प्रमुख पक्षी ( वन्यपक्षी ) - Study Search Point

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प्रमुख पक्षी ( वन्यपक्षी )

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मोर अथवा मयूर एक पक्षी है जिसका मूलस्थान दक्षिणी और दक्षिणपूर्वी एशिया में है। ये ज़्यादातर खुले वनों में वन्यपक्षी की तरह रहते हैं। नीला मोर भारत और श्रीलंका का राष्ट्रीय पक्षी है। नर की एक ख़ूबसूरत और रंग-बिरंगी फरों से बनी पूँछ होती है, जिसे वो खोलकर प्रणय निवेदन के लिये नाचता है, विशेष रुप से बसन्त और बारिश के मौसम में। मोर की मादा मोरनी कहलाती है। जावाई मोर हरे रंग का होता है। मोर के अद्भुत सौंदर्य के कारण ही भारत सरकार ने 26 जनवरी, 1963 को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया। भारतीय जनमानस के मन में बसा और आस्थाओं से रचाबसा पक्षी मोर, (पैवो क्रिस्टेटस) भारत का राष्‍ट्रीय पक्षी है। इसकी दो प्रजातियाँ हैं- नीला या भारतीय मोर (पैवो क्रिस्टेटस), जो भारत और श्रीलंका (भूतपूर्व सीलोन) में पाया जाता है। हरा या जावा का मोर (पैवो म्यूटिकस), जो म्यांमार (भूतपूर्व बर्मा) से जावा तक पाया जाता है। 1913 में एक पंख मिलने से शुरू हुई खोज के बाद 1936 में कांगो मोर (अफ़्रो पैवो कॉनजेनेसिस) का पता चला।

मोर के अन्य नाम

  • फैसियानिडाई परिवार के सदस्य मोर का वैज्ञानिक नाम पैवो क्रिस्टेटस है।
  • अंग्रेज़ी भाषा में इसे ब्ल्यू पीफॉउल अथवा पीकॉक कहते हैं।
  • संस्कृत भाषा में यह मयूर के नाम से जाना जाता है।
  • अरबी भाषा में मोर को ताऊस कहते हैं।
  • मोर को नागान्तक भी कहते हैं।

मोर एक बहुत ही सुन्दर, आकर्षक तथा शान वाला पक्षी है। बरसात के मौसम में काली घटा छाने पर जब यह पक्षी पंख फैला कर नाचता है तो ऐसा लगता है मानो इसने हीरों-जड़ी शाही पोशाक पहनी हो। इसलिए इसे पक्षियों का राजा कहा जाता है। पक्षियों का राजा होने के कारण ही सृष्टि के रचयिता ने इसके सिर पर ताज जैसी कलगी लगाई है।

मैना पक्षी
मैना शाखाशयी गण के स्टनींडी कुल की पक्षी है, जो कत्थर्स, भूरी, सिलेटी, या चितली होती है। यह पहाड़ी मैनाओं से भिन्न है, जो जगलों की अपेक्षा बस्ती के बागों और जलाशयों के किनारे रहना अधिक पसंद करती है। यह सर्वभक्षी पक्षी है, जो क़द में फाखता के बराबर होती है। कुछ मैना पक्षी अपनी मीठी बोली के लिय प्रसिद्ध हैं।

निम्नलिखित पाँच मैना बहुत प्रसिद्ध हैं : -
  1. तैलियर, या स्टालिंग :- इसे अपनी मीठी बोली के कारण अंग्रेज़ी साहित्य में वही स्थान प्राप्त है, जो हमारे यहाँ पहाड़ी मैना को है।
  2. किलहँटा, या देशी मैना :- बस्ती बाग़ में रहनेवाला यह बहुत प्रसिद्ध पक्षी है।
  3. चुहों, या हरिया मैना :- यह जलाशयों और गाय बैलों के आस-पास रहने वाली पक्षी है।
  4. अबलखा मैना :- काली और सफ़ेद पोशाक वाली पक्षी है।
  5. पवई :- यह बहुत मीठी बोली बोलने वाली पक्षी है।

कबूतर पक्षी
कबूतर एक शांत स्वभाव वाला पक्षी है। कबूतर सभी स्थानों पर भिन्न-भिन्न आकृति वाले होते हैं। कोलंबिडी कुल (गण कोलंबीफॉर्मीज़) की कई सौ प्रजातियों के पक्षियों में से एक छोटे आकार वाले पक्षियों को फ़ाख्ता या कपोत और बड़े को कबूतर कहते हैं। इसका एक अपवाद सफ़ेद घरेलू कबूतर है, जिसे 'शांति कपोत' कहते हैं। कबूतर ठंडे इलाक़ों और दूरदराज़ के द्वीपों को छोड़कर लगभग पूरी दुनिया में पाए जाते हैं। कबूतर पूरे विश्व में पाये जाने वाला पक्षी है। यह एक नियततापी, उड़ने वाला पक्षी है जिसका शरीर परों से ढँका रहता है। मुँह के स्थान पर इसकी छोटी नुकीली चोंच होती है। मुख दो चंचुओं से घिरा एवं जबड़ा दंतहीन होता है। 

अगले पैर डैनों में परिवर्तित हो गए हैं। पिछले पैर शल्कों से ढँके एवं उँगलियाँ नखरयुक्त होती हैं। इसमें तीन उँगलियाँ सामने की ओर तथा चौथी उँगली पीछे की ओर रहती है। यह जन्तु मनुष्य के सम्पर्क में रहना अधिक पसन्द करता है। अनाज, मेवे और दालें इलका मुख्य भोजन हैं। भारत में यह सफेद और सलेटी रंग के होते हैं पुराने जमाने में इसका प्रयोग पत्र और चिट्ठीयां भेजने के लिये किया जाता था। कबूतरों को पालतू बनाए जाने का सबसे पुराना उल्लेख मिस्र के पांचवे राजवंश (लगभग 300 ई.पू) से मिलता है। 1150 ई. में बग़दाद के सुल्तान ने कबूतरों की डाक व्यवस्था शुरू की थी और चंगेज़ ख़ां ने अपने विजय अभियानों के विस्तार के साथ ऐसी ही प्रणाली का उपयोग किया था। 1848 की क्रांति के दौरान यूरोप में संदेश वाहक के रुप में कबूतरों का व्यापक इस्तेमाल हुआ था और 1849 में बर्लिन व ब्रूसेल्स के बीच टेलीग्राफ़ सेवा भंग होने पर कबूतरों को ही संदेश वाहक रुप में प्रयुक्त किया गया था। 20 वीं शताब्दी में भी युद्धों के दौरान कबूतरों को आपात संदेश ले जाने के लिए इस्तेमाल किया गया। अमेरिका के आर्मी सिगनल कॉर्प्स के कबूतर की उड़ान का कीर्तिमान 3,700 किलोमीटर का है।

पहाड़ी मैना पक्षी
पहाड़ी मैना अथवा 'सारिका' शाखाशायी गण के ग्रेकुलिडी कुल का प्रसिद्ध पक्षी है। यह अपनी मीठी बोली के कारण शैकीनों द्वारा पिंजड़ों में पाला जाता है। भारत में भी यह पक्षी बड़ी संख्या में पाया जाता है। छत्तीसगढ़ राज्य में तो मैना को विशिष्ट सम्मान प्राप्त है और इसे यहाँ का 'राजकीय पक्षी' घोषित किया गया है। अंग्रेज़ी साहित्य में स्टालिंग को जो स्थान प्राप्त है, वही मैंना को हमारे साहित्य में मिला हैं। 'आम हिल Myna ( सारिका), कभी - कभी "मैना" वर्तनी और पूर्व बस"हिल Myna रूप में जाना जाता! सबसे अधिक मैना पक्षी में देखा पक्षीपालन, जहां यह अक्सर बस बाद के दो नामों से करने के लिए भेजा. यह का एक सदस्य है मैना परिवार (Sturnidae), के पहाड़ी क्षेत्रों में निवास दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया श्रीलंका हिल Myna, एक पूर्व उपप्रजातिजी religiosaआम तौर पर एक अलगप्रजातियोंजी के रूप में स्वीकार कर लिया है!

आजकल ptilogenys. Enggano हिल Myna (जी enganensis) और Nias हिल Myna (जीrobusta) भी व्यापक रूप से कर रहे हैं विशेष रूप से अलग रूप में स्वीकार किए जाते हैं और कई लेखकों के इलाज के पक्ष 'दक्षिणी हिल Myna (जी आरइंडिका) से नीलगिरी और दूसरी जगहों में भी एक अलग प्रजातियों के रूप में भारत का पश्चिमी घाट। मैना गिरोह में रहने वाला पक्षी है, जो हमारे देश भारत को छोड़कर कहीं बाहर नहीं जाता। इसकी कई जातियाँ भारत में पाई जाती हैं, जिनमें थोड़ा ही भेद रहता है। मैना का सारा शरीर चमकीला काला रहता है, जिसमें बैंगनी और हरी झलक रहती है। डैने पर एक सफ़ेद चित्ता रहता है और आँखों के पीछे से गुद्दी तक फीते की तरह पीली खाल बढती रहती है। इसका मुख्य भोजन तो फल-फूल और कीड़े-मकोड़े हैं, लेकिन यह फूलों का रस भी खूब पीती है। मादा फ़रवरी से मई के बीच में दो-तीन नीले और हरे रंग के मिश्रण वाले अंडे देती है।

कोयल या कोकिल 'कुक्कू कुल' का पक्षी है, जिसका वैज्ञानिक नाम 'यूडाइनेमिस स्कोलोपेकस स्कोलोपेकस' है। नर कोयल नीलापन लिए काला होता है, तो मादा तीतर की तरह धब्बेदार चितकबरी होती है। नर कोयल ही गाता है। उसकी आंखें लाल व पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं। नीड़ परजीविता इस कुल के पक्षियों की विशेष नेमत है यानि ये अपना घोसला नहीं बनाती। ये दूसरे पक्षियों विशेषकर कौओं के घोंसले के अंडों को गिरा कर अपना अंडा उसमें रख देती है। स्वभाव से संकोची यह पक्षी कभी किसी के सामने पडऩे से कतराता है।

इस वजह से इनका प्रिय आवास या तो आम के पेड़ हैं या फिर मौलश्री के पेड़ अथवा कुछ इसी तरह के सदाबहार घने वृक्ष, जिसमें ये अपने आपको छिपाए हुए तान छेड़ता है।  कोयल सर्वथा भारतीय पक्षी है; यह इस देश के बाहर नहीं जाती, थोड़ा बहुत स्थानपरिवर्तन करके यहीं रहती है। कोयल 'कुक्कू कुल' कुल का सुप्रसिद्ध पक्षी है। कोयल कीट लार्वा कीड़ों पर फ़ीड और फल को अपना भोजन बनाती है। नर कोयल ही गाता है। कोयल की आंखें लाल व पंख पीछे की ओर लंबे होते हैं। कोयल अपने अंडे दूसरे पक्षियों विशेषकर कौओं के घोंसले में रख देती हैं। कोयल स्वभाव से संकोची होती हैं। इस वजह से इनका प्रिय आवास या तो आम के पेड़ हैं या फिर मौलश्री के पेड़ अथवा कुछ इसी तरह के सदाबहार घने वृक्ष, जिसमें ये अपने आपको छिपाए हुए तान छेड़ता है।

गिद्ध पक्षी
गिद्ध शिकारी पक्षियों के अंतर्गत आनेवाले मुर्दाखोर पक्षी हैं, जिन्हें गृद्ध कुल (Family Vulturidae) में एकत्र किया गया है। ये सब पक्षी दो भागों में बाँटे जा सकते हैं। पहले भाग में अमरीका के कॉण्डर (Condor), किंग वल्चर (King Vulture), कैलिफोर्नियन वल्चर (Californian Vulture), टर्की बज़र्ड (Turkey Buzzard) और अमरीकी ब्लैक वल्चर (American Black Vulture) होते हैं और दूसरे भाग में अफ्रीका और एशिया के राजगृद्ध (King Vulture), काला गिद्ध (Black Vulture), चमर गिद्ध (White backed Vulture), बड़ा गिद्ध (Griffon Vulture) और गोबर गिद्ध (Scavenger Vulture) मुख्य हैं। ये कत्थई और काले रंग के भारी कद के पक्षी हैं, जिनकी दृष्टि बहुत तेज होती है।

शिकारी पक्षियों की तरह इनकी चोंच भी टेढ़ी और मजबूत होती है, लेकिन इनके पंजे और नाखून उनके जैसे तेज और मजबूत नहीं होते। ये झुंडों में रहने वाले मुर्दाखेर पक्षी हैं जिनसे कोई भी गंदी और घिनौनी चीज खाने से नहीं बचती। ये पक्षियों के मेहतर हैं जो सफाई जैसा आवश्यक काम करके बीमारी नहीं फैलने देते। ये किसी ऊँचे पेड़ पर अपना भद्दा सा घोंसला बनाते हैं, जिसमें मादा एक या दो सफेद अंडे देती है। भारत में गिद्ध की जो प्रजातियाँ पायी जाती हैं वह इस प्रकार हैं : -
  • भारतीय गिद्ध (Gyps indicus)
  • लंबी चोंच का गिद्ध (Gyps tenuirostris)
  • लाल सिर वाला गिद्ध (Sarcogyps calvus)
  • बंगाल का गिद्ध (Gyps bengalensis)
  • सफ़ेद गिद्ध (Neophron percnopterus ginginianus)

चील पक्षी 

चील, श्येन कुल, फैमिली फैलकोनिडी (Family falconidae), का बहुत परिचित पक्षी है, जिसकी कई जातियाँ संसार के प्राय: सभी देशों में फैली हुई हैं। इनमें काली चील (Black kite), ब्रह्मनी या खैरी चील (Brahminy kite), ऑल बिल्ड चील (Awl billed kite), ह्विसलिंग चील (Whistling kite) आदि मुख्य हैं। चील लगभग दो फुट लंबी चिड़िया है, जिसकी दुम लंबी ओर दोफंकी रहती है। इसका सारा बदन कलछौंह भूरा होता है, जिसपर गहरे रंग के सेहरे से पड़े रहते हैं।

चोंच काली और टाँगें पीली होती हैं। बाज, बहरी आदि शिकारी चिड़ियों से इसके डैने बड़े, टाँगें छोटी और चोंच तथा पंजे कमजोर होते हैं। चील उड़ने में बड़ी दक्ष होती है। बाजार में खाने की चीजों पर बिना किसी से टकराए हुए, यह ऐसी सफाई से झपट्टा मारती है कि देखकर ताज्जुब होता है। यह सर्वभक्षी तथा मुर्दाखोर चिड़िया है, जिससे कोई भी खाने की वस्तु नहीं बचने पाती। ढीठ तो यह इतनी होती है कि कभी कभी बस्ती के बीच के किसी पेड़ पर ही अपना भद्दा सा घोंसला बना लेती है। मादा दो तीन सफेद या राखी के रंग के अंडे देती है, जिनपर कत्थई चित्तियाँ पड़ी रहती हैं।

टिटहरी जलचर पक्षी 
टिटहरी (Sandpiperसंस्कृत : टिट्टिभ) मध्यम आकार के जलचर पक्षी होते हैं, जिनका सिर गोल, गर्दन व चोंच छोटी और पैर लंबे होते हैं। यह प्राय: जलाशयों के समीप रहती है। इसे कुररी भी कहते हैं। नर अपनी मादा को हवाई करतबों से रिझाता है, जिनमें उड़ान के बीच में द्रुत चढ़ाव, पलटे और चक्कर होते है। यह तेज़ चक्करों, हिचकोलों और लुढ़कन भरी उड़ान है, जिसमें कुछ अंतराल पर पंख फड़फड़ाने की ऊंची ध्वनि दूर तक सुनाई देती है। ये धरती पर मामूली सा खोदकर अथवा थोड़े से कंकरों और बालू से घिरे गढ्डे में घोंसला बनाते हैं। इनका प्रजनन बरसात के समय मार्च से अगस्त के दौरान होता है। ये सामान्यत: दो से पांच नाशपाती के आकार के (पृष्ठभूमि से बिल्कुल मिलते-जुलते, पत्थर के रंग के हल्के पीले पर स्लेटी-भूरे, गहरे भूरे या बैंगनी धब्बों वाले) अंडे देती हैं। टिटहरी का एक बृहद परिवार है विश्व में। इस बड़े परिवार को अक्सर कई पक्षियों के समूहों में विभाजित किया जाता रहा है। 
  

इन समूह आवश्यक रूप से एक ही जाति में शामिल नहीं है, अपितु वे अलग मोनोफाईलेटिक विकासवादी प्रजातियों और सम्मोहों में वर्गीकृत है। यहाँ उसके कई रूपों को प्रस्तुत किया जा रहा है : -
  • कर्लीयुज
जीनस न्यूमेनियस (8 प्रजाति, जो 1-2 हाल ही में विलुप्त)
  • अपलैंड सैंडपाइपर
जीनस बर्ट्रमिया (मोनोटाईपीक)
  • गोड्विट्स
जीनस लिमोसा (4 प्रजाति)
  • डोविचर्स
जीनस लिम्नोड्रोमस (3 प्रजाति)
  • स्नाईप और वूडकोक्स
पीढ़ी और एस्कोलोपैक्स (लगभग 30 प्रजातियों के अलावा कुछ 6 विलुप्त)
  • फलारोप्स
जीनस फलारोप्स (3 प्रजाति)
  • शंक्स और टट्टलर्स
जनेरा, जीनस, एक्टिटिस और त्रिंगा अब काइटोप्ट्रोफोरस तथा हेटरोसेल्स (16 प्रजातियों) भी शामिल है जो
  • पॉलिनेशियन साइंड्पाईपर
जीनस प्रोसीओबेनिया (1 वर्तमान प्रजातियों, 3-5 विलुप्त)
  • काइलिदृड्स और टर्नस्टोन्स
ज्यादातर कई पीढ़ियों में विभाजित किया जा सकता है जो कैलिड्रिस में लगभग 25 प्रजातियों. वर्तमान में स्वीकार अन्य पीढ़ी : एरेनारिया टर्नस्टोन्स -2 के अलावा, अफरिजा, यूरिनोर्हिंचास, लिमिकोला, त्रिङ्गिट्स और फिलोमेचस हैं।[3]
इसी प्रकार दक्षिण एशिया में नौ प्रकार की टिटहरियाँ पायी जाती है :
  • सफ़ेद पूंछ वाली, झूंड में रहने वाली,
  • धूसर रंग के सिर वाली, लाल गलचर्म,
  • श्रीलंकाई लाल गलचर्म वाली,
  • बर्मा की लाल गलचर्म,
  • उभरे हुये पंख वाली
  • उत्तरी इलाके की टिटहरी, जिसे पीविट या हरी चिड़िया भी कहते हैं।
लाल और पीले गलचर्म वाली टिटहरी काफी आम है और बहुतायात में पायी जाती है। लाल गलचर्म वाली टिटहरी की आँखों के आगे लाल मांसल तह होती है, जबकि पीले रंग की टिटहरी की आँखों के सामने चमकीले पीले रंग की मांसल तह और काली टोपी होती है। मादा टिटहरियों का कद नर की तुलना मे छोटा और रंग फीका होता है।

फ़ेज़ेंट पक्षी,
फैसिएनिडी परिवार (गुण गैलीफॉर्मीज़) का कोई भी पक्षी, जो बटेर या चकोर से बड़ा होता है। अपने अन्य रिश्तेदारों (चकोर, बटेर, फ्रैंकोलिन, ग्राउज़ और टर्की) के साथ इसे अक्सर शिकारी पक्षी भी कहा जाता है और ये आर्थिक महत्त्व वाले पक्षी समूह का निर्माण करते हैं, जिसका मनुष्यों के साथ निकट संबंध रहा है। फ़ेज़ेंट मध्यम आकार के पक्षियों का समूह है, जो स्वभावत: भूमिचर होते हैं, इनका सिर अपेक्षाकृत छोटा, नथुने ढंके हुए, मज़बूत पंखविहिन पैर, जिसमें चार उंगलियाँ होती हैं, तीन सामने और एक छोटी पीछे की ओर। लिंग के आधार पर नर-मादा के आकार-प्रकार में स्पष्ट भेद होते हैं, हल्के रंग वाली मादा के मुकाबले नर भड़कीले रंगों से युक्त होते हैं। फ़ेज़ेंटों में इथाजिनिस (लाल फ़ीज़ेंट) और ट्रैगोपॉन को छोड़कर अन्य सभी में पंख केंद्राभिमुख तरीक़े से झड़ते हैं (लंबी पूंछ का सबसे बाहरी पंख पहले और क्रमश: अंदर के पंख झड़ते हैं)।

फ़ेज़ेंट उड़ने में माहिर नहीं होते हैं और ज़्यादातर उड़ने की बजाय हवा में तैरते हैं। फ़ेज़ेंट रंगीन पक्षी होते हैं और इनके रंग कई रंगो के धातुई मिश्रण, जैसे मोनल में चमकदार रक्ताभ लाल रंग पर सफ़ेद धब्बे, जैसे ट्रौगोपॉन में या मोर और मयूर फ़ेज़ेंट के नेत्रवत नमूनों से युक्त पंख जैसे हो जाते हैं। मोर की लंबी पूंछ विख्यात है। औसत रंगीन प्रजातियाँ हैं- ह्यूमस फ़ेज़ेंट (सिरैमेटिकस), चीअर (कट्रेअस) और चमकदार काला फ़ेज़ेंट(कालिज)। जहाँ भी फ़ेज़ेंट की आँखों के चारों ओर नग्न त्वचा होती है और विशेषतया प्रजनन काल में यह चमकदार रंगों से युक्त होती है। कुछ नर फ़ेज़ेंटों में कलगी (मोर, हिमालयी मोनल, चीअर और कालिज) और मांसल उभार (सींग और ललरी) होते हैं, जो प्रजनन काल में प्रदर्शन के दौरान अधिक विकसित हो जाते हैं। नरों से ये सभी शारीरिक लक्षण साथी के चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
भारत में फ़ेज़ेंट पूर्वी हिमालय एक उद्भव केंद्र है, जहाँ से फ़ेज़ेंट सभी दिशाओं में फैले हैं। विश्व में फ़ेज़ेंट की 51 ज्ञात प्रजातियाँ हैं, जिनमें से 21 दक्षिण एशिया में पाई जाती हैं, ये 21 प्रजातियाँ 12 वंशों में समाहित हैं, जिनमें से दो सुपरिचित हैं- मोर (पैवो) और जंगली मुर्गी (गैलस), लाल जंगली मुर्ग़ी (गैलस गैलस) को सभी घरेलू मुर्ग़ियों का पूर्वज माना जाता है।

डोम कौवा नीचे की ओर मुड़ी हुई चोंच वाले पक्षी होते है। ये पक्षी झुंडों में रहते हैं, इनकी आवाज़ सीटी जैसी होती है और ये उड़ने में माहिर होते हैं।

सर्विडी परिवार (गण पैसेरीफॉमीज़) में ब्रिटिश उपद्वीपों से लेकर चीन तक समुद्री चट्टानों और पहाड़ी उच्चभूमि में पाए जाने वाले सामान्य डोम कौवे (पाइरोकोरेक्स पाइरोकोरेक्स) तथा मोरक्को व स्पेन से हिमालय तक के ऊँचे पहाड़ों में पाए जाने वाले एल्पाईन डोम कौवे (पी. ग्रैक्युलस)- ये दो प्रजातियाँ हैं। दोनों की लंबाई लगभग 38 सेमी और रंगनीला-काला होता है। सामान्य डोम कौवे की चोंच लाल रंग की और एल्पाईन डोम कौवे की पीले रंग की होती है।

उल्लू एक विचित्र पक्षी
उल्लू रात्रिचारी पक्षी है जो अपनी आँख और गोल चेहरे के कारण बहुत प्रसिद्ध है। उल्लू के पर बहुत मुलायम होते हैं जिससे रात में उड़ते समय आवाज़ नहीं होती है। ये बहुत कम रोशनी में भी देख लेते हैं। इन्हें रात में उड़कर शिकार करने में परेशानी नहीं होती है। कुछ लोगों का विश्वास है कि आदमी की मृत्यु के समय का इन उल्लुओं को पहले से ही पता चल जाता है और तब ये आसपास के पेड़ पर अक्सर बोलने लगते हैं। उल्लू एक ऐसा विचित्र पक्षी है, जिसे दिन कि अपेक्षा रात में अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। उसे दिखाई तो दिन में भी देता है, लेकिन उतना स्पष्ट नहीं देता जितना कि रात में l इसके कान बेहद संवेदनशील होते हैं और रात में जब इसका कोई शिकार (जानवार) थोड़ी सी भी हरकत करता है, तो इसे पता चल जाता है और यह उसे दबोच लेता है l इसके पैरों में टेढ़े नाखूनों-वाले चार पंजे हैं, जिससें इसे शिकार को दबोचने में विशेष सुविधा मिलती है l चूहे इसका विशेष भोजन हैं l उल्लू लगभग संसार के सभी भागों में पाया जाता है l जिन पक्षियों को रात में अधिक दिखाई देता है, उन्हें रात का पक्षी (Nocturnal Birds) कहते हैं। बड़ी आंखें बुद्धिमान व्यक्ति की निशानी होती है और इसलिए उल्लू को बुद्धिमान माना जाता है। हालांकि ऐसा जरूरी नहीं है पर ऐसा विश्वास है। यह विश्वास इस कारण है, क्योंकि कुछ देशों में प्रचलित पौराणिक कहानियों में उल्लू को बुद्धिमान माना गया है।

प्रचीन यूनानियों में बुद्धि की देवी, एथेन के बारे में कहा जाता है कि वह उल्लू का रूप धारकर पृथ्वी पर आई हैं। भारतीय पौराणिक कहानियों में भी यह उल्लेख मिलता है कि उल्लू धन की देवी लक्ष्मी का वाहन है और इसलिए वह मूर्ख नहीं हो सकता है। हिन्दू संस्कृति में माना जाता है कि उल्लू समृद्धि और धन लाता है। डरावने दिखने के कारण कुछ लोग उल्लू से डरते भी हैं।
बुलबुल पक्षी
बुलबुल, शाखाशायी गण के पिकनोनॉटिडी कुल (Pycnonotidae) का पक्षी है और प्रसिद्ध गायक पक्षी "बुलबुल हजारदास्ताँ" से एकदम भिन्न है। ये कीड़े-मकोड़े और फल फूल खानेवाले पक्षी होते हैं। ये पक्षी अपनी मीठी बोली के लिए नहीं, बल्कि लड़ने की आदत के कारण शौकीनों द्वारा पाले जाते रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि केवल नर बुलबुल ही गाता है, मादा बुलबुल नहीं गा पाती है। बुलबुल कलछौंह भूरे मटमैले या गंदे पीले और हरे रंग के होते हैं और अपने पतले शरीर, लंबी दुम और उठी हुई चोटी के कारण बड़ी सरलता से पहचान लिए जाते हैं। विश्व भर में बुलबुल की कुल 9700 प्रजातियां पायी जाती हैं। इनकी कई जातियाँ भारत में पायी जाती हैं, जिनमें "गुलदुम बुलबुल" सबसे प्रसिद्ध है। इसे लोग लड़ाने के लिए पालते हैं और पिंजड़े में नहीं, बल्कि लोहे के एक (अंग्रेज़ी अक्षर -टी) (T) आकार के चक्कस पर बिठाए रहते हैं।

इनके पेट में एक पेटी बाँध दी जाती है, जो एक लंबी डोरी के सहारे चक्कस में बँधी रहती है। कई वनीय प्रजातियों को ग्रीनबुल भी कहा जाता है। इनके कुल मुख्यतः अफ़्रीका के अधिकांश भाग तथा मध्य पूर्व, उष्णकटिबंधीय एशिया से इंडोनेशिया और उत्तर में जापान तक पाये जाते हैं। कुछ अलग-थल प्रजातियाँ हिंद महासागर के उष्णकटिबंधीय द्वीपों पर मिलती हैं। इसकी लगभग 130 प्रजातियाँ, 24 जेनेरा में बँटी हुई मिलती हैं। कुछ प्रजातियाँ अधिकांश आवासों में मिलती हैं। लगभग सभी अफ़्रीकी प्रजातियाँ वर्षावनों में मिलती हैं। ये विशेष प्रजातियाँ एशिया में नगण्य हैं। यहाँ के बुलबुल खुले स्थानों में रहना पसन्द करते हैं। यूरोप में बुलबुल की एकमात्र प्रजाति साइक्लेड्स में मिलती है, जिसके ऊपर एक पीला धब्बा होता है, जबकि अन्य प्रजातियों में स्नफ़ी भूरा होता है। भारत में पाई जानेवाली बुलबुल की कुछ प्रसिद्ध जातियाँ निम्नलिखित हैं : -
  1. गुलदुम (red vented) बुलबुल,
  2. सिपाही (red whiskered) बुलबुल,
  3. मछरिया (white browed) बुलबुल,
  4. पीला (yellow browed) बुलबुल तथा
  5. काँगड़ा (whit checked) बुलबुल।

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