चिन्तन (सूक्तियाँ) एक झलक : जनवरी
- आचरण रहित विचार कितने अच्छे क्यों न हों, उन्हें खोटे मोती की तरह समझना चाहिए। ~ महात्मा गांधी
- विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है। ~ वेदव्यास
- जो विद्या पुस्तक में रखी हो, मस्तिष्क में संचित हो और जो धन दूसरे के हाथ में चला गया हो, आवश्यकता पड़ने पर न वह विद्या ही काम आ सकती है और न वह धन ही। ~ चाणक्य
- बिना अभ्यास के विद्या विष समान है। ~ अज्ञात
- साधु को दिन में देखना, रात में देखना और तब साधु पर विश्वास करना। ~ रामकृष्ण परमहंस
- झूठ का कभी पीछा मत करो। उसे अकेला छोड़ दो। वह अपनी मौत खुद मर जाएगा। ~ लीमेन बीकर
- आपत्ति में भी जिसकी बुद्धि कार्यरत रहती है, वही धीर है। ~ सोमदेव
- निरन्तर अथक परिश्रम करने वाले भाग्य को भी परास्त कर देंगे। ~ तिरुवल्लुवर
- जो पाप हमें विनम्र और विनीत बनाता है, वह बेहतर है उस पुण्य से जो हमें घमंडी और उद्धत बनाता है। ~ इब्न अताउल्लाह
- आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है और निर्वाण परम सुख। ~ धम्मपद
- मनुष्य पराक्रम द्वारा दुखों से पार होता है और प्रज्ञा से परिशुद्ध होता है। ~ सुत्तनिपात
- परिश्रम और प्रतिभा आप ही आप आदमी को अकेला बना देती हैं। परिश्रम आदमी को भीड़ बनने और प्रतिभा भीड़ में खो जाने की इजाजत नहीं देती। ~ राजकमल चौधरी
- जो सागर में गहरे जाते हैं, उन्हें मोती मिलता है। जो छिछले पानी वाले किनारे अपनाते हैं, उनके हिससे शंख और सीप ही होते हैं। ~ शाह अब्दुल लतीफ
- जब आर्थिक परिवर्तन की प्रगति बहुत बढ़ जाती है, पर शासन तंत्र जैसा का तैसा बना रहता है, तब दोनों के बीच बहुत बड़ा अंतर आ जाता है। प्राय: यह अंतर एक आकस्मिक परिवर्तन से दूर होता है, जिसे क्रांति कहते हैं। ~ जवाहरलाल नेहरू
- क्रांति का उदय सदा पीड़ितों के हृदय और त्रस्त अंत:करण में हुआ करता है। उसके पीछे कोई निहित स्वार्थ नहीं होता। ~ अज्ञात
- क्रांतिकारी- उसकी नस नस में भगवान ने ऐसी आग जला दी है कि उन्हें चाहे जेल में ठूंस दो, चाहे सूली पर चढ़ा दो, कह न दिया कि पंचभूतों को सौंपने के सिवा और कोई सज़ा ही लागू नहीं होती। न तो इनमें दया है, न धर्म कर्म ही मानते हैं। ~ शरतचंद्र
- क्रांति बैठे-ठालों का खेल नहीं है। वह नई सभ्यता को जन्म देती है। ~ प्रेमचंद
- क्रोधी पर प्रतिक्रोध न करें। आक्रोशी से भी कुशलतापूर्वक बोलें। ~ नारद परिव्राजकोपनिषद्
- निश्चित ही शत्रुयुक्त पुरुष की तभी जय होती है जब वैरी-पुरुष लोक से निंदित होता है। ~ युधिष्ठिर विजयम्
- धर्म तथा सत्कार्यों में अधिक व्यय के कारण जिसका कोष/ख़ज़ाना क्षीण हो गया है, ऐसे व्यक्ति की निर्धनता भी शोभनीय होती है। ~ कामंदकीय नीतिसार
- अतीत का शोक मत कर, क्योंकि ये शोक मनुष्य को बहुत दूर पतन की ओर ले जाते हैं। ~ अथर्ववेद
- कांच के लिए मोती की हानि करना उचित नहीं है। ~ कथासरित्सागर
- करुणा में शीतल अग्नि होती है जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदय भी आर्द्र कर देती है। ~ सुदर्शन
- कर्म वह आईना है जो हमारा स्वरूप हमें दिखा देता है। अत: हमें कर्म का एहसानमंद होना चाहिए। ~ विनोबा
- इस धरती पर कर्म करते-करते सौ साल तक जीने की इच्छा रखो, क्योंकि कर्म करनेवाला ही जीने का अधिकारी है। जो कर्म-निष्ठा छोड़कर भोग-वृत्ति रखता है, वह मृत्यु का अधिकारी बनता है। ~ वेद
- निष्काम कर्म ईश्वर को ऋणी बना देता है और ईश्वर उसको सूद सहित वापस करने के लिए बाध्य हो जाता है। ~ स्वामी रामतीर्थ
- कटा हुआ वृक्ष भी बढ़ता है। क्षीण हुआ चंद्रमा भी पुन: बढ़कर पूरा हो जाता है। इस बात को समझकर संत पुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते। ~ भर्तृहरि
- अनर्थ भी अपने अवसर की ताक में रहते हैं। ~ कालिदास
- विपत्ति में पड़े हुए मनुष्य का प्रिय करने वाले दुर्लभ होते हैं। ~ शूद्रक
- जो विपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय आने पर दुख भी सह लेता है, उसके शत्रु पराजित ही हैं। ~ वेदव्यास
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