बुद्ध काल में राज्य एवं वर्ण व्यवस्था., - Study Search Point

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बुद्ध काल में राज्य एवं वर्ण व्यवस्था.,

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भौतिक जीवन -
उत्तरी भारत में विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का भौतिक जीवन पुरातत्व स्रोत के आधार के अनुसार ईसा पूर्व छठी सदी उत्तरी काली पलिशदार मृदभांड अवस्था का आरंभ काल रहा था।
यह मृदभांड बहुत ही चिकना और चमकीला होता था, साथ ही उच्च कोटि का होना भी इसकी प्रमुख विशेषता रही थी।
इसी काल में धातु मुद्रा का प्रचलन भी आरंभ हुआ।
पक्की ईंटों और दल्लेदार कुओं का प्रयोग इसी काल के मध्य अर्थात ईसा पूर्व तीसरी सदी में शुरू होना आरंभ हुआ।
ईसा पूर्व उन्नीस सौ के आसपास हड़प्पाई नगर लुप्त हो गए और 14 वर्षों तक भारत में किसी तरह का शहर नहीं देखने को मिलता है।
ईसा पूर्व पांचवी सदी के समय मध्य गंगा के मैदान में नगरों का उदय होना आरंभ हुआ।
पटना में लकड़ी के लकड़कोट(पैसिसेड) मिले हैं। जो मौर्य पूर्व काल (सातवी छठी सदी) के हो सकते हैं।
मध्य गंगा के मैदान में लकड़ी के बाड़ाबंदी का पहला उदाहरण देखने को मिलता है। घर अधिकतर कच्ची ईंट और लकड़ी के बने थे, जो संभवत मध्य गंगा के मैदान की नम जलवायु से नष्ट हो गए हैं।
ताम्र पाषाण धूसर मृदभांडों की अपेक्षा उत्तरी काला पलिशदार मृदभांड वाली बस्तियों की आबादी में भारी वृद्धि हुई है।
एक विवरण मे सद्दलपुत्त कुंभकार के पास वैशाली के शहर में कुंभकारों की 500 दुकानों का अस्तित्व देखने को मिलता है।
शिल्पी और वर्णिक दोनों अपने-अपने प्रमुख के नेतृत्व में श्रेणियों बनाकर संगठित थे।
हमें शिल्पीओ की 18 श्रेणियों का उल्लेख मिलता है, सभी अपने-अपने नियत भागो (क्षेत्रों) में निवास करते थे। वाराणसी में बेस्स या वणिक लोगों की गली होने का प्रमाण मिलता है।
शिल्पीयों द्वारा बनाई गई वस्तुएं वणिक लोगों द्वारा दूर-दूर तक ले जाया जाता था। 500 गाड़ी माल की चर्चा बार बार आई है।
सभी प्रमुख नगर नदियों के किनारे स्थति रहते थे।
श्रावस्ती नगरी, कौशांबी और वाराणसी दोनों से जुड़ी हुई थी। वाराणसी तो बुद्ध के युग में महान व्यापार का केंद्र रहा था।
व्यापार मार्ग श्रावस्ती से पूर्व और दक्षिण की ओर निकल कर कपिलवस्तु तथा कुशीनगर (कसिया) होते हुए वाराणसी तक गया हुआ था।
पटना में गंगा पार करके राजगीर जाना संभव था। आधुनिक भागलपुर के निकट चंबा भी नदी मार्ग से जुड़ा हुआ था।
जातक कथाओं के आधार पर कोसल एवं मगध के वणिक मथुरा होते हुए उत्तर की ओर बढ़ते-बढ़ते तक्षशिला तक पहुंच जाते थे।
मथुरा से दक्षिण और पश्चिम की ओर बढ़ते-बढ़ते उज्जैन एवं गुजरात के समुद्र तटीय प्रदेशों तक पहुंचना संभव था।
छठी पांचवी सदी ईसा पूर्व सिक्कों का प्रचलन ना होने से व्यापार विनिमय प्रणाली पर आधारित रहा था।
वैदिक ग्रंथों में आए निष्क और शतमान शब्द मुद्रा के नाम माने जाते हैं।
धातु के सिक्के सबसे पहले गौतम बुद्ध के युग में देखने को मिलते हैं, आरंभ में सिक्के सर्वाधिक चांदी के होते थे इनमें कुछ ताबे के भी हुआ करते थे, यह आहत (पंचमार्क) मुद्राएं कहलाती थी।
ठप्पा मारकर बनाए जाने के कारण इन्हें आहत मुद्रा कहा जाता था।
सबसे पुरानी निधियों (होडर्स) पूर्वी उत्तर प्रदेश और मगध से मिलती हैं। कुछ सिक्के तक्षशिला से भी मिलते हैं।
हड़प्पा सभ्यता के पश्चात लिखने की कला अशोक के शासन काल के करीब 200 साल पहले शुरू हुई थी।
आरंभ के अभिलेख पत्थरों एवं धातु पर अंकित ना कराए गए जाने के कारण शायद लुप्त हो गए। इसी काल में सूक्ष्म मापन विषयक ग्रंथ भी रचे गए जो शुल्वसुत्र कहलाते हैं।
पाली ग्रंथों में गांव के तीन भेद किए गए हैं, प्रथम कोटि के सामान्य गांव इनमें विविध वर्णों के लोग और जातियां निवास करती थी। इनका मुखिया भोजक कहलाता था।
द्वितीय श्रेणी में उपनगरीय गांव शिल्पी ग्राम कहलाते थे।
तीसरी कोटि में सीमांत ग्राम आते थे, जो जंगल से संलग्न देहातों की सीमा पर बसे हुआ करते थे। इनमें मुख्यत: बहेलिए एवं शिकारी निवास करते थे। किसान अपनी उपज का छठा भाग कर या राजांश के रूप में चुकाया करते थे।
कर की वसूली सीधे राज कर्मचारियों के द्वारा की जाती थी।
धनी किसान गहपति (पाली शब्द) कहलाते थे। ये लगभग वैश्यों के ही एक उपवर्ग में आते थे।
पाली ग्रंथों में नाना प्रकार के धानों एवं धनखेतों का वर्णन देखने को मिलता है, इस काल में पाली और संस्कृत ग्रंथ में रोपाई शब्द का पर्यायवाची मिलता हैं।
लोहे के फाल के प्रचलन के फलस्वरुप इलाहाबाद एवं राज महल के बीच जलोढ़ मिट्टी की उर्वरता के फलस्वरुप खेती में भारी उन्नत हुई थी।
राजघाट वाराणसी में मिले कुछ औेजारों से प्रकट होता है, कि वे सिंहभूमि एवं मयूरभंज में मिलने वाले लौह अयस्क से बने हैं।
इस समय अर्थव्यवस्था पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उत्तर वैदिक कालीन ग्रामीण अर्थव्यवस्था से भिन्न रही थी।
बिहार उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में हम समुन्नत खाद्य उत्पादक अर्थव्यवस्था देखते हैं, जो मध्य गंगा के मैदानों की जलोढ़ मिट्टी पर फैली हुई दिखाई देती है।

प्रशासन पद्धति -
जातक कथाओं के आधार पर जनता अत्याचारी राजाओं एवं उनके प्रधान पुरोहितों को गद्दी से उतार देती थी।
राजा प्रथमत: युद्ध नेता होता था, और अपने राज्य के लिए विजय पर विजय करता जाता था।
राजा अपने अधिकारियों की सहायता से शासन करता था। उच्च कोटि के अधिकारी महामात्र कहलाते थे।
आयुक्त नाम से विदित अधिकारी का वर्ग भी कुछ राज्यों में इसी तरह कार्य करता था, जैसे मंत्री, सेनानायक, न्यायाधिकारी, महालेखाकार, एवं अंतपुर के प्रधान।
मगध का वर्षकार और कोसल का दीर्घचाराण सफल एवं प्रभावशाली मंत्री हुए।
 वर्षकार में वैशाली के लिच्छवियों के बीच फूट का बीज बोने में सफलता प्राप्त की थी।
कोसल एवं मगध दोनों में चांदी की आहत मुद्राओं के प्रचलन के बाद भी प्रभावशाली ब्राह्मणों एवं सेट्टियों को पारितोषिक के तौर पर राजस्व ग्राम दिए जाते थे, जो केवल फल कर संग्रह का अधिकार जिसमें दिया जाता था।
ग्रामणी जिसका अर्थ ग्राम (कबायली) लड़ाकू टोली का नेता होता है।
हल से खेती की प्रणाली ने इन कबायली टोली का जीवन स्थाई कृषक बना दिया था।
गांव का मुखिया विभिन्न नामों से पुकारा जाता था - ग्राम भोजक, ग्रामणी या ग्रामिक।
ग्रामणी पदनाम आज भी श्रीलंका में प्रचलित देखने को मिलता है।

सेना एवं कराधान -
सिकंदर के आक्रमण के समय नंद वंश के राजा के पास 20,000 घुड़सवार सैनिक 2 लाख पैदल सैनिक 2 हजार अश्व चालित रथ तथा छह हजार हाथियों की सेना उपलब्ध थी।
कर का सारा बोझ किसानों एवं इनमें से अधिकतर वैश्यों या ग्रहपतियों के सर पर रहा था।
कर भाग (बलि) बुद्ध के समय में आते-आते अनिवार्य रूप से दे हो गया था, इसकी वसूली करने वाला अधिकारी बलिसाधक कहलाता था।
कर उपज का छठा भाग के रूप में देय होता था।
वेतन एवं अन्य भुगतान नगद एवं जिंस (वस्तुओं) दोनों के रूप में किया जाता था।
चुंगी वसूलने वाला अधिकार शौल्कीक या शुल्काध्यक्ष कहलाता था।
प्रादेशिक या जनपदीय राज्यों की स्थापना ने पहले के सभा एवं समिति को समाप्त कर दिया था।
वर्ण मूलक एवं जातिमूलक समुदायों से नियमों, कुलाचारों को धर्मशास्त्रकारों ने समुचित महत्त्व दिया था।
पुरानी सभा, समिति का स्थान परिषद ने ले लिया था, जिसमें केवल ब्राह्मण ही सदस्य हुआ करते थे।

गणतांत्रिक प्रयोग -
गणतांत्रिक शासन पद्धति या तो सिंध घाटी में ही रही या पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार के अंतर्गत हिमालय की तराई भागों में।
शाक्यों और लिच्छवियों के गणराज्यों में शासन वर्ग एक ही गोत्र या वर्ण से होता था।
वैशाली के लिच्छवियों के सभागार में 7707 राजा प्रतिनिधि बैठते थे। इनमें ब्राह्मण वर्ग शामिल नहीं हुआ करते थे।
शाक्यों एवं लिच्छवियों का प्रशासन तंत्र सरल था, राजा, उप राजा सेनापति, भांडागारी (कोषाध्यक्ष) होते थे। ➠ लिच्छवियों के गणराज्य में एक के ऊपर एक 7 न्याय पीठ हुआ करते थे, जो बारी-बारी से मामले की सुनवाई किया करते थे।
राजतंत्र में प्रजा से राजस्व पाने का दावेदार केवल राजा को होता था।
गणतंत्र में यह दावेदार गण या गोत्र के प्रत्येक प्रधान का होता था, जो राजन कहलाता था।
 गणतंत्र की परंपरा मौर्य काल में कमजोर होने लगी
प्राचीन मनीषियों ने राजतंत्र को ही उत्कृष्ट शासन पद्धति माना है।
प्राचीन बौद्ध पाली ग्रंथ दिधनिकाय में बताया गया है, कि पुरातन काल में मनुष्य सुख से रहते थे।
भारतीय विधि एवं न्याय व्यवस्था का उद्भव इसी काल में हुआ। इसी काल में आकर कबायली समुदाय स्पष्टतया चार वर्णो (वर्गों) में बट गया।
शूद्रों पर हर प्रकार की अपात्रता लाद दी गई, वह धार्मिक और कानूनी अधिकारों से वंचित किए गए और समाज में सबसे नीचे दर्जे में रखे गए।
शूद्रों को दास, शिल्पी और कृषि मजदूर के रूप में द्विज की सेवा करने को कहा गया था।
जैन, बौद्ध संप्रदायों में भी शूद्रों की स्थिति सुधर नहीं पाई। शूद्रों को नए धार्मिक संघ में प्रवेश मिला तो पर उनका स्थान सामान्य से नीचे ही रहा।
गौतम बुद्ध का भी शूद्रों की सभा में जाने का कहीं उल्लेख नहीं मिलता, बुद्ध युग में प्राचीन भारतीय राजतंत्र अर्थतंत्र और समाज का अपना वास्तविक स्वरूप निखारा।
क्षत्रिय को योद्धा, पुरोहित को शिक्षक, किसानों और वैश्य को करदाता कहा गया है, वहीं शूद्र को इन सब का सेवक के रूप में कार्य दिया गया है।

अगले अंक में पढ़ें : मौर्य युग और शासन व्यवस्था।

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