प्राचीन काल में इस क्षेत्र से समय-समय पर पश्चिम की ओर जनसमुदायों का आव्रजन हुआ है, जिनके दो सबसे बड़े साक्ष्य आज भी मौजूद हैं। वे हैं यूरोप के रोमनी या जिप्सी तथा सोवियत संघ के इंकी या इन्दुस्तानी, जो ताज़िकस्तान और उज़बेकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्र में निवास करते हैं। जिप्सी या रोमनी भाषा के अध्ययन से यह संकेत मिलता है कि इसे बोलने वाले समुदाय संभवतः हरियाणा से गए होंगे। पिछली शताब्दी से सर लॉरेस ग्रुप ने अपने 'जिप्सी फ़ोकटेल्स' (1899 ई.) नामक ग्रंथ की भूमिका में इस भाषा के जो नमूने दिए हैं, वे आज की खड़ी बोली के बहुत समीप हैं। जैसे:- 'जा, दिक, कोन छल वेल वुदर' (जाओ, देखों तो, कौन लड़का उधर है) और 'जा देख कोन छल आया द्वार को' (जाओं, देखो कौन लड़का दरवाज़े पर आया है)। उन्होंने यह संभावना व्यक्त की है कि जिप्सी-भाषी ईसवी सन् की दसवीं सदी से बहुत पहले भारत से बाहर गए होंगे। इंकी या इन्दुस्तानी नामक भाषा की खोज डॉ. भोलानाथ तिवारी ने की है। वह इसे 'ताजुज़्बेकी' कहते हैं। 'ताजुज़्बेकी' (1970 ई.) में उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि यह भाषा जिसमें एक, दो, तिन (तीन), में (मैं), हम, तुम, ओ, (वह) जैसे शब्दों का प्रयोग होता है तथा जिसकी व्याकरणिक संरचना खड़ीबोली के बहुत समीप है, मूलतः हिन्दी है। भारत के एक नवस्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जन्म लेने के कुछ समय पूर्व भारत में उन लोगों के दरम्यान एक बहस छिड़ी थी, जो खुद को बीसवीं सदी की उदारता और समावेशिता के विचार को लोकतांत्रिकता के ढांचे में प्राथमिक मानते थे। वह समूची बहस इस बिंदु पर केंद्रित थी कि भारत को एक राष्ट्र-राज्य के रूप में देखने का आधार क्या है? कुछ ऊंचे दर्जे के पश्चिमाभिमुखी चिंतकों के सामने एक बड़ा संकट यह था कि इसे एक राष्ट्र-राज्य की तरह देखने के बजाय इसे कई छोटी-छोटी ‘राष्ट्रीयताओं का समुच्चय’ माना जाए और इसका अमेरिका की तर्ज पर नाम भी भारत के बजाय ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया’ रखा जाए। पिछले दिनों चुनाव के हो-हल्ले में किसी नेता ने शायद कहीं ऐसी घोषणा भी की थी कि अगर उनकी पार्टी विजयी हुई तो वे भारत का नाम बदल कर ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया’ कर देंगे। बहरहाल, तब भारत के तमाम कद्दावर नेताओं का यह स्पष्ट विचार था कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत एक राष्ट्र है। हां, भौगोलिकताएं जरूर भिन्न हैं, जो कि एक महाद्वीप की प्राकृतिकता की देन हैं, लेकिन सांस्कृतिकताओं के भीतर एक दृढ़ अंत:सूत्र है, जो इसे एक राष्ट्र बनाता है। बहुलता इसका सांस्कृतिक सत्य है। नेहरू, जिनके बारे में कहा जाता रहा कि वे अखिल भारतीयता से सर्वाधिक आसक्त रहते थे उनकी इतिहासप्रियता में सम्राट अशोक और उसका भारत, एक किस्म की रूमानियत के स्तर तक शामिल थे। उनकी ऐसी ही इतिहास-आसक्ति के चलते यह भी कहा जाता रहा कि उनके भीतर एक अशोक सम्राट जिंदा था और वे वही हो जाना चाहते थे। हालांकि जब वे भारत के सामान्यजन के हृदय सम्राट कहलाए तो अशोक के भारत के विखंडन में, सम्राट बनने की उनकी बेसब्री की भी बड़ी भूमिका रही। नब्बे के दशक में हमारे यहां भूमंडलीकरण की प्रक्रिया तेज होते ही फिर से भारत की ‘अखिल-भारतीयता’ को खारिज करने की कोशिशें शुरू हुर्इं। क्योंकि भूमंडलीकरण की जरूरतों में यह भी शामिल है कि कोई राष्ट्र, जो भूमंडलीकृत-अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने को आतुर है, तो उसे उसकी संप्रभुता को विस्मृत करना होगा। कुछ लोग गफलत में ‘वसुधैवकुटुंबकम्’ की याद दिलाते हुए, भूमंडलीकरण के विचार को भारत की प्राचीनतम वैदिक-अवधारणा सिद्ध करने में जुट भी गए। जबकि आज का यह भूमंडलीकरण बहुराष्ट्रीय निगमों और अंतरराष्ट्रीय पूंजी के गठजोड़ से बना नव-उपनिवेशवाद है।
‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ दोनों ही शब्द इस भूमंडलीकरण की आंत में अपच पैदा करते हैं और रह-रह कर खट्टी डकारें पैदा करते हैं। कहा जाने लगा कि ये दोनों शब्द भूमंडलीकरण के लिए गतिरोधक हैं, इसलिए अवांछनीय भी। वैसे भी इस भूमंडलीय राजनीति में कहा जाता है, राष्ट्र एक सर्वथा काल्पनिक समुदाय है। उधर इंदिरा गांधी की आसन्न मृत्यु ने भारत की राजनीतिक अखिल-भारतीयता को आक्सीजन जरूर दी, क्योंकि मतदाता ने कांग्रेस को बांग्लादेश के वक्त के विजयोन्माद जैसा ही भारी जनादेश दिया था। लेकिन उसे सहानुभूति का मनोवैज्ञानिक उफान मान लिया गया। लेकिन राजीव गांधी के अवसान के बाद यह सच निश्चित ही सर्वत्र दिखाई दे रहा था कि अखिल भारतीयता धीरे-धीरे छीजती जा रही है। इसके पीछे एक कारण यह भी था कि भारत जैसे ही आर्थिक स्तर पर वैश्विक होने लगा, चेतना के स्तर पर वह अधिक क्षेत्रीय होने लगा। दिल्ली के सिंहासन पर बैठे व्यक्ति का संकटमोचक लगना बंद हो गया। वह सौ रुपए भेजता था, लेकिन जनता को सोलह रुपए मिलते थे। नतीजतन, उसने स्थानीयता में भरोसा देखा और क्षेत्रीय नायक मुक्तिदाता दिखाई देने लगा। मंडल आयोग ने जातिवाद को आहुति दी और कांशीराम का हाथी ऐरावत बनने लगा। बहरहाल, बहुत छोटे से कालखंड में यह हुआ कि कोई भी राजनीतिक दल ‘अखिल भारतीय’ नहीं रह गया। धड़ाधड़ क्षेत्रीय दल उठने लगे और चेतना के स्तर पर एक खंड-खंड भारत स्पष्ट दिखाई देने लगा। किसी को छत्तीसगढ़ की जरूरत हुई, किसी को झारखंड की और इस तरह के विखंडन की प्रवृत्ति तो खालिस्तान की मांग के साथ ही शुरू हो गई थी।
हिन्दी 'शब्द' का प्रयोग हरियाणा से लेकर बिहार तक प्रचलित बाँगरु, कौरवी, ब्रजभाषा, कनौजी, राजस्थानी, अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि कई भाषाओं के लिए किया जाता है, किंतु वर्तमान शताब्दी में व्यवहार की दृष्टि से इसका अर्थ खड़ीबोली हो गया है। हिन्दी के रूप में यही खड़ीबोली भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत संपर्क भाषा है तथा हिन्दी भाषी राज्यों में राजभाषा है। भौगोलिक दृष्टि से विचार करने पर यह दिल्ली, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, बिजनौर, मेरठ आदि थोड़े से ज़िलों तक सीमित भाषा है, जो शताब्दियों तक ब्रजभाषा और अवधी की तुलना में उपेक्षितप्राय रही है और ऐतिहासिक कारणों के प्रसाद से ही यह न केवल आधुनिक युग में भारत से बाहर के कई देशों में फैल गई है, वरन सुदूर अतीत से ही अंतर्राष्ट्रीय यात्रा करती रही है। प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने " हिन्दी एवं उर्दू का अद्वैत " शीर्षक आलेख में हिन्दी की व्युत्पत्ति पर विचार करते हुए कहा है कि ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में 'स्' ध्वनि नहीं बोली जाती थी। 'स्' को 'ह्' रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के 'असुर' शब्द को वहाँ 'अहुर' कहा जाता था। अफ़्ग़ानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इलाके को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी 'हिन्द', 'हिन्दुश' के नामों से पुकारा गया है तथा यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को 'एडजेक्टिव' के रूप में 'हिन्दीक' कहा गया है जिसका मतलब है 'हिन्द का'। यही 'हिन्दीक' शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में 'इन्दिके', 'इन्दिका', लैटिन में 'इन्दिया' तथा अंग्रेज़ी में 'इण्डिया' बन गया। अरबी एवं फ़ारसी साहित्य में हिन्दी में बोली जाने वाली भाषाओं के लिए 'ज़बान-ए-हिन्दी', पद का उपयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने 'ज़बान-ए-हिन्दी', 'हिन्दी जुबान' अथवा 'हिन्दी' का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को 'भाखा' नाम से पुकराते थे, 'हिन्दी' नाम से नहीं। प्रोफेसर जैन का मानना है कि हिन्दी भाषा-क्षेत्र में बोले जाने वाले समस्त क्षेत्रगत, वर्गगत, शैलीगत आदि समस्त भाषिक रूपों की समष्टि की अमूर्तता का नाम हिन्दी है।
प्राकृत -
'प्राकृत' की दूसरी तीसरी अवस्था में कोई न कोई रूप ऐसा होगा, जो हमारे सामने नहीं है। जिस प्राकृत का विकास हिन्दी है, उसका साहित्यिक रूप हमारे सामने नहीं है। किंतु यदि इस प्राकृत का रूप प्राप्त नहीं होता, तो इसका अर्थ यह नहीं कि उसका अस्तित्व नहीं होगा। जैसे आज भी बहुत-सी भाषाओं में साहित्य-रचना नहीं होती, वैसे पहले भी बहुत-सी प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं में साहित्य नहीं लिखा गया। कुरु जनपद की प्राकृत ऐसी ही थी। वाजपेयी जी इस प्राकृत या अपभ्रंश को 'कौरवी' कहते हैं। निश्चय ही प्राचीन कौरवी से विकसित आधुनिक भारतीया कौरवी या खड़ीबोली दसवीं शताब्दी से पहले की है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पड़ोस की ब्रजभाषा और राजस्थानी के बाद ही इसमें साहित्य-लेखन प्रारंभ हुआ और वह भी उस समय, जब दिल्ली में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हुई। इसके आरंभिक साहित्यिक नमूने या तो मुसलमान कवियों और लेखकों की रचनाओं में या देश के विभिन्न भागों के साधु-सन्न्यासियों द्वारा रचित वाणियों में मिलते हैं।
पौराणिक मतावलंबी -
पौराणिक मतावलंबी भक्त कवियों ने साहित्यिक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में इसे महत्त्व नहीं दिया। इसके कारणों की परीक्षा के लिए हमें उस धार्मिक परिदृश्य पर विचार करना होगा, जिसका निर्माण पुराणों पर आधारित सगुण भक्ति द्वारा हुआ था। चौबीस अवतारों में क्रमशः दस अवतारों को अधिक महत्त्व मिला, जिसका एक उदाहरण क्षेमेंद्रकृत दशावतार-चरित है। किंतु इन दस अवतारों में भी राम और कृष्ण अधिक महत्त्व प्राप्त करते गए और अंततः समस्त उत्तर भारत की दैवत भावना इन्हीं में केंद्रीभूत हो गई। हिन्दीभाषी क्षेत्र में राम का आवलंबन लेने वाले काव्य की रचना मुख्यतः अवधी में हुई और कृष्ण से संबंधित काव्य मुख्यतः ब्रजभाषा में लिखा गया। अवध के साथ राम और ब्रज के साथ कृष्ण के संबंध के कारण ही क्रमशः अवधी और ब्रजभाषा को इतना महत्त्व मिला, यद्यपि अवध के सूफी कवियों ने भी अवधी का प्रयोग किया।
खड़ीबोली -
खड़ीबोली ऐसी ही उपेक्षितप्राय भाषा थी, जिसके व्यवहार का कोई औचित्य या प्रेरकता तत्कालीन पौराणिक मतावलंबी हिन्दू कवियों के लिए नहीं थी। किंतु, जिस समय उत्तर भारत में विभिन्न भक्ति- संप्रदायों का प्रवेश हुआ था, उससे पूर्व ही दिल्ली में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। इस साम्राज्य की स्थापना के समय दिल्ली में जो मुसलमान आकर बस गए, उनमें सबसे बड़ी संख्या अविभाजित पंजाब के नव- मुस्लिमों की थीं, जिनकी बोली का राजधानी और उसके आस-पास की बोली पर प्रभाव पड़ना स्वाभविक था। राजधानी और उसके आस-पास की जनभाषा से परिचय दिल्ली के स्वदेशी और विदेशी मुस्लिम प्रशासकों और सैनिकों के लिए न केवल स्वाभाविक था, वरन आवश्यक भी। स्थानीय स्त्रियों से विवाह तथा प्रशासनिक आवश्यकताओं के कारण स्थानीय भाषा से परिचय की विवशता इन दो बातों के प्रभाव-स्वरूप दो-तीन पीढ़ियों में ही दिल्ली के शासकों के घर की बोली खड़ीबोली हो गई और शासक जाति के साहित्यकारों ने फ़ारसी के अतिरिक्त खड़ीबोली में भी काव्य-रचना की। अमीर खुसरो (1255-1324) ने हिन्दवी (हिन्दी) को अपनी मातृभाषा कहा और इसमें न केवल कविता की, वरन इसके माधुर्य और गंभीरता पर गर्व भी प्रकट किया।
मुस्लिम साम्राज्य के दक्षिण भारत में विस्तार के साथ हिन्दी का प्रसार आंध्र, कर्नाटक आदि प्रदेशों में भी हुआ। अलाउद्दीन ने 1296 ई. में दक्षिण भारत के देवगिरी पर आक्रमण किया। बाद के आक्रमणों द्वारा उसके राजत्व काल में विंध्या पर्वत क्षेत्र से लेकर दक्षिण के समुद्र तट तक की भूमि दिल्ली साम्राज्य के अधीन हो गई। मुहम्मद तुग़लक़ के समय दक्षिण का अधिकांश भाग इस साम्राज्य के अधीन हो गया, जिसे उसने पाँच भागों में विभाजित किया। उसने देवगिरी या दौलताबाद में अपनी राजधानी बनाई, जो मध्यकालीन इतिहास की बहुचर्चित घटनाओं में है। यद्यपि उसने परिस्थितियों के दबाव के कारण पुनः दिल्ली को राजधानी बनाया, किंतु उसके साथ बहुत बड़ी संख्या में दिल्ली के मुसलमानों और हिन्दुओं का आव्रजन दक्षिण भारत में हुआ। उनका एक बड़ा समुदाय दक्षिण में स्थायी रूप में बस गया, किंतु उनके आव्रजन से पूर्व ही, अलाउद्दीन ख़िलज़ी के राजत्वकाल में खड़ीबोली बोलने वाले हिन्दू और मुस्लिम राजकर्मचारियों, सैनिकों और व्यापारियों के दल दक्षिण भारत में फैल चुके थे। बाद में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा और बीदर में निज़ामशाही, क़ुतुबशाही और बरीदशाही वंशों ने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की, जिनमें बरीदशाही वंश का अस्तित्व शीघ्र ही समाप्त हो गया। दक्षिण के साथ मुग़लों के युग में भी दिल्ली की राजनीतिक प्रतियोगिताएँ चलती रहीं तथा आकमणों का क्रम अटूट जैसा रहा।
दक्खिनी हिन्दी -
दकनी या दक्खिनी हिन्दी के रचनाकारों की संख्या बहुत बड़ी है। खड़ीबोली गद्य की पहली प्राप्य पुस्तक ख्वाजा बंदेनवाज़ गेसूदराज़ की 'मिराजुल आशिकीन' है, जो सूफ़ी विचारधारा से संबंधित है। इसकी रचना पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ में हुई है। गेसूदराज़ की अन्य कई गद्य रचनाओं का भी उल्लेख मिलता है। मुल्ला वजही की 'सबरस' (1636 ई.) शायद दक्खिनी गद्य परंपरा की सर्वोत्तम रचना है। दक्खिनी में मीराँजी, निज़ामी, मुहम्मदकुली क़ुतुबशाह आदि ने उत्कृष्ट कोटि की कविता की है। दक्खिनी कोई कृत्रिम भाषा नहीं थी, बल्कि यह वहाँ आव्रजन कर बस गए समुदायों की सहज, स्वाभाविक मातृभाषा थी।
खड़ीबोली के अखिल भारतीय प्रसार का दूसरा माध्यम विभिन्न मध्यकालीन संत संप्रदायों का प्रचारक समुदाय है। उत्तर और दक्षिण के विभिन्न भाषाभाषी साधु-सन्न्यासियों की संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। इनकी हिन्दी न केवल हिन्दी प्रदेश की विभिन्न बोलियों, बल्कि हिन्दीतर क्षेत्र की बोलियों के रंगों से इंद्रधनुषित खड़ीबोली थी, जिसे 'सधुक्कड़ी' भी कहा गया है। कबीर की रचनाओं में इस सधुक्कड़ी का प्रचुर प्रयोग हुआ है। लेकिन, कबीर से बहुत पहले, लगभग दिल्ली में ग़ुलाम वंश की स्थापना के समांतर, महाराष्ट्र के महानुभाव पंथ के कवियों द्वारा इसके प्रयोग के उदाहरण मिलने लग जाते हैं। महानुभाव पंथ के दामोदर पंडित (बारहवीं शताब्दी) और कवयित्री महदायिसा (तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी) की कुछ रचनाओं की भाषा हिन्दी है। इस पंथ के चक्रपाणि नीलंबकर ने दक्खिनी में 'तीसा' साहित्य रचा, जो देवनागरी लिपि में उपलब्ध हुआ है। नाथपंथ से संबंधित वारकरी संप्रदाय केनामदेव (1271-1351 ई.) एकनाथ (1528-1599 ई.) आदि मराठी कवियों की हिन्दी रचनाएँ तो प्रसिद्ध हैं। एकनाथ की हिन्दी गद्य रचनाएँ खड़ीबोली गद्य के सबसे पुराने और साफ़ सुथरे उदाहरणों में हैं। महाराष्ट्र उत्तर और दक्षिण का संधि-प्रदेश है और इसने हिन्दी के अखिल भारतीय प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका संपन्न की है। डॉ. विनयमोहन शर्मा ने 'हिन्दी को मराठी संतों की देन' नामक ग्रंथ में सबसे पहले मराठी संतों की हिन्दी रचनाओं का परिचय दिया था और हाल में डॉ. यू. म.पठान ने 'महाराष्ट्र के महानुभाव साहित्यकारों का हिन्दी साहित्य को योगदान' में इन विषय से संबंधित प्रभूत नई सामग्री दी है।
उपर्युक्त राजनीतिक और धार्मिक कारणों से खड़ीबोली सत्रहवीं शताब्दी तक भारतव्यापी हो चुकी थी। इसके साक्षी सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम और अठारहवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशकों में यूरोपीय धर्म प्रचारकों के लिए लिखित हिन्दी व्याकरण है।
- पहला व्याकरण जॉन जोशुआ कैटलर कृत 'हिन्दुस्तानी भाषा' है, जिसकी रचना 1698 ई. में आगरा में हुई।
- दूसरा व्याकरण बेंजमिन शूल्ज़ का 'हिन्दुस्तानी व्याकरण' है, जो 1745 ई. में दक्षिण के हैदराबाद में लिखा गया।
- तीसरे व्याकरण का नाम 'अल्फाबेतुम ब्रम्हानिकुम' है, जिसके लेखक कैसियानो बेलिगत्ती हैं। इसकी रचना 1771 ई. में पटना में हुई।
देश के तीन सुदूरवर्ती केंद्रों में लिखे गए इन व्याकरणों में एक ही बात बार-बार कही गई है। वह यह है कि हिन्दी या हिन्दुस्तानी इनके रचना-स्थलों-आगरा, हैदराबाद और पटना के पार्श्ववर्ती क्षेत्रों की सबसे महत्त्वपूर्ण संपर्क भाषा है। बेंजामिन शूल्ज़ ने लिखा है, कि इस हिन्दुस्तानी भाषा को देवनागरम भी कहा जाता है।
जब से मुसलमान लोग सारे भारत को जीतकर यहाँ रहने लगे तब से उन्होंने यहाँ की हिन्दुस्तानी को अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकार किया। मुग़लों के विस्तृत राज्य में इस भाषा का प्रचार-प्रसार है।
हिन्दी के तीन प्रारंभिक व्याकरण मैथ्यु बेच्चुर, बेलिगत्ती ने इसे न केवल पटना के आस-पास प्रचलित तथा विदेशी यात्रियों द्वारा प्रयुक्त भाषा कहा है, बल्कि इसे तत्कालीन भारत की राष्ट्रभाषा कहा है।
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