शाही उपाधि अधिनियम, 1876 -
इस अधिनियम के अंतर्गत - 28 अप्रैल, 1876 को एक घोषणा द्वारा महारानी विक्टोरिया को ‘भारत की साम्राज्ञी’ घोषित किया गया। औपचारिक रूप से भारत सरकार का ब्रिटिश सरकार को अन्तरण मान्य किया गया।
भारतीय परिषद अधिनियम 1892 ई -
1861 के अंतर्गत गैर-सरकारी सदस्य या तो बड़े जमींदार होते थे या अवकाश प्राप्त अधिकारी या भारत के राज परिवारों के सदस्य। प्रतिनिधित्व की आम आकांक्षा की पुष्टि इससे नहीं हुई। इसी बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अधिक प्रतिनिधित्व की मांग की जाती रही। यूरोपीय व्यापारियों की ओर से भी भारत सरकार को इंग्लैंड में स्थित इंडिया आफिस से अधिक स्वतंत्रता की मांग की जाती रही। सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी जिसके सुझावों का समावेश 1892 के अधिनियम में किया गया। ब्रिटेन की संसद द्वारा 1892 ई. में पारित किये गए अधिनियम ने विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि कर उन्हें सशक्त बनाया, जिसने भारत में संसदीय प्रणाली की आधारशिला रखी| इस अधिनियम से पूर्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1885 ई. से लेकर 1889 ई. तक के अपने अधिवेशनों में कुछ मांगे प्रस्तुत कर चुकी थी जिनमें से प्रमुख मांगे निम्नलिखित थीं-
• आईसीएस परीक्षा भारत और इंग्लैंड दोनों जगह आयोजित की जाये|
• परिषदों में सुधर किये जाएँ और नामनिर्देशन के स्थान पर निर्वाचन प्रणाली को अपनाया जाये|
• ऊपरी वर्मा का विलय न किया जाये|
• सैन्य व्यय में कटौती की जाये|
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की इन मांगों ने इस अधिनियम के निर्माण की भूमिका तैयार कर दी|
अधिनियम के प्रावधान -
• केंद्रीय और प्रांतीय दोनों विधान परिषदों में गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी|
• विश्वविद्यालयों, ज़मींदारों,नगरपालिकाओं आदि को प्रांतीय परिषद् के सदस्यों को अनुमोदित करने के लिए अधिकृत कर दिया गया| इस प्रावधान द्वारा प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को प्रारंभ किया गया|
• इस अधिनियम द्वारा परिषद् के सदस्यों को वार्षिक वित्तीय विवरण अर्थात बजट पर बहस करने का अधिकार प्रदान किया गया|
• गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद् में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 16 तक कर दी गयी|
• इस अधिनियम के अनुसार परिषद के 2/5 सदस्य गैर-सरकारी हो सकते थे|
• इस अधिनियम ने परिषदों के अतिरिक्त सदस्यों को जनहित के मुद्दों पर प्रश्न पूछने का अधिकार प्रदान किया|
• प्रांतीय परिषदों में भी अतिरिक्त सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी,जैसे-बंगाल में इनकी संख्या 20 और अवध में 15 कर दी गयी|
निष्कर्ष - यद्यपि इस अधिनियम द्वारा विधायिका के सदस्य के सीमित निर्वाचन की शुरूआत हुई, फिर भी इस अधिनियम में अनेक खामियां थी जिनके कारण भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की बार-बार आलोचना की। यह माना गया कि स्थानीय निकायों का चुनाव मंडल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है। विधान मंडलों की शक्तियां भी काफी सीमित थीं। सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। किसी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार किया जा सकता था। इसके अलावा वर्गों का प्रतिनिधित्व भी पक्षपातपूर्ण था। 1892 ई. में पारित किये गए अधिनियम ने भारत में संसदीय प्रणाली की आधारशिला रखी और भारत के संवैधानिक विकास में मील का पत्थर साबित हुआ| इस अधिनियम द्वारा भारत में पहली बार चुनाव प्रणाली की शुरुआत की गयी| इन सबके बावजूद यह अधिनियम राष्ट्रीय मांगों की पूर्ति करने में सफल नहीं हो पाया और न ही कोई महत्वपूर्ण योगदान दे सका|
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