जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म., - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म.,

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ईसा पूर्व छठी सदी के उत्तरार्ध में मध्य गंगा के मैदान में अनेक धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ।
वैदिक उत्तर काल में समाज स्पष्टत: चार वर्णों में विभाजित हो गया था।
वैश्य खेती पशुपालन और व्यापार करते थे, वैश्य वर्णों को द्विज नामक समूह में स्थान दिया गया था।
शूद्रों का कर्तव्य था कि वह तीन उच्च वर्णों की सेवा करें, शूद्र को स्वभाव से क्रूरकर्मा, लोधी और चोर कहे गए थे, कुछ शूद्र अस्पृश्य भी माने जाते थे।
विविध विशेषाधिकारों का दावा करने वाले पुरोहित या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना, तथा नए धर्म का उदय होना एक प्रमुख सामाजिक विशेषता रही थी।
जैन धर्म के संस्थापक महावीर थे। बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध थे।
यह दोनों क्षत्रिय वंश के थे, इन धर्मों के उदय का यथार्थ कारण रहे थे।
पूर्वोत्तर भारत में नई कृषि मूलक अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ।
600 ईसा पूर्व के समय में पूर्वोत्तर भारत में लोहे का इस्तेमाल होने लगा, मध्य गंगा के मैदानों में लोग भारी संख्या में बसने लगे।
लोहे के औजारों के इस्तेमाल की बदौलत जंगलों की सफाई, खेती करना और बड़ी-बड़ी बस्तियां बसाना संभव हुआ।
नई कृषि मूलक अर्थव्यवस्था को चलाना था, तो पशु वध को रोकना आवश्यक ही था।
कौशांबी (प्रयागराज के समीप), कुशीनगर (जिला देवरिया), वाराणसी, वैशाली, चिरांद (सारन जिला) और राजगीर नगरों की स्थापना हुई, इसमें शिल्पी और व्यापारी रहते थे।
सबसे पुराने सिक्के ईसा पूर्व पांचवी सदी के हैं, यह पंचमार्क या आहत सिक्के कहलाते थे। पंच मार्क सिक्कों का सर्वप्रथम आरंभ पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार में हुआ।
क्षत्रियों के अतिरिक्त वैश्यों ने भी महावीर और गौतम बुद्ध की उदारता पूर्वक सहायता की।
ब्राह्मणों की कानून संबंधी पुस्तकों में जो धर्मसूत्र कहलाती थी, सूद पर धन लेने के कारोबार को निंदनीय समझा जाता था और, सूद पर जमीन लेकर जीने वालों को अधम कहा जाता था।
बौद्ध जैन दोनों ही सरल शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे, जिस कारण इन्होंने गंगा घाटी में नए जीवन में विकसित भौतिक सुख-सुविधाओं का विरोध किया।
औद्योगिक क्रांति ने लोगों के मन में यंत्र पूर्व युग में जाने की चाह जगाई तो, वही लौह युग के पूर्व की जिंदगी में लौटने की चाह अतीत के लोगों में जागी।
जैन संप्रदाय -
जैन धर्मावलंबियों का विश्वास है, कि महावीर से पहले 23 और आचार्य हुए जो तीर्थंकर कहलाए।
महावीर 24वें और अंतिम तीर्थंकर बने, वहीं जैन धर्म का उदय काल ईसा पूर्व 9 वीं सदी ठहराया जा सकता है।
वाराणसी निवासी पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर थे, किंतु जैन धर्म की स्थापना उनके आध्यात्मिक शिष्य वर्धमान महावीर ने की।
एक परंपरा के अनुसार वर्धमान महावीर का जन्म 540 ईसा पूर्व में वैशाली के समीप हुआ था।
इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जो क्षत्रिय कुल के प्रधान रहे थे। माता त्रिशला जो बिंबिसार के ससुर लिच्छवी नरेश चेतक की बहन थी।
महावीर का संबंध मगध के राजपरिवार से रहा है, 30 वर्ष की आयु में महावीर द्वारा गृह त्याग किया, तथा 12 वर्षों तक विचरण करने के बाद 42 वर्ष की अवस्था में इन्हें कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ, तथा इन्होंने वस्त्र त्याग किए।
महावीर अर्थात महान सूर या जिन एवं (विजेता) कहलाए।
महावीर ने 30 वर्षों तक जैन धर्म का प्रचार किया।
इनका निर्वाण (मृत्यु) 468 ईसा पूर्व में 72 वर्ष की आयु में राजगीर पावापुरी में हुआ।
एक दूसरी परंपरा के अनुसार इनका देहांत 527 ईसा पूर्व में हुआ, परंतु पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर इन्हें निश्चित रूप से छठी शताब्दी ईसा पूर्व में नहीं रखा जा सकता।

जैन धर्म के सिद्धांत -
जैन धर्म के पांच व्रत - अहिंसा, अमृषा (झूठ ना बोलना), अचौर्य (चोरी न करना), अपरिग्रह (संपति अर्जित ना करना), ब्रह्मचर्य है। इसमें पांचवा व्रत महावीर स्वामी के द्वारा जोड़ा गया।
जैन धर्म में अहिंसा या किसी व्यक्ति को ना सताना के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।
पार्श्वनाथ ने अपने अनाई अनुयायियों को निचले और ऊपरी अंगों में वस्त्र ढकने की अनुमति दी थी।
जैन संप्रदाय दो वर्गों में विभक्त हुआ है। १- श्वेतांबर : श्वेत वस्त्र धारण करने वाले, २- दिगंबर : नग्न रहने वाले
जैन धर्म में देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, पर स्थान जिन के नीचे रखा गया है 
जैन धर्म में वर्ण व्यवस्था की निंदा नहीं की गई है।
महावीर ने चांडालों में भी मानवीय गुणों का होना संभव बताया है।
 सम्यक ज्ञान, सम्यक ध्यान, सम्यक आचरण, यह जैन धर्म के तीन जौहर या त्रिरत्न है
जैन धर्म में युद्ध, कृषि दोनों वर्जित है जो दोनों में जीव हिंसा का कारण है।

जैन धर्म का प्रसार -
महावीर ने अपने अनुयायियों का संघ बनाया, जिसमें स्त्री पुरुष दोनों के प्रवेश की अनुमति थी।
जैन धर्म ने अपने को ब्राह्मण धर्म से स्पष्टत: अलग नहीं किया। जिसके कारण यह लोगों को अधिक संख्या में आकृष्ट करने में असफल रहा।
कर्नाटक में जैन धर्म का प्रसार चंद्रगुप्त मौर्य (322 ईसा पूर्व 298 ईसा पूर्व) ने किया। दक्षिण भारत में जैन धर्म फैलने का दूसरा कारण बताया जाता है, कि महावीर के निर्वाण के 200 वर्षों बाद मगध में भारी अकाल पड़ा, यह अकाल 12 वर्षों तक जारी रहा जिसमें जैन संत प्राण बचाने के लिए दक्षिण पथ चले गए।
चंद्रगुप्त ने जैन धर्म को अपनाया तथा अपने अंतिम दिनों में जैन धर्म का प्रसार किया।
मगध में अकाल के चलते कुछ लोग भद्रबाहु (बाहुभद) के नेतृत्व में प्राण बचाने दक्षिणापथ चले गए, शेष लोग वहीं मगध में रहे जिसका नेतृत्व स्थूलबाहु (स्थलबाहु) ने किया।
इसी क्रम में बाद में दक्षिणी जैन को दिगंबर तथा मगध जैन को श्वेतांबर कहा जाने लगा।
अकाल की स्थिति संदेह वाली है, कर्नाटक में जैन के विस्तार के साक्ष्य ईसा पूर्व तीसरी सदी से पहले का नहीं मिलता।
पांचवी सदी में कर्नाटक में बहुत से जैन मठ स्थापित किए गए जो कि बसदि कहलाते थे।
कलिंग व उड़ीसा में जैन धर्म का प्रसार ईसा पूर्व चौथी सदी में हुआ, ईसा पूर्व पहली सदी में जैन को आंध्र और मगध राजाओं को पराजित करने वाले कलिंग नरेश खारवेल का संरक्षण मिला।
जैन धर्म का प्रचार इतना तीव्र नहीं हुआ परंतु जहां भी पहुंचा वहां अपना अस्तित्व बनाने में सफल रहा।

जैन धर्म का योगदान -
समाज में वर्ण व्यवस्था एवं वैदिक कर्मकांडों की बुराइयों को रोकने के लिए जैन धर्म का मुख्य योगदान रहा।
जैनों में आरंभ में ब्राह्मणों द्वारा पोषित संस्कृत भाषा का परित्याग किया। धर्म उपदेश के लिए आम बोलचाल की भाषा प्राकृत भाषा अपनाई गई।
धार्मिक ग्रंथों को अर्धमगधी भाषा में लिखा गया है।
ईसा की छठी सदी में गुजरात में बल्लभी जैन धर्म का महान विद्या का केंद्र रहा।
प्राकृत भाषा क्षेत्रीय भाषाएं से बनी है, शौरसेनी से मराठी भाषा का विकास या उद्भव हुआ है।
जैन लेखों का एक बड़ा भाग पांडुलिपियों के रूप में हमें मिलता है, यह गुजरात तथा राजस्थान के मठों में आज भी विद्यमान है।
जैनों ने कन्नड़ भाषा के विकास में यथेष्ट योगदान दिया।
जैन आरंभ में मूर्तिपूजक नहीं थे, महावीर की पूजा पद्धति जैन धर्म प्रचलित है। इनके लिए अनेक प्रस्तर प्रतिमाएं कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश में निर्मित की गई है।
मध्यकाल काल की कला और स्थापत्य में जैन धर्म का प्रशंसनीय योगदान रहा है।

बौद्ध धर्म -
गौतम बुद्ध महावीर के समकालीन रहे थे।
परंपरा के आधार पर गौतम बुद्ध (सिद्धार्थ) का जन्म 563 ईसा पूर्व में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के लुंबिनी में हुआ था।
कपिलवस्तु की पहचान बस्ती जिले में पिपरहवा से की गई है।
गौतम बुद्ध के पिता गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे। माता कोसल राजवंश की कन्या थी। पिता - शुद्धोधन, माता       - मायादेवी, जीवनसाथी - राजकुमारी यशोधरा, पुत्र -राहुल, बुद्ध का उत्तराधिकारी - मैत्रेय
गौतम का बचपन से ही आध्यात्मिक चिंतन में ध्यान था।
29 वर्ष की आयु में घर छोड़कर गौतम बुद्ध चले गए, (जिसे  बौद्ध साहित्य में महाभिनिष्क्रमण कहा है,) तथा 35 वर्ष की आयु में बोधगया में एक पीपल के पेड़ के नीचे गौतम को ज्ञान प्राप्त हुआ।
 बुद्ध अर्थात प्रज्ञावान कहलाने लगे।
बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया। (जिसे  बौद्ध साहित्य में धर्म-चक्र-प्रवर्तन कहा है,)
लगातार 40 वर्षों तक गौतम बुद्ध के द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार किया गया, बुद्ध केवल वर्षा काल में ही एक स्थान पर रहते थे।
बुद्ध की मृत्यु (महापरिनिर्वाण) 80 वर्ष की आयु में 443 ईसा पूर्व कुशीनगर (देवरिया जिला उत्तर प्रदेश) में हुई।
पुरातत्व साक्ष्य के आधार पर इनका काल छठी सदी ईसा पूर्व में रहा होगा।

बौद्ध धर्म के सिद्धांत -
बुद्ध व्यावहारिक सुधारक थे, वे आत्मा और परमात्मा के बारे में उलझे नहीं रहे।
बुद्ध ने संसार को दुखमय होने का कारण केवल इच्छा, लालसा दुख का कारण बताया 
बुद्ध ने दुख निवृत्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग बताए।
अष्टांगिक मार्ग ईसा पूर्व तीसरी सदी में बुद्ध (बौद्ध) के एक ग्रंथ में बताए गए हैं, यह आठ साधन - १- सम्यक दृष्टि, २- सम्यक संकल्प, ३- सम्यक वाक, ४- सम्यक कर्मात, ५- सम्यक आजीवक, ६- सम्यक व्यायाम, ७- सम्यक् स्मृति, ८- सम्यक समाधि है।
बुद्ध ने अपने अनुयायियों के लिए कुछ आचरण भी बनाए जो पांच प्रकार के हैं - १- पराए धन का लोभ न करना, २- हिंसा नहीं करना, ३- नशे का सेवन न करना, ४-झूठ नहीं बोलना, ५- दुराचार से दूर रहना। यह प्राय सभी धर्मों में समान रूप से विद्यमान रहे हैं।

बौद्ध धर्म की विलक्षणता एवं प्रसार -
बौद्ध धर्म ईश्वर और आत्मा को नहीं मानता। बौद्ध धर्म आरंभ में दार्शनिक वाद विवादों में नहीं फंसा था।
ब्राह्मण धर्म की उपेक्षा बौद्ध धर्म अधिक उदार एवं अधिक जनतांत्रिक रहा था।
मगध निवासी बौद्ध धर्म की ओर जल्दी उन्मुख हुए, उत्तर बिहार के लोग गंगा के दक्षिणी मगध में मरना पसंद नहीं करते थे।
जनसाधारण की भाषा पाली अपनाने से बौद्ध धर्म के प्रचार को बल मिला।
बौद्ध संघ में सम्मिलित होने के बाद इसके सदस्यों को इंद्री निग्रह, अपरिग्रह और श्रद्धा का संकल्प लेना पड़ता था।
बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख अंग है - १- बुद्ध, २- धम्म और 3- संघ
सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और अपने धर्म दूतों को मध्य एशिया, पश्चिम एशिया एवं श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए भेजा।
अपनी जन्मभूमि पर बौद्ध धर्म प्रायः लुप्त हो गए। लेकिन अन्य जगह बौद्ध धर्म का अस्तित्व बना रहा।
ईसा की 12 वीं सदी के आते-आते भारत से बौद्ध धर्म पूरी तरह लुप्त हो गया।
बौद्ध धर्म में ब्राह्मण धर्म की बुराइयां घुस गई साथ ही ब्राह्मणों ने अपने धर्म का सुधार किया।
ईसा की पहली सदी में बौद्धों को बड़ी मात्रा में चढ़ावा मिलने लगा, तथा मूर्ति पूजन होने लगा, बौद्धों ने धीरे-धीरे पाली भाषा को छोड़ संस्कृत भाषा अपनाई।
नालंदा बौद्ध विहार को 200 गांव से कर मिलता था।
गौतम बुद्ध ने विलासी बिहारों एवं कुकर्म के केंद्रों का बड़ी कड़ाई से निषेध किया।
बौद्ध धर्म भी जैन धर्म की तरह तो शाखाओं में विभक्त हो गया एक महायान और  दूसरा बौद्ध का एक नया रूप वज्रयान नाम से प्रसिद्ध हुआ
अपार संपत्ति तथा स्त्रियों के प्रवेश से बौद्ध धर्म पतन की ओर बढ़ गया था।
बुद्ध ने अपने शिष्य आंनद से कहा कि यदि बिहारों में स्त्रियों का प्रवेश न हुआ होता तो यह धर्म 1000 वर्ष तक टिकता, लेकिन जब स्त्रियों को प्रवेश अधिकार दे दिया गया तो यह धर्म केवल 500 वर्ष रहेगा।
ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों को सताया, यह घटना ईसा की छठी सातवीं सदियों की है।
शैव संप्रदाय के राजा मिहिरकुल (हुण वंश) ने सैकड़ों बौद्धों को मारा और गौड़ देश के शिवभक्त शशांक ने  बोधगया के बौद्ध वृक्ष को काट दिया जिसके नीचे महात्मा बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था।
हर्षवर्धन के समय आए चीनी यात्री व्हेन सांग ने लिखा है कि 1600 स्तूप और बिहारों को तोड़ दिया गया।
बौद्धों की प्रतिक्रिया के तौर पर कई देवालयों में बोधिसत्व को हिंदू देवताओं के ऊपर खड़ा दिखाया गया है।
तुर्कों ने बिहार में अनेक बौद्धों का संहार कर लूटपाट की।
मध्य काल के आरंभ में दक्षिण भारत में शैव और वैष्णव दोनों संप्रदायों ने के लोगों ने जैन जैनों और बौद्धों का कड़ा विरोध किया।

बौद्ध धर्म का प्रभाव -
संघ बौद्ध धर्म अंततः लुप्त हो जाने पर भी भारतीय इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ गया।
बुद्ध के अनुसार दरिद्रता, घृणा, क्रूरता ही हिंसा की जननी है। बुद्ध ने कहा है कि किसानों को उन्नत बीज, व्यापारियों को धन और श्रमिकों को उनका उनकी मजदूरी मिलना ही उचित मानवता है।
भिशुकों के आचरण के नियम से ईसा पूर्व छठी और पांचवी सदी वाले पूर्वोत्तर भारत की भौतिक स्थिति की झलक दिखाई देती है।
ईसा पूर्व पांचवी सदी में विकसित मुद्रा के प्रचलन निजी संपत्ति और विलास पूर्ण जीवन के विरुद्ध आंशिक विद्रोह की झलक भी देखने को मिलती है।
बौद्ध संघों ने कर्जदारों का संघ प्रवेश बंद किया, जिससे धन वालों को लाभ हुआ। संघ में दास दासियों का प्रवेश निषेध हो गया, जिससे स्वामियों को लाभ हुआ।
बौद्ध का कई मामलों में ब्राह्मणों से साम्य रहा था।
परिवार पालन, निजी संपत्ति की रक्षा करना, राजा का आदर करना दोनों ही धर्म में प्रमुख रहा।
बौद्ध धर्म का लक्ष्य मानव को मुक्ति एवं निर्वाण का मार्ग दिखाना था।
शूद्रों तथा स्त्रियों के लिए प्रवेश बौद्ध संघ में खोले रखा था। जिससे बौद्ध धर्म ने समाज में गहरा प्रभाव जमाया।
बौद्ध धर्म में अहिंसा और जीव मात्र के प्रति दया की भावना जगा कर पशु बलि पर रोक लगाई।
बौद्ध ग्रंथ सुंतनिपात में गाय को भोजन, रूप एवं सुख देने वाली (अन्नदा, वन्नदा सुखदा) कहा है।
बौद्ध धर्म में साहित्यिक एवं बौद्धिक जगत में चेतना जगाई।
बौद्धों के आरंभिक पालि साहित्य तीन कोटियों में बांटे गए है -
१- बुद्ध - बुद्ध के वचन एवं उपदेश।
२- संघ - सदस्यों द्वारा माननीय नियम।
३- धम्म - दार्शनिक विवेचन।
पाली तथा संस्कृत का मिला रूप बौद्ध ग्रंथ में (हाइबिर्ड) कहलाते हैं।
पूर्वी भारत की कुछ अब भ्रंश कृतियां बौद्ध धर्म की देन है।
बौद्ध विहारों को आवासीय विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जाती है। नालंदा, विक्रमशिला (बिहार) बल्लभी (गुजरात) उल्लेखनीय स्थल रहे हैं।
भारत में पूजित पहली प्रतिमा मानव की शायद बुद्ध की ही रही होगी।
बिहार के गया, मध्यप्रदेश के सांची स्तूप, और भरहुत में जो चित्रफलक (पैनल) मिले है बौद्ध कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
ईसा की पहली सदी में बुद्ध की फलक प्रतिमाएं बनने लगी थी।
भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत के यूनान एवं भारत के मूर्तिकारों ने नए ढंग की कला की सृष्टि की जो परिणामत: गांधार कला कहलाने लगी।
चट्टानों को काटकर, तराश कर कमरे बनाए गए, गया के बराबर पहाड़ियों में, नासिक के आस - पास की पहाड़ियों में गुहा वास्तुशिल्प का आरंभ हुआ।
बौद्ध कला दक्षिण में कृष्णा डेल्टा में तथा उत्तर में मथुरा में फली और फूली।

अगले अंक में : जनपद राज्य - मगध पहला साम्राज्य।

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