गुप्त काल में जीवन एवं प्रशासन पद्धति., - Study Search Point

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गुप्त काल में जीवन एवं प्रशासन पद्धति.,

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जीवन एवं प्रशासन पद्धति -
मौर्य राजाओं के विपरीत गुप्त राजाओं ने परमेश्वर महाराजाधिराज परम भट्ठारक आदि आडंबर पूर्ण उपाधियों धारण की।
 राजपद वंशगत था, परंतु राजसत्ता जेष्ठाधिकार की अटल प्रथा के अभाव में सीमित थी।
राजा को रक्षक और पालन करने वाले भगवान भगवान विष्णु के रूप में देखा जाने लगा। राजसत्ता की देवी लक्ष्मी विष्णु की पत्नी के रूप में सिक्कों की पीठ पर सदा अंकित होती रही
 राजा स्थाई सेना रखता था और अश्वचालित रथों में कमी आई, तथा घुड़सवारों की महत्वता बढ़ गई थी।
 गुप्त काल में भूमि संबंधी करो की संख्या बढ़ गई, परंतु वाणिज्य करो की संख्या में कमी आई संभवतः राज्य उपज का चौथे भाग से लेकर छठे भाग तक कर के रूप में लेता था।
 मध्य एवं पश्चिम भारत में ग्रामवासियों से सरकारी सेना और अधिकारियों की सेवा के लिए बेगार भी कराया जाता था, जो विष्टि कहलाता था।
 गुप्त काल में न्याय पद्धति अधिक विकसित थी, पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून भली-भांति परिभाषित और पृथक किए गए।
 चोरी और व्यभिचारी मामले फौजदारी के तहत, आय और संपत्ति संबंधी विविध विवाद दीवानी कानून में शामिल किए गए।
 राजा न्याय निर्णय ब्राह्मण पुरोहित की सहायता से करता था, शिल्पी, वणिक आदि के संगठनों पर उनके अपने ही कानून लागू होते थे
 गुप्त काल के साम्राज्य में सबसे बड़े अधिकारी कुमारामात्य होते थे, जिन्हें राजा उनके अपने प्रांत में ही नियुक्त करता था, शायद वे नगद वेतन पाते थे।
 गुप्तों के प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति केवल उच्च वर्ण तक सीमित नहीं थी परंतु एक ही व्यक्ति को अनेक पदों पर नियुक्त किया जाता था।
 गुप्त राजाओं ने प्रांतीय और स्थानीय शासन की पद्धतियां चलाई, राज्य कई भुक्तियों अर्थात प्रांतों में विभक्त था, और हर भुक्ति एक उपरिक के प्रभार में रहता था।
 भुक्तियों को कई विषयों अर्थात जिलों में विभाजित थीहर विषय का प्रभारी विपति होता था।
 पूर्वी भारत में प्रत्येक विषय को विथियों में बांटा था, और विथियां ग्रामों में विभाजित थी, वैशाली से प्राप्त शीलों से प्रकट होता है कि शिल्पी, वणिक और लिपिक एक ही संस्था में काम करते थे।
 उत्तरी बंगाल (बांग्लादेश) के कोटिवर्ष विषय की प्रशासनिक परिषद में मुख्य वणिक, मुख्य व्यापारी और मुख्य शिल्पी शामिल थे, भूमि के अनुदान या खरीद बिक्री में उनकी सहमति आवश्यक समझी जाती थी।
 प्रतीत होता है कि वणिकों की श्रेणियों को कई खास छूट की सुविधा दी गई थी, यह शासन पद्धति उत्तरी बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में ही लागू थी।
 प्रशासन के अधिकतर भाग सामंतों तथा मंडलेश्वरों के हाथों में थे, जिसमें से अनेक समुद्रगुप्त ने अपने अधीन रखें थे।
 गरुण छाप वाली राजकीय मुद्रा जिन शासन पत्रों पर है वह सामंतों के द्वारा जारी किए गए प्रतीत होते हैं, गुप्त काल में पुरोहितों एवं शासकों के क्षेत्र विशेष ग्राम अनुदान के द्वारा कर ग्रहण और शासन करने की रियायत दी जाती थी, जिससे सामंत तंत्र को बल मिला।
 भूमि अनुदान प्रथा दक्कन में सातवाहनों ने आरंभ की। मौर्य साम्राज्य की भांति गुप्त राज्य बड़े पैमाने पर आर्थिक कार्यकलापों में संलग्न नहीं था।
व्यापार और कृषि मूलक समाज -
 गुप्त कालीन आर्थिक जीवन की कुछ झलक हमें चीनी यात्री फाह्यान से मिलती है, वह बताता है कि मगध नगरों और धनवानों से भरा-पूरा था।
 प्राचीन भारत के गुप्त राजाओं ने सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं जारी की जो उनके अभिलेखों में दिनार कही गई हैं।
 मुद्राओं पर गुप्त राजाओं के चित्र अंकित हैं जिनसे उनकी युद्ध प्रियता और कला प्रियता का संकेत मिलता है, लेकिन यह स्वर्ण मुद्राएं उतनी शुद्ध नहीं जितनी कुषाण काल की स्वर्ण मुद्राएं थी।
 गुजरात विजय के बाद गुप्त ने बड़ी संख्या में चांदी के सिक्के भी जारी किए, जो केवल स्थानीय लेनदेन में प्रचलित रहे थे।
 पूर्व काल की तुलना में दूर व्यापार में कमी दिखाई देती हैसन 550 ईसवी तक भारत पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ कुछ-कुछ व्यापार करता रहा।
 सन 550 ईसवी के है आसपास पूर्वी रोमन साम्राज्य के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली इससे भारत से आयात निर्यात पर बुरा असर पड़ा।
 गुप्त काल में विशेषत मध्यप्रदेश में एक उल्लेखनीय बात हुई, जो ब्राह्मणों पुरोहितों का भूस्वामी के रूप में उदय होना था, यह किसानों के हितों के विपरीत था।
 ब्राह्मणों ने बहुत से विशेषाधिकार अर्जित किए जो लगभग पांचवी सदी में रचित नारद स्मृति में गिनाए गए हैं।
हूंण लोग पांचवी सदी के अंत होते-होते भारत आए और अंततः राजपूतों के 36 कुलों में से एक कुल के मान लिए गए।
 ग्राम अनुदान प्रक्रिया के चलते जनजातीय सरदार लोग उच्च कुल के माने गए, किंतु उनके सामान्य स्वजनों को नीचे कुल का ही माना गया।
 इस काल में शूद्रों की स्थिति सुधरी, अब शूद्रों को रामायण महाभारत और पुराण सुनने का अधिकार दिया गया वह अब कृष्ण नामक नए देवता की पूजा भी कर सकते थे।
 शूद्रों को इसी काल में कुछ ग्रह संस्कारों या घरेलू अनुष्ठानों का भी अधिकार मिला, परिणामतः सातवीं सदी में इनकी पहचान मुख्यतः कृषक के रूप में होने लगी।
वहीं इस काल में अछूतों की संख्या में वृद्धि हुई विशेषकर चांडालों की संख्या में, चांडाल समाज में बहुत ही पहले ईसा पूर्व पांचवी सदी से ही दिखाई देते हैं।
 पति के मरने पर उनकी पत्नी का पति की चिता में आत्मदाह करने का पहला अभिलेखीय उदाहरण गुप्त काल में ही सन 510 ईसवी में मिलता है।
 उच्च वर्ण की स्त्रियों का पराधीनता का मुख्य कारण यह था कि वह अपने जीवन निर्वाह के लिए पतियों पर आश्रित रहती थी।
 गुप्त काल में बौद्ध धर्म को राज्यश्रय मिलना समाप्त हो गया, फाह्यान के अनुसार बौद्ध धर्म बहुत समुन्नत स्थिति में था, नालंदा बौद्ध शिक्षा का केंद्र बन गया।
 भगवत या विष्णु की पूजा भागवत धर्म का केंद्र बिंदु बना गया, इसका उद्भव मौर्योत्तर काल में हुआ।
 वैदिक काल में विष्णु गौड़ देवता थे, वह सूर्य का प्रतिरूप और उर्वरता पंथ के देवता भी थे। दूसरी सदी ईसा पूर्व में आकर विष्णु नारायण नामक देवता से अभिन्न हो गया और नारायण विष्णु कहलाने लगे।
 नारायण मूलतः अवैदिक जनजातीय देवता थे, जो भगवत कहलाते थे, और उसके उपासक भागवत कहलाते, यह देवता जनजातीय सरदार का दिव्य प्रतिरूप माने जाते थे। आगे चलकर विष्णु पश्चिमी भारत के निवासियों वृष्टि-कुल के एक पौराणिक महापुरुष से हो गए, जो कृष्ण वासुदेव कहलाए।
 भागवत संप्रदाय के मुख्य तत्व भक्ति तथा अहिंसा है, 200 ईशा पूर्व आते-आते उपासक की ये तीनों धाराएं और उनके तीनों उपास्य मिलते मिलते एक हो गए। जिससे भागवत या वैष्णव संप्रदाय उद्भव हुआ।
 यह नया धर्म उदार था सहज ही इसने विदेशियों को भी अपनी और खींचा। शिल्पीयों और वणिकों को भी यह धर्म भाया, जो सातवाहनों और कुषाणों के काल में प्रबल हो चुके थे, कृष्ण ने भगवत गीता में घोषणा की कि जन्मतः अपवित्र स्त्री, वैश्य और शूद्र भी उसकी शरण में आ सकते हैं।
 इस धार्मिक ग्रंथ में वैष्णव धर्म का प्रतिपादन किया गया, विष्णु पुराण में और कुछ-कुछ विष्णुस्मृति में भी इस संप्रदाय का प्रतिपादन है।
 गुप्त काल में आकर महायान बौद्ध धर्म की तुलना में भागवत या वैष्णव संप्रदाय अधिक प्रभावी हो गया, इसने अवतारवाद का उद्देश्य दिया उपदेश दिया।
 छठी सदी में आकर विष्णु की गणना शिव तथा ब्राह्मण के साथ त्रिदेव में होने लगी, छठी सदी में ही इनकी पूजा से संबधित पुण्यफलों के प्रचारार्थ कई पुस्तके लिखी गई, जिनमें सबसे ऊपर भगवतपुराण का हैं।
 विष्णु के उपासकों के लिए विष्णुसहस्त्रनामा आदि प्रमुख आदि बहुत से स्त्रोत लिखे गए।
 गुप्त वंश के कुछ राजा शिव के उपासक हुए जो संहार या प्रलय के देवता है, गुप्त शासन की आरंभिक अवस्था में शिव इतने महत्वपूर्ण नहीं रहे जितने विष्णु
 विभिन्न वर्गों के लोगों में जो कृषि संबंधी त्योहार चलते थे, उन्हें भी धार्मिक रंग रूप दे दिया गया, जो पुरोहितों की आय का साधन बन गए।
 इस काल में बौद्ध धर्म के रंग ढंग में भी परिवर्तन हुआ, जिसमें बहुत से ब्राह्मणीय धर्म के तत्व बौद्ध धर्म में अपना लिए गए

कला एवं साहित्य -
 गुप्त काल प्राचीन भारत का स्वर्ण काल कहा जाता है, परंतु यह आर्थिक क्षेत्र के लिए कहना उचित नहीं होगा।
 गुप्तों ने सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं जारी कीसमुद्रगुप्त को अपने सिक्के पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है, और चंद्रगुप्त का दरबार नवरत्न से अलंकृत था।
 प्राचीन काल में कला अधिकतर धर्म से अनुप्राणित होती थी, बुद्ध संबंधी पुरावशेषों पर निर्मित गोलाकार आधारों पर टिकी गुंबदनुमा मिट्टी, ईंट तथा प्रस्तर की संरचनाएं को स्तूप कहा जाता था है।
 गुप्त काल में बनी 2 मीटर से भी ऊंची बुद्ध की कांस्य मूर्ति भागलपुर के निकट सुल्तानगंज में पाई गई है, फाह्यान ने 25 मीटर से भी ऊंची बुद्ध की मूर्ति देखी थी, पर उसका अभी पता नहीं है।
 गुप्तकालीन बौद्ध कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है अजंता की चित्रावाली, इस चित्रावली ईसा की पहली सदी से लेकर सातवीं सदी तक के चित्र शामिल है। अजंता महाराष्ट्र राज्य में स्थित है।
 गुप्त वंशीय राजा हिंदू धर्म के संपोषित रहे और पहली बार हम गुप्त काल में ही विष्णु शिव तथा अन्य हिंदू देवताओं की प्रतिमाएं पाते हैं।
 वास्तु कला में गुप्त कला पिछड़ा था, वास्तुकला के नाम पर केवल ईटों के बने कुछ मंदिर ही हम पाते हैं। एक पत्थर का मंदिर भी मिलता है जो कानपुर के भीतरगांव मंदिर नाम से विख्यात है, गाजीपुर के भीतरी मंदिर और झांसी के देवलगढ़ के ईट के मंदिर भी उल्लेखनीय हैं।

साहित्य -
 गुप्तकाल लौकिक साहित्य की सर्जना के लिए स्मरणीय है, भास के 13 नाटक ईसा काल के हैं।
 शुद्रक का लिखा मृच्छकटिकम् या माटी की खिलौना गाड़ी, जिसमें निर्धन ब्राह्मण के साथ वैश्या का प्रेम वर्णित है, प्रमुख रचना रही है।
 कालिदास का अभिज्ञान शाकुंतलम् विश्व की एक सौ उत्कृष्टतम साहित्य कृतियों में से एक है।अभिज्ञान शाकुंतलम् प्रथम भारतीय रचना है जिसका अनुवाद यूरोपीय भाषाओं में हुआ है, दूसरी रचना भगवतगीता है।
 गुप्त काल में लिखे गए सभी नाटक सुखांत हैं, दुखांत नाटक एक भी नहीं मिलता वही इन नाटकों में स्त्री और शूद्र प्राकृत बोलते हैं, जबकि भद्रजन संस्कृत बोलते थे।
 स्मृतियों पर टीका लिखने की अवस्था गुप्त काल के बाद आई, गुप्त काल में पाणिनि और पतंजलि के ग्रंथों के आधार पर संस्कृत का भी व्याकरण तैयार हुआ।
 अमरकोश को लेकर, जिसका संकलन चंद्रगुप्त द्वितीय की सभा के एक नवरत्न अमरसिंह ने किया।
 कुल मिलाकर देखें तो शास्त्रीय साहित्य के इतिहास में गुप्त काल उज्जवल अध्याय रहा है, संस्कृत गुप्तों की राजकीय भाषा थी। यूं तो ब्राह्मण धर्म विषयक साहित्य की बहुतायत है, पर फिर भी इस काल में पहली बार धर्मनिरपेक्ष साहित्य की बहुत सी रचनाएं पाई जाती हैं।
 गणित के क्षेत्र में इस काल में आर्यभटीय महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसके रचयिता आर्यभट्ट पाटलिपुत्र के रहने वाले थे।
 इलाहाबाद जिले में मिले सन 448 ईसवी के एक गुप्त अभिलेख से पता चलता है, कि ईसा की पांचवी सदी के आरंभ में भारत में दाशमिक पद्धति का ज्ञान था।
 खगोल शास्त्र में रोमकसिद्धांत नामक पुस्तक रची गई, इसके नाम से ही अनुमान किया जा सकता है कि इस पर यूनानी चिंतनों का प्रभाव था।
 दिल्ली के महरौली स्थित लौह स्तंभ का निर्माण चौथी सदी में हुआ, तब से 1500 वर्षों के बीत जाने पर भी इससे जंग नहीं छू पाई है, यह स्तंभ शिल्पकार के महान तकनीकी कौशल का प्रमाण है। इस प्रकार का लौह स्तंभ 100 वर्ष पहले पश्चिम के किसी भी ढलाई घर में बनाना संभव नहीं था, दुख की बात है कि बात के शिल्पकार इस ज्ञान को और आगे बढ़ा नहीं सके।

अगले अंक में पढ़ें : पूर्वी भारत में सभ्यता का प्रसार।

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