फ़िल्म अभिनेता सुशील कुमार, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

demo-image

फ़िल्म अभिनेता सुशील कुमार,

Share This
सुशील कुमार ( 4 जुलाई1945कराचीहिन्दी फ़िल्मों के अभिनेता थे। वे साठ के दशक की हिट फ़िल्म 'दोस्ती' में बौसाखी का सहारा लिए अपंग रामनाथ के किरदार में पर्दे पर नज़र आए थे। सुशील कुमार का जन्म 4 जुलाई, 1945 में कराची के एक धनी परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम किशनचंद्र जमनादास सोमाया और माता का नाम तुलसीबाई था। सिंधी होते हुई भी उनकी भाषा, खान-पान और रीति-रिवाज पर कच्छगुजरात की संस्कृति का गहरा असर था। जब सुशील कुमार महज ढाई वर्ष के थे, तब देश का बंटवारा हुआ और उनके परिवार को अपना सब कुछ कराची में छोड़कर भागना पड़ा। वे लोग पहले गुजरात के नवसारी शहर और फिर मुंबई में आकर बस गए। यह समय उनके परिवार के लिए बदहाली का दौर था।
सुशील कुमार ने 'जय हिन्द कॉलेज' से बी.ए. उत्तीर्ण किया और फिर कुछ ही समय बाद उन्हें एयंर इंडिया में नौकरी मिल गई। वर्ष1971 से 2003 तक उन्होंने नौकरी की और फिर रिटायरमेंट ले लिया। नौकरी के दौरान उन्होंने पूरी दुनिया की सैर की। उनकाविवाह 1978 में अपनी बचपन की दोस्त कोशी कोटवाणी से हुआ था। जब सुशील कुमार का परिवार आर्थिक संकट से गुजर रहा था, तब एक दिन कराची के वर्षों पुराने उनके एक पारिवारिक मित्र किशनलाल बजाज उनके घर आए। वह मुल्तान के रहने वाले थे और बंटवारे के बाद उनका पूरा परिवार दिल्ली आकर बस गया था। किशनलाल बजाज मुंबई में रहते थे और फ़िल्मों में छोटे-मोटे रोल करते थे। उन्होंने सुशील की माँ के सामने प्रस्ताव रखा कि 20 प्रतिशत कमीशन के बदले वे उन्हें फ़िल्मों में काम दिलाएंगे, जिसे माँ ने मान लिया। वर्ष 1958 में बनी सिंधी फ़िल्म 'अबाना' बतौर बाल कालकार सुशील की पहली फ़िल्म थी।

फ़िल्में -

  1. 'फिर सुबह होगी' (1958)
  2. 'धूल का फूल' (1959)
  3. 'मैंने जीना सीख लिया' (1959)
  4. 'काला बाज़ार' (1960)
  5. 'श्रीमान सत्यवादी' (1960)
  6. 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' (1960)
  7. 'संजोग' (1961)
  8. 'सम्पूर्ण रामायण' (1961)
  9. 'एक लड़की सात लड़के' (1961)
  10. 'फूल बने अंगारे' (1963)
  11. 'सहेली' (1965)
'राजश्री प्रोडक्शंस' के मालिक ताराचन्द बड़जात्या 1959 में प्रदर्शित हुई बांग्ला फ़िल्म 'लालू-भुलू' का हिन्दी रीमेक बनाना चाहते थे, जिसकी केंद्रीय भूमिकाओं के लिए वे 17-18 वर्ष के दो नए लड़कों की तलाश में थे। उनकी तलाश सुशील कुमार पर जाकर समाप्त हुई। ये फ़िल्म फिट हुई। इसके बाद 1968 में प्रदर्शित फ़िल्म 'तकदीर' में वे नज़र आए। लेकिन वे फ़िल्मों को छोड़ने का मन बना चुके थे। वर्ष 1973 में बनी देवानंद की फ़िल्म 'हीरा-पन्ना' में जरूर जहाज के भीतर के एक सीन में वह नज़र आए थे।
Comment Using!!

Pages

undefined