आदिकालीन प्रमुख कवि धोयी बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन (1179-1205 ई.) के दरबार का कवि था। उसने महाकवि कालिदास के 'मेघदूत' के अनुकरण पर 'पवनदूत' काव्य की रचना की थी, जिसमें राजकुमार लक्ष्मणसेन के अभियान का वर्णन है।
आदिकालीन प्रमुख कवि सिद्ध सरहपा
सिद्ध सरहपा आठवीं शती के दौरान हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा ज़िले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्र्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चौरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है।
आदिकालीन प्रमुख कवि सिद्ध सरहपा
सिद्ध सरहपा आठवीं शती के दौरान हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा ज़िले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्र्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चौरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है।
तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ संगृहीत हैं। इनमें से 16 कृतियाँ अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं :
- दोहा कोश-गीति
- दोहाकोश नाम चर्यागीति
- दोहाकोशोपदेश गीति
- दोहा नाम
- दोहाटिप्पण
- कायकोशामृतवज्रगीति
- वाक्कोशरुचिरस्वरवज्रगीति
- चित्तकोशाजवज्रगीति
- कायवाक्चित्तामनसिकार
- दोहाकोश महामुद्रोपदेश
- द्वादशोपदेशगाथा
- स्वाधिष्ठानक्रम
- तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीतिका
- भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति
- वसंत- तिलकदोहाकोशगीतिका तथा
- महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति।
उक्त कृतियों में सर्वाधिक प्रसिद्धि दोहाकोश को ही मिली है। अन्य पाँच कृतियाँ उनकी संस्कृत रचनाएँ हैं-
- बुद्धकपालतंत्रपंजिका
- बुद्धकपालसाधन
- बुद्धकपालमंडलविधि
- त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन एवं
- त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन।
राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सरह की प्रारंभिक रचनाएँ माना है, जिनमें से चौथी कृति के दो और अंशों के भिन्न अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवाद स्तन्-ग्युर में शामिल हैं, जिन्हें स्वतंत्र कृतियाँ मानकर राहुल जी सरह की सात संस्कृत कृतियों का उल्लेख करते हैं।
आदिकालीन प्रमुख कवि जगनिक
जगनिक कालिंजर के चन्देल राजा परमार्दिदेव (परमाल(1165-1203 ई.) के आश्रयी कवि (भाट) थे। इन्होने परमाल के सामंत और सहायक महोबा के आल्हा-ऊदल को नायक मानकर आल्हखण्ड नामक ग्रंथ की रचना की जिसे लोक में 'आल्हा' नाम से प्रसिध्दि मिली। इसे जनता ने इतना अपनाया और उत्तर भारत में इसका इतना प्रचार हुआ कि धीरे-धीरे मूल काव्य संभवत: लुप्त हो गया। विभिन्न बोलियों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप मिलते हैं। अनुमान है कि मूलग्रंथ बहुत बडा रहा होगा। 1865 ई. में फर्रूखाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने 'आल्ह खण्ड' नाम से इसका संग्रह कराया जिसमें कन्नौजी भाषा की बहुलता है। आल्ह खण्ड जन समूह की निधि है। रचना काल से लेकर आज तक इसने भारतीयों के हृदय में साहस और त्याग का मंत्र फूँका है। राजा परमाल के सामन्त और सहयोगी महोबा के प्रसिद्ध वीर आल्हा-ऊदल को नायक मानकर जगनिक ने 'आल्हाखण्ड' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। जगनिक द्वारा रचित 'आल्हाखण्ड' को 'आल्हा' नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हुई। जनता ने 'आल्हा' को बहुत पसंद किया और इसे अपनाया। उत्तर भारत में इसका इतना प्रचार हुआ कि धीरे-धीरे मूल काव्य ही संभवत: लुप्त हो गया। विभिन्न बोलियों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप मिलते हैं। अनुमान है कि मूल ग्रंथ बहुत बड़ा रहा होगा। वर्ष 1865 ई. में फ़र्रुख़ाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने 'आल्ह खण्ड' नाम से इसका संग्रह कराया, जिसमें कन्नौजी भाषा की बहुलता थी। 'आल्ह खण्ड' जन समूह की निधि है। रचना काल से लेकर आज तक इसने भारतीयों के हृदय में साहस और त्याग का मंत्र फूँका है।
आदिकालीन प्रमुख कवि नरपति नाल्ह
नरपति नाल्ह पुरानी पश्चमी राजस्थानी की सुप्रसिद्ध रचना "वीसलदेव रासो" के कवि हैं। इस रचना में उन्होंने स्वयं को कहीं "नरपति" लिखा है और कहीं "नाल्ह"। सम्भव है कि नरपति उनकी उपाधि रही हो और "नाल्ह" उनका नाम हो। उनके जीवन से जुड़ी अधिकांश बातें जैसे कि उनका समय कब का है और वे कहाँ के निवासी थे, आदि अज्ञात हैं। "बीसलदेव रासो" की रचना चौदहवीं शती विक्रमीय की मानी जाती है। इसलिए नरपति नाल्ह का समय भी इसी के आस-पास का माना जा सकता है। नरपति नाल्ह राजस्थान के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। वे पुरानी पश्चिमी राजस्थानी भाषा की सुप्रसिद्ध रचना 'बीसलदेव रासो' के रचयिता कवि थे।
अपनी रचना 'बीसलदेव रासो' में नरपति नाल्ह ने स्वयं को कहीं पर 'नरपति' लिखा है तो कहीं 'नाल्ह'। ऐसा सम्भव हो सकता है कि 'नरपति' उनकी उपाधि रही हो और 'नाल्ह' उनका नाम हो। नरपति नाल्ह के जीवन से जुड़ी अधिकांश बातें, जैसे- कि उनका समय कब का है और वे कहाँ के निवासी थे, आदि अज्ञात हैं। 'बीसलदेव रासो' की रचना चौदहवीं शती विक्रमी की मानी जाती है। इसलिए नरपति नाल्ह का समय भी इसी के आस-पास का माना जा सकता है। नरपति नाल्ह को डिंगल का प्रसिद्ध कवि माना जाता है।
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