अपवर्तन किसे कहते है ?
जब प्रकाश की किरणें एक पारदर्शी माध्यम में प्रवेश करती है, तो दोनों माध्यमों को अलग करने वाले तल पर अभिलम्बत् आपाती होने पर बिना मुड़े सीधे निकल जाती है, परन्तु तिरछी आपाती होने पर वे अपनी मूल दिशा से विचलित हो जाती है। इस घटना को प्रकाश का अपवर्तन कहते हैं। जब प्रकाश की कोई किरण विरल माध्यम से सघन माध्यम में प्रवेश करती है, तो दोनों माध्यमों के पृष्ठ पर खींचे गए अभिलंब की ओर झुक जाती है तथा जब किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करती, तो वह अभिलंब से दूर हट जाती है, लेकिन जो किरण अभिलंब के समांतर प्रवेश करती है, उनके पथ में कोई परिवर्तन नहीं होता।
अपवर्तन के नियम
- आपतित किरण, अभिलंब तथा अपवर्तित किरण तीनों एक ही समतल में स्थित होते हैं।
- किन्हीं दो माध्यमों के लिए आपतन कोण के ज्या (sine) तथा अपवर्तन कोण के ज्या का अनुपात एक नियतांक होता है। अर्थात्
<math>\frac {\sin i} {\sin r}= \mu</math> (नियतांक)
नियतांक को पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक कहते हैं। इस नियम को स्नेल का नियम भी कहते हैं।
- किसी माध्यम का अपवर्तनांक भिन्न-भिन्न रंग के प्रकाश के लिए भिन्न-भिन्न होता है। तरंगदैर्ध्य बढ़ने के साथ अपवर्तनांक का मान कम हो जाता है। अतः लाल रंग का अपवर्तनांक सबसे कम तथा बैंगनी रंग का अपवर्तनांक सबसे अधिक होता है।
- ताप बढ़ने पर भी सामान्यतः अपवर्तनांक घटता है। लेकिन यह परिवर्तन बहुत ही कम होता है।
- किसी माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक निर्वात में प्रकाश की चाल तथा उस माध्यम में प्रकाश की चाल के अनुपात के बराबर होता है। अर्थात्
निर्वात अपवर्तनांक <math>\mu</math> = निर्वात में प्रकाश की चाल / माध्यम में प्रकाश की चाल
इंद्रधनुष किसे कहते है ?
यदि बूँद के भीतर किरणों का दो बार परावर्तन हो, तो लाल तथा बैंगनी किरणों का न्यूनतम विचलन क्रमानुसार 231रू तथा 234रू होता है। अत: एक इंद्रधनुष ऐसा भी बनना संभव है जिसमें वक्र का बाहरी वर्ण बैंगनी रहे तथा भीतरी लाल। इसको द्वितीयक (सेकंडरी) इंद्रधनुष कहते हैं। आकाश में संध्या समय पूर्व दिशा में तथा प्रात:काल पश्चिम दिशा में, वर्षा के पश्चात् लाल, नारंगी, पीला, हरा, आसमानी, नीला, तथा बैंगनी वर्णो का एक विशालकाय वृत्ताकार वक्र कभी-कभी दिखाई देता है। यह इंद्रधनुष कहलाता है। वर्षा अथवा बादल में पानी की सूक्ष्म बूँदों अथवा कणों पर पड़नेवाली सूर्य किरणों का विक्षेपण (डिस्पर्शन) ही इंद्रधनुष के सुंदर रंगों का कारण है। सूर्य की किरणें वर्षा की बूँदों से अपवर्तित तथा परावर्तित होने के कारण इन्द्रधनुष बनाती हैं। इंद्रधनुष सदा दर्शक की पीठ के पीछे सूर्य होने पर ही दिखाई पड़ता है। पानी के फुहारे पर दर्शक के पीछे से सूर्य किरणों के पड़ने पर भी इंद्रधनुष देखा जा सकता है।

अंतरिक्ष किरणें किसे कहते है ?
- प्राथमिक अंतरिक्ष किरणें
- द्वितीयक अंतरिक्ष किरणें
द्वितीयक अंतरिक्ष किरणें प्राथमिक अंतरिक्ष किरणें पृथ्वी के वायुमंडल में गैसों के नाभिकों से टकराती हैं तो उक्त नाभिकों का विघटन हो जाता है। इनके विघटन से बहुत से प्रोटॉन, न्यूट्रॉन तथा गामा किरणें निकलती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ कणिकाएँ भी उत्पन्न होती हैं जिन्हें मेसान कहा जाता है।
अंतरिक्ष की किरणों की उत्पत्ति के संबंध में अभी कोई निश्चित सिद्धांत नहीं दिया जा सका है। वैज्ञानिकों का विचार है कि ये आवेशित कण आकाश गंगा में ही उत्पन्न होते हैं। इनकी ऊर्जा इतनी अधिक कैसे हो जाती है, इसके बारे में अभी बहुत मतभेद है। कुछ वैज्ञानिकों की राय है कि सूर्य के चारों ओर चुंबकीय क्षेत्र है जिसमें परिवर्तन होता रहता है। इस पारवर्ती चुंबकीय क्षेत्र में आवेशित कण बीटाटॉन के सिद्धांत के अनुसार त्वरित हो जाते हैं। अन्य वैज्ञानिक मानते हैं कि परिवर्ती चुंबकीय क्षेत्र पूरी आकाश गंगा में व्याप्त है जहाँ कणों का त्वरण होता है।
ध्रुवीय ज्योति (अंग्रेजी: Aurora), या मेरुज्योति, वह रमणीय दीप्तिमय छटा है जो ध्रुवक्षेत्रों के वायुमंडल के ऊपरी भाग में दिखाई पड़ती है। उत्तरी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को सुमेरु ज्योति (अंग्रेजी: aurora borealis), या उत्तर ध्रुवीय ज्योति, तथा दक्षिणी अक्षांशों की ध्रुवीय ज्योति को कुमेरु ज्योति (अंग्रेजी: aurora australis), या दक्षिण ध्रुवीय ज्योति, कहते हैं। प्राचीन रोमवासियों और यूनानियों को इन घटनाओं का ज्ञान था और उन्होंने इन दृश्यों का बेहद रोचक और विस्तृत वर्णन किया है। दक्षिण गोलार्धवालों ने कुमेरु ज्योति का कुछ स्पष्ट कारणों से वैसा व्यापक और रोचक वर्णन नहीं किया है, जैसा उत्तरी गोलार्धवलों ने सुमेरु ज्योति का किया है। इनका जो कुछ वर्णन प्राप्य है उससे इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि दोनों के विशिष्ट लक्षणों में समानता है।
सुमेरु ज्योति के अनेक रूप होते हैं। स्टॉर्मर (Stormer) ने इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया है : -
(क) किरणसंरचना प्रदर्शित करनेवाली ज्योति - इसके अंतर्गत कॉरोना (कांतिचक्र) किरण और तथाकथित परिच्छद (draparies) हैं।
(ख) किरणसंरचना न प्रदर्शित करनेवाली ज्योति - इसके अंतर्गत समांग चाप (homogeneous arcs), समांग पट्ट (bands) और स्पंदमान (pulsating) पृष्ठ हैं। वेगॉर्ड (Vegord) ने ज्योति को (अ) शांत और (आ) चल रूपों में वर्गीकृत किया है।
अंतरराष्ट्रीय भूपृष्ठ तथा भूभौतिक संघ (International Geodetic and Geophysical Union) द्वारा स्वीकृत प्रतीकों के साथ विविध ज्योतियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है : -
1. समांग चाप एच ए (HA) - इनकी सीमाएँ पर्याप्त स्पष्ट होती हैं। ये आकाश में कुछ दिशाओं में फैले होते हैं और चाप का उच्चतम बिंदु चुंबकीय याम्योत्तर (meridian) पर होता है। दीप्त चाप ऊपरी भाग हरा, मध्य भाग पीला और निचला भाग सामान्यत: लाल होता है।
2. सकिरण चाप आर ए (RA) - इनसे किरणें पहिए के अरों (spokes) के समान अपसृत होती हैं।
3. स्पंदमान चाप पी ए (PA) - ये स्पंदित होकर और दमककर कुछ ही सेकंड में लुप्त हो जाते हैं।
4. किरण आर (R) - ये अकेली या झुंड में बड़ी राशि में प्रकट हो सकती हैं। ये एकमात्र शांत (केवल प्रकट और लुप्त होनेवाली), या तेजी से चलनेवली, हो सकती हैं।
5. परिच्छद डी (D) - ये बहुत लंबी किरणों से बने और पर्दे सदृश होते हैं। कभी कभी किरणें चुंबकीय बलरेखाओं का अनुसरण करती हुई पंखे जैसी दिखाई पड़ती हैं।
6. किरीट या कॉरोना सी (C) - ये अत्यंत उच्च अक्षांशों पर, जहाँ चुंबकीय बलरेखा, भूपृष्ठ पर प्राय: अभिलंब होती हैं, दिखाई पड़ते हैं। प्रेक्षक के चुंबकीय शिरोविंदु के पास ही आकाश के किसी निश्चित विंदु से किरीट किरण की धाराएँ फैलती हैं।
7. समांग पट्ट एच बी (H B) और किरण संरचना पट्ट, आर बी (R B) - ये चाप की दिशा में ही फैलते हैं।
8. स्पंदमान पी एस (P S) या स्पंदहीन डी एस (D S) विसरित दीप्तिमय पृष्ठ - यह अनिश्चित आकार और स्पष्ट सीमाओं का दीप्त मेघ सा दिखाई पड़ता है।
9. दुर्बल दीप्ति जी (G) - यह क्षितिज के निकट चाप के ऊपरी भाग में उषाकाल के समान प्रतीत होती है।
उपर्युक्त वर्णित विविध प्रकार की ज्योतियों में संरचनायुक्त या संरचनाविहीन चाप, पट्ट और परिच्छद ही अधिक सामान्य हैं, जबकि स्पंदमान पृष्ठ और किरणें बहुत कम दिखाई पड़ती हैं।
एल्विडो किसे कहते है ?
एल्विडो किसी सतह पर पड़ने वाली सूर्य ताप की सम्पूर्ण मात्रा तथा उस सतह से अन्तरिक्ष से परावर्तित होने वाली मात्रा के बीच का अनुपात को कहते हैं। एल्विडो को दशमलव अथवा प्रतिशत में प्रकट करते हैं। यह सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए स्थिर नहीं होता बल्कि बादलों की मात्रा में परिवर्तन, हिमवरण तथा वनस्पति आवरण इसको प्रभावित करते हैं।
कुछ विशिष्ट सतहें एवं उनका एल्विडो निम्नलिखित हैं : -
- हिमाच्छादित धरातल - 78.80 प्रतिशत
- घासयुक्त धरातल - 10.33 प्रतिशत
- चट्टान 10-15 प्रतिशत
- मेघों की तरह - 75 प्रतिशत
रंग या वर्ण किसे कहते है ?
वर्ण या रंग होते हैं, आभास बोध nbsp का मानवी गुण धर्म है, जिसमें लाल, हरा, नीला, इत्यादि होते हैं। रंग, मानवी आँखों की वर्णक्रमnbsp से मिलने पर छाया सम्बंधी गतिविधियों से से उत्पन्न होते हैं। रंग की श्रेणियाँ एवं भौतिक विनिर्देश जो हैं, जुड़े होते हैं वस्तु, प्रकाश स्त्रोत, इत्यादि की भौतिक गुणधर्म जैसे प्रकाशअन्तर्लयन, विलयन, समावेशन, परावर्तन या  वर्णक्रम  उत्सर्ग पर निर्भर भी करते हैं। रंग के वैसे तो सिर्फ पांच ही रुप होते हैं जिससे अनेक रंग बनते है। वैसे मूल रंग ३ होते हैं -- लाल, नीला, और पीला। इनमें सफेद और काला भी मूल रंग में अपना योगदान देते है। लाल रंग मे अगर पीला मिला दिया जाये, तो केसरिया रंग बनता है। यदि नीले में पीला मिल जाये, तब हरा बन जाता है। इसी तरह से नीला और लाल मिला दिया जाये, तब जामुनी बन जाता है।
वर्णक्रम किसे कहते है ?
वर्णक्रम या स्पॅकट्रम (spectrum) किसी चीज़ की एक ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें उस चीज़ की विविधताएँ किसी गिनती की श्रेणियों में सीमित न हों बल्कि किसी संतात्यक (कन्टिन्यम) में अनगिनत तरह से विविध हो सके। "स्पॅकट्रम" शब्द का इस्तेमाल सब से पहले दृग्विद्या (ऑप्टिक्स) में किया गया था जहाँ इन्द्रधनुष के रंगों में अनगिनत विविधताएँ देखी गयीं। भौतिकी में किसी वस्तु से उभरने वाले प्रकाश का वर्णक्रम उस प्रकाश में शामिल सारे रंगों का फैलाव होता है। यह देखा गया है के किसी भी तत्व को यदि गरम किया जाए तो वह अनूठे वर्णक्रम से प्रकाश छोड़ता है। इस वर्णक्रम की जांच से पहचाना जा सकता है के या कौन से तत्व से आ रहा है और वह तत्व किस तापमान पर है। इस चीज़ का प्रयोग पृथ्वी से करोड़ों-अरबों प्रकाश-वर्ष तक की दूरी पर स्थितखगोलीय वस्तुओं की बनावट और तापमानों का अनुमान करने के लिए किया जाता है।
जब सूर्य का प्रकाश प्रिज़्म से होकर गुजरता है, तो वह अपवर्तन के पश्चात् प्रिज़्म के आधार की ओर झुकने के साथ-साथ विभिन्न रंगों के प्रकाश में बँट जाता है। इस प्रकार से प्राप्त रंगों के समूह को वर्णक्रम कहते हैं तथा श्वेत प्रकाश का अपने अवयवी रंगों में विभक्त होने की क्रिया को वर्ण विक्षेपण कहते हैं। सूर्य के प्रकाश से प्राप्त रंगों में बैंगनी रंग का विक्षेपण सबसे अधिक एवं लाल रंग का विक्षेपण सबसे कम होता है। न्यूटन ने 1666 ई. में पाया कि भिन्न-भिन्न रंग भिन्न-भिन्न कोणों से विक्षेपित होते हैं। वर्ण-विक्षेपण किसी पारदर्शी पदार्थ में भिन्न-भिन्न रंगों के प्रकाश के भिन्न-भिन्न वेग होने के कारण होता है। अतः किसी पदार्थ का अपवर्तनांक भिन्न-भिन्न होता हैं।
ताप Temperature ताप को तापमान भी कहते हैं। वस्तु की अष्णता और शीतलता के माप को ताप कहते हैं। अर्थात् ताप वस्तु की ऊष्मीय अवस्था का सूचक है। इसी के कारणऊष्मा का स्थानान्तरण होता है। ऊष्मीक ऊर्जा ताप की वस्तु से निम्न ताप की वास्तु में जाती है। पृथ्वी का औसत तापमान सदैव समान रहता है। ग्लोब को तीन तापमान क्षेत्रों में विभाजित किया गया है- उष्णकटिबंधीय क्षेत्र- यह कर्क रेखा व मकर रेखा के मध्य स्थित होता है। वर्षपर्यंत उच्च तापमान रहता है। समशीतोष्ण क्षेत्र- यह दोनों गोलार्द्धों में 230 30' और 660 30' अक्षांशों के मध्य स्थित है। शीत कटिबंध क्षेत्र- दोनों गोलार्द्धों में यह ध्रुवों और 660 30' अक्षांश के मध्य स्थित है। वर्षपर्यंत यहां निम्न तापमान रहता है।
ताप विनिमायक एक माध्यम से अन्य माध्यम में प्रभावी ताप अंतरण के लिए बनाया गया एक उपकरण है। माध्यम एक ठोस दीवार से अलग हो सकता है, ताकि वे कभी आपस में ना मिलें, या वे सीधे संपर्क में हो सकें। इनका उपयोग स्थान तापन, प्रशीतन, एयर कंडीशनिंग, बिजली संयंत्र, रसायन संयंत्र, पेट्रो रसायन संयंत्र, पेट्रोलियम रिफ़ाइनरी औरप्राकृतिक गैस संसाधन में व्यापक रूप से होता है। ताप विनिमायक का एक सामान्य उदाहरण कार का रेडिएटर है, जिसमें ताप स्रोत, एक गर्म इंजन-शीतलन तरल पदार्थ, जल होने की वजह से रेडिएटर (अर्थात् ताप अंतरण माध्यम) के ज़रिए बह रही हवा में ताप अंतरित करता है। ताप विनिमायकों को उनकी प्रवाह व्यवस्था के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। समानांतर-प्रवाह वाले ताप विनिमायकों में, दो तरल पदार्थ एक ही छोर से विनियामक में प्रवेश करते हैं और दूसरे छोर पर एक दूसरे से समानांतर यात्रा करते हैं। प्रतिकूल-प्रवाह ताप विनिमायकों में तरल पदार्थ विपरीत छोर से विनिमायक में प्रवेश करते हैं। प्रतिकूल प्रवाह डिज़ाइन अत्यधिक कार्यक्षम हैं, जोकि ताप (अंतरण) माध्यम से अधिक ताप अंतरित कर सकते हैं। प्रतिकूल प्रवाह विनिमय देखें. तिरछे-प्रवाह ताप विनिमायक में, तरल पदार्थ विनिमय के ज़रिए मोटे तौर पर एक दूसरे से लंबतः यात्रा करते हैं। दक्षता के लिए, ताप विनिमायकों की डिज़ाइन, विनिमायक के माध्यम से तरल पदार्थ के प्रवाह के विरुद्ध प्रतिरोध शक्ति को कम करते हुए, दो तरल पदार्थ के बीच दीवार के क्षेत्रफल को बढ़ाने के लिए तैयार की गई है। विनिमायक का कार्य-निष्पादन एक या दोनों दिशाओं में पंखों या नालियों को जोड़ने से भी प्रभावित हो सकता है, जो क्षेत्रफल को बढ़ाते हैं और तरल प्रवाह की नाली बना सकते हैं या खलबली पैदा कर सकते हैं।
ताप अंतरण सतह के आर-पार तापमान, स्थिति के साथ बदलता रहता है, लेकिन एक उपयुक्त औसत तापमान निरूपित किया जा सकता है। अधिक सरल प्रणालियों में यह लॉग औसत तापमान अंतर (LMTD) है। कभी-कभी LMTD की प्रत्यक्ष जानकारी उपलब्ध नहीं होती और NTU विधि का प्रयोग किया जाता है।
तरंग किसे कहते है ?
तरंग (Wave) का अर्थ होता है - 'लहर'। भौतिकी में तरंग का अभिप्राय अधिक व्यापक होता है जहां यह कई प्रकार के कंपन या दोलन को व्यक्त करता है। इसके अन्तर्गत यांत्रिक, विद्युतचुम्बकीय, ऊष्मीय इत्यादि कई प्रकार की तरंग-गति का अध्ययन किया जाता है। किसी तरंग का गुण उसके इन मानकों द्वारा निर्धारित किया जाता है
- तरंगदैर्घ्य (Wavelength)
- वेग (speed)
- आवृति (frequency)
- आयाम (Amplitude)
यह सिद्ध किया जा सकता है कि -

- v = nl
जहाँ v तरंग का वेग है, n तरंग की आवृत्ति है और l तरंग की तरंगदैर्घ्य (wavelength) है।
- गति की दिशा तथा कम्पन की दिशा के सम्बन्ध के आधार पर
- अनुप्रस्थ तरंग (transverse wave) - इसमें तरंग की गति की दिशा माध्यम के कम्पन की दिशा के लम्बवत होती है।
- अनुदैर्घ्य तरंग (longitudenal wave) - इसमें तरंग की गति की दिशा माध्यम के कम्पन की दिशा के में ही होती है।
- तरंग की प्रकृति के आधार पर
- यांत्रिक तरंगे - जैसे ध्वनि, पराश्रव्य तरंग (ultrasonic waves), पराध्वनिक (supersonic), जल के सतह पर उठने वाली तरंग, आदि
- विद्युतचुम्बकीय तरंग - जैसे प्रकाश, उष्मा एवं एक्स-रे आदि
तरंग दैर्ध्य किसे कहते है ?
Wave Length किसी माध्यम के किसी कण के एक पूरा कम्पन किये जाने पर तरंग जितनी दूरी तय करती है उसे तरंग दैर्ध्य कहते हैं। तरंग दैर्ध्य को λ (लेम्ड़ा) से प्रदर्शित करते हैं। अनुप्रस्थ तरंगों में दो पास-पास के श्रृंगों अथवा गर्तों के बीच की दूरी तथा अनुदैर्ध्य तरंगों में क्रमागत दो संपीडन या विरलन के बीच की दूरी तरंग दैर्ध्य कहलाती हैं।
इसे निम्न सूत्र द्वारा ज्ञात किया जा सकता हैं;-
तुला और मान किसे कहते है ?
तुला या तराजू (balance), द्रव्यमान मापने का उपकरण है। भार की सदृशता का ज्ञान करानेवाले उपकरण को तुला कहते हैं। महत्वपूर्ण व्यापारिक उपकरण के रूप में इसका व्यवहार प्रागैतिहासिक सिंध में ईo पूo तीन सहस्राब्दी के पहले से ही प्रचलित था। प्राचीन तुला के जो भी उदाहरण यहाँ से मिलते हैं उनसे यही ज्ञात होता है कि उस समय तुला का उपयोग कीमती वस्तुओं के तौलने ही में होता था। पलड़े प्राय: दो होते थे, जिनमें तीन छेद बनाकर आज ही की तरह डोरियाँ निकाल कर डंडी से बाध दिए जाते थे। जिस डंडी में पलड़े झुलाए जाते थे वह काँसे की होती थी तथा पलड़े प्राय: ताँबे के होते थे। संभवत: ऋग्वेद की ऋचाओं में तुला शब्द का प्रयोग नहीं है। वाजसनेयी संहिता (३०। १७) में "हिरण्यकार तुला' का निर्देश है। शतपथ ब्राह्मण (११। २। ७। ३३) में भी तुला के प्रसंग हैं। इस ग्रंथ में तुला का "दिव्य प्रमाण' के रूप में भी उल्लेख हैं। वसिष्ठ धर्मसूत्र (११।। २३) में तुला को गृहस्थी का प्रमुख अंग माना गया है। आपस्तंब धर्मसूत्र (२। ६। १९) में डाँड़ी मारना सामाजिक अपराध माना गया है। दीघनिकाय (लक्खण सुत्त) में डाँड़ी मारना "मिथ्या जीव' की कोटि में कहा गया है। अप्रामाणिक तुला को कूट तुला कहते थे। कौटिल्य की व्यवस्था के अनुसार राज्य की ओर से व्यापारियों के तुला और मान की जाँच प्रति चौथे मास होनी चाहिए (अर्थशास्त्र २। १९। ५१)। मनु के अनुसार यह परीक्षण-अवधि छह मास होनी चाहिए (मनुस्मृति ८। ४०३)। याज्ञवल्क्य के मत से डाँड़ी मारना भारी अपराध था जिसके लिये उत्तमसाहस दंड (प्राणदंड) देना चाहिए (२। २४०)।
<math>\lambda = \frac{v_w}{f}</math>
तुला या तराजू (balance), द्रव्यमान मापने का उपकरण है। भार की सदृशता का ज्ञान करानेवाले उपकरण को तुला कहते हैं। महत्वपूर्ण व्यापारिक उपकरण के रूप में इसका व्यवहार प्रागैतिहासिक सिंध में ईo पूo तीन सहस्राब्दी के पहले से ही प्रचलित था। प्राचीन तुला के जो भी उदाहरण यहाँ से मिलते हैं उनसे यही ज्ञात होता है कि उस समय तुला का उपयोग कीमती वस्तुओं के तौलने ही में होता था। पलड़े प्राय: दो होते थे, जिनमें तीन छेद बनाकर आज ही की तरह डोरियाँ निकाल कर डंडी से बाध दिए जाते थे। जिस डंडी में पलड़े झुलाए जाते थे वह काँसे की होती थी तथा पलड़े प्राय: ताँबे के होते थे। संभवत: ऋग्वेद की ऋचाओं में तुला शब्द का प्रयोग नहीं है। वाजसनेयी संहिता (३०। १७) में "हिरण्यकार तुला' का निर्देश है। शतपथ ब्राह्मण (११। २। ७। ३३) में भी तुला के प्रसंग हैं। इस ग्रंथ में तुला का "दिव्य प्रमाण' के रूप में भी उल्लेख हैं। वसिष्ठ धर्मसूत्र (११।। २३) में तुला को गृहस्थी का प्रमुख अंग माना गया है। आपस्तंब धर्मसूत्र (२। ६। १९) में डाँड़ी मारना सामाजिक अपराध माना गया है। दीघनिकाय (लक्खण सुत्त) में डाँड़ी मारना "मिथ्या जीव' की कोटि में कहा गया है। अप्रामाणिक तुला को कूट तुला कहते थे। कौटिल्य की व्यवस्था के अनुसार राज्य की ओर से व्यापारियों के तुला और मान की जाँच प्रति चौथे मास होनी चाहिए (अर्थशास्त्र २। १९। ५१)। मनु के अनुसार यह परीक्षण-अवधि छह मास होनी चाहिए (मनुस्मृति ८। ४०३)। याज्ञवल्क्य के मत से डाँड़ी मारना भारी अपराध था जिसके लिये उत्तमसाहस दंड (प्राणदंड) देना चाहिए (२। २४०)।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में १६ प्रकार की तुलाओं का उल्लेख किया है (२। ३७। १२)। इन षोडश तुलाप्रकारों में दस प्रकार की तुलाएँ ऐसी थीं जिनका उपयोग साधारण भार की वस्तुओं के तौलने में होता था। इन सभी तुलाओं में आज की ही तरह दो पलड़े होते थे। सबसे छोटी तुला छह अंगुल तथा एक पल वजन की होती थी। तदुपरांत अन्य नौ प्रकार की तुलाओं की डंडियों की लंबाई क्रमश: आठ अंगुल और वजन एक एक पल बढ़ता जाता था।
शेष छह प्रकार की तुलाओं का उपयोग भारी वजन की वस्तुओं के तौलने में होता था जिन्हें समावृत्त, परिमाणी, व्यावहारिकी, भाजनी और अंत:पुरभाजनी तुला कहते थे। प्राचीन "मान' अथवा "तुलामान' बटखरों के बोधक हैं। सिंधु घाटी से बहुत से बटखरे प्राप्त हुए हैं। इन बटखरों का आकार और भार पद्धति मेसोपोटामिया और मिस्र से प्राप्त बटखरों से मिलती जुलती है, किंतु इनके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय बटखरों की उत्पत्ति अभारतीय है।
प्रारंभ में बटखरों के आकार चौकोर होते थे किंतु कालांतर में गोल होने लगे। सिंधु घाटी युग में बटखरों के लिये पत्थर राजस्थान से प्राप्त किए जाते थे। कौटिल्य के अनुसार बटखरों के बनाने के लिये लोहे का उपयोग करना चाहिए। पत्थर के मगध या मेकल देश के हों (अर्थशास्त्र २.१९। ११)। छोटे मानों के लिये रक्तिका, गुंजा या मंजीठ का भी उपयोग होता था जिन्हें "तुलबीज' कहते थे।
साभार - Wikipedia,