आर्यों का आगमन एवं ऋग्वैदिक युग., - Study Search Point

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आर्यों का आगमन एवं ऋग्वैदिक युग.,

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आर्य लोग हिंद यूरोपीय परिवार की भाषाएं बोलते थे, आर्यों का मूल निवास स्थान आल्प्स पर्वत के पूर्वी क्षेत्रों में था, जो यूरेशिया भाग कहलाता है।
कुत्ता, घोड़ा, अन्य पशु, देवदारू, मैपलिन आदि वृक्षों के नाम हिंद यूरोपीय भाषाओं में समान रूप से मिलते हैं।
आर्य लोग नदियों और वनों से परिचित थे। आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुचारण था एवं कृषि गौड व्यवसाय रहा था।
आर्यों के जीवन में घोड़े का सबसे अधिक महत्व था, पहली बार पालतू घोड़ा ईसा पूर्व छठी सहस्त्राब्दी में काला सागर तथा यूराल पर्वत के क्षेत्रों में प्रयोग मे लाए गए।
➠ 3000 ईसा पूर्व में युराल क्षेत्र से घोड़े के 60 हजार हड्डियां के अवशेष मिलते हैं।
घोड़े की तेज रफ्तार ने लगभग 2000 ईसा पूर्व के बाद लोगों को अलग-अलग दिशाओं में जाने में सफलता दिलाई।
हिंद आर्य लोग मध्य एशिया से भारत की ओर आए, यह बात अनुवांशिक साक्ष्य के आधार पर कही जा सकती है।
जीव वैज्ञानिकों ने मध्य एशिया के एक छोर से दूसरे छोर तक फैले स्टेपी लोगों में एक प्रकार के अनुवांशिक लक्षणों की पहचान की, जो कि M-17 कहे जाते हैं। यह लक्षण 8000 ईसा पूर्व के आसपास प्रकट हुए। लेकिन भाषाविद तथा पुराविद इसे 2000 ईसा पूर्व के आस पास रखते हैं।
यह अनुवांशिकी संकेत मध्य एशिया के 40% लोगों में मिलते हैं, यहीं संकेत हिंदी भाषी लोगों में 35% तथा द्रविड़ भाषी लोगों मे मात्र 10% मिलते है।
भारत में ऋग्वेद से आर्यों की जानकारी मिलती है। ऋग्वेद हिंदी यूरोपीय भाषाओं का सबसे पुराना ग्रंथ माना जाता है।
ऋग्वेद में आर्य शब्द का 36 बार उल्लेख हुआ है, ऋग्वेद में अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुति की गई हैं।
ऋग्वेद में कुल 10 मंडल (भाग) है, इसमें से दो और सातवां मंडल सबसे प्राचीन है, प्रथम तथा दसवां भाग सबसे बाद में जोड़ा गया है।
ऋग्वेद की अनेक बातें अवेस्ता ग्रंथ से मिलती है, अवेस्ता ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ है।
हिंद यूरोपीय भाषा का सबसे पुराना नमूना इराक में 2200 ईसा पूर्व का एक अभिलेख से मिलता है। बाद में अनातोलिया (तुर्की) से 19 वीं और 17 वीं सदी ईसा पूर्व के हिट्टाइट अभिलेख में हिंद यूरोपीय भाष के नमूने मिले हैं।
इराक से लगभग 1600 ईसा पूर्व कस्साइट अभिलेख में तथा सीरिया में मितन्नी अभिलेख में आर्य नामों का उल्लेख मिलता है।
भारत में आर्य भाषाषियों का आगमन 1500 ईसा पूर्व से कुछ पहले हुआ माना जाता है।
छेद वाली कुल्हाड़ी, कांसे के कटोरों और खडगों का प्रयोग आर्य द्वारा किया गया। यह हथियार पश्चिमोत्तर भारत में मिलते हैं।
दक्षिण तजाकिस्तान और पाकिस्तान की स्वात (सुवास्तु) घाटी में घोड़े होने एवं शवदाह प्रथा का प्रचलन के साक्ष्य भी मिलते हैं।
इसी प्रकार के साक्ष्य पाकिस्तान के पिराक क्षेत्र और गोमल (गोमती) नदी घाटी में भी 1500 ईसा पूर्व के साक्ष्य मिलते हैं।
सुवास्तु (स्वात) एवं गोमती नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है।
ऋग्वेद में अफगानिस्तान की कुंभा सहित सिंधु की पांच सहायक नदियों का उल्लेख मिलता है।
सिंधु आर्यों की सबसे प्रमुख नदी थी, सरस्वती (नदीतम) अर्थात सर्वश्रेष्ठ नदी थी। परंतु ऋग्वेद वर्णित सरस्वती नदी से यह लगता है कि यह अवेस्ता में उल्लेखित दक्षिणी अफगानिस्तान में हरख्वती (आधुनिक हेलमंद नदी) है।
आर्य सर्वप्रथम जहां बसे वह क्षेत्र सप्त सिंधु प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1500 ईसा पूर्व के आसपास आर्य भारतीय उपमहाद्वीप में आए। 
आर्यों का दास, दस्यु नाम के स्थानीय जनों से संघर्ष हुआ। दास जनों का उल्लेख ईरानी साहित्य में भी मिलता है।
ऋग्वेद में कहा गया है कि भरत वंश के राजा दिवोदास ने शंबर को युद्ध हराया, यहां दास शब्द दिवोदास के नाम से लगता है।
ऋग्वेद में जो दस्यु कहे गए हैं वह संभवतः इस देश के मूल निवासी थे। आर्यों के जिसे राजा ने इनको पराजित किया वह त्रसदस्यु कहलाए।
राजा दासों के प्रति कोमल तथा दस्यु का परम शत्रुता रहा था। ऋग्वेद में दस्यु हत्या शब्द का बार-बार उल्लेख मिलता है।
दस्यु लोग शायद लिंग पूजक थे, और दूध के लिए पशुपालन नहीं किया करते थे।
जनजातीय संघर्ष -
ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर कहा गया है, इसका अर्थ दुर्गों को तोड़ने वाला।
आर्यों के जीत का कारण अश्वचालित रथ होना रहा था।
आर्य सैनिकों के पास शायद कवच (वर्मन) और अन्य अस्त्र थे।
आर्यों में आंतरिक तथा बाह्य दोनों प्रकार के संघर्ष हुए।
परंपरा अनुसार आर्यों के पांच कबीले अर्थात जन थे जो समुदाय में पंचजन कहलाते थे।
भरत एवं त्रित्सू आर्यों के शासक वंश थे, इनके पुरोहित वशिष्ठ दोनों वंशों के समर्थक थे।
भरत वंश का 10 राजाओं के साथ विरोध था, इसमें पांच आर्य प्रधान जन रहे शेष पांच गैर आर्य थे।
इन दस राजाओं एवं भरत के बीच हुआ युद्ध को, दसराज्ञ  युद्ध के रूप में वर्णित किया गया है। यह युद्ध परुषणी (रावी) नदी के तट पर लड़ा गया, इस युद्ध में राजा सुदास की जीत हुई, और भरतों की प्रभुता कायम हुई।
कालांतर में भरत तथा पुरू में मैत्री हुई, दोनों ने मिलकर एक नया कुल कुरु बनाया।
कुरु ने पांचाल से मिलकर उच्च गंगा के मैदान में अपना संयुक्त राज्य स्थापित किया।

भौतिक जीवन -
आरावाला पहिया सबसे पहले काकेशस क्षेत्र में 2300 ईसा पूर्व प्रयोग में लाया गया।
आर्यों को बुवाई, कटाई तथा दावनी का ज्ञान था, साथ ही वह ऋतुओंं के बारे में भी जानकारी रखते थे।
ऋग्वेद में गाय एवं सांड की इतनी चर्चा है, कि आर्यों को मुख्य रूप से पशुचारक कहा जा सकता है।
ऋग्वेद की अधिकांश लड़ाइयां गायों को लेकर हुई है, भूमि पर कोई निजी अधिकार या संपत्ति नहीं होती थी।
ऋग्वेद में बढ़ाई, रथकार, बुनकर, चर्मकार कुम्हार आदि शिल्पीओं का उल्लेख मिलता है।
तांबे या कांस्य के अर्थ में "अयस" शब्द का प्रयोग होता है, जिससे प्रकट होता है कि वह धातु कर्म की जानकारी रखते थे।
ऋग्वेद में उल्लेखित समुद्र शब्द मुख्यतः जल राशि का वाचक है, पहाड़ों में स्थित गुफाओं से भी आर्य जन परिचित थे।
हरियाणा के भगवानपुर, और पंजाब के तीन स्थलों की खुदाई से प्राप्त उत्तर कालीन हड़प्पा मृदभांडों के साथ चित्रित धूसर मृदभांड (पी.जी.डब्लयू.) मिले है, जिनका समय 1600 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व का हैं, जो मोटे तौर पर ऋग्वेद काल का समय भी रहा था।
भगवानपुर से 13 कमरों वाला एक मिट्टी का घर मिलता है साथ ही घोड़े की हड्डियां भी मिलती हैं।

जनजाति राज्यव्यवस्था -
ऋग्वेद काल में आर्यों का प्रशासन तंत्र कबीले के प्रधान के हाथ में था।
वैदिक काल में प्रतीत होता है कि राजा का पद अनुवांशिक हो चुका था, वैदिक काल में (राजा) राजन कहलाता था।
कबीले की आम सभा "समिति" कहलाती थी, ऋग्वेद के कबीलों के आधार पर बहुत से संगठनों का उल्लेख मिलता है, ये सभा, समिति, विदथ, और गण प्रमुख थे।
वैदिक काल में स्त्रियों को सभा और विदथ में भाग लेने की अनुमति थी।
ऋग्वेद काल में वशिष्ठ तथा विश्वामित्र दो महान पुरोहित हुए, वशिष्ठ रूढ़ीवादी तथा विश्वामित्र उदारवादी थे।
विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र की रचना की, जो ऋग्वेद के तीसरे मंडल में उल्लेखित किया गया है।
सेनानी भाला, कुठार, तलवार, अस्त्र शस्त्र चलाना जानते थे।
कर वसूलने वाला किसी अधिकारी का उल्लेख नहीं मिलता संभवतः प्रजा राजा को कर या अंश स्वयं देती थी, युद्ध में लूटी गई वस्तुएं सभा में बांट दी जाती थी।
ऋग्वेद में किसी न्यायाधिकारी का उल्लेख भी नहीं मिलता है। समाज विरोधी हरकतों को रोकने के लिए गुप्त चर रखे जाते थे।
चरागाह या बड़े जनों का प्रधान ब्राजपति कहलाता था, परिवार जनों के प्रधान को कुलपा कहा जाता था।
लड़ाकू दलों के प्रधान को ग्रामीण कहा जाता था, आगे चलकर पूरे गांव का मुखिया ग्रामीण कहलाया जाने लगा।
राजा नियमित सेना नहीं रखते थे। व्रात, गण, ग्राम, एवं सर्ध नाम से विदित कबायली टोलियां युद्ध के समय लड़ाइयां करती थी।

कबीला एवं परिवार सामाजिक -
सामाजिक संगठन गोत्र एवं जन्म मूलक संबंध पर आधारित रहा था।
राजाओं का नामों का उल्लेख नहीं मिलता, लोगों की सबसे अधिक आस्था कबीले के प्रति थी, जिसे जन कहा जाता था।
एक ऋचा में दो जनों की संयुक्त युद्ध शक्ति 21 बताई गई है, इससे स्पष्ट होता है कि जन के सदस्यों की संख्या 100 से अधिक नहीं रही होगी।
ऋग्वेद में जन शब्द का 275 बार उल्लेख किया गया है। जनपद का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
ऋग्वेद में दूसरा शब्द कबीला के अर्थ में मिलता "विश" है जिसका अनुवाद गोत्र या कलैन भी किया जाता हैविश शब्द का 170 बार उल्लेख किया गया है।
वैश्य नामक बहुसंख्यक वर्ग का उदय इसी कबीले जनसमूह से हुआ।
ऋग्वेद में परिवार वाचक कुल शब्द का प्रयोग विरल है। इसमे केवल माता-पिता, पुत्र, दास ही नहीं आते बल्कि और भी लोग आते थे।
प्रतीत होता है कि आरंभिक वैदिक अवस्था में परिवार के लिए गृह शब्द का प्रचलन था। पोते, नाती, भांजे और भतीजे के लिए केवल एक ही शब्द के प्रयोग से  प्रतीत होता है, कि पृथक कुटुंब की स्थापना की दिशा में पारिवारिक संबंधों का विभेदीकरण अधिक नहीं था।
रोमन समाज की तरह आर्य समाज भी एक पितृ सत्तात्मक परिवार रहा था।
ऋग्वेद में बेटी की कहीं भी कामना व्यक्त नहीं की गई है, जबकि प्रजा (संतान) और पशु की कामना सूक्तों में बार-बार आई है।
स्त्रियां सभा में भाग ले सकती थी, साथ ही अपने पतियों के साथ यज्ञ में आहुति भी दे सकती थी।
➠ 20 स्त्रियों का उल्लेख ऋग्वेद के ग्रंथ में मिलता है, ऋग्वेद में बहुपति प्रथा के भी संकेत भी मिलते हैं।
ऋग्वेद में नियोग प्रथा और विधवा विवाह के प्रचलन का भी आभास होता है, बाल विवाह का कोई उदाहरण नहीं मिलता।

सामाजिक वर्गीकरण -
➠ 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के आसपास पश्चिमोत्तर भारत में शारीरिक रूप रंग की चेतना का कुछ आभास मिलता है।
वर्ण शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में होता था आर्य भाषी गौरे वर्ण के थे, (प्रतीत होना) जिसमें मूलनिवासी लोग काले रंग के थे।
आर्यों द्वारा जीते गए दास तथा दस्यु जनों के लोग दास (गुलाम) एवं शूद्र हो गए। ऋग्वेद में दास वर्ण तथा आर्य वर्ण का ही उल्लेख मिलता है।
सामाजिक असमानता के कारण कबीला समाज तीन वर्गों में विभाजित किया गया था - योद्धा, पुरोहित तथा सामान्य लोग प्रजा (ईरान के समान ही),
चौथा वर्ण शूद्र का जन्म ऋग्वेद के अंत काल में दिखाई देता है। शूद्र का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में होता है।
पुरोहित को दक्षिणा में दास दिए जाने की बार-बार चर्चा की गई है।
ऋग्वेद काल में दसों को प्रत्यक्ष रूप से खेती तथा अन्य उत्पादनात्मक कार्यों के लिए नहीं लगाया जाता था।
व्यवसाय के आधार पर विभेदीकरण ऋग्वेद में था, लेकिन इतना बड़ा विभेदीकरण नहीं देखने को मिलता, जितना बाद के कालों मे मिलता है।
गायें, रथ घोड़े, दास दासिया आदि दान में दिए जाते थे, दान में भूमि मिलने का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता। अन्न दान का भी विरल वर्णन देखने को मिलता है।
मजदूर अर्थात (मजदूरी पर खटने) वाले श्रमिक नहीं देखने को मिलते।
कर संग्रह और भूमि संपदा के स्वामित्व पर आश्रित सामाजिक वर्गीकरण नहीं हुआ था।

ऋगवैदिक देवता -
वर्षा का होना, सूर्य और चंद्र का उदय होना, नदी, पर्वत आदि का अस्तित्व यह बातें वैदिक लोगों के लिए पहेली जैसी थी।
वैदिक लोग प्राकृतिक शक्तियों को अपने मन में दैहिक रूप देकर उन्हें प्राणियों के रूप में देखते थे।
ऋग्वेद में सबसे अधिक प्रतापी देवता इंद्र को माना गया है। इंद्र आर्यों के युद्ध नेता के रूप में चित्रित है, इंद्र पर ऋग्वेद में 250 सूक्त तथा तथा दूसरे नंबर पर अग्नि पर 200 सूक्त लिखे गए हैं।
अग्नि की उपासना न केवल भारत बल्कि ईरान में भी प्रचलित थी। अग्नि, देवता तथा मानव के बीच मध्यस्थ का काम करते थे।
तीसरे स्थान में वरुण जल तथा समुद्र के देवता थे, इन्हें ऋतु अर्थात प्रकृति संतुलन का रक्षक भी माना जाता था।
सोम वनस्पतियों का देवता (अधिपति) माने जाते हैं, ऋग्वेद में एक प्रकार के पौधे के रूप में इसका वर्णन मिलता है।
मारुत आंधी के देवता थे।
देवताओं में कुछ देवियां भी थी जिनमें अदिति, उषा (जो प्रभात समय के प्रतिरूप है), अन्यत्र कहीं भी देवियों की प्रमुखता नहीं देखने को मिलती।
देवताओं की उपासना की मुख्य रीति थी स्तुति, पाठ करना एवं यज्ञ बली (चढ़ावा) अर्पित करना।
बलि या यज्ञाहुती में शाक, जौ आदि वस्तुएं दी जाती थी, अनुष्ठानिक या यज्ञ के दौरान कोई मंत्र नहीं पढ़े जाते थे।
संतति, पशु, धान्य, अन्न, आरोग्य आदि की कामना में उपासना की जाती थी।

अगले अंक में पढ़ें : उत्तर वैदिक अवस्था राज्य एवं वर्ण व्यवस्था।

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