स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण., - Study Search Point

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स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण.,

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भौतिक अवशेष -
➤ प्राचीन भारत के निवासियों ने पीछे अनगिनत भौतिक अवशेष छोड़े हैंजिसमें दक्षिण भारत के मंदिर एवं पूर्वी भारत में ईंटों के बिहार आज विद्यमान हैं।
➤ टीला धरती के ऊपर उभरे भाग को कहते हैंजिसमें नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष विद्यमान रहते हैं।
➤ एकल संस्कृतिमुख्य संस्कृति और बहु संस्कृति के द्योतक इन टीलों को माना जाता है। कुछ टीले केवल चित्रित धूसर मृदभांड अर्थात पेंटेड ग्रे वेअर (पी.जी.डब्ल्यू.) संस्कृति के द्योतक है। यह सातवाहन तथा कुषाण काल की संस्कृति से संबंधित हैं।
➤ टीले की खुदाई दो प्रकार से की जाती है और अनुलंब तथा क्षैतिज।
अनुलंब - सीधी खड़ी लंबवत खुदाई हैयह कम खर्चीला तथा संस्कृति का अच्छा खासा कलानुक्रमिक सिलसिला बताने में सहायक होता है।
क्षैतिज - टीले के बृहद क्षेत्र में चारों ओर की जाने वाली खुदाई होती हैयह अत्यधिक समय और खर्चीली वाली होती है। इससे स्थान विशेष की संस्कृति का पूर्ण आभास पा सकते हैं।
➤ शुष्क जलवायु होने के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेशराजस्थानपश्चिमोत्तर भारत के पुरावशेष सुरक्षित रहे हैंतो वहीं मध्य गंगा घाटी एवं डेल्टा क्षेत्रों में नम जलवायु आद्र होने के से लोहे के औजार भी संक्षारित हो गए एवं कच्ची मिट्टी के बने अवशेष खोजना कठिन रहा है।
➤ पश्चिमोत्तर भारत में हुए उत्खनन से यहां पर नगरों की स्थापना लगभग 2500 ईसा पूर्व होने के प्रमाण मिलते हैं।
➤ दक्षिण भारत में कुछ लोग मृत व्यक्तियों के शव के साथ औजार, (हथियार) मिट्टी के बर्तन भी कब्र में रखते और उसके चारों ओर बड़े पत्थरों को खड़ा कर उन्हें दफनाया जाता। इन स्मारकों को महापाषाण (मेगालिथ) कहा जाता है।
➤ प्राचीन काल के लोग लोगों के बारे में पुराने टीलों के क्रमिक स्तरों से जो भौतिक जीवन की जानकारी मिलती है उसे पुरातत्व (आर्किअंलॉजि) कहते हैं।
➤ रेडियो कार्बन की काल निर्धारण विधि से यह निर्धारित किया जा सकता हैकि इनका समय काल क्या रहा।
➤ C-14 कार्बन रेडियोधर्मी (रेडियो एक्टिव) समस्थानिक (आइसोटोप) हैजो सभी प्राणवादी वस्तुओं में विद्यमान होता है। सभी पदार्थों की रेडियोधर्मी पदार्थों का क्षय एक निश्चित समान गति से होता है जिसे काल निर्धारण आसानी से किया जा सकता है।
➤ यदि कोई वस्तु जीवित रहती हैतो C-14 के क्षय की प्रक्रिया के साथ हवा और भोजन की खुराक से उस वस्तु में C-14 का समन्वय भी होता रहता है। C-14 का आधा जीवन काल 5568 वर्ष तक माना जाता है।
➤ पौधों के अवशेषों का परीक्षण कर विशेषत: पराग के विश्लेषण द्वारा जलवायु और वनस्पति का इतिहास मिलता है। इसी आधार पर राजस्थान तथा कश्मीर में कृषि का प्रचलन 7000 ईसा पूर्व से 6000 ईसा पूर्व था।
➤ पशुओं की हड्डियों का परीक्षण कर अनेक कार्य एवं पालतू होने का पता चलता है।

सिक्के -
➤ प्राचीन भारत में कागज की मुद्रा ना होने से सिक्के भी इसके इतिहास की कई जानकारी देते है। सिक्कों का अध्ययन को मुद्रा शास्त्र (न्यूमिसमेटिक्स) कहते हैं।
➤ सिक्कों के सांचे पकाई गई मिट्टी से बना बनाए जाते थेअधिकांश सांचे कुषाण काल तीसरी सदी से प्राप्त हुए हैं। वहीं गुप्तोत्तर काल में यह सांचे लगभग लुप्त हो गए।
➤ कोलकाता के इंडियन म्यूजियमलंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में इन सिक्कों की ऐसी सूची उपलब्ध हैजो विभिन्न राजवंशों से संबंधित रहे हैं।
➤ इन सिक्कों में प्रतीकराजाओं के नाम तिथियां एवं देवताओं के नाम अंकित है। सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर काल में मिले हैंजो विशेषत: शीशेपोटिनताबेकांसेचांदी और सोने के बने हैं।
➤ गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के सबसे अधिक जारी किएइन सिक्कों से व्यापार की उत्कृष्टता का ज्ञान होता है। गुप्तोत्तर काल में बहुत कम सिक्के मिले हैं जो व्यापार की शिथिलता को दिखाता है।
अभिलेख -
➤ सिक्कों से भी अधिक महत्व इतिहास के अभिलेखों का है। अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (एपिग्रेफी) कहा जाता है। अभिलेखों तथा दूसरे दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पूरालिपिशास्त्र (पेलिअंग्रेफि) कहा जाता है।
➤ समग्र देश में अभिलेख पत्थरों पर खुदे मिलते हैंकिंतु ईसा के आरंभ में यह ताम्रपत्रों पर लिखे जाने आरंभ किए गए।
➤ अभिलेख खोदने की परिपाटी दक्षिण भारत में सर्वाधिक विकसित रही। सर्वाधिक अभिलेख मैसूर में मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय में संग्रहित किए गए हैं।
➤ ईसा पूर्व तीसरी सदी के आरंभिक अभिलेख प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं। ईसा की दूसरी सदी में संस्कृत के अभिलेख साथ ही चौथी और पांचवी सदी में सर्वत्र ही संस्कृत के अभिलेख लिखे गए हैं। साथ ही प्राकृत भाषा भी जारी रही।
➤ मौर्य कालमौर्योत्तर कालऔर गुप्त काल के अधिकांश अभिलेख "कार्पस इनस्क्रिप्शनम इडिकेरम" नामक ग्रंथ माला में संकलित किए गए हैं।
➤ गुप्तोत्तर अभिलेख अभी भी सुव्यवस्थित नहीं किए गए है। लगभग 50 हजार अभिलेख प्रकाशन की प्रतीक्षा में है।
➤ हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अभी तक नहीं पढ़े जा सके हैं।
अशोक के अभिलेख ब्राह्मी लिपि के उत्तीर्ण किए गए हैंजो बाएं से दाएं लिखी जाती हैइसके अलावा अभिलेख खरोष्ठी लिपि में भी अभिलेख पाए गए हैंयह लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती है।
➤ पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अशोक कालीन शिलालेख यूनानी और आरामाइक लिपियों में भी लिखे गए हैं।
➤ गुप्त काल के अंत तक ब्रह्मी देश की मुख्य लिपि रही।
➤ आठवीं सदी तक के सभी अभिलेख पढ़े जा सकते हैंइसके बाद की लिपि में भारी अंतर देखा जा सकता है।
➤ सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों में मिलता हैजो लगभग 2500 ईसा पूर्व के हैं।
➤ सबसे प्राचीन अभिलेख जो पढ़ा जा सका है वह ईसा पूर्व तीसरी सदी का अशोक के अभिलेख हैं।
➤ चौदहवीं सदी में फिरोज शाह ने अशोक के मेरठ तथा हरियाणा के टोपरा नामक अभिलेख को दिल्ली मंगवाया और पढ़ने की कोशिश की परंतु असफल रहा।
➤ अभिलेख पढ़ने में सफलता 1837 में जेम्स प्रिंसेस को मिली।
➤ अभिलेखों को ताम्रपत्रपत्थरोंमंदिरों की दीवारोंमूर्तियों पर भी लिखे जाते थेजिनमें राजाओं का केवल गुणगानगुणों और उनकी विजयों का ही वर्णन रहा ना की कमजोरियों का। प्रयाग प्रशस्ति (समुद्रगुप्त से संबधित) इसका एक उत्तम उदाहरण माना जा सकता है।

साहित्यिक स्रोत -
➤ भारत के लोगों को लिपि का ज्ञान 2500 ईसा पूर्व भी थापरंतु हम प्राचीनतम पांडुलिपिया ईसा की चौथी सदी से पहले की नहीं पातेयह पांडुलिपियों मध्य एशिया से मिली है।
➤ भारत में पांडुलिपिया भोजपत्रोताम्रपत्रपर लिखी गई तोमध्य एशिया में यह मेष चरम तथा काष्ठफलकों पर लिखी गई।
➤ भारत में अधिकतर पांडुलिपिया संस्कृत भाषा में लिखी गईतथा ये दक्षिण भारत कश्मीर व नेपाल से अधिक मात्रा में प्राप्त हुई।
➤ धार्मिक पुराणग्रंथ साहित्यभी प्राचीन भारत की संस्कृति का बोध कराती है।
ऋग्वेद को 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व के आस-पास लिखा माना जाता है। वहीं अथर्ववेदयजुर्वेदब्राह्मण ग्रंथोंआरण्यको तथा उपनिषदों को 1000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व के समय में लिखा माना गया है।
➤ वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझने के लिए वेदांग का अध्ययन आवश्यक है। वेदांग की संख्या 6 मानी गई है ये है - शिक्षा (उच्चारण विधि)कल्प (कर्मकांड)व्याकरण निरुक्तभाषा विज्ञानछंदतथा ज्योतिष।
➤ सूत्र लेखन का सबसे विख्यात उदाहरण पाणिनि का व्याकरण (अष्टाध्याई) हैजो 400 ईसा पूर्व में लिखा गया है।
➤ महाभारत रामायण तथा पुराणों का अंतिम रूप से संकलन 400 ईवी के आसपास हुआ।
➤ महाभारत महर्षि व्यास रचित कृति हैजिसे दसवीं ईसा पूर्व से चौथी सदी ईस्वी तक की सामाजिक स्थिति का बोध मिलता है। आरंभ में महाभारत में 8800 श्लोक की रचना कर जय नाम से जाना गयाआगे चलकर 24 हजार श्लोक होने पर इसका नाम भारत पड़ा। वहीं एक लाख श्लोक होने पर यह महाभारत बनाइसे "शतसाहस्त्री संहिता" भी कहा जाता है।
इसमें कौरव - पांडव के बीच युद्ध उत्तर वैदिक काल के समय के होने का वर्णन मिलता है।
➤ महाभारत का विवरनात्मक अंश वेदोत्तर काल से तथा उपदेशात्मक अंश मौर्योत्तर काल और गुप्तोत्तर काल के संदर्भ में होता है।
➤ रामायण की रचना बाल्मिक के द्वारा की गईइसमें आरंभ में 6000 श्लोक थे जो आगे चलकर 12000 लोग हुए और अंततः 24000 श्लोकों की संख्या  गई। महाभारत की अपेक्षा रामायण अधिक ग्रंथ है। रामायण की रचना ईसा पूर्व पांचवी सदी में शुरू हुई तब से यह अब तक 5 अवस्थाओं से गुजरा है।
➤ राजाओं के और उच्च वर्गों के धनाढ्य पुरुषों द्वारा अनुष्ठान श्रोत सूत्रों में वर्णित किए गए हैं। राज्याभिषेकआडंबर पूर्ण अनुष्ठान भी इसी में शामिल है।
➤ जातकर्मनामकरणविवाहउपनयन संस्कारघरेलू एवं पारिवारिक अनुष्ठान गृहय सूत्रों में की गईश्रोत सूत्रोंगृहय सूत्रों सूत्रों की रचना 600 ईसा पूर्व से 300 ईसा पूर्व के आसपास मानी जाती है।
➤ मापन संबंधी यज्ञ वेदियों के निर्माण की जानकारी शुल्वसूत्रों से मिलती है। यहीं से ज्यामितीय और गणित का अध्ययन भी आरंभ हुआ।
➤ प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पाली भाषा में लिखे गए हैंपाली भाषा दक्षिण बिहार (मगध) में बोली जाती थी।
➤ ईसा पूर्व दूसरी सदी में बौद्ध ग्रंथों को श्रीलंका में संकलित किया गया।
➤ बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएं जातक कथाएं कहलाती हैयह कथाएं (जातक संग्रह) ईसा पूर्व पांचवी सदी से दूसरी सदी ईसवी सन तक सामाजिकआर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालती हैं।
➤ जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई है यह ग्रंथ इसवी सन की छठी सदी में गुजरात के वल्लभी नगर में संकलित किए गए। व्यापार तथा व्यापारियों का उल्लेख जैन ग्रंथों में बार-बार मिलता है।
➤ धर्मशास्त्र (धर्मसूत्रस्मृतियों एवं टीकाओं) तीन अंगों से मिलकर बना है।
➤ धर्मसूत्र का संकलन 500 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के मध्य किया गया, और स्मृतियां ईसा की आरंभिक 6 सदियों में संहिताबद्ध की गई इसमें राजाओं तथा पदाधिकारियों के कर्तव्यों का विधान वर्णित किया गया है।
➤ स्मृतियों में संपत्ति अर्जन, विक्रय, और उत्तराधिकार नियम, विवाह विधान, चोरी, हमला, हत्या, व्यभिचार के लिए दंड का विधान वर्णित किया गया है।
➤ चाणक्य (कौटिल्य) का अर्थशास्त्र 15 खंडों में विभक्त किया गया है, तीसरा और दूसरा खंड अत्यधिक प्राचीन है, ईस्वी सन के प्रारंभ प्राचीन खंड मौर्यकालीन समाज और अर्थतंत्र की झलक दिखाता है।
➤ कालिदास की अभिज्ञान शाकुंतलम् एक सृजनात्मक रचना है, जो गुप्तकालीन उत्तरी तथा मध्य भारत की सामाजिक संस्कृति की झलक दिख लाती है।
➤ प्राचीनतम तमिल ग्रंथ जो संगम साहित्य में संकलित हैं कवियों तथा भाटों ने तीसरी चौथी सदी में इसे सृजित किया। संगम कृतियों का संकलन ईस्वी की आरंभिक चार सदियों में हुआ। अंतिम संकलन छठी सदी में किया गया।
➤ संगम साहित्य में पद्य 30 हजार पंक्तियों में मिलते हैं जो आठ एट्टन्तोंकै (संकलन) में विभक्त हैं। पद्य सौ – सौ के समूहों में संग्रहीत है। जैसे – पूरूनानूरु (बाहर के चार शतक) आदि है।
➤ मुख्य समूह दो है – पेटिनेडिकल पट्टीनेनकील कणक्कू (18 निम्न संग्रह) तथा पत्तपाट्ट (10 गीत) इसमे प्रथम समूह पुराना है।
➤ संगम ग्रंथ बहुस्तरीय है परंतु संप्रति शैली और विषय वस्तु के आधार पर इसका स्तर निर्धारण नहीं किया जा सकता।
➤ संगम धर्म ग्रंथ नहीं है इसके मुक्तको और प्रबंधनकाव्यों की रचना अनेक कवियों के द्वारा की गई है इसमें नायक नायिकाओं का गुणगान है यह आदिम कालिक गीत ना होकर परिष्कृत साहित्य का दर्शन कराते हैं। संगम की तुलना होमर युग के वीरगाथा काव्यों से की जाती है।
➤ संगम साहित्य में चेर राजाओं के नाम दानकर्ता के रूप में ईसा की पहली-दूसरी सदी के दानपात्रों में भी आए हैं।
➤ संगम ग्रंथों में उल्लेखित कावेरिपट्टनम एक समृद्धि पूर्ण अस्तित्व पुरातात्विक साक्ष्य से समर्थित हुआ है।

विदेशी विवरण -
 यूनानी लेखकों ने 326 ईसा पूर्व भारत पर सिकंदर के समकालीन के रूप में सेंट्रोकोट्स नाम का उल्लेख किया। यह सेंट्रोकोट्स तथा चंद्रगुप्त मौर्य जिसके राज्याभिषेक की तिथि 322 ईसा पूर्व हैदोनों एक ही है।
 चंद्रगुप्त के दरबार में दूत बनकर आए मेगास्थनीज ने इंडिका पुस्तक की रचना की है। जिससे मौर्यकालीन समाज तथा आर्थिक स्थिति के बारे में इससे जानकारी प्राप्त की जाती जा सकती है।
 ईसा की पहली और दूसरी सदियों में यूनानी एवं रोमन विवरण में भारतीय बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है।
 यूनानी भाषा में लिखा "पेरिप्लस ऑफ द एरिथरियन सी" और टॉलमी की ज्योग्राफी नामक पुस्तकों में प्राचीन भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन की सामग्री है।
➤ ईसवी सन 80 से 115 ईसवी के बीच लिखी (एक अज्ञात यूनानी नाविक लेखक की) पुस्तक "पेरिप्लस ऑफ द एरिथरियन सी" में लाल सागर फारस की खाड़ी तथा हिंद महासागर से रोमन व्यापार का वृतांत विवरण दिया गया है।
 प्लिनी की पुस्तक नेचुरलिस हिस्टोरिका ईसा की पहली सदी की है, जो लैटिन भाषा में लिखी गई रचना है। यह भारत और इटली के बीच व्यापार के बारे में जानकारी देती है।
 फाह्यान ईसा की पांचवी सदी के आरंभ के समय गुप्त काल में भारत आया, जिसकी रचना "फो को की" है।
 व्हेन सांग सातवीं सदी के दूसरे चतुर्थांश में हर्षवर्धन के काल भारत आया, जिसकी रचना "सी यू की" है।

साहित्यिक दृष्टि -
 पुराणों की संख्या 18 है, विषय वस्तु की दृष्टि से यह विश्वकोश जैसे है।
 पुराणों में चार युग हैं कृत युग, त्रेता युग, द्वापरयुग, कलियुग,
 विक्रमी संवत 57 ईसा पूर्व से आरंभ हुआ।
 शक संवत 78 ईसवी से आरंभ।
 गुप्त संवत 319 ईसवी से आरंभ हुआ।
 अशोक ने 37 वर्ष तक शासन किया, उसके शिलालेखो में राज्य काल के आठवें से लेकर 27 वर्ष तक की घटनाएं वर्णित है, अब तक केवल 9 वर्षों की घटनाओं की जानकारी मिली है।
 ईसा की पहली सदी में कलिंग के खारवेल ने हाथी गुफा अभिलेख में अपने जीवन की बहुत सी घटनाओं का वर्ष वार जिक्र किया है।
 हर्षचरित की रचना बाणभट्ट ने ईसा की सातवीं सदी में की। अलंकारों की जटिलता के कारण परवर्ति नकलचियों को इस रचना से निराशा मिलती है।
 संध्याकार नंदी में रामचरित (12वीं सदी) में बताया कि कैवर्त जाति के किसानों और पाल वंश के राजा रामपाल के बीच संघर्ष और रामपाल की विजय का विवरण मिलता है।
 विल्हण की विक्रमांकदेवचरित में कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य पंचम (1076-1127) के पराक्रम का विवरण मिलता है।
 मुषिकवंश की रचना अतुल ने 11 वीं सदी में की, इससे उत्तरी केरल के मूषक वंश के राजाओं की जानकारी मिलती है।
 कल्हण की राजतरंगिणी (राजाओं की धारा) की रचना 12 वीं शताब्दी में की गई यह कश्मीर के राजाओं का चरित्र संग्रह है।

इतिहास का निर्माण -
 अब तक प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक दोनों तरह के बहुत से पुरा स्थलों की खुदाई और छानबीन की गई है। परंतु प्राचीन इतिहास की मुख्यधारा में उसके परिणामों को कोई स्थान नहीं मिल पाया है।
 इतिहासकालीन पुरातत्व भी उतने ही महत्व का है, यद्यपि प्राचीन इतिहास के काल के 150 से अधिक पुरा स्थलों की खुदाई की की गई है। तथापि प्राचीन कालों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के अध्ययन में इन खुदाईयों की प्रासंगिकता का विवेचन सामान्य पुस्तकों में नहीं किया गया है।
 प्राचीन इतिहास अभी तक मुख्य तहत देसी या विदेशी साहित्य के आधार पर ही रचा गया है सिक्कों और अभिलेखों की कुछ भूमिका अवश्य रही किंतु अधिक महत्व ग्रंथों को ही दिया गया है।
 हमें एक और वैदिक युग और दूसरी ओर चित्रित धूसर मृदभांड (पी.जी.डब्ल्यू.) तथा अन्य पुरातात्विक सामग्रियों के बीच पारस्परिक संबंध स्थापित करना है, इस तरह प्रारंभिक पाली ग्रंथों का संबंध उत्तरी काला पालिशदार मृदभांड (एन.बी.पी.डब्ल्यू.) पुरातत्व के साथ जोड़ना होगा और संगम साहित्य से प्राप्त सूचनाओं को उन सूचनाओं के साथ मिलाना है जो प्रायद्वीपीय भारत को आरंभिक पाषाण कालीन पुरातत्व से जोड़ता है।
 पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार अयोध्या के राम का काल दो हजार ईसा पूर्व के आसपास भले ही मानने पर अयोध्या में की गई खुदाई और व्यापक छानबीन से तो यही सिद्ध होता है कि उस काल के आसपास यहां कोई बस्ती थी ही नहीं।
 इसी तरह महाभारत में कृष्ण की भूमिका भले ही महत्वपूर्ण हो पर मथुरा में पाए गए 200 ईसवी पूर्व और 300 ईसवी तक के बीच के अभिलेख और मूर्ति कलाकृतियों से उनके अस्तित्व की पुष्टि नहीं होती है।
 अवश्य ही रामायण और महाभारत दोनों में सामाजिक विकास के विभिन्न चरण ढूंढे जा सकते हैं, इस कारण इसका कारण यह है कि यह महाकाव्य सामाजिक विकास की किसी एक अवस्था के द्योतक नहीं है इनमें अनेक बार परिवर्तन हुए, जैसा कि पहले बताया जा चुका है।
 कई अभिलेखों की उपेक्षा अब तक यह कह कर की जाती रही है कि उनका ऐतिहासिक मूल्य नाममात्र है, "ऐतिहासिक मूल्य" का अर्थ यह मान लिया गया है ऐसी कोई जानकारी जो राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अपेक्षित हो।
 अभी लेखी अनुदान पत्रों का महत्व केवल वंशावली ओं और विजया वलियों के लिए ही नहीं बल्कि और भी विशेष रूप से ऐसी जानकारियों के लिए है कि किन किन नए राज्यों का उदय हुआ, और सामाजिक तथा भूमि व्यवस्था में विशेषता है गुप्तोत्तर काल में क्या-क्या परिवर्तन हुए इस तरह सिक्कों का सहारा केवल हिंद यवन, शकों, सातवाहनों और कुषणो के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए ही नहीं लेना है, बल्कि व्यापार और नगरीय जीवन के इतिहास की झलक पाने के लिए भी लिया जाना आवश्यक है।

अगले अंक मे - पाषाण युग : आदिम मानव.,

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