों की राजधानी वातापी पर लगभग 642 ईसवी पर कब्जा कर लिया, और नरसिंह वर्मन ने वातापीकोंडा अर्थात वातापी विजेता की उपाधि धारण की।
 आठवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यह संघर्ष फिर जाग उठा, कहा जाता है कि चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय (733 ईसवी से 745 ईसवी) ने कांची को तीन बार रौंदा, सन 740 ईसवी में उसने पल्लव को पूरी तरह पराजित कर दिया।
 सन 740 ईसवी में पल्लवों पर विजय के बाद चालुक्यों को भी ज्यादा सुख भोग का मौका नहीं मिला, क्योंकि सन 775 ईसवी में राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों को पराजित कर दिया।
 चालुक्य क्षेत्रों में गांव की कार्य व्यवस्था गांव के श्रेष्ठजन करते थे, जो महाजन कहलाते थे। सन 300 ईसवी से 750 ईसवी में पुरोहितों ने भूमि दान के बल पर अपना प्रभुत्व जमाया, इसी समय पर ग्रामीण विस्तार व संघटन की झलक पाते हैं।
 वाकाटक, पल्लवों, कदंब, पश्चिमी गंग राजाओं ने धर्मराज की उपाधि धारण की। पल्लव राज्य के वास्तविक संस्थापक सिहवर्मन के बारे में कहा जाता है कि कलयुग के दुर्गुणों से ग्रस्त धर्म का उसने उद्धार किया, जो कलभ्र विद्रोह की ओर संकेत करता है, जिसने पारंपरिक समाज व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया था।

सामजिक तत्व -
 सातवीं सदी में से वैष्णव प्रवर आलवार संतों वैष्णव संप्रदाय को फैलाया, और दूसरी ओर नायन्नार संतों ने शैव संप्रदाय को प्रसारित किया।
 रथ के रूप में 7 मंदिर महाबलीपुरम को पल्लवों ने सातवीं आठवीं सदियों में अपने आराध्य देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित की तथा प्रस्तर मंदिर बनवाए।
 रथ मंदिर का निर्माण सातवीं सदी में नरसिंह वर्मन ने कराया, जिसने प्रसिद्ध बंदरगाह शहर महाबलीपुरम या मामल्लपुरम की स्थापना की, यह नगर अपने मंदिर के लिए भी प्रसिद्ध है।
 आठवीं सदी का बना कांची का कैलाश मंदिर एक अन्य पल्लवों के उत्कृष्ट मंदिर का उदाहरण है।
 बादामी के चालुक्य ने सन 610 ईसवी में एहोल में अनेक मंदिर बनवाए, इन मंदिरों की संख्या 70 तक उपलब्ध है।
 पट्टडकल में सातवीं आठवीं सदी में बने 10 मंदिर हैं, इनमें सबसे प्रसिद्ध मंदिर पापनाथ मंदिर (सन 680 ईसवी) और विरुपाक्ष मंदिर (सन 740 ईसवी) प्रमुख हैं।
 पापनाथ मंदिर 30 मीटर लंबा और इसका बुर्ज उत्तर भारतीय शैली में बना है, यह बोना और नीचा है। विरुपाक्ष मंदिर पूर्णता दक्षिण शैली में निर्मित है, इसका शिखर ऊंचा और आयताकार है, मंदिर दीवारों पर रामायण के दृश्य और सुंदर मूर्तियां उकेरी गई है।
 लगान में चौथी सदी से ब्राह्मणों को दी जाने वाली 18 प्रकार की छूटों में शामिल थी। इस काल में दक्षिण भारत में तीन प्रकार के गांव दिखाई देते हैं, उर सभा और नगरम।
 उर गांव सबसे अधिक प्रचलित था, जिसमें किसान जाति के लोग बसते थे। सभा कोटी के गांव में ब्रह्मदेय अर्थात ब्राह्मणों को दिए गए गांव और अग्रहार गांव आते थे, अग्रहार भूमि पर तो दानभोगी ब्राह्मणों का व्यक्तिगत स्वामित्व होता था।
 नगरकोटी में व्यापारियों तथा वणिकों का मिलाजुला वास होता था।
विशेष बिन्दु -
 पाण्ड्य द्रविड़ शैली की मुख्य विशेषता - गोपुरम
 पल्ल्व द्रविड़ कला शैली की मुख्य विशेषता - मण्डपम
 चोल द्रविड़ शैली की मुख्य विशेषता - विमान
 बल्लाल - बड़े भूस्वामी
 पल्लियों - खेतिहर मजदूर
 कम्माल - दस्तकार

अगले अंक में पढ़ें : दर्शन का विकास।

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