हर्ष और उसका शासनकाल., - Study Search Point

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हर्ष और उसका शासनकाल.,

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ऐतिहासिक भूमिका -
➤ गोरे हूणों ने लगभग सन 500 ईसवी में कश्मीर पंजाब और पश्चिमी भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया।
 उत्तरी पश्चिमी भारत गुप्तों के सामंतों के हाथ आ गयाजिसमें से एक था हरियाणा स्थित थानेश्वर का शासक इसने अपनी प्रभुता धीरे-धीरे अन्य सामंतो पर स्थापित कर लीयह शासक था हर्षवर्धन (सन 606 ईसवी से 647 ईसवी)।
 ईसा की छठी शताब्दी में उत्तर भारत में एक शक्तिशाली राज्य था, जिसका नाम था थानेश्वर।वर्धन वंश की स्थापना पांचवी सदी के अंत या छठी शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ के आसपास नरवर्धन द्वारा की गयी थी। वंश - थानेश्वर का पुष्यभूति वंश (संस्थापक पुष्यभूति) (वर्धन राजवंश)।
आगे चलकर थानेश्वर में प्रभाकरवर्धन द्वारा राज किया गया, वह बड़ा वीर, पराक्रमी और योग्य शासक था।
 प्रभाकरवर्धन ने महाराज के स्थान पर महाराजाधिराज और परम भट्टारक की उपाधियां धारण की थीं। प्रभाकरवर्धन ने छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मालवों, गुर्जरों और हूणों को पराजित किया, किंतु राज्य की उत्तर-पश्चिम सीमा पर प्रायः हूणों के छुट-पुट उपद्रव होते रहते थे।
सन 605 ई. में प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् राजवर्धन राजा हुआ पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शंशांक की दुरभिसंधि वश मारा गया था।
 थानेश्वर स्थित हर्ष के टीले की खुदाई में कुछ ईंट की इमारतें मिली हैपर यह राज महल जैसी नहीं लगतीहर्ष ने कन्नौज को राजधानी बनाया और चारों ओर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।
 सातवीं सदी के आते-आते पाटलिपुत्र के बुरे दिन आ गए और कन्नौज का सितारा चमका।
 नगद वेतन के बदले जब भूमि अनुदान दिया जाने लगा त्यों ही नगर का महत्व समाप्त होने लगा।
 वास्तविक शक्ति स्कंधावरों अर्थात फौजी पड़ाव में चली गईबड़े भूभाग पर प्रभुत्व रखने वाले सैनिक प्रमुख हो गएएक ऐसा ही स्थान था, कन्नौज जो उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में पड़ता है।
 हर्ष के समय से लेकर कन्नौज का राजनीतिक शक्ति का केंद्र के रूप में उभरनाउत्तर भारत में सामंतवाद के आगमन का सूचक थाठीक उसी प्रकार जैसे पाटलिपुत्र मुख्यतः प्राक सामंती स्थिति का निदर्शन था।
 हर्ष के इतिहास को हम बाणभट्ट की हर्षचरित और हुआंन सांग के विवरणों को मिलाकर पूरा करते हैंहुआंन सांग सातवीं सदी में भारत आया थालगभग 15 वर्ष देश में रहा।
 हर्ष को भारत का अंतिम हिंदू सम्राट कहा जाता हैलेकिन वह कट्टर हिंदू नहीं था कश्मीर छोड़कर उत्तर भारत में उसका नियंत्रण थाजिसमें राजस्थान, पंजाबउत्तर प्रदेश और बिहार प्रत्यक्ष नियंत्रण में थे।
 पूर्वी भारत में उसे गौड़ देश के राजा शशांक से मुकाबला करना पड़ाजिसने बोधगया में बोधिवृक्ष को काट डालासन 619 में शशांक की मृत्यु हो गई।
 दक्षिण की ओर हर्ष के अभियानों को नर्मदा नदी के किनारे चालुक्य वंश के राजा पुलिकेशन ने रोकापुलकेशिन आधुनिक कर्नाटक और महाराष्ट्र के बड़े भूभाग पर शासन करता थाउसकी राजधानी कर्नाटक आधुनिक बीजापुर जिले के बादामी मे थी।
प्रशासन पद्धति -
 हर्ष प्रशासन अधिक सामंती और विकेंद्रित थाहर्ष ने पदाधिकारियों को शासन पत्र (सनद) के द्वारा जमीन देने की प्रथा चलाई।
 चीनी यात्री ह्वेनसांग ने बताया कि हर्ष की राजकीय आय चार भागों में बांटी जाती थीपहला भाग - राज्य के खर्च के लिएदूसरा भाग - विद्वानों के लिएतीसरा भाग - पदाधिकारियों और अमलों के बंदोबस्त के लिएचौथा भाग - धार्मिक कार्यों के लिए रखा जाता था।
 लगता है अधिकारियों को वेतन और पुरस्कार के रूप में भूमि देने की सामंती प्रथा शुरू की।

शासन प्रबन्ध -
 हर्ष स्वयं प्रशासनिक व्यवस्था में व्यक्तिगत रूप से रुचि लेता था। सम्राट की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् गठित की गई थी। बाणभट्ट के अनुसार 'अवन्ति' युद्ध और शान्ति का सर्वोच्च मंत्री था, 'सिंहनाद' हर्ष का महासेनापति था।
 बाणभट्ट ने हर्षचरित में इन पदों की व्याख्या इस प्रकार की है -
अवन्ति - युद्ध और शान्ति का मंत्री,
सिंहनाद - हर्ष की सेना का महासेनापति,
कुन्तल - अश्वसेना का मुख्य अधिकारी,
स्कन्दगुप्त - हस्तिसेना का मुख्य अधिकारी,
भंंडी - प्रधान सचिव,
लोकपाल - प्रान्तीय शासक
 ह्वेनसांग भारत में लंबे अरसे तक रहा है, 645 ईसवी में वह चीन लौटाउसने नालंदा सहित अनेक स्थानों का भ्रमण कियावह बौद्ध धर्म के ग्रंथों को बटोर कर ले जाने भारत आया था।
 हर्ष ह्वेनसांग के प्रभाव में आकर बौद्ध धर्म का समर्थक बन गयाउसका विवरण फाह्यान के विवरण से अधिक विश्वसनीय है।
 हर्ष के समय पाटलिपुत्र, वैशालीपटना पतनावस्था में थेजबकि प्रयागकन्नौज महत्वपूर्ण हो चले थे।
 ब्राह्मण, क्षत्रिय सादा जीवन बिताते थे जबकि सामंतों और पुरोहितों का जीवन विलासितापूर्ण थाह्वेनसांग ने शूद्रों को कृषक कहा है जो एक महत्वपूर्ण बात है।
 मेहतर, चांडाल आदि अछूतों पर भी नजर डालीअछूत लोग नगर में प्रवेश करने से पहले जोर-जोर से आवाज करते थे। चीनी यात्री के समय में बौद्ध 18 संप्रदायों में बटे हुए थे। बौद्ध धर्म के पुराने केंद्र दुर्दिन झेल रहे थे।
 अन्य चीनी यात्री इत्सिंग सन 670 ईसवी में नालंदा आयाऔर उसने यहां 3000 लोगों को निवास करते बतायाजबकि ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय का भरण पोषण 100 गांव के राजस्व से होता था। वही इत्सिंग ने इसे 200 गांव बताए है।
 हर्ष आरंभिक जीवन में शैव था, धीरे-धीरे बौद्ध धर्म का महान संपोषक हो गया।
 हर्ष ने महायान के सिद्धांतों के प्रचार के लिए कन्नौज में एक विशाल सम्मेलन आयोजित कियाइस सम्मेलन में कामरूप के राजा भास्करवर्मन सहित 20 देशों के राजाओं और विभिन्न संप्रदायों के पुरोहित सम्मिलित हुए।
 इस सम्मेलन में शास्त्रार्थ का आरंभ ह्वेनसांग ने कियाकन्नौज के बाद हर्ष ने प्रयाग में महासम्मेलन बुलाया।
 कन्नौज के महासम्मेलन पर महायान के सद्गुणों का संपादन कर ह्वेनसांग ने श्रोताओं से उसके तर्कों का खंडन करने के लिए कहालेकिन 5 दिनों तक कोई खंडन न कर पाने पर उसे मारने की साजिश की गई थी, जिससे हर्ष ने साजिशकर्ता के सर काटने की बात कही थी।
 हर्ष ने तीन नाटक प्रियदर्शिकारत्नावली और नागानंद की रचना की हैबाण ने हर्ष को अद्भुत कवित्व प्रतिभा संपन्न कहा है, धावक नामक कवि ने हर्ष से पुरस्कार लेकर उसके नाम के तीन नाटक रत्नावलीनागानंद और प्रियदर्शिका लिख दिए।
 हो सकता है कि हर्ष ने स्वयं भी कुछ रचनाएं की हो परंतु एक प्राचीन कहावत में कहा गया है कि राज्य केवल नीम हकीम साहित्यकार होते हैं।

अगले अंक में पढ़ें : प्रायद्वीप में नए राज्यों के गठन।

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