उत्तर वैदिक अवस्था राज्य में वर्ण व्यवस्था., - Study Search Point

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उत्तर वैदिक अवस्था राज्य में वर्ण व्यवस्था.,

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उत्तर वैदिक काल 1000 पूर्व से 600 ईसा पूर्व
आर्यों का विस्तार -
उत्तर वैदिक काल का इतिहास मुख्यतः ऋग्वेद काल के ग्रंथों पर आधारित रहा है। वैदिक सूक्तो या मंत्रों के संग्रह को संहिता कहा जाता है।
ऋग्वेद सभी संहिता का सबसे पुराना वैदिक ग्रंथ है।
सामवेद में सूक्तो को चुनकर उन्हें गाने के लिए धुन में बांधा गया है, यजुर्वेद में केवल ऋचाओं का ही नहीं बल्कि अनुष्ठानों का भी वर्णन मिलता है।
अथर्ववेद में  चिकित्सा, विपत्तियों एवं व्याधियों के निवारण के लिए तंत्र मंत्र संग्रहित किए गए हैं।
यह सभी उत्तर कालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व उत्तरी गंगा के मैदानों में रचे गए
वैदिक संहिताओं से संबंधित स्थल में निवास करने वाले वैदिक लोग मिट्टी की चित्रित, भूरे रंग के कटोरों और थालियों का प्रयोग करते थे, यहीं पर चित्रित धूसर मृदभांड लौह अवस्था के पुरातत्व का आभास भी होता है।
पंजाब के आर्यजन गंगा - यमुना दोआब के अंतर्गत संपूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैले थे।
भरत तथा पुरू कबीले एक होकर कुरु नाम से नया कबीला बना, आरंभ में यह लोग सरस्वती और दृषद्वती नदी के प्रदेशों पर बसे।
कुरू ने दिल्ली क्षेत्र के दोआब के ऊपरी भाग पर अधिकार कर लिया, कुरु और पांचलों ने मिलकर अपनी सत्ता दिल्ली क्षेत्र एवं दोआब के ऊपर एवं मध्य भागों पर स्थापित कर शासन किया, साथ ही अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई जो मेरठ जिले के अंतर्गत उत्तर प्रदेश में स्थित है।
कुरु कुल महाभारत के युद्ध के लिए प्रसिद्ध रहा है, यह युद्ध 950 ईसा पूर्व के आसपास हुआ।
हस्तिनापुर में मिली सामग्रियों से इसकी तिथि 900 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व की अवधि आंकी की जा सकती है।
आज के बरेली, बदायूं और फर्रुखाबाद जिले में पांचाल राज्य स्थापित था।
उत्तर वैदिक के अंत तक 600 ईसा पूर्व के समय वैदिक लोग दोआब के पूर्वी तथा उत्तरी उत्तर प्रदेश के कोसल और बिहार के विदेह उत्तरी क्षेत्र में फैल गए।
उत्तर वैदिक लोगों का सामना पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार में बसे लोग से हुआ जो ताबे के औजारों और काले व लाल मृदभांडों का प्रयोग करते थे, वहीं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इनका सामना ताबे के औजार और गेरूवे या लाल रंग के मृदभांड का प्रयोग करने वाले लोगों से हुआ। कुछ स्थानों पर आर्यों (उत्तर वैदिक लोगों) का सामना उत्तर हड़प्पाई लोगों से भी हुआ होगा।
लौह संस्कृति उत्तर वैदिक अवस्था -
लगभग 1000 ईसा पूर्व में सर्वप्रथम लौह अवस्था कर्नाटक के धारवाड़ जिले में देखने को मिलती है। इसी समय पाकिस्तान के गांधार क्षेत्र में भी लोहे का उपयोग होने लगा था।
पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान एवं पूर्वी मध्य प्रदेश में भी इसी समय लोहे का प्रयोग किया जाना आरंभ हुआ। मृतकों के साथ कब्रों में गाड़े गए लोहे के औजार भारी मात्रा में मिलते हैं। 
खुदाई से प्राप्त तीर के नोक, बरछे के फाल, आदि लौहास्त्रों का प्रयोग लगभग 800 ईसा पूर्व से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रयोग आमतौर पर होना होने लगा।
वैदिक काल के अंतिम दौर में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश के विदेह में फैला।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे को श्याम या कृष्ण अयस कहा गया है।
वैदिक ग्रंथों में 6, 8, 12 और 24 तक बैल हल में जोते जाने की चर्चा है।
यज्ञ में पशु बलि से बैलों की संख्या में लगातार कमी आती रही, और आरंभिक अवस्था में कृषि होने के कारण यह बात संदेह प्रद लगती है।
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ मे हल संबंधी अनुष्ठान का एक लंबा वर्णन मिलता है, उत्तर वैदिक काल में हल चलाना उच्च वर्ग के लिए वर्जित रहा था।
वैदिक काल के लोगों जौ के साथ चावल, गेहूं भी उगाते थे। वैदिक ग्रंथों में चावल को भी ब्रीही कहा गया है।
हस्तिनापुर से मिले चावल के अवशेष ईसा पूर्व आठवीं सदी के हैं, एटा जिले में स्थित अतरंजीखेरा में भी चावल के साक्ष्य मिला है।
➤ 1500 ईसा पूर्व के पहले ताबें के अनेक औजार के जखीरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार से मिले हैं। ताबे की वस्तुएं चित्रित धूसर मृदभांड स्थलों में पाई गई हैं।
बुनाई केवल स्त्रियां करती थी, चमड़े, मिट्टी और लकड़ी के शिल्प में भारी प्रगति हुई।
उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृदभांड से परिचित थे -
1- लाल व काला मृदभांड
2- काली पालिशदार मृदभांड
3- चित्रित धूसर मृदभांड
4- लाल मृदभांड (3 और 4 सर्वाधिक प्रचलित)
चित्रित धूसर मृदभांड इनके सर्वोपरि वैशिष्टय सूचक है।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में स्वर्णकार या आभूषण निर्माताओं का भी उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल के लोग स्थाई जीवन को अपनाने में समर्थ हो पाए थे।
हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, जखेडा और नोह स्थलों का उत्खनन हुआ है।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में नगर शब्द आया है, पर नगर का आभास मंद होता है। हस्तिनापुर और कौशांबी महज गर्भावस्था में ही रहें, इसे केवल आद्य नगरीय स्थल (अर्बन साइट्स) ही कहा जाए सकता है।
कुल मिलकर उत्तर वैदिक काल के लोगों के भौतिक जीवन मे भारी उन्नति हुई।

राजनीतिक संगठन -
ऋग्वेद की सभा, समितियां की जगह राजकीय प्रभुत्व आ गए। विदथ का नामोनिशान नहीं रहा।
सभा, समिति रही पर उनके काम करने के रंग ढंग बदल गए।
उत्तर वैदिक ग्रंथों से संकेत मिलता है, कि राज्य के प्रधान/राजा का निर्वाचन होता था। यह शारीरिक एवं अन्य गुणों में सर्वश्रेष्ठता के आधार पर चुना जाता था। स्वेच्छा द्वारा दी जाने वाली भेंट (बली) को राजा ने अपना अधिकार बना लिया था।
राजा राजसूय यज्ञ करता था, जिससे यह समझा जाता था, कि उसे दिव्य शक्ति मिल गई है।
अश्वमेघ यज्ञ द्वारा एकछत्र राज मानने के लिए किया जाता था, तथा वाजपेई यज्ञ (रथ दौड़) भी किया जाता था।
इसी काल (उत्तर वैदिक) में कर संग्रह नजराना (ट्रिब्यूट) का संग्रह प्रचलित हुआ, इसे संग्रह करने वाला अधिकारी संग्रीहित कहलाता था।
इस काल में भी राजा स्थाई सेना नहीं रखता था, युद्ध में विजय पाने की कामना से राजा को एक ही थाली में अपने विश् भाई बंधुओं के साथ खाना पड़ता था।

सामाजिक संगठन -
उत्तर वैदिक समाज चार वर्गों में विभक्त था, जिसमें - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र
आरंभ में 16 प्रकार के पुरोहित में ब्राह्मण केवल एक प्रकार के पुरोहित होते थे। यही आगे जा कर स्वयं को प्रमुख वर्ग मानने लगे, यह विलक्षण बात भारत से बाहर के आर्यों के समाज में नहीं पाई जाती।
उत्तर वैदिक काल के अंत से इस बात में बल दिया गया कि ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों के बीच परस्पर सहयोग होना चाहिए।
उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही राजस्व चुकाते थे।
कई अनुष्ठान ऐसे थे जो दुरदम लोगों को (विश या वैश्यों को) राजा तथा उसके निकट बंधुओं राजन्यों) के वंश में लाने की कामना के लिए किए जाते थे।
शूद्रों के अलावा अन्य तीनों वर्ग उपनयन संस्कार के अधिकारी एवं जनेऊ धारण का अनुष्ठान करा सकते थे, यही उपनयन संस्कार शूद्रों की दास का का द्योतक था।
ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ में ब्राह्मण को जीविका वाला तथा दान लेने वाला कहा गया है। वैश्य को राजस्व का देनदार कहा है।
शिल्पीओं में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊंचा था, उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था।
राजपरिवार में जेष्ठ अधिकार का प्रचलन प्रबल होता गया, स्त्रियों का स्थान पुरुषों के नीचे और अधीनस्थ माना जाने लगा।
उत्तर वैदिक काल में गोत्र प्रथा स्थापित हुई, वैदिक काल में आश्रम अर्थात जीवन के चार सुप्रतिष्ठित नहीं हुए थे।
वैदिक के उत्तर काल के ग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से दिखता है, चार आश्रम - ब्रह्मचर्य (छात्रावास), गार्हस्थ्य (गृह अवस्था), वानप्रस्थ (वनवासावस्था), तथा सन्यास।
सन्यास उत्तर वैदिक काल में सुप्रतिष्ठित नहीं रहा।

देवता, अनुष्ठान तथा दर्शन -
उत्तर वैदिक काल में उत्तरी दोआब ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य संस्कृति का केंद्र स्थल बना। यह समाज यज्ञ संस्कृति का मूल आधार का रहा था।
इंद्र तथा अग्नि का स्थान उतना प्रमुख नहीं रहा, उत्तर वैदिक देव मंडल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान दिया गया।
पशुओं के देवता रुद्र ने उत्तर वैदिक काल में महत्वता पाई, विष्णु को लोग अपना पालक, रक्षक मानने लगे।
उत्तर वैदिक काल में मूर्ति पूजा के आरंभ का आभास दिखने लगता है।
पूषण जो पशुओं की रक्षा करने वाले माने जाते थे, शूद्रों के देवता हो गए।
प्रत्युत यज्ञ करना कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया, यज्ञ के सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप प्रचलित हुए।
वैदिक लोग स्थाई निवासों में रहते थे, और इनके नियमित कुटूब होते थे। प्रत्येक व्यक्ति अग्नि में आहुति देता था।
बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाती थीअतिथि को गोध्न कहा जाता था, उन्हें गौ मांस खिलाया जाता था। यज्ञ करने वाला यजमान कहलाता था।
कहा जाता है कि राजसूय यज्ञ करने वाले पुरोहित को दक्षिणा में 2 लाख 24 हजार गाय दी जाती थी।
यज्ञ की दक्षिणा में भूमि का दान दिया जाना प्रचलन में नहीं था। शतपथ ब्राह्मण ग्रंथ में कहा गया कि अश्वमेघ यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण, पूरब तथा पश्चिम की चारों दिशाएं देनी दे दी जाती थी।
वैदिक काल के अंतिम दौर में पुरोहित एवं कर्मकांडों के प्रति प्रबल प्रतिक्रिया रही। इनके विरुद्ध प्रतिक्रिया पांचाल तथा विदेह में विशेष रही।
वैदिक काल मे प्रचलित बहुत से अनुष्ठान हिन्द-यूरोपीय भाषाई लोगों के कर्मकांडों से मिलते है।
➤ 600 ईसा पूर्व के समय में उपनिषदों का संकलन किया गया, जिनमें कर्मकांडों की निंदा की गई तथा विश्वास और ज्ञान को महत्व दिया गया।
उपनिषदों में कहा गया कि अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। ब्रह्म के साथ आत्मा का संबंध ठीक से जानना चाहिए।
उपदेशों ने स्थायित्व और अखंडता की भावना पर बल दिया। आत्मा अपरिवर्ति, अविनाशी एवं अमर है।
उत्तर वैदिक काल से ही प्रदेश पर आश्रित राजाओं की शुरुआत हुई। अब युद्ध केवल पशुओं को हथियाने के लिए नहीं बल्कि राज्य क्षेत्र पर कब्जा करने हेतु होने लगे।
कबायली समाज टूटकर वर्गों में विभक्त होने से नए समाज बन गए।
ब्राह्मणों के सहयोग के बावजूद राजन या क्षत्रिय राजतंत्र की स्थापना नहीं कर पाए।
खेती के प्रचलित तरीके से प्राप्त कर और राजस्व उगाने की गुंजाइश नहीं थी।
शूद्र इस काल में भी छोटा सेवक वर्ग बना रहा।

अगले अंक में : जैन एवं बौद्ध धर्म का उदय.,

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