पूर्वी भारत में सभ्यता का प्रसार., - Study Search Point

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पूर्वी भारत में सभ्यता का प्रसार.,

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सभ्यता के लक्षण -
किसी भी क्षेत्र को तभी सभ्य माना जा सकता है, जब वहां लिखने की कला ज्ञात हो, कर संग्रह और सुव्यवस्था बनाए रखने की प्रणाली हो, धार्मिक प्रशासनिक और उत्पादनात्मक कार्यों के संपादन के लिए सामाजिक वर्ग और विशेषज्ञ हो।
 चौथी से सातवीं सदी तक के काल की विशेषता है, मध्य प्रदेश, उड़ीसा पूर्वी, और दक्षिण पूर्वी बंगाल तथा असम में उन्नत कृषि व्यवस्था का प्रसार, राजतंत्र का गठन और सामाजिक वर्गों की स्थापना।
 चौथी सदी के मध्य तथा उक्त स्थानों से कोई लिखित दस्तावेज नहीं के बराबर मिलता है।

ओडिसा और पूर्वी दक्षिणी मध्य प्रदेश-
 महानदी के दक्षिण में स्थित कलिंग देश (ओडिसा) अशोक के काल में सहसा उत्कर्ष के पर चढ़ गया, लेकिन यहां किसी सुदृढ़ राज्य की स्थापना बहुत समय तक ईसा पूर्व पहली सदी में आकर हुई, और इसका राजा खारवेल बढ़ते बढ़ते मगध तक आ गया।
 खारवेल की राजधानी कलिंग नगरी के स्थल पर शिशुपाल गढ़ में खुदाई पर मिले रोमन वस्तुओं से इनके रोमन व्यापारिक संबंधों को दर्शाते हैं।
 चौथी सदी में समुद्रगुप्त द्वारा विजित प्रदेशों की सूची में कौशल और महाकांतार आए है, इन दोनों के अंतर्गत उत्तरी और पश्चिमी उड़ीसा के भाग आते हैं।
 चौथी सदी के मध्य उड़ीसा में कई राज्य स्थापित हुए जिनमें हम पांच राज्यों को स्पष्ट देख पाते हैं।
इन पांचों में सबसे महत्वपूर्ण माठर वंश का राज्य है, इसे पित्रभक्त वंश भी कहा जाता है।
 जब माठर की सत्ता अपनी चोटी के समय पर थी, तब महानदी तथा कृष्णा नदी के बीच इनका राज्य फैला था। वशिष्ठ, नल तथा मान वंश के राज्य इसके पड़ोसी और समकालीन थे।
 वशिष्ठ वंश का राज्य दक्षिण कलिंग में आंध्र की सीमाओं पर था।
 नल वंश का राज्य महाकांतार के वन्य प्रदेशों में स्थित था, और मान वंश का राज्य महानदी के पार उत्तर के समुद्र तटवर्ती क्षेत्रों में था।
 नल वंश और मान राजवंशों ने संभवतः सिक्के भी ढालें।
 मध्यप्रदेश के बस्तर के जनजातीय इलाके में जो नल वंश की स्वर्ण मुद्राएं मिलती है वह महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं, जो यहां अर्थव्यवस्था के विकसित होने का प्रमाण देती हैं।
 माठरों ने महेंद्र पर्वत के क्षेत्र में महेंद्रभोग नाम का एक नया जिला बनाया, इसमें एक दंत्ययवागुभोग नाम का जिला था, जहां से इसके प्रशासकों को हाथी दांत और चावल का मांड प्राप्त होता, जो इलाके का पिछड़ापन दर्शाता है।
 माठरों ने एक प्रकार के न्यास स्थापित किए जो अग्रहार कहलाते थे, इस न्यास में कुछ भूमि होती थी, और गांव से होने वाली आय को ये न्यास पठन-पाठन तथा धार्मिक अनुष्ठानों पर लगे लोगों का भरण-पोषण करने के लिए उपयोग में लाते थे।
 उड़ीसा के समुद्र तटवर्ती भाग में लेखन कला ईसा पूर्व के तीसरी सदी से ज्ञात थी, ईसा की चौथी सदी तक के अभिलेख प्राकृत भाषा में मिलते हैं, परंतु 350 ईसवी के आसपास से संस्कृत का प्रयोग शुरू हुआ।
 संस्कृत के शासन पत्रों (चार्टरों) में पुराणों और धर्मशास्त्रों के वचन उद्धृत किए गए, इससे गंगा के मैदान की संस्कृति के प्रति लोगों के लगाओ पर जोर दिया गया।
 प्रयाग गंगा-यमुना संगम पर स्नान शुभ माना गया, तथा विजयी राजा यहां स्नान करते थे।
बंगाल और असम -
 उत्तरी बंगाल (बोगरा जिला) में अशोक काल में लेखन कला प्रचलित थी, इस इलाके के लोग प्राकृत भाषा जानते थे, और बौद्ध धर्म के अनुयाई थे।
 इसी तरह दक्षिण पूर्वी बंगाल के समुद्र तटवर्ती नोवाखाली जिले में मिले अभिलेखों से प्रकट होता है, कि ईसा पूर्व दूसरी सदी में यहां के लोग प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि जानते थे, लगता है कि दक्षिण-पूर्व बंगाल में खरोष्ठी लिपि भी प्रचलित थी।
 लगभग चौथी सदी में महाराज उपाधिधारक एक राजा बांकुरा जिले के दामोदर तटवर्ती पोखरना में राज करता था, वह संस्कृत भाषा जानता था तथा विष्णु उपासक था।
 सन् 550 ईसवी के बाद गुप्त राजाओं के गवर्नर स्वतंत्र हो गए और उन्होंने उत्तर बंगाल पर कब्जा कर लिया, कुछ भागों को कामरूप के राजाओं ने हथिया लिया।
 सन 600 ईसवी में आकर यह प्रदेश गौड़ कहलाने लगा, और यहां हर्ष के शत्रु शशांक ने अपना स्वतंत्र राज्य को स्थापित किया।
 सन 432 ई.-433 ईस्वी से लेकर लगभग 100 वर्षों तक हमें पुंड्रवर्धनभुक्ति में जो लगभग समूचे उत्तरी बंगाल में स्थित था, जिसके अब अधिकतर भाग बांग्लादेश में शामिल है, बड़ी संख्या में ताम्रपत्र मिलते हैं। जिन पर भूमि के विक्रय और अनुदान अभिलिखित हैं।
 अधिकतर अनुदानों से ज्ञात होता है, कि भूमि का मूल्य दिनार नामक स्वर्ण मुद्राओं में चुकाया जाता था।
इन भूमि हस्तांतरण अभिलेखों से न केवल विभिन्न सामाजिक समूहों और स्थानीय अधिकारियों के बारे में अपितु कृषि के विस्तार के बारे में भी महत्वपूर्ण बातें मालूम होती हैं।
 बंगाल का ब्रह्मपुत्र द्वारा गठित त्रिभुजाकार भाग संमतट कहलाता था, जिसे चौथी सदी में समुद्रगुप्त ने जीता था। दक्षिण पूर्व बंगाल इसी में पड़ता है, यहां न तो संस्कृत भाषा का प्रयोग पाते हैं और न ही वर्ण व्यवस्था का प्रचलन। शायद यहां के शासक ब्राह्मण धर्मावलंबी नहीं हुए होंगे।
 लगभग 525 ईसवी से यह प्रदेश सुसंगठित राज्य रहा, इसकी पश्चिमी सीमा से सटा वंश का भाग भी शामिल था, जो समतट राज्य या वंग कहलाता था।
 सम हरदेव सहित इसके शासकों ने छठी सदी के उत्तरार्ध में स्वर्णमुद्राएं जारी की, सातवीं सदी में ढाका क्षेत्र में खड़ग वंश का राज्य पाते हैं, यही दो अन्य राज्य भी पाते हैं।
 एक राज्य लोकनाथ नामक ब्राह्मण सामंत का, और दूसरा राज्य राट वंश का। दोनों राज्य कुम्मिला क्षेत्र में पडते थे।
 बंगाल और उड़ीसा के बीच वाले सीमांत क्षेत्रों में दंडभुक्ति नाम की राजस्व और प्रशासन संबंधी इकाइयां बनाई गई थी, दंड का अर्थ है सजा और मुक्ति का अर्थ है भोग।
 लगता है दंडभुक्ति इकाई जनजाति वासिंदों को सुधारने और सजा देने के उद्देश्य से लाई गई थी। दक्षिण-पूर्वी बंगाल में फरीदपुर क्षेत्र में पांच किता जमीन एक बौद्ध विहार को दी गई जो परती थी।
 पांचवी सदी के मध्य से दो सदियां बड़ी ही गतिशील मालूम होती हैं, धार्मिक न्यासों की संख्या इतनी बढ़ गई कि अंततोगत्वा उनकी देखभाल के लिए एक अधिकारी अग्रहारिक नियुक्त करना पड़ा।
 ब्रह्मपुत्र मैदान में पूर्व से पश्चिम तक फैले कामरूप सातवीं सदी में उभर कर आगे आया। गुवाहाटी के निकट बस्तियां इसवी सन की चौथी सदी में बस चुकी थी इस सदी में समुद्रगुप्त ने डवाक एवं कामरूप से कर वसूला
 गुवाहाटी के पास अंबारी में हुए उत्खनन से प्रकट होता है, कि वहां छठी और सातवीं सदी में बस्तियां अच्छी तरह विकसित हो चुकी थी।
 कामरूप के राजाओं ने वर्मन उपाधि धारण की थी, जिसका अर्थ कवच या जिरह बख्तर और जो योद्धा होने का प्रतीक है, यह उपाधि बंगाल, उड़ीसा, आंध्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में भी फैली।
 सातवीं सदी में भास्करवर्मन ऐसे राज्य के प्रधान के रूप में खड़ा हुआ जिसका नियंत्रण ब्रह्मपुत्र मैदान के बड़े भाग पर था, चीनी यात्री हुआन सांग इस राज्य में घूमा था।
 चौथी सदी से सातवीं सदी तक के काल को रचनात्मक काल कहते हैं, गुप्तकाल साम्राज्य से होने वाले सांस्कृतिक संपर्कों से पूर्वांचल में सभ्यता के प्रसार को बल मिला।
 पहली बार हम इस अंचल में पांचवीं और छठी सदियों में स्पष्ट रूप से बड़े पैमाने पर लेखन संस्कृत भाषा का प्रयोग वर्ण भेद मूलक समाज का गठन तथा बौद्ध धर्म का प्रचलन पाते हैं, हम शैव और वैष्णव संप्रदाय के रूप में ब्राह्मण धर्म की प्रगति देखते हैं।
 कालिदास ने वंग में होने वाली धान के बिचड़ों की रोपाई का वर्णन किया है, उत्तर बंगाल में ऊंची किस्म की ईख भी उगाई जाती थी।
 एक ओर गुप्त साम्राज्य का पतन हुआ तो दूसरी ओर उसी समय बाहरी प्रांतों के क्षेत्रों में उल्लेखनीय प्रगति हुई, बंगाल के सामंतों ने नए नए राज्य स्थापित किए, जो हाथी, घोड़े, नाव और भारी मात्रा में अपने सैन्य शिविरों को रखने लगे।
 इस क्षेत्र में पहली बार पांचवी से छठी सदी में स्पष्ट रूप से लेखन संस्कृत भाषा और वर्ण भेद मूलक समाज का गठन बौद्ध धर्म का प्रचलन पाते हैं।

अगले अंक में पढ़ें : हर्ष तथा वर्धनवंश का शासनकाल।

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