भारतीय दर्शन का विकास., - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

भारतीय दर्शन का विकास.,

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जब राज्य और वर्ण भेदमूलक सामाजिक व्यवस्था दोनों दृढ़ हो गई, तब प्राचीन चिंतकों ने सिखाया कि मानव को चार पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए।
 यह पुरुषार्थ है : - अर्थ - आर्थिक संसाधन, धर्म - सामाजिक नियम व्यवस्था, काम - शारीरिक सुख भोग और मोक्ष - आत्मा का उद्धार।
 शारीरिक सुख भोग का विवेचन कामसूत्र में किया गया है, विद्या की यह तीनों शाखाएं मूलतः भौतिक जीवन से जुड़ी समस्याओं पर है।
 मोक्ष मुख्यतः दर्शन संबंधी ग्रंथों का विषय रहा है, जिसका अर्थ है जन्म-मृत्यु के चक्र से उद्धार।
 ईसवी सन् के आरंभ तक दर्शन के ६ संप्रदाय (पद्धतियां) विकसित हो चुके थे :- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, और वेदांत।
सांख्य (कपिल) -
 सांख्य शब्द की उत्पत्ति संख्या से हुई है, प्राचीन सांख्य दर्शन के अनुसार जगत की उत्पत्ति ईश्वर से नहीं बल्कि प्रकृति से हुई मानी जाती है, जबकि नवीनतम मत के अनुसार प्रकृति और पुरुष दोनों के मेल से जगत की सृष्टि होती है। चौथी सदी के आसपास सांख्य दर्शन में प्रकृति के अतिरिक्त पुरुष नामक एक और उपादान जोड़ा गया।
 प्रारंभिक काल में सांख्य भौतिकवादी था, फिर आध्यात्मिकता की ओर मुड़ गया। यथार्थ ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द से हो सकता है।
योग (पतंजलि) -
 योग दर्शन के अनुसार मोक्ष, ध्यान और शारीरिक साधना से मिलता है। ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का निग्रह योगमार्ग का मूल मूलाधार है।
 योग से शारीरिक समस्याओं को भागने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है, मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस दर्शन में कई तरह के आसन अर्थात विभिन्न स्थिति में दैहिक व्यायाम तथा प्राणायाम अर्थात श्वास के व्यायाम सुझाए गए हैं।
न्याय (गौतम) -
 न्याय या विश्लेषण पद्धति का विकास तर्कशास्त्र के रूप में हुआ हैन्याय के अनुसार मोक्ष ज्ञान प्राप्ति से हो सकता है।
 किसी प्रतिज्ञा या कथन की सत्यता की जांच अनुमान, शब्द और उपमान द्वारा किया जाना होता है, इस दर्शन में तर्क के प्रयोग पर बल दिया गया है।
वैशेषिक (कणाद) -
 वैशेषिक दर्शन द्रव्य अर्थात भौतिक तत्व के विवेचन को महत्व देता है, यह सामान्य तथा विशेष के बीच अंतर करता है।
 वैशेषिक दर्शन के ने परमाणु वाद की स्थापना की है, इस प्रकार वैशेषिक दर्शन ने भारत में भौतिक शास्त्र का आरंभ किया।
 वैशेषिक दर्शन के अनुसार भौतिक वस्तुएं परमाणुओंं के संयोजन से बनी है, लेकिन इस वैज्ञानिक दृष्टि को ईश्वर में विश्वास और आध्यात्मवाद ने अपने में फंसा लिया और इस दर्शन में भी स्वर्ग और मोक्ष समा गया।
मीमांसा (जैमिनी) -
 मीमांसा का मूल अर्थ होता है तर्क करने और अर्थ लगाने की कला।
 मीमांसा के अनुसार वेद में कही गई बातें सदा सत्य है, मीमांसा का मुख्य लक्ष्य स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति है।
 मीमांसा दृढ़ता पूर्वक बताती है, कि मोक्ष पाने के लिए यज्ञ करना चाहिए। मीमांसा का प्रचार करके ब्राह्मण लोग धार्मिक कृत्यों पर अपना प्रभुत्व कायम रखना और ब्राह्मण प्रधान बहुस्तरीय सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहते थे।
वेदांत (बादरायण) -
 वेदांत का अर्थ है वेद का अंत। ईसा पूर्व दूसरी सदी में संकलित बादरायण का ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रंथ है।
 इसमें दो प्रख्यात भाष्य लिखे गए हैंपहला शंकर का 9वीं सदी में और दूसरा रामानुज का 12 वीं सदी में।
 शंकर का भाष्य ब्रह्म को निर्गुण बतलाता है, किंतु रामानुज का भाष्य ब्रह्म को सद्गुण बतलाता है।
 शंकर ज्ञान को मोक्ष का मुख्य मार्ग या कारण मानते हैं, वहीं रामानुज भक्ति को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं।
 वेदांत दर्शन का मूल आरंभिक उपनिषदों में पाया जाना है, इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है, अन्य हर वस्तु माया अर्थात अवास्तविक है। आत्मा और ब्रह्म में अभेद है, ब्रह्म और आत्मा दोनों शाश्वत तथा अविनाशी हैं।
कर्मवाद भी वेदांत से जुड़ा जुड़ गया है, जो मनुष्य के पूर्व जन्मों के कर्मों का परिणाम बताता है।

भौतिकवादी दृष्टि -
 छह प्रकार के दर्शनों के उपदेश से जीवन के प्रति प्रत्ययवादी दृष्टि उभरती है, सांख्य दर्शन के मूल प्रवर्तक कपिल ने बताया है, कि मानव का जीवन प्रकृति की शक्ति द्वारा रूपायित होता है, न कि किसी देव शक्ति के द्वारा।
 भौतिकवादी दर्शन का प्रमुख प्रवर्तक चार्वाक हुए, इस दर्शन का नाम लोकायत हुआ जिसका अर्थ सामान्य लोगों से प्राप्त विचार है।
 इस दर्शन में लोक अर्थात दुनिया के साथ गहरे लगाव को महत्व दिया गया है और परलोक में अविश्वास व्यक्त किया गया है।
 चार्वाक को उसके विरोधियों के द्वारा बदनाम करने का कार्य भी किया गया, जिसके चलते चार्वाक का केवल एक मत खूब उछाला गया : जब तक जिए सुख से जिए कर्ज लेकर घी पिए। लेकिन चार्वाक का वास्तविक योगदान उसकी भौतिकवादी दृष्टि है।
 भौतिकवाद के आग्रह वाले दार्शनिक धाराओं का विकास ईसा पूर्व 500 से और सन 300 ईसवी के बीच की अवधि में हुआ, और इस दौरान आर्थिक और सामाजिक स्थिति विकास विस्तार की ओर रही थी।
 5वीं सदी में आते-आते भौतिकवादी दर्शन को प्रत्ययवादी दार्शनिकों ने दबा दिया। वे भौतिकवादी दर्शन की निरंतर निंदा करते रहे, और धार्मिक अनुष्ठानों और आध्यात्मिक साधनाओं को मोक्ष का मार्ग बताते रहे, यह मत वैज्ञानिक अनुसंधान की प्रगति और तार्किक चिंतन में बाधक सिद्ध हुए।
 प्रत्ययवादी और मोक्षवादी दर्शनों में खोया हुआ जन सामान्य वर्ण आधारित समाज-व्यवस्था की विषमताओं की ओर तथा राज्य की प्रतिमूर्ति राजा की प्रबल सत्ता की ओर कभी नजर उठा नहीं सका।

अगले अंक में पढ़ें : भारत का एशियाई देशों से सांस्कृतिक संपर्क।

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