द्वितीय बर्मी युद्ध (सन् 1852) और तृतीय वर्मी युद्ध (सन् 1885), - Study Search Point

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द्वितीय बर्मी युद्ध (सन् 1852) और तृतीय वर्मी युद्ध (सन् 1885),

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द्वितीय बर्मी युद्ध (सन् 1852)

यांदाधू की सधि की शर्तों का पालन होने के कारण 1840 में अंग्रेजों को बर्मा से अपनी रेजिडेंसी हटा लेनी पड़ी। उनके व्यापार में भी यथेष्ट वृद्धि न हो सकी। इस पर रंगून के असंतुष्ट अंग्रेज व्यापारियों ने लार्ड डलहौजी के पास बर्मी सरकार के विरुद्ध अतिरंजित शिकायतें भेजीं। डलहौजी ने इन्हें सच मानकर समुद्री सैनिक अफसर लैबर्ट को रंगून भेजा। उसने अपने अभिमान और हठ से समस्या को सुलझाने की अपेक्षा अधिक पेचीदा बना दिया। बर्मी गवर्नर के व्यवहार से असंतुष्ट होकर उसने बंदरगाह पर गोलाबारी कर दी और कलकत्ते वापस आकर डलहौजी को युद्ध करने की सलाह दी। पीगू प्रांत तथा रंगून के बंदरगाह पर अंग्रेजों की दृष्टि पहले से ही थी। इसलिए गवर्नर जनरल ने अल्टिमेटम देकर बिना युद्ध की घोषणा किए ही 1852 में युद्ध छेड़ दिया और बिना संधि किए केवल एक घोषणा द्वारा धमकी देकर बर्मा के सबसे अधिक समृद्धिशाली प्रांत पीगू को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। यह द्वितीय बर्मा युद्ध अनुचित और अन्यायपूर्ण था। इससे बर्मा एक स्थलीय राज्य रह गया। उसके वैदेशिक संबंध अंग्रेजों की इच्छा पर अवलंबित हो गए। आंतरिक क्रांति द्वारा पैगन को हटाकर मिंडन सम्राट् बना।

तृतीय वर्मी युद्ध (सन् 1885)

तृतीय बर्मी युद्ध 38 वर्ष के बाद 1885 ई. में हुआ। उस समय थिबा ऊपरी बर्मा का शासक राजा था और मांडले उसकी राजधानी थी। लार्ड डफ़रिन भारत का गवर्नर-जनरल था। बर्मी शासक ज़बर्दस्ती दक्षिणी बर्मा छीन लिये जाने से कुपित था और मांडले स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट तथा अधिकारियों को उन मध्ययुगीन शिष्टाचारों को पूरा करने में झुँझलाहट होती थी जो उन्हें थिबासे मुलाक़ात के समय करनी पड़ती थीं। 1852 ई. की पराजय से पूरी तरह चिढ़े हुए थिबा ने फ़्राँसीसियों का समर्थन और सहयोग प्राप्त करने का प्रयास शुरू कर दिया। 38 वर्ष बाद सन् 1885 में लार्ड डफरिन के शासनकाल में तृतीय बर्मी युद्ध हुआ। इसके उद्देश्य थे -
  1. उत्तरी बर्मा पर बढ़ते हुए फ्रांसीसी प्रभाव को हटाना,
  2.  सारे बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाकर दक्षिण चीन से संपर्क स्थापित करना तथा
  3. बर्मा के व्यापार और तेल पर अधिकार करना।
बांबे-बर्मा ट्रेडिंग कारपोरेशन की समस्याओं को सुलझाने के बहाने युद्ध छेड़ दिया गया। सम्राट् थीबो को बंदी बनाकर अंग्रेजों ने स्वतंत्र बर्मा का अस्तित्व मिटा दिया। विजित प्रदेशों को नियंत्रण में लाने में पाँच वर्ष लगे। इस प्रकार बर्मा भारत का एक प्रांत बन गया।
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