प्राचीन भारतीय इतिहास के आधुनिक लेखक., - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

प्राचीन भारतीय इतिहास के आधुनिक लेखक.,

Share This
प्राचीन भारत के इतिहास में आधुनिक ढंग से अनुसंधान 18 वीं सदी के उत्तरार्ध में आकर आरंभ किया गया।
सन 1765 में बंगाल और बिहार ईस्ट इंडीज इंडिया कंपनी के शासन के समय हिंदू न्याय व्यवस्था में कठिनाई का अनुभव किया जाने लगा।
सन 1776 में आधुनिक प्रमाणिक मनुस्मृति का अंग्रेजी में अनुवाद “ए कोड ऑफ जेंटू लांज” नाम से किया गया।
सन 1784 में बंगाल में “एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल” नामक शोध संस्थान की स्थापना की गई, इसकी स्थापना विलियम जोंस (1746 से 1794) ने की थी।
सन 1785 में विल्किंसन ने "भगवत गीता" का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया।
सन 1789 में विलियम ने "अभिज्ञान शाकुंतलम्" का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया।
सन 1804 में मुंबई  में “एशियाटिक सोसाइटी” की स्थापना की गई।
सन 1823 में लंदन में “एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन” की स्थापना की गई।
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड तथा अन्य यूरोपीय देशों में भारतीय संस्कृति को जानने के लिए संस्कृत के आचार्य पद स्थापित किए गए।
विलियम जोंस ने यह प्रतिपादित किया कि मूलतः यूरोपीय भाषाएं संस्कृत तथा ईरानी भाषाओं से कुछ मिलती जुलती है।
जर्मनी के सपूत एफ. मैक्समूलर (1823-1902) ने भारतीय विद्या के अध्ययन को बढ़ावा दिया। मैक्स मूलर के संपादकत्व में विशाल मात्रा में प्राचीन भारतीय धर्म ग्रंथों का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया गया, जो कि "सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट” सीरीज में कुल 50 खंड में प्रकाशित किया गया, जिसमें चीनी तथा ईरानी ग्रंथ भी शामिल किए गए थे।
पाश्चात्य विद्वानों ने दृढ़ता पूर्वक कहा कि भारतवासियों को ना तो राष्ट्रीय भावना का एहसास था और ना किसी प्रकार के स्वशासन का अनुभव, ये निष्कर्ष विंसेट आर्थर स्मिथ (1845-1920) में अपनी पुस्तक "अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया" में प्रकाशित किया।
प्राचीन भारत का पहला सुव्यवस्थित इतिहास 1904 में तैयार किया गया।
इतिहास के प्रति स्मिथ का दृष्टिकोण साम्राज्यवादी था, अपनी पुस्तक के 1/3 भाग केवल में केवल सिकंदर के आक्रमण का वर्णन कर भारत को स्वेच्छाचारी शासन वाला देश बताया।
चीनियों की तुलना में भारतवासियों में तिथि क्रम का कोई प्रबल बोध नहीं दिखता है।
भारत के विद्वानों विशेषकर जो पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त किए थे, उनके लिए यह एक चुनौती बनकर सामने आया। जहां एक ओर उपनिवेशवादियों द्वारा भारतीय इतिहास को तोड़ मरोड़ कर उसकी छवि धूमिल करना, तो वहीं दूसरी ओर भारत के प्रमुख सामंती समाज और फलता फूलता पूंजीवादी इंग्लैंड समाज इसका मुख्य कारण बना।
भारतीय विद्वानों की दृढ़ता के कारण प्राचीन भारतीय इतिहास को पुनर्निर्माण करने, समाज में सुधार लाने से भी बढ़कर स्वराज प्राप्त करना अधिक प्रभावी रहा।
अधिकतर विद्वान हिंदू पुनर्जागरण से प्रभावित थे पर कुछ विद्वान तर्क निष्ठ और वस्तुनिष्ठ रुख अपनाए हुए थे जिसमें -
राजेंद्र लाल मित्र (1822-1891) ने वैदिक मूल ग्रंथ प्रकाशित किए और "इंडो एरियंस" नाम की पुस्तक लिखी। मित्र ने तर्क निष्ठ दृष्टि से एक जबरदस्त पुस्तिका लिखकर यह सिद्ध किया कि प्राचीन काल के लोग गौ मांस खाते थे।
कुछ विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वर्णव्यवस्था श्रम विभाजन पर आश्रित थी जो यूरोप के प्राक औद्योगिक और प्राचीन समाज की वर्ण व्यवस्था से भिन्न नहीं थी।
महाराष्ट्र में रामकृष्ण गोखले भंडारकर (1837-1925) और विश्वनाथ काशी नाथ राजवाडे (1869-1926) ने देश के सामाजिक व राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए विभिन्न स्रोत बटोरे।
आर.जी. भंडारकर ने सातवाहनों के दक्कन के इतिहास और वैष्णव, अन्य संप्रदायों के इतिहास को पुनर्निर्माण करने का कार्य किया। इन्होंने विधवा विवाह के समर्थक तथा बाल विवाह जाति प्रथा का खंडन किया।
वी.के. राजवाड़े ने संस्कृत की पांडुलिपियों और मराठा इतिहास को सहेजने के लिए महाराष्ट्र के गांव-गांव घूमे तथा 22 खंडों में इसे प्रकाशित किया, साथ ही 1926 में मराठी विवाह प्रथा पर एक ऐतिहासिक पुस्तक भी लिखी। यह रचना वैदिक तथा अन्य शस्त्रों के ठोस आधार पर खड़ी थी।
पांडुरंग वामन काणे  (1880-1972) संस्कृत के प्रकांड विद्वान व समाज सुधारक रहे, इन्होंने विशाल कीर्ति स्तंभ "हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र" को पांच खंडों में प्रकाशित किया, जो सामाजिक नियमों और आचारों का विश्वकोश कहलाया।
भारतीय विद्वानों ने राज्यव्यवस्था एवं राजनीतिक इतिहास का गंभीरता से अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि भारत को अपनी एक राजनीतिक इतिहास तथा प्रशासन की अच्छी जानकारी थी।
पुरालेख विद देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर (1875-1950) ने भी अशोक पर तथा प्राचीन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं पर पुस्तक लिखी।
हेमचंद्र रायचौधरी (1892-1957) ने महाभारत काल से (ईसा पूर्व 10 वीं सदी) लेकर गुप्त साम्राज्य के अंत तक प्राचीन भारत के इतिहास का पुनर्निर्माण किया। और तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनाया, काल विभाजन की समस्या का विवेचन नहीं किया। साथ ही वी. ए. स्मिथ के योगदान को भारतीय इतिहास के लिए सराहा है। राय चौधरी ने कई बातों की आलोचना की, जहां रायचौधरी अशोक की शांति नीति की भी आलोचना करते है  वहाँ इनका घोर ब्राह्मणवाद आग्रह भी प्रकट होता है।
हिंदू पुनर्जागरणवाद का इसे भी अधिक पुट आर.सी. मजूमदार (1888-1980) के लेखों में मिलता है, यह लेख "हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडियन पीपुल" में संपादित किए गए हैं।
प्राचीन इतिहासकारों ने दक्षिण भारत की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया। इसी का अनुसरण इतिहास विद के. ए. नीलकंठ शास्त्री (1892-1975) ने भी अपने "ए हिस्ट्री ऑफ एंसिएंट इंडिया" रचना में इसी का अनुसरण किया। लेकिन "ए हिस्ट्री ऑफ साउथ इंडिया" लिखकर इसमें एक सुधार किया, शास्त्री की शैली तो कसी हुई, पर लेख प्रांजल है।
सन 1960 तक अधिकाधिक भारतीय विद्वान राजनीतिक इतिहास की ओर आकृष्ट रहे।
के.पी. जायसवाल (1881-1937) ए. एस. अल्तेकर एवं अन्य विद्वानों ने शकों और कुषाणों के शासन से मुक्त होने के लिए भारतीय राजवंशों की भूमिका को बढ़ा चढ़ाकर दिखाया। तथा मध्य एशिया के कबीले भारतीय जीवन को नजरअंदाज कर दिया।
के.पी. जायसवाल का सबसे बड़ा श्रेय भारतीय तानाशाही की कायोल कल्पना का अंत किया जाना है। सन 1910-12 के लेख में यह सिद्ध किया कि भारत प्राचीन काल में गणराज्य था। 1924 में "हिंदू पॉलिटी" में इनके मंतव्य प्रकाशित हुए।
यू. एन. घोषाल (1886-1969) सहित अनेक लेखकों ने इस पर आपत्ति जताई कि जायसवाल ने प्राचीन काल में राष्ट्रीय भावना की कलाई चढ़ा दी है। "हिंदू पॉलिटी" (संप्रति छठे संस्करण में) एक क्लासिक रचना मानी जाती है।
 ब्रिटिश इतिहासकार और संस्कृत विद ए. एल. वैशम (1914-1986) में प्रश्न उठाया की प्राचीन भारत को आधुनिक दृष्टिकोण से देखना कहां तक उचित है, इनकी नास्तिक संप्रदायों के भौतिकवादी दर्शन में गहरी रुचि थी। इनकी पुस्तक "वंडर दैट वाज इंडिया" (1951 में प्रकाशित) में प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता विभिन्न पक्षों का सुव्यवस्थित सर्वेक्षण है, जो दृष्टि दोषों से रहित है जो कि स्मिथ तथा अन्य ब्रिटिश लेखकों की कृतियों में साफ दिखता है।
बेशम की [ "वंडर दैट वाज इंडिया" (1951 में प्रकाशित) ] यह पुस्तक ही राजनीतिक इतिहास की ओर से अराजनीतिक इतिहास की ओर भारी मोड़ दिलाती है।
यही मोड़ डी.डी. कोसंबी (1907-1966) की पुस्तक "एन इंट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री" (1957 में प्रकाशित) में लक्षित होता है इनके विचार "एंसिएंट एंड इंडियन कल्चर एंड सिविलाइजेशन : ए हिस्टॉरिकल आउटलाइन" (1965 में प्रकाशित) से अधिक (विस्तृत) फैले हैं।
कोसंबी ने भारतीय इतिहास को नया रास्ता दिखाया, ये एक भौतिकवादी व्याख्याकार थे, जो कार्ल मार्क्स के लेखों से निकाली जाती है।
कोसंबी ने ही सर्वप्रथम अपनी पुस्तक में जनजतियों और अन्य वर्गों की प्रक्रियाओं की दृष्टि से सामाजिक व आर्थिक विकास की अवस्थाओं का सर्वेक्षण किया। वैशम सहित अनेक लेखकों ने इसकी आलोचना भी की।
पिछले 25 वर्षों में भारतीय प्राचीन इतिहास के प्रति कार्य करने वाले विद्वानों की कार्य प्रणालियों और दिशा निर्धारण में महानतम परिवर्तन आया है, सामाजिक आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों पर जोर देकर उसे एक राजनीतिक गतिविधियों से जोड़ने का प्रयास प्रमुख रहा है।

निष्कर्ष – अंध देशभक्त और परिमार्जित उपनिवेशवादी दोनों ही अतीत के अध्ययन का प्रयोग भारत की प्रगति रोकने के लिए करते है, अतः यह आवश्यक है कि प्राचीन भारत को संतुलित और वस्तुनिष्ठ ढंग से देखा जाए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Pages