विराम शब्द वि + रम् + घञ् से बना है और इसका मूल अर्थ है "ठहरा, "आराम" आदि। जिन सर्वसंमत चिह्रों द्वारा, अर्थ की स्पष्टता के लिए वाक्य को भिन्न भिन्न भागों में बाँटते हैं, व्याकरण या रचनाशास्त्र में उन्हें "विराम" कहते हैं। "विराम" का ठीक अंग्रेजी समानार्थी "स्टॉप" (Stop) हैं, किंतु प्रयोग में इस अर्थ में "पंक्चुएशन" (Punctuation) शब्द मिलता है। "पंक्चुएशन" का संबंध लैटिन शब्द (Punctum) शब्द से है, जिसका अर्थ "बिंदु" (Point) है। इस प्रकार "पंक्चुएशन" का यथार्थ अर्थ बिंदु रखना" या "वाक्य में बिंदु रखना" है। विराम का अर्थ है- 'रुकना' या 'ठहरना'। वाक्य को लिखते अथवा बोलते समय बीच में कहीं थोड़ा-बहुत रुकना पड़ता है जिससे भाषा स्पष्ट, अर्थवान एवं भावपूर्ण हो जाती है। लिखित भाषा में इस ठहराव को दिखाने के लिए कुछ विशेष प्रकार के चिह्नों का प्रयोग करते हैं। इन्हें ही विराम चिह्न कहा जाता है।
भावों और विचारों को स्पष्ट करने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग वाक्य के बीच या अंत में किया जाता है, उन्हें विराम चिह्न कहते हैं; जैसे
2- 'हाँ' और 'नहीं' के पश्चात; जैसे हाँ, लिख सकता हूँ। नहीं यह काम नहीं हो सकता।
यूरोप में यूनानियों तथा रोमनों में इसका प्रचार था। प्रसिद्ध लेखक दोनेतुस ने अपने "आर्स ग्रामेतिका" (Ars Grammatica) में उच्च बिंदु "कामा" के लिए, मध्यबिंदु कोलन के लिए तथा निम्नबिंदु पूर्ण विराम के लिए दिया है। धीरे-धीरे इससे वर्तमान चिन्हों का विकास हुआ। मध्ययुग में इसके एकाधिक रूप मिलते हैं। यूरोप में 16वीं सदी से विराम का नियमित प्रयोग मिलने लगता है। आरंभ में इसका विरोध भी बहुत हुआ। द अनुंज़ियो अपने को "कामा" का शत्रु कहा करता था। बारतोली ने यह कहते हुए विरोध किया था कि मुद्रित पुस्तकों में विराम चिह्न पतिंगों की तरह हैं जो पाठक को बहुत खटकते हैं। किंतु इस प्रकार के विरोधों के बावजूद अपनी उपयोगिता के कारण विरामचिन्हों का प्रयोग बढ़ता ही गया और अब वे लेखन एवं मुद्रण के आवश्यक अंग बन गए हैं।
भावों और विचारों को स्पष्ट करने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग वाक्य के बीच या अंत में किया जाता है, उन्हें विराम चिह्न कहते हैं; जैसे
1- रोको मत जाने दो।
2- रोको, मत जाने दो।
3 रोको मत, जाने दो।
2- रोको, मत जाने दो।
3 रोको मत, जाने दो।
प्राय: लोग समझते हैं कि "विराम" शब्द का इस अर्थ में प्रयोग आधुनिक है और यह शब्द पंक्चुएशन" का अनुवाद है। किंतु तत्वत: ऐसी बात नहीं है। पाणिनि से भी बहुत पूर्व प्रातिशाख्यों एवं शिक्षाग्रंथों में विराम शब्द का प्रयोग इससे मिलते जुलते अर्थों में मिलता है। तैत्तरीय प्रातिशाख्य चार प्रकार का माना गया है :
ऋग्विराम: पदविरामो विवृति विराम: समानपदविवृत्तिविरामस्त्रिमात्रो द्विमात्र एक मात्रोर्धमात्र इत्यानुपूर्व्येंण,
अर्थात् ऋग्विराम, पदविराम, विवृतिविराम, समानपदविवृत्तिविराम, इन विरामों की मात्राएँ क्रमश: तीन, दो, एक तथा अर्ध मानी गई हैं। इनमें ऋग्विराम चरण या छंद के अंत के लिए अर्थात् आज के पूर्ण विराम जैसा है। "ऋक्" का अर्थ है छंद, इसीलिए इस विराम को "ऋग्विराम" कहा गया है। इसके लिए प्राय: एक या दो खड़ी पाई देने की परंपरा रही है। कभी कभी छोटा वृक्ष या फूल भी बनाते रहे हैं। "पदविराम" दो शब्दों या पदों के बीच में आता है। पदों के बीच में आता है। पदों के बीच में होने के कारण ही इसका नाम "पदविराम" है। वस्तुत: पदों के बीच कोई विरामचिह्न दिया नहीं जाता। इसका आशय मात्र यह है सामान्य भाषा में पदों के बीच विराम अथवा ध्वनि का अभाव होता है और उसे लगभग दो मात्रा (अर्थात् दीर्घ ई या दीर्घ ऊ जितना) होना चाहिए। तीसरा विराम "विवृतिविराम" भी शब्दों या पदों के बीच में ही आता है, किंतु ये विशेष प्रकार के शब्द या पद होते हैं। कभी कभी संस्कृत में ऐसा होता है कि शब्द के अंत में स्वर आता है और उसके बादवाले शब्द के प्रांरभ में भी स्वर। सामान्यत: ऐसी स्थिति में संधि हो जाती है। किंतु जब इनके बीच संधि नहीं होती, तो इन दोनों शब्दों के बीच का विराम अन्य प्रकार के सामान्य शब्दों या पदों के बीच के विराम से आधा अर्थात् केवल एक मात्रा (अर्थात् अ, इ जितना) का होता है। यही "विवृतिविराम" है। "हरी एतौ," "अहो इशा:" के बीच के विराम इसी वर्ग के हैं। "विवृति", स्वरों की असंधि विवृति: स्वरयोरसंधि: - तैत्तिरीय प्रातिशाख्थ) का पारिभाषिक नाम है। इसी आधार पर इस विराम को इस नाम से अभिहित किया गया है।
पूर्ण विराम (।)
इस चिह्न का प्रयोग प्रश्नवाचक और विस्मयसूचक वाक्यों को छोड़कर अन्य सभी प्रकार के वाक्यों के अंत में किया जाता है; जैसे राम स्कूल से आ रहा है। वह उसकी सौंदर्यता पर मुग्ध हो गया। वह छत से गिर गया। दोहा, श्लोक, चौपाई आदि की पहली पंक्ति के अंत में एक पूर्ण विराम (।) तथा दूसरी पंक्ति के अंत में दो पूर्ण विराम (॥) लगाने की प्रथा है; जैसे:-
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे मोती, मानुस, चून॥
पानी गए न ऊबरे मोती, मानुस, चून॥
अर्द्धविराम (;)
जहाँ पूर्ण विराम की अपेक्षा कम देर रुकना हो और अल्पविराम की अपेक्षा कुछ देर तक रुकना हो तब अर्द्धविराम का प्रयोग किया जाता है; जैसे- फलों में आम को सर्वश्रेष्ठ फल माना गया है; किंतु श्रीनगर में और ही किस्म के फल विशेष रूप से पैदा होते हैं।
अल्पविराम (,)
जहाँ पर अर्द्धविराम की तुलना में और कम देर रुकना हो तो अल्पविराम का प्रयोग किया जाता है। इस चिह्न का प्रयोग निम्नलिखित परिस्थितियों में किया जाता है-
1- एक ही प्रकार कई शब्दों का प्रयोग होने पर प्रत्येक शब्द के बाद अल्पविराम लगाया जाता है। लेकिन अंतिम शब्द के पहले 'और' का प्रयोग होता है; जैसे रघु अपनी संपत्ति, भूमि प्रतिष्ठा और मान-मर्यादा सब खो बैठा।2- 'हाँ' और 'नहीं' के पश्चात; जैसे हाँ, लिख सकता हूँ। नहीं यह काम नहीं हो सकता।
क्रम | नाम | विराम चिह्न |
---|---|---|
1 | पूर्ण विराम या विराम | (।) |
2 | अर्द्धविराम | (;) |
3 | अल्पविराम | (,) |
4 | प्रश्नवाचक | (?) |
5 | विस्मयसूचक | (!) |
6 | उद्धरण | ("") (' ') |
7 | योजक | (-) |
9 | कोष्ठक | [()] |
10 | हंसपद (त्रुटिबोधक) | (^) |
11 | रेखांकन | (_) |
12 | लाघव चिह्न | (·) |
13 | लोप चिह्न | (...) |
यूरोप में यूनानियों तथा रोमनों में इसका प्रचार था। प्रसिद्ध लेखक दोनेतुस ने अपने "आर्स ग्रामेतिका" (Ars Grammatica) में उच्च बिंदु "कामा" के लिए, मध्यबिंदु कोलन के लिए तथा निम्नबिंदु पूर्ण विराम के लिए दिया है। धीरे-धीरे इससे वर्तमान चिन्हों का विकास हुआ। मध्ययुग में इसके एकाधिक रूप मिलते हैं। यूरोप में 16वीं सदी से विराम का नियमित प्रयोग मिलने लगता है। आरंभ में इसका विरोध भी बहुत हुआ। द अनुंज़ियो अपने को "कामा" का शत्रु कहा करता था। बारतोली ने यह कहते हुए विरोध किया था कि मुद्रित पुस्तकों में विराम चिह्न पतिंगों की तरह हैं जो पाठक को बहुत खटकते हैं। किंतु इस प्रकार के विरोधों के बावजूद अपनी उपयोगिता के कारण विरामचिन्हों का प्रयोग बढ़ता ही गया और अब वे लेखन एवं मुद्रण के आवश्यक अंग बन गए हैं।
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