1857 से पहले का संवैधानिक विकास (1600-1858 ई.तक) बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था, - Study Search Point

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1857 से पहले का संवैधानिक विकास (1600-1858 ई.तक) बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था,

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17वीं शताब्दी तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में अपनी व्यापारिक स्थिति दृढ़ कर चुकी थी। इसके पश्चात् उसने भारत के राजनीतिक मामलों में विशेष रूचि लेनी आरम्भ कर दी। उसके कर्मचारियों की इस नीति के कारण बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला तथा कम्पनी के आपसी सम्बन्ध बहुत कटु हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों पक्षों के बीच 1757 ई. में प्लासी का युद्ध हुआ। इस युद्ध को क्लाइव ने बिना किसी विशेष प्रयास के षड्यंत्र द्वारा जीत लिया। इस युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय होने के कारण अंग्रेज बंगाल के कर्ता-धर्ता बन गए। इसके बाद उन्होंने अपनी इच्छानुसार बंगाल का नवाब बनाने तथा बदलने का कार्य आरम्भ किया। सिराजुद्दौला के पश्चात् उनके सेनापति मीर जाफर ने बंगाल का शासक बनाया गया, जिन्होंने ब्रितानियों के हितों की पूर्ति हेतु अपने स्वामी के साथ विश्वाघात किया था। उन्होंने कलकत्ता पर कम्पनी की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया और कम्पनी को सेना रखने का अधिकार दे दिया। इसके अतिरिक्त नवाब बनने के अवसर पर चौबीस परगने भी ब्रितानियों को दे दिए। तीन वर्ष पश्चात् ब्रितानियों ने मीर जाफर को गद्दी से हटा दिया और उनके स्थान पर उनके दामाद मीर कासिम को बंगाल का नवाब नियुक्त कर दिया, ताकि उन्हें अधिक से अधिक धन प्राप्त हो सके। मीर कासिम ने कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर और चिटगाँव के जिले तथा अपार धनराशि दी।
मीर कासिम बहुत योग्य व्यक्ति थे। वह नाम मात्र के नवाब बनकर नहीं रहना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी स्थिति को दृढ़ करने के लिए कुछ प्रशासनिक कदम उठाये, जिसके कारण उनके तथा ब्रितानियों के आपसी सम्बन्ध बहुत बिगड़ गए। परिणामस्वरूप, 1764 ई. में बक्सर नामक स्थान पर युद्ध हुआ। इस युद्ध में ब्रितानियों ने तीन प्रमुख शक्तियों-मुगल सम्राट शाह आलम, बंगाल ने नवाब मीर कासिम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला को पराजित किया था। इससे सम्पूर्ण भारत में ब्रितानियों की शक्ति की धाक जम गई। इन असाधरण घटनाओं की सूचना पाकर कम्पनी के संचालकों को भारत के सम्बन्ध में बहुत चिन्ता हुई। अतः उन्होंने लार्ड क्लाईव को दुबारा बंगाल का गवर्नर बनाकार भारत भेजा गया। क्लाइव ने भारत में पहुँचकर कम्पनी के असैनिक और सैनिक प्रशासन में अनेक सुधार किए। उन्होंने कर्माचारी वर्ग को निजी व्यापार करने तथा उपहार आदि लेने के लिए मना कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का भत्ता कम कर दिया तथा रिश्वत और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी आवश्यक कदम उठाये। इन प्रशासनिक सुधारों के अतिरिक्त लार्ड क्लाइव ने 12 अगस्त, 1765 ई. में मुगल सम्राट शाह आलम के साथ एक सन्धि की, जो इलाहाबाद की सन्धि कहलाती है। इस सन्धि के द्वारा बंगाल में दोहरी सरकार अथवा द्वैध शासन की स्थापना हुई।

द्वैध शासन या दोहरा शासन व्यवस्था का विकास -
इन असाधरण घटनाओं की सूचना पाकर कम्पनी के संचालकों को भारत के सम्बन्ध में बहुत चिन्ता हुई। अतः उन्होंने लार्ड क्लाईव को दुबारा बंगाल का गवर्नर बनाकार भारत भेजा गया। क्लाइव ने भारत में पहुँचकर कम्पनी के असैनिक और सैनिक प्रशासन में अनेक सुधार किए। उन्होंने कर्माचारी वर्ग को निजी व्यापार करने तथा उपहार आदि लेने के लिए मना कर दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अंग्रेज सैनिक अधिकारियों का भत्ता कम कर दिया तथा रिश्वत और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी आवश्यक कदम उठाये। इन प्रशासनिक सुधारों के अतिरिक्त लार्ड क्लाइव ने 12 अगस्त, 1765 ई. में मुगल सम्राट शाह आलम के साथ एक सन्धि की, जो इलाहाबाद की सन्धि कहलाती है। इस सन्धि के द्वारा बंगाल में दोहरी सरकार अथवा द्वैध शासन की स्थापना हुई।


बंगाल के नवाब से समझौता : निजामत की प्राप्ति -
दीवानी प्राप्त करने के परिणामस्वरूप कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के भूमिकर एकत्रित करने तथा दीवानी मामलों के निर्णय देने का अधिकार प्राप्त हो गया, परन्तु बंगाल को निजामत (प्रान्तीय सैन्य प्रबन्ध तथा फौजदारी मामलों पर निर्णय देने का अधिकार) अब भी मुस्लिम सुबेदारों के हाथों में ही था। 1765 ई. में मीर जाफर की मृत्यु हो गई और उनके बाद उनके अल्पवयस्क पुत्र नज्मुद्दौला बंगाल के नवाब बने। इसी समय कम्पनी ने शिशु नवाब पर एक सन्धि थोप दी। इस सन्धि के द्वारा 53 लाख रूपया वार्षिक के बदले में कम्पनी ने निजामत (फौजदारी) के अधिकार भी प्राप्त कर लिए। निजामत के अधिकार के अनुसार शान्ति व्यवस्था, बाह्य आक्रमणओं से रक्षा, विदेशी मामले, फौज तथा फौजदारी मामलों में न्याय देने का अधिकार भी कम्पनी को प्राप्त हो गया था। कम्पनी के अधिकारी भी नवाब के अधिकारियों की नियुक्ति करते थे और उन पर नियंत्रण रखते थे। नवाब द्वारा निजामत के अधिकार त्यागना वस्तुतः बंगाल में ब्रिटिश राज्य की स्थापना की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम था।

इस प्रकार, स्पष्ट है कि 1765 ई. तक दीवानी तथा निजामत दोनों ही प्रकार के अधिकार कम्पनी को प्राप्त हो गये थे। इससे कम्पनी लगभग पूर्णरूप से बंगाल की स्वामी नब गई; चूँकि कम्पनी शासन प्रबन्ध की जिम्मेवारी अपने कन्धों पर उठाने के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए उसने दीवानी अधिकार अपने पास रखे और निजामत के अधिकार अर्थात् राज-काज का काम बंगाल के नवाब के हाथों ही रहने दिया। इसके बदले में उसने 53 लाख रूपया प्रतिवर्ष नवाब को देना स्वीकार किया। शासन को इन दो भागों में बाँटकर दो विभिन्न व्यक्तियों के हाथों में दे देने के कारण ही इस शासन को द्वैध शासन या दोहरा शासन (Dual Government) के नाम से पुकारते हैं। क्लाइव की यह दोहरी व्यवस्था आगामी सात वर्ष (1765-1772) तक प्रचलित रही।

द्वैध शासन व्यवस्था का स्पष्टीकरण -
क्लाइव द्वारा स्थापित दोहरी शासन प्रणाली बड़ी जटिल तथा विचित्र थी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत बंगाल के शासन का समस्त कार्य नवाब के नाम पर चलता था। परन्तु वास्तव में उनकी शक्ति नाममात्र की थी और वह एक प्रकार से कम्पनी के पेंशनर थे, क्योंकि कम्पनी शासन के खर्च के लिए नवाब को एक निश्चित राशि देती थी। दूसरी ओर वास्तविक शक्ति कम्पनी के हाथों में थी। वह शासन कार्य में नवाब का निर्देशन करती थी और देश की रक्षा के लिए भी जिम्मेवार नहीं थी। इसके अतिरिक्त दीवानी अधिकारों की प्राप्ति से बंगाल की आय पर उनका पूर्ण नियंत्रण था, परन्तु वह बंगाल के शासन के लिए जिम्मेवार नहीं थी और नवाब के अधीन होने का दिखावा भी करती थी। इस प्रकार, बंगाल में एक ही साथ दो सरकारें काम करती थीं-कम्पनी की सरकार और नवाब की सरकार। इनमें कम्पनी की सरकार विदेशी थी और जिसके हाथों में राज्य वास्तविक सत्ता थी। नवाब की सरकार जो देशीय अथवा भारतीय थी और जिसे कानूनी सत्ता प्राप्त थी, परन्तु वास्तव में उसकी शक्ति नाममात्र की थी। क्लाईव की इस शासन प्रणाली को द्वैध शासन कहते हैं।

द्वैध शासन व्यवस्था की कार्यप्रणाली -
कम्पनी को दीवानी तथा निजामत के अधिकार मिल गए थे, परन्तु कम्पनी के कर्मचारियों को मालगुजारी वसूल करने तथा शासन चलाने का अनुभव नहीं था। क्लाइव शासन का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व कम्पनी के हाथों में नहीं लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अधिकारों का विभाजन किया। उन्होंने भारतीय अधिकारियों के माध्यं से दीवानी का काम चलाने का निश्चय किया। इस कारण उसने दो नायब दीवान की नियुक्ति की। एक बंगाल के लिए एवं दूसरा बिहार के लिए। बंगाल में मुहम्मद रजा खाँ तथा बिहार में सिताबराय को दीवान के पद पर नियुक्त किया गया। रजा खाँ का केन्द्र मुर्शिदाबाद और सिताबराय का केन्द्र पटना में रखा गया। इस प्रकार कम्पनी ने अपना उत्तरदायित्व दो भारतीय अधिकारियों पर डाल दिया। उसका उद्देश्य तो अधिक से अधिक धन प्राप्त करना था। अधिक आय को जुटाना ही इन दो नायब दीवानों कार्य था। 
निजामत के अधिकार भी कम्पनी ने बंगाल के नवाब से प्राप्त कर लिए थे। इसके बदले में वह नवाब को 53 लाख रूपयि प्रतिवर्ष बंगाल का शासन कार्य चलाने के लिए देती थी। यद्यपि शासन के समस्त कार्य नवाब के नाम से किए जाते थे, तथापि वह नाममात्र का शासक था और शासन की वास्तविक शक्ति कम्पनी के हाथ में थी। नवाब आन्तरिक और बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा के लिए कम्पनी पर निर्भर था। दूसरे शब्दों में, निजामत की सर्वोच्च शक्ति कम्पनी के पास थी, परन्तु उत्तरदायित्व नवाब का था। चूँकि इस समय बंगाल का नवाब अल्पायु था, इस कारण कम्पनी ने नवाब की ओर से उसके कार्यों की देखभाल करने के लिए नायब निजाम की नियुक्ति की थी और इस पद पर मुहम्मद रजा खाँ की नियुक्ति की गई, जो कम्पनी की ओर से बंगाल का नायब दीवान था। वह कम्पनी के हाथ की कठपुतली था। अतः प्रशासकों की सभी शक्तियाँ कम्पनी के हाथों में केन्द्रीत हो गईं।
क्लाइव की इस शासन व्यवस्था को दोहारा शासन इसलिए कहते हैं कि सिद्धांत में शासन का भार कम्पनी और नवाब में विभाजित किया गया था, परन्तु कम्पनी ने व्यावहारिक रूप में उन सूबों की जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं ली। वास्तविक शक्ति कम्पनी के हाथों में थी, परन्तु शासन भारतीयों के हाथों था और भारतीय, कम्पनी के हाथ की कठपुतली बने हुए थे। इस प्रकार, वास्तिवक सत्ता प्राप्त होते हुए भी कम्पनी ने दूर रहकर अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया। इस प्रकार सूबों में दो सत्ताओ (एक भारतीय और दूसरी विदेशी सत्ता) की स्थाना हुई। विदेशी सत्ता वास्तविक थी, जबकि भारतीय सत्ता उसकी परछाई मात्र थी।
द्वैध शासन की व्यवस्था बंगाल, बिहार और उड़ीसा में 1765 में से 1772 ई. तक कायम रही। इसके अतिरिक्त शासन की जिम्मेवारी बंगाल के नवाब के सिर पर थी, परन्तु वह नाममात्र शासक थे। दूसरे शब्दों में, नवाब कम्पनी के हाथ का कठपुतला बन हुआ था। सम्पूर्ण प्रशासकीय शक्ति कम्पनी के हाथ में थी, परन्तु प्रत्यक्ष रूप से वह इन सूबों की शासन व्यवस्था के लिए उत्तरदायी थी।
द्वैध शासन के लाभ
क्लाइव की द्वैध शासन की व्यवस्था उसकी बुद्धिमत्ता और राजनीतिज्ञता का प्रमाण थी। यह प्रणाली उस समय कम्पनी के हितों के दृष्टिकोण से सर्वोत्तम थी। दोहरे शासन से कम्पनी को निम्नलिखित लाभ प्राप्त हुए-
(1)       कम्पनी के पास ऐसे अंग्रेज कर्माचारियों की कमी थी, जो भारतीय भाषाओं तथा रीति-रिवाजों से अच्छी प्रकार परिचित हों और जिन्हें शासन चलाने अथवा मालगुजारी वसूल करने का पर्याप्त अनुभव हो। उस समय यह आशा करना कि कम्पनी के कर्मचारी रातों-रात योग्य प्रशासक बन जाएंगे, निरर्थक था। यदि कम्पनी अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करती, तो शासन में अव्यवस्था फैल जाति। ऐसि स्थिति में कम्पनी के शासन का समस्त उत्तरदायित्व भारतीयों पर डाल दिया। ऐसा करके उसे बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। भारतीयों को प्रशासनिक अनुभव पर्याप्त मात्र में था, जिसके कारण शासन सुव्यवस्थित ढंग से चलने लगा।
(2)       इंग्लैण्ड में कम्पनी को अभी भी मूलतः एक व्यापारिक कम्पनी समझा जाता था। इसलिए क्लाइवने ब्रिटिश जनता तथा कम्पनी के संचालकों को धोखा देने के लिए बड़ी चालाकी से काम किया था। यदि इस समय वह बंगाल का शासन प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेता तो ब्रिटिश संसद कम्पनी के मामलों में हस्तक्षेप कर सकती थी। इसके अतिरिक्त इससे कई प्रकार की अड़च नें भी पैदा हो सकती थीं।
(3)       यदि कम्पनी बंगाल के नवाब को गद्दी से हटाकर प्रांतीय शासन प्रबन्ध प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में ले लेती, तो उसे निश्चित रूप से अन्य यूरोपियन शक्तियों, पुर्तगालियों एवं फ्रांसीसियों आदि के साथ संघर्ष करना पड़ता। ये लोग उस समय भारत के साथ व्यापार करते थे और ईष्ट इण्डिया कम्पनी के कट्टर विरोधी थी। क्लाइव ने बड़ी चतुराई से काम लेते हुए इन विदेशियों की आँखों में धूल झोंक दी। रॉबर्ट्स ने लिखा है, ब्रितानियों द्वारा खुलेआम बंगाल के शासन की बागड़ोर सम्भाल लेने का अर्थ होता, दूसरी यूरोपीय शक्तियों के साथ झगडा मोल लेना। लेकिन दोहरा शासन अत्यन्त जटिल होने से वे यूरोपियन प्रतिस्पर्द्धियों के ईर्ष्या-जन्य संघर्ष से बच गए। प्रो. एस.आर. शर्माने लिखा है, क्लाइव ने यह धोखा इसलिए बनाए रखा, जिससे कि ब्रिटिश जनता को, यूरोपीयन शक्तियों को था भारतीय देशी शासकों को वास्तविक स्थिति का पता नहीं चल सके।
(4)       कम्पनी द्वारा शासन को प्रत्यक्ष रूप से हाथ में लेने से मराठे भी भड़क सकते थे। मराठों की संयुक्त शक्ति का सामना करना कम्पनी के बस की बात नहीं थी।
(5)       पिछले सात वर्षों में कम्पनी तथा बंगाल के नवाब के बीच कई बार झगड़े हुए थे, जिसके कारण बंगाल में तीन राजनीतिक क्रांतियाँ हुई। परिणामस्वरूप तीन महत्त्वपूर्ण शासकीय परिवर्तन हुए। क्लाइव इस प्रकार के परिवर्तनों के विरूद्ध था और उन्हें रोकना चाहता था। द्वैध शासन की स्थापना से कम्पनी और नवाबों के बीच चलने वाला संघर्ष हमेशा के लिए समाप्त हो गया और बंगाल में राजनीतिक क्रांतियों का भय नहीं रहा। विशेषतः इसलिए कि नवाब को केवल 53 लाख रूपए प्रतिवर्ष पेन्शन के रूप में दिए जाते थे। यह धनराशि शासन कार्य चलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसलिए वह एक विशाल सेना का आयोजन करके कम्पनी से टक्कर नहीं ले सकता था।
(6)       यद्यपि 1765 ई. तक बंगाल पर ब्रितानियों का पूर्णरूप से अधिकार हो गया, परन्तु क्लाइव ने बंगाल की जनता को अंधेरे में रखने के लिए नवाब को प्रांतीय शासन प्रबन्ध का मुखिया बनाए रखा और वास्तविक शक्ति कम्नी के हाथों में रहने दी। इस प्रकार, क्लाइव ने 1765 की क्रांति को समफलातपूर्वक छिपा लिया और भारतीयों तथा देशी राजाओं के मन में किसी प्रकार का संदेह उत्पन्न नहीं होने दिया।


द्वैध शासन व्यवस्था के दोष -
बंगाल के दोहरे शासन में अनेक गम्भीर दोष विद्यमान थे, जिसके कारण शासन में अव्यवस्था फैल गई और जन-साधारण को विभिन्न प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। नवाब ने द्वैध शासन व्यवस्था की आलोचना करते हुए अंग्रेज रेजीडेण्ट को 24 मई, 1769 ई. को एक पत्र लिखा, बंगाल का सुन्दर देश, अब तक भारतीयों के अधीन था, तब तक प्रगतिशील और महत्त्वपूर्ण था। ब्रितानियों की अधीनता में आने के कारण उसका अधःपतन अन्तिम सीमा पर पहुँच गया। प्रो. चटर्जी इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि क्लाइव ने जो द्वैध शासन व्यवस्था लागू की थी, वह एक दूषित शाकीय यन्त्र था। इसके कारण बंगाल में पहले से भी अधिक अव्यवस्था फैल गई और जनता पर ऐसे अत्याचार ढाये गये,जिसका उदाहरण बंगाल के इतिहास में कहीं नहीं मिलता।

बंगाल की द्वैध शासन व्यवस्था के दो प्रमुख दोष निम्नलिखित थे- 
(1)       दोहरे शासन का सबसे बड़ा दोष यह था कि कम्पनी के पास वास्तविक सत्ता थी, परन्तु वह शासन प्रबन्ध के लिए जिम्मेवार नहीं थी। दूसरे शब्दों में, उसने अपने कुठपतलों को शासन करने और उसका उत्तरदायित्व सम्भालने के लिए विवश कर दिया। इसके विपरीत बंगाल के नवाब को प्रान्तीय शासन प्रबन्ध सौंप दिया था उसके पास शासन कार्य चलाने के लिए आवश्यक शक्ति नहीं थी। ऐसी शासन व्यवस्था कभी भी सफल नहीं हो सकती थी, जिसमें शासन का उत्तरदायित्व उठाने वालों के हाथ में वास्तविक सत्ता न हो। द्वैध शासन व्यवस्था की इस मौलिक त्रुटि के कारण बंगाल में शीघ्र ही अव्यवस्था फैल गई। कहा जाता है कि इस व्यवस्था के दौरान चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई। कैयी ने ठीक ही लिखा है कि, इसने अव्यवस्था को दुर्वव्यवस्थित कर दिया और भ्रष्टाचार को और भ्रष्ट। कम्पनी अधिक से अधिक धन वसूल करने में ही अपनी शक्ति का व्यय कर रही थी। उसने जनता की देखभाल नवाब को सौंप दी थी। इससे जनता की हालत दीन-प्रतिदिन बिगड़ती गई। के.एम. पन्निकर ने लिखा है, भारतीय इतिहास के किसी काल में भी, यहाँ तक कि तोरमान और मुहम्मद तुगलक के समय में भी, भारतीयों को एसी विपत्तियों का सामना नहीं करना पड़ा जो कि बंगाल के निवासियों को इस द्वैध शासनकाल में झैलनी पड़ी। मुर्शिदाबाद के प्रेसीडेण्ट ने 1769 में ठीक ही लिखा था कि, यह क्षेत्र जो अत्याधिक निरंकुश और स्वेच्छारी सरकार के अन्तर्गत फला-फूला, बर्बादी की ओर आगे बढ़ रहा है।
(2)       द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी ने बंगाल की रक्षा का कार्य अपने हाथ में ले लिया। इस कारण केवल कम्पनी ही सेनाएँ रख सकती थी। नवाब को सेना रखने का अधिकार नहीं था। वह केवल उतने ही सैनिक रख सकता था, जितने कि उसे शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए आवश्यक थे। इस प्रशासनिक व्यवस्था से नवाब की सैन्य शक्ति को गहरा आघात पहुँचा।
(3)       द्वैध शासन व्यवस्था के कारण देशी न्याय व्यवस्था बिल्कुल ही पंगु हो गई। कम्पनी के कर्मचारी बार-बार न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप करते थे, इतना ही नहीं अनुचित रूप से लाभ उठाने के लिए नवाब के कर्मचारियों को डराते-धमकाते भी थे। उनके हस्तक्षे के कारण देशी जजों का निष्पक्षता और ईमानदारी से काम करना मुश्किल हो गया।
(4)       आर्थिक शोषण में इंग्लैण्ड की सरकार ने भी पीछे नहीं रही। 1767 ई. में उसने कम्पनी से 4 लाख पौण्ड का ऋण मांगा, जिसके कारण कम्पनी की आर्थि स्थिति पहले से भी अधिक दयनीय हो गई। कम्पनी ने इस रकम को एकत्रित करने के लिए भारतीय सूबों को ही चुना। बोल्ट्स के शब्दों मे, जब राष्ट्र फल के पीछे पड़ा हुआ था, कम्पनी और उसके सहोयगी पेड़ ही उखाड़ने में जुटे थे।
(5)       द्वैध शासन की व्यवस्था की दुर्बलता का लाभ उठाते हुए कम्पनी के कर्मचारियों ने राजनीतिक सत्ता का दुरूपयोग कर बहुत अधिक धन कमाया। उनेके नीजि व्यापार के दोष भी चरम सीमा पर पहुँच गये थे, क्योंकि अब उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। उन्होंने अपने दस्तकों का इतना अधिक दुरूपयोग किया कि भारतीय व्यापारियों का ब्रितानियों के मुकाबले में व्यापार करना असम्भव हो गया। बंगाल, बिहार और उड़ीसा के व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार हो गया और भारतीय व्यापारियों को अपना पैतृक धन्ध छोडने के लिए बाध्य होना पड़ा। स्वयं क्लाइव ने कॉमन्स सभा में कहा था, कम्पनी के व्यापारी एक व्यापारी की भाँति व्यापार न करके, संप्रभु के समान व्यवहार करते थे और उन्हों ने हजारों व्यापारियों के मुँह से रोटी छीन ली थी और जो भारतीय पहले व्यापार करते थे, वे अब भीख माँगने लगे हैं।
(6)       द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कम्पनी के कर्मचारी व्यक्तिगत व्यापार के द्वारा धनवान होते चले गये, परन्तु कम्पनी की आर्थिक दशा बिगड़ती गई। कम्पनी के कर्मचारियों की धनलोलुप प्रवृत्ति के कारण व्यभिचार और बेईमानी अनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। 18वीं शताब्दी के एक अंग्रेज कवि विलियम कोपर ने कम्पनी के अधिकारियों की धन लोलुपता का वर्णन करते हुए लिखा है,

न तो यह अच्छा है और न हो प्रशंसनीय ही, कि घर पर तो चोरों को फाँसी लगे, परन्तु वे जो डाल लेते हैं। अपनी मोटी तथा पहले भी भरी हुई थैली में, भारतीय प्रान्तों में रजवाड़ों का धन बच जाते हैं।भारतीय प्रान्तों में रजवाड़ों का धन बच जाते हैं। परिणामस्वरूप कम्पनी की स्थिति दिन-प्रतिदिन कम होती गई। 1770 ई. तक वह स्वयं दिवालिये की स्थिति में पहुँच गई।
(7)      द्वैध शासन व्यवस्था से भारतीय व्यापार तथा उद्योगों को बहुत हानि पहुँची। विदेशी व्यापारियों को विशेष चुट दी गई, जिसके कारण भारतीय व्यापारी उनके साथ प्रतिद्वन्द्विता में नहीं टिक सके। कम्पनी की अपनी शोषण नीति के कारण बंगाल का रेशमी और सूती वस्त्र उद्योग चौपट हो गया। कम्पनी के अधिकारी तथा उनके प्रतिनिधि भारतीय जुलाहों को एक निश्चित समय में एक निश्चित प्रकार का कपड़ा बना के लिए बाध्य करते थे और अपनी इच्छानुसार उनको कम मुल्य देते थे। जिन कारीगरों ने निश्चित समय पर ब्रितानियों की माँग की पूर्ति नही की अथवा उनकी कम कीमत को लेने से इन्कार कर दिया, तो उनके अंगूठे काट दिए गए। परिणामस्वरूप वस्त्र उद्योग में लगे हुए कारीगर बंगाल को छोड़कर भाग गए। ब्रितानियों ने अपनी बेईमानी और अत्याचार से बंगाल के कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया।
(8)       द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत कृषि का भी सर्वनाश हो गया। भूमि-कर वसूली का काम अधिक से अधिक बोली लगाने वाले ठेकेदार को दिया जाता था। ठेकेदार उस भूमि से अधिक से अधिक लगान वसूल करना चाहते थे, ताकि उनको अधिक से अधिक मुनाफा प्राप्त हो सके, क्योंकि इस बात को कोई गारन्टी नहीं होती थी, कि अगले वर्ष उन्हें पुनः लगान वसूली का काम मिल जाएगा। कम्पनी अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए ठेकेदारों से अधिक से अधिक माँग करती थी। इस प्रकार कम्पनी और ठेकेदारों को बढ़ती हुई लगान की माँग के कारण किसानों का शोषण बढ़ता गया।

डॉ. एम.एस. जैन ने लिखा है कि कम्पनी को दीवानी देने से पूर्व बंगाल व बिहार से 80 लाख रूपया भू-राजस्व प्राप्त होता था, वहाँ 1766-67 में, 2,24,67, 500 रूपये ही भू-राजस्व के प्राप्त हुए। स्पष्ट है कि कृषकों की कमर टूट गई। कम्पनी और ठेकेदारों दोनों की ही भूमि की उन्नति में रूची नहीं थी। अतः किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। अनेक किसान खेती छोड़कर भाग गए और चोर बन गए तथा खेती की योग्य भूमि जंगल में परिवर्तित हो गई। 1770 ई. में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा। इसमें बंगाली की एक तिहाई जनता समाप्त हो गई। इस समय भी सरकारी कर्मचारियों ने लगान माफ करने के स्थान पर दुगुना कर दिया। इतना ही नहीं, किसानों के घरों का सामान नीलाम करवा दिया, जिससे वे बेघरबार हो गए। 
मुर्शिदाबाद निवाकी कम्पनी रैजीडेन्ट श्री बेचर ने कृषकों की दयनीय स्थिति पर दुःख व्यक्त करते हुए 1769 ई. में लिखा, जब में कम्पनी ने बंगाल की दीवानी को सम्भाला है, इस प्रदेश के लोगों की दशा पहले से भी खराब हो गई है। वह देश जो स्वेच्छारी शासकों के अधीन भी समृद्धशाली था, अब विनाश की ओर जा रहा है। लार्ड कार्नवालिस ने इंग्लैण्ड की संसद में द्वैध शासन व्यवस्था के बारे में कहा था, मैं पूर्ण विश्वास के साथ इस मता का हूँ कि विश्व में कोई ऐसी सभ्य सरकार नहीं रही, जो इतनी भ्रष्ट, विश्वासघाती और लोभी हो, जितनी कि भारत में कम्पनी की सरकार थी। वेरेलस्ट के शब्दों में, ऐसी विभाजित और जटिल व्यवस्था ने शोषण और षड्यन्त्र को जन्म दिया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि द्वैध शासन व्यवस्था में कई दोष विद्यमान थे। इसलिए जब 1722 ई. में वारेन हेस्टिंग्ज अंग्रेज कम्पनी का गवर्नर बनकर बंगाल आया, तो उसे दोहरे शासन को समाप्त करने के लिए स्पष्ट आदेश दिए गये। अतः उसने भारत आते ही इस व्यवस्था को समाप्त करने का आदेश दिया। इस प्रकार द्वैध शासन व्यवस्था का 1772 ई. में अन्त हुआ।

साभार - क्रांति १८५७  

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