गुप्त साम्राज्य का उदय एवं विकास., - Study Search Point

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गुप्त साम्राज्य का उदय एवं विकास.,

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पृष्ठभूमि -
मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद दक्कन के क्षेत्र तथा दक्षिण भारत में सातवाहन सत्ता स्थापित हुई, तो उत्तर में कुषाण शासकों ने राज किया।
 बाद में कुषाण साम्राज्य के खंडहर पर नए साम्राज्य की स्थापना हुई, जो सात वाहनों के राज्य तक फैला था, वह राजवंश था गुप्त राजवंश
 गुप्त मूलतः वैश्य रहे होंगे, गुप्त साम्राज्य उतना विशाल तो नहीं था जितना कि मौर्य साम्राज्य पर गुप्त शासकों ने पूरे उत्तर भारत को (335 ईसवी से 455 ईसवी तक) एक सदी से ऊपर राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधे रखा।
 ईसा की तीसरी सदी के अंत में गुप्त वंश का आरंभिक राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में था, गुप्तकालीन पुरावशेषों की उपलब्धि की दृष्टि से उत्तर प्रदेश सबसे समृद्ध स्थान सिद्ध होता है।
 संभवतः गुप्त लोग कुषाण के सामंत रहे होंगे, लगता है कि गुप्त शासकों ने जीन, लगाम, बटन वाले कोट, पतलून और जूतों का इस्तेमाल कुषाणो से सीखा।
 गुप्त काल में घुड़सवारों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है, जिस कारण उनके सिक्कों पर घुड़सवार अंकित हैं, इनकी मूल शक्ति का आधार घोड़ों का इस्तेमाल रहा था।
 गुप्तों को कई भौतिक सुख सुविधाएं प्राप्त थी, मध्य भारत तथा दक्षिण बिहार के लौह अयस्क का उपयोग कर सकें, इसके अलावा बायजेंटाईन साम्राज्य (वैजांतिया) अर्थात पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ होने वाले व्यापार का गुप्त शासकों को लाभ हुआ।
 गुप्त शासकों का अधिपत्य अनुगंग (मध्य गंगा का मैदान) प्रयाग, साकेत (अयोध्या) और मगध पर स्थापित हुआ।
 उत्तर भारत में कुषाण सत्ता 230 ईसवी के आस पास आकर समाप्त हो गई, कुषाणो का साम्राज्य कुछ समय के लिए मध्य भारत के मुरडो (मुरुंडो) के हाथ आईमुरुंडो ने 250 ईसवी तक राज किया, 25 वर्ष बाद 275 ईसवी में गुप्त वंश के हाथ सत्ता आ गई।
 गुप्‍त सामाज्‍य का उदय तीसरी शताब्‍दी के अन्‍त में प्रयाग के निकट कौशाम्‍बी में हुआ था। जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वो है श्रीगुप्त, हालांकि प्रभावती गुप्त के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में इसे 'आदिराज' कहकर सम्बोधित किया गया है।
 श्रीगुप्त ने गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग ने 500 वर्षों बाद सन् 671 से सन् 695 के बीच में किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त ने पूना अभिलेख में अपने वंश को स्पष्टतः धारण गोत्रीय बताया हैं।
 श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा, जो 280 ई. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी।
 प्रभावती गुप्ता के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया है,इसका राज्य सम्भवतः मगध के आस-पास तक ही सीमित था।
चंद्रगुप्त प्रथम (319 ईसवी से 334 ईसवी) -
 गुप्तों का पहला प्रसिद्ध राजा चंद्रगुप्त प्रथम था, इसने लिच्छवी राजकुमारी से विवाह किया जो संभवत: नेपाल की राजकुमारी थी।
 चंद्रगुप्त प्रथम (319-20) ईसवी में अपने राज्यारोहण के स्मारक के रूप में गुप्त संवत चलाया।
इतिहासकार राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की। चन्द्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि प्राप्त की थी।
 हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासकों की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की। उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्‍कों का चलन करवाया।

समुद्रगुप्त (335 ईसवी से 380 ईसवी) -
 चंद्रगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त उत्तराधिकारी हुआ, जिसने गुप्त साम्राज्य का अपार विस्तार किया, समुद्रगुप्त हिंसा और विजय में आनंद पाता था।
 समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण ने अपने आश्रय दाता के पराक्रम का उदांत वर्णन किया है, एक लंबे अभिलेख पर हरिषेण ने समुद्रगुप्त के विजय क्षेत्र गिनाए हैं, यह अभिलेख इलाहाबाद के उसी अभिलेख पर खुदवाया गया है, जिस पर शांतिकामी अशोक का अभिलेख है।
 गुप्त शासकों ने अपने साम्राज्य का विस्तार पांच प्रमुख चरणों में पूरा किया, जिसमें उन्होंने अपने प्रथम समूह (चरण) में गंगा यमुना दोआब के राजाओं को पराजित कर अपने राज्य में मिला लिया।
 दूसरे चरण में पूर्वी हिमालय के राज्य और कुछ सीमावर्ती राज्यों को जिसमें नेपाल, असम तथा बंगाल के इलाके, अपने साम्राज्य में मिला लिए।
 तीसरे चरण में गुप्त शासकों ने अट्टाविक राज्य (जंगली क्षेत्रों में स्थित राज्य) जो विंध्य क्षेत्र में पड़ते थे, पर विजय प्राप्त की।
 चौथे समूह (चरण) में पूर्वी दक्कन और दक्षिण भारत के 12 शासक शामिल थे, जिन्हें हराकर छोड़ दिया गया। समुद्रगुप्त आगे बढ़ते बढ़ते तमिलनाडु के कांची तक पहुंच गया जहां पर पल्लवों ने उनकी प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।
 गुप्तों के पांचवे समूह (चरण) में शक तथा कुषाणों के नाम आते हैं, जिनमें कुछ अफगानिस्तान के राजा भी थे।
 एक चीनी स्रोत के अनुसार श्रीलंका के राजा मेघवर्मन ने गया में बुद्ध का मंदिर बनवाने की अनुमति प्रदान करने के लिए समुद्रगुप्त के पास दूतमंडल भेजा था।
 इलाहाबाद की प्रशस्ति (प्रशसात्मक अभिलेख) पर विश्वास करें तो समुद्रगुप्त को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ा, समुद्रगुप्त अपनी बहादुरी और युद्ध कौशल के लिए भारत का नेपोलियन भी कहलाता है।
 समुद्रगुप्त को परक्रमांक कहा गया है। विन्सेट स्मिथ ने समुद्रगुप्त को नेपोलियन की उपाधि दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था, जिसमे इसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।
 विभिन्‍न साक्ष्यों के आधार पर पता चलता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे : रामगुप्त और चन्द्रगुप्त। रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था।

चंद्रगुप्त द्वितीय (380 ईसवी से 412 ईसवी) -
 चंद्रगुप्त द्वितीय का शासनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर पहुंचा।
 चंद्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा से करवाया जो ब्राह्मण जाति का था, जो मध्य भारत पर शासन करता था।
 वाकाटक राजा की जल्दी मृत्यु के बाद उसके पुत्र के नाबालिक के चलते प्रभावती वास्तविक शासिका बनी, प्रभावती से संबंधित भूमि दान अभिलेख जिसकी लिपि पर गुप्तकालीन प्राच्य शैली का प्रभाव दिखाई पड़ता है, यह अपने पिता के हित में कार्य करती थी।
 जिसके चलते चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिमी मालवा और गुजरात पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर वहां 400 साल पुराने शकों के शासन का अंत किया।
 मालवा तथा उज्जैन व्यापार के चलते समृद्ध हो गए, लगता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जैन को द्वितीय राजधानी बनाया था।
 दिल्ली के कुतुब मीनार के पास खड़े लौह स्तंभ पर खुदे हुए अभिलेख में चंद्र नामक किसी राजा का कीर्ति वर्णन किया गया हैचंद्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी, यह उपाधि इससे पूर्व 57 ईसा पूर्व उज्जैन के शासक ने भी पश्चिमी भारत में शकों के क्षत्रपों पर विजय पाने के उपलक्ष्य में धारण की थी।
 चंद्रगुप्त द्वितीय का उज्जैन स्थित दरबार कालिदास और अमर सिंह जैसे बड़े-बड़े विद्वानों से विभूषित रहा थाचंद्रगुप्त द्वितीय के समय ही चीनी यात्री फाह्यान (399 ईसवी से 414 ईसवी) भारत में आया था, फाह्यान ने यहां के लोगों के जीवन के बारे में विस्तृत विवरण लिखा था।
 चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने साम्राज्य का और विस्तार करने के लिए, शक विजय अभियान - पश्‍चिम में शक क्षत्रप शक्‍तिशाली साम्राज्य था। शक गुजरात के काठियावाड़ तथा पश्‍चिमी मालवा पर राज्य करते थे। 389  ई. 412 ई. के मध्य चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर आक्रमण कर पराजित किया गया।
 वाहीक विजय अभियान - महरौली स्तम्भ लेख के अनुसार चन्द्र गुप्त द्वितीय ने सिन्धु के पाँच मुखों को पार कर वाहिकों पर विजय प्राप्त की थी। वाहिकों का समीकरण कुषाणों से किया गया है।
 बंगाल विजय अभियान - महरौली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को भी परास्त किया था।

कुमारगुप्त प्रथम (415 ई. से 455 ई.) -
 चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद सन् 415 में कुमारगुप्त प्रथम अगला गुप्त शासक हुआ। अपने दादा समुद्रगुप्त की तरह उसने भी अश्वमेघ यज्ञ के सिक्के जारी किये। कुमारगुप्त ने चालीस वर्षों तक शासन किया।
 कुमारगुप्त प्रथम चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्‍नी ध्रुवदेवी से उत्पन्‍न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। यह कुमारगुप्त के बसाठ (वैशाली) का राज्यपाल था।
 कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल की प्रमुख घटनओं में पुष्यमित्र से युद्ध जो भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसके काल में पुष्यमित्र ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने किया था, और उसने पुष्यमित्र को युद्ध में परास्त किया।
 दक्षिणी विजय अभियान - कुछ इतिहास के विद्वानों के मतानुसार कुमारगुप्त ने भी समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत का विजय अभियान चलाया था, लेकिन सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है।

स्कन्दगुप्त -
 पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की 455 ई. में मृत्यु हो गयी थी। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित कर उस पर विजय प्राप्त की। हालाँकि सैन्य अभियानों में वो पहले से ही शामिल रहता था।
 मन्दसौर शिलालेख से ज्ञात होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया, परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया।
 स्कंदगुप्त ने 12 वर्ष तक शासन कियास्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं, कहोम अभिलेख में स्कन्दगुप्त को शक्रोपन कहा गया है।
 जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गई थी, स्कन्दगुप्त ने दो माह के भीतर अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।
 स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था, जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी। स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी।

गुप्त सम्राट -
श्रीगुप्त (240 ई.-280 ई.)
 घटोत्कच गुप्त (280 ई.-319 ई.)
 चन्द्रगुप्त प्रथम (319 ई.-350 ई.)
 समुद्रगुप्त (350 ई.-375 ई.)
 रामगुप्त (375 ई.)
 चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (375 ई.-415 ई.)
 कुमारगुप्त प्रथम (415 ई.-455 ई.)
 स्कन्दगुप्त (455 ई.-467 ई.)
 नरसिंहगुप्त बालादित्य प्रथम (467 ई.-473 ई.)
 कुमारगुप्त द्वितीय (473 ई.-477 ई.)
 नरसिंहगुप्त 'बालादित्य' द्वितीय (495 ई.-530 ई.)

गुप्त साम्राज्य का पतन -
 ईसा की पांचवी सदी के उत्तरार्ध में मध्य एशिया के हूंणों के आक्रमण का सामना चंद्रगुप्त द्वितीय के उत्तराधिकातियों को करना पड़ा।
 गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त ने हूंणों को भारत की ओर बढ़ने से रोकने के लिए जोरदार प्रयास किए, लेकिन उसके उत्तराधिकारी यह करने में असफल रहे।
 हूंण घुड़सवारी में बेजोड़ थे, और शायद धातु के बने रकबों इस्तेमाल करते थे, उत्तम धनुर्धर के कारण हूंण सफल हुए।
 सन् 485 ईसवी में आकर हूंणों ने पूर्वी मालवा को और मध्य भारत के बड़े हिस्सों को अपने कब्जे में ले लिया, जहां उनके अभिलेख पाए गए हैं।
 पंजाब राजस्थान जैसे इलाकों इलाके भी हूंणों के हाथों में चले गए यद्यपि मालवा के औलिकर सामंत ने यशोधर्मन ने जल्दी ही हूंणों की सत्ता उखाड फेंकी और गुप्तों की सत्ता को चुनौती दे दी।
 यशोधर्मन ने सारे उत्तर भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित किया, इस उपलक्ष्य में 532 ईसवी में विजय स्तंभ खड़े किए गए।
 मौखरी वंश के लोगों ने बिहार और उत्तर प्रदेश में राज्य सत्ता स्थापित की और कन्नौज को राजधानी बनाया।
सन् 550 ईसवी के आते-आते बिहार उत्तर प्रदेश गुप्तों के हाथों से निकल गए, वहीं बल्लभी के शासकों ने गुजरात और पश्चिमी मालवा पर अधिकार कर लिया।
 स्कंद गुप्त के शासन के बाद अर्थात 467 ईसवी के आगे शायद ही कोई गुप्त मुद्रा या अभिलेख पश्चिमी मालवा और सौराष्ट्र में मिली हो संभवतः पांचवी सदी का अंत होते-होते पश्चिमी भारत गुप्तों के हाथ से निकल गया
 उत्तर भारत में थानेश्वर के राजाओं ने हरियाणा पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया और धीरे-धीरे कन्नौज की ओर बढ़े।
 व्यापार के पतन तथा विशाल सेना के रखरखाव के साथ ही ग्रामदान परिपाटी से गुप्त साम्राज्य की नींव हिल गई। ऐसा कथन हम रेशम के एक बुनकर श्रेणी 473 ईसवी में गुजरात से मालवा चले जाने और वहां जाकर अन्य व्यवसाय किए क्योंकि तैयार कपड़े की मांग खत्म हो चुकी थी।
 गुप्त साम्राज्य छठी सदी तक किसी न किसी रूप में चलता रहा, परंतु साम्राज्य का उत्कृष्ट काल 100 वर्ष पहले समाप्त हो गया था।

अगले अंक में पढ़ें : गुप्त काल में जीवन एवं प्रशासन पद्धति।

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