चिंतन (सूक्तियाँ) एक झलक : फरवरी
- परोपकार ही धर्म है, परपीड़न ही पाप। ~ विवेकानंद
- छिपाने के द्वारा पाप का पोषण किया जाता है और उसे जीवित रखा जाता है। ~ वर्जिल
- भय और दंड से पाप कभी बंद नहीं होते। ~ रामतीर्थ
- दूसरों के पाप गिनाने से पहले अपने पाप गिनो। ~ क़ाज़ीनजरुल इस्लाम
- अपनी बुद्धि से साधु होना अच्छा, परायी बुद्धि से राजा होना अच्छा नहीं है। ~ उड़िया लोकोक्ति
- जो भलाई करना चाहता है, वह द्वार खटखटाता है। और जो प्रेम करता है, उसे द्वार खुला मिलता है। ~ रवींद्रनाथ टैगोर
- जो दिन हमें प्रसन्नता प्रदान करते हैं, वे हमें बुद्धिमान बनाते हैं। ~ जॉन मेसफील्ड
- परंपरा और विद्रोह, जीवन में दोनों का स्थान है। परंपरा घेरा डालकर पानी को गहरा बनाती है। विद्रोह घेरों को तोड़कर पानी को चौड़ाई में ले जाता है। ~ रामधारी सिंह दिनकर
- किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं है, उसमें धैर्य की भी जरूरत पड़ती है। ~ गेटे
- परंपरा रोकती है, विद्रोह आगे बढ़ना चाहता है। इस संघर्ष के बाद जो प्रगति होती है, वही असली प्रगति है। ~ दिनकर
- परंपरा अतीत की स्मृति नहीं है, बल्कि जीवंत आत्मा का सतत आवास है। ~ राधाकृष्णन
- परंपरा बंधन नहीं है, वह मनुष्य की मुक्ति (अपने लिए ही नहीं, सबके लिए मुक्ति) की निरंतर तलाश है। ~ विद्यानिवास मिश्र
- आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम बंधु है, निर्वाण परम सुख है। ~ धम्मपद
- हर मन एक माणिक्य है, उसे दुखाना किसी भी तरह अच्छा नहीं। ~ शेख फरीद
- पढ़ना सुलभ है, पर उसका पालन करना दुर्लभ है। ~ लल्लेश्वरी
- कांच का कटोरा, नेत्रों का जल, मोती और मन: ये एक बार टूटने पर पहले जैसी स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकते। ~ लोकोक्ति
- राम नाम के बल पर अधर्म मत करो। राम नाम स्मरण के साथ-साथ शुद्ध कर्म भी करना आवश्यक है। ~ एकनाथ
- असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे। ~ महादेवी वर्मा
- जब प्रकृति को कोई महान कार्य संपन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। ~ एमर्सन
- प्रतिभा जाति पर निर्भर नहीं है। जो परिश्रमी है, वही प्राप्त करता है। ~ शाह अब्दुल लतीफ
- प्रतिभा धैर्य की महान क्षमता मात्र है। ~ बफां
- प्रतिभा स्वतंत्रता के वातावरण में ही मुक्त सांस ले सकती है। ~ जॉन स्टुअर्ट मिल्स
- प्रेम के मार्ग में चतुराई बहुत बुरी चीज़ है। ~ मौलाना रूम
- प्रवीणता और आत्मविश्वास अविजित सेनाएं हैं। ~ जॉर्ज हरबर्ट
- हितकारी और मनोरम बात दुर्लभ होती है। ~ भारवि
- कुल के कारण कोई बड़ा नहीं होता, विद्या ही उसे पूजनीय बनाती है। ~ चाणक्य
- राज्य छाते के समान होता है, जिसका अपने हाथ में पकड़ा हुआ दंड थकान को उतना दूर नहीं करता, जितना कि थकान उत्पन्न करता है। ~ कालिदास
- किसी कार्य के लिए कला और विज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, उसमें धैर्य की आवश्यकता भी पड़ती है। ~ गेटे
- प्राप्त हुए धन का उपयोग करने में दो भूलें हुआ करती हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए। अपात्र को धन देना और सुपात्र को धन न देना। ~ वेद व्यास
- वैरी भी अद्भुत कार्य करने पर प्रशंसा के पात्र बन जाते हैं। ~ सोमेश्वर
- जंगली पशु क्रीड़ा के लिए कभी किसी की हत्या नहीं करते। मानव ही वह प्राणी है जिसके लिए अपने साथी प्राणियों की यंत्रणा तथा मृत्यु मनोरंजक होती है। - जेम्स ऐंथनी फ्राउड
- जिसमें उन्नति कर सकने की क्षमता है, उसी पर विपत्तियां भी आती हैं। ~ वल्लभदेव
- जहां स्थूल जीवन का स्वार्थ समाप्त होता है, वहीं मनुष्यता प्रारंभ होती है। ~ हजारी प्रसाद द्विवेदी
- जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ता है। ~ विवेकानंद
- जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। केवल पुन: किया हुआ पुण्य ही बुद्धि को बढ़ाता है। ~ वेदव्यास
- प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उससे प्यार करता है। ~ महात्मा गांधी
- जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद
- प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही तो प्रेम का प्राण है। ~ जयशंकर प्रसाद
- प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल
- प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थ और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थ है, वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त
- प्रेम में द्वेष की गुंजाइश ही नहीं, प्रेम में अहम-भाव नहीं, प्रेम सब कुछ सहन करता और मान लेता है। ~ महात्मा गांधी
- प्रेम एक बीज है जो एक बार जम कर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है। ~ प्रेमचंद
- हम प्रेम से जिसके दास होते हैं, वह हमारा भी दास हो जाता है। प्रेम से दास होना मानो एक प्रकार से मुक्त होना है। ~ साने गुरु जी
- जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे। ~ प्रेमचंद
- प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थपरता और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थपरता है वहां प्रेम नहीं है। ~ अश्विनीकुमार दत्त
- प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। ~ जयशंकर प्रसाद
- श्रद्धावान को कोई परास्त नहीं कर सकता। बुद्धिमान को हमेशा पराजय का डर लगा रहता है। ~ महात्मा गांधी
- संत मलिन चित्त वाले मनुष्यों को भी निर्मल कर देते हैं। ~ अचित्यानंद वर्णी
- यद्यपि संतोष कड़वा वृक्ष है, तथापि इसका फल बड़ा ही मीठा और लाभदायक है। ~ रूमी
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