राज कुमार (Raaj Kumar, 8 अक्तूबर 1926 बलूचिस्तान (अब पाकिस्तान में), 3 जुलाई 1996 मुम्बई) हिन्दी फ़िल्मों में एक भारतीय अभिनेता थे। इनका नाम कुलभूषण पंडित था लेकिन फ़िल्मी दुनिया में ये अपने दूसरे नाम 'राज कुमार' के नाम से प्रसिद्ध हैं। पारम्परिक पारसी थियेटर की संवाद अदाइगी को इन्होंने अपनाया और यही उनकी विशेष पहचान बनी। इनके द्वारा अभिनीत प्रसिद्ध फ़िल्मों में पैग़ाम, वक़्त, नीलकमल, पाकीज़ा, मर्यादा, हीर रांझा, सौदाग़र आदि हैं। राज कुमार का जन्म बलूचिस्तान (अब पाकिस्तान में) प्रांत में 8 अक्तूबर 1926 को एक मध्यम वर्गीय कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद राज कुमार मुम्बई के माहिम पुलिस में बतौर दारोग़ा काम करने लगे। राज कुमार मुम्बई के जिस थाने मे कार्यरत थे वहाँ अक्सर फ़िल्म उद्योग से जुड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था।
अभिनेता के रूप में शुरुआत
एक बार पुलिस स्टेशन में फ़िल्म निर्माता कुछ जरूरी काम के लिए आए हुए थे और वह राज कुमार के बातचीत करने के अंदाज से काफ़ी प्रभावित हुए। उन्होंने राज कुमार को यह सलाह दी कि अगर आप फ़िल्म अभिनेता बनने की ओर क़दम रखे तो उसमें काफ़ी सफल हो सकते है। राज कुमार को फ़िल्म निर्माता की बात काफ़ी अच्छी लगी। इसके कुछ समय बाद राज कुमार ने अपनी नौकरी छोड़ दी और फ़िल्मों में बतौर अभिनेता बनने की ओर अपना रुख़ कर लिया। वर्ष 1952 में प्रदर्शित फ़िल्म रंगीली मे सबसे पहले बतौर अभिनेता राज कुमार को काम करने का मौक़ा मिला। वर्ष 1952 से वर्ष 1957 तक राज कुमार फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फ़िल्म रंगीली के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने 'अनमोल सहारा- 1952, 'अवसर- 1953', 'घमंड- 1955', 'नीलमणि- 1957', 'कृष्ण सुदामा- 1957' जैसी कई फ़िल्मों र्मे अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस पर सफल नहीं हुई। वर्ष 1957 में प्रदर्शित महबूब ख़ान की फ़िल्म मदर इंडिया में राज कुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फ़िल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी फिर भी राज कुमार अपनी छोटी सी भूमिका में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फ़िल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति भी मिली और फ़िल्म की सफलता के बाद राज कुमार बतौर अभिनेता फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए।
- वर्ष 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म 'पैग़ाम' में उनके सामने हिन्दी फ़िल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन राज कुमार ने यहाँ भी अपनी सशक्त भूमिका के ज़रिये दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद राज कुमार 'दिल अपना और प्रीत पराई-1960', 'घराना- 1961', 'गोदान- 1963', 'दिल एक मंदिर- 1964', 'दूज का चांद- 1964' जैसी फ़िल्मों में मिली कामयाबी के ज़रिये राज कुमार दर्शको के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुँच गये जहाँ वह फ़िल्म में अपनी भूमिका स्वयं चुन सकते थे। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फ़िल्म काजल की जबर्दस्त कामयाबी के बाद राज कुमार बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बना ली। वर्ष 1965 बी.आर.चोपड़ा की फ़िल्म वक़्त में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से अपनी ओर दर्शक का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे। फ़िल्म वक़्त में राज कुमार का बोला गया एक संवाद "चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के बने होते है वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते या फिर चिनाय सेठ ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज़ नहीं हाथ कट जाये तो ख़ून निकल आता है" दर्शकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुआ। फ़िल्म वक़्त की कामयाबी से राज कुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुँचे। ऐसी स्थिति जब किसी अभिनेता के सामने आती है तो वह मनमानी करने लगता है और ख्याति छा जाने की उसकी प्रवृति बढ़ती जाती है और जल्द ही वह किसी ख़ास इमेज में भी बंध जाता है। लेकिन राज कुमार कभी भी किसी ख़ास इमेज में नहीं बंधे इसलिये अपनी इन फ़िल्मो की कामयाबी के बाद भी उन्होंने 'हमराज़- 1967', 'नीलकमल- 1968', 'मेरे हूजूर- 1968', 'हीर रांझा- 1970' और 'पाकीज़ा- 1971' में रूमानी भूमिका भी स्वीकार की जो उनके फ़िल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थी इसके बावजूद भी राज कुमार यहाँ दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे।
- 1966 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - वक्त
- 1964 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार - दिल एक मन्दिर
प्रमुख फिल्में
वर्ष | फ़िल्म | चरित्र | टिप्पणी |
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1995 | ग़ॉड एंड गन | साहेब बहादुर राठौर | |
1995 | जवाब | ||
1994 | बेताज बादशाह | राजा पृथ्वीराज | |
1993 | इंसानियत के देवता | ||
1992 | पुलिस और मुज़रिम | ||
1991 | सौदागर | ||
1990 | पुलिस पब्लिक | ||
1989 | सूर्या | ||
1989 | देश के दुश्मन | ||
1989 | जंगबाज़ | ||
1989 | गलियों का बादशाह | ||
1988 | मोहब्बत के दुश्मन | ||
1988 | साजिश | ||
1988 | महावीरा | ||
1987 | इतिहास | ||
1987 | मरते दम तक | ||
1987 | मुकद्दर का फैसला | पंडित कृष्णकांत | |
1984 | एक नई पहेली | ||
1984 | शरारा | ||
1984 | राज तिलक | ||
1982 | धर्म काँटा | ठाकुर भवानी सिंह | |
1981 | कुदरत | ||
1980 | चम्बल की कसम | ||
1980 | बुलन्दी | ||
1978 | कर्मयोगी | ||
1976 | एक से बढ़कर एक | शंकर | |
1974 | 36 घंटे | अशोक राय | |
1973 | हिन्दुस्तान की कसम | ||
1971 | लाल पत्थर | ||
1971 | पाकीज़ा | सलीम अहमद ख़ान | |
1968 | मेरे हुज़ूर | नवाब सलीम | |
1968 | नीलकमल | ||
1967 | नई रोशनी | ज्योति कुमार | |
1967 | हमराज़ | कप्तान राजेश | |
1965 | वक्त | राजू/राजा | |
1965 | ऊँचे लोग | श्रीकाँत | |
1965 | काजल | मोती | |
1964 | दूज का चाँद | ||
1963 | आज और कल | ||
1963 | दिल एक मन्दिर | राम | |
1961 | घराना | ||
1960 | दिल अपना और प्रीत पराई | ||
1960 | काला बाज़ार | ||
1959 | अर्द्धांगिनी | प्रकाश | |
1959 | पैग़ाम | राम लालबहादुर | |
1958 | पंचायत | ||
1957 | मदर इण्डिया | ||
1957 | Krishna Sudama | ||
1957 | Nausherwan-E-Adil | ||
1957 | Neel Mani | ||
1955 | Ghamand | ||
1953 | Aabshar | ||
1952 | Amnol Sahara | ||
1952 | Rangili |
नब्बे के दशक में राज कुमार ने फ़िल्मों मे काम करना काफ़ी कम कर दिया। इस दौरान राज कुमार की 'तिरंगा- 1992', 'पुलिस और मुजरिम इंसानियत के देवता- 1993', 'बेताज बादशाह- 1994', 'जवाब- 1995', 'गॉड और गन' जैसी फ़िल्में प्रदर्शित हुई। नितांत अकेले रहने वाले राज कुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफ़ी क़रीब है इसीलिए अपने पुत्र पुरू राज कुमार को उन्होंने अपने पास बुला लिया और कहा, "देखो मौत और ज़िंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फ़िल्म उद्योग को सूचित करना।