समाज सुधारक : गोविन्द रानाडे, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

समाज सुधारक : गोविन्द रानाडे,

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महादेव गोविन्द रानाडे (18 जनवरी, 1842 - मृत्यु- 16 जनवरी1901भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान और न्यायविद थे। रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। प्रार्थना समाजआर्य समाज और ब्रह्म समाज का इनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। गोविंद रानाडे 'दक्कन एजुकेशनल सोसायटी' के संस्थापकों में से एक थे। इन्होंने 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना का भी समर्थन किया था।
रानाडे स्वदेशी के समर्थक और देश में ही निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करने के पक्षधर थे। पुणे में आरंभिक शिक्षा पाने के बाद रानाडे ने ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ी शिक्षा आरंभ की। 1859 ई. में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और 21 मेधावी विद्यार्थियों में उनका अध्ययन मूल्यांकन शामिल था। आगे शिक्षा जारी रखने के लिए उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ा। पुणे के 'एलफिंस्टन कॉलेज' में वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। एल.एल.बी. पास करने के बाद वे उप-न्यायाधीश नियुक्त किए गए। वे निर्भीकतापूर्वक निर्णय देने के लिए प्रसिद्ध थे। शिक्षा प्रसार में उनकी रुचि देखकर अंग्रेज़ों को अपने लिए संकट का अनुभव होने लगा था, और यही कारण था कि उन्होंने रानाडे का स्थानांतरण शहर से बाहर एक परगने में कर दिया। रानाडे को सज्जानता की सज़ा भुगतनी पड़ी थी। उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना। वे जब लोकसेवा की ओर मुड़े तो उन्होंने देश में अपने ढंग के महाविद्यालय स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए। महादेव गोविंद रानाडे को अनेक क्षेत्रों में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। इससे जो समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उससे उन्हें पीड़ाओं को भी सहना पड़ा। समाज सुधार की रस्सी पर चलने जैसा कठिन काम उन्होंने किया था। ब्रिटिश सरकार उनके हर काम पर नज़र रख रही थी। परंपराओं को तोड़ने के कारण वे जनता के भी कोप भाजन बने थे।

रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। वे प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज आदि के सुधार कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने जनता से बराबर संपर्क बनाये रखा। दादाभाई नौरोजी के पथ प्रदर्शन में वे शिक्षित लोगों को देशहित के कार्यों की ओर प्रेरित करते रहे। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने महाराष्ट्र में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का विरोध किया। धर्म में उनका अंधविश्वास नहीं था। वे मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे। 
राजनीतिक सम्मेलनों के साथ सामाजिक सम्मेलनों के आयोजन का श्रेय उन्हीं को है। वे मानते थे कि मनुष्य की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रगति एक दूसरे पर आश्रित है। अत: ऐसा व्यापक सुधारवादी आंदोलन होना चाहिए, जो मनुष्य की चतुर्मुखी उन्नति में सहायक हो। वे सामाजिक सुधार के लिए केवल पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना पर्याप्त नहीं मानते थे। उनका कहना था कि रचनात्मक कार्य से ही यह संभव हो सकता है। वे स्वदेशी के समर्थक थे और देश में निर्मित वस्तुओं के उपयोग पर बल देते थे। देश की एकता उनके लिए सर्वोपरी थी। उन्होंने कहा था कि- "प्रत्येक भारतवासी को यह समझना चाहिए कि पहले मैं भारतीय हूँ और बाद में हिन्दूईसाईपारसीमुसलमान आदि कुछ और।
रानाडे प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी, जिनमें से प्रमुख हैं-
  • विधवा पुनर्विवाह
  • मालगुजारी क़ानून
  • राजा राममोहन राय की जीवनी
  • मराठों का उत्कर्ष
  • धार्मिक एवं सामाजिक सुधार
राणाडे ने पुणे सार्वजनिक सभा की स्थापना की और बाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे। इन्हें सदा ही बाल गंगाधर तिलक का पूर्व विरोधी, एवं गोपाल कृष्ण गोखले का विश्वस्नीय सलाहकार दर्शाया गया है। 1911 के ब्रिटैन्निका विश्वकोष के अनुसार, पूना सार्वजनिक सभा, प्रायः सरकार की युक्तिपूर्ण सलाहों से, सहायता करती रही है। हेनेरी फॉसेट्ट को लिखे एक पत्र में फ्लोरेंस नाइटेंगेल ने लिखा है:
The Poona Sarvajanik Sabha (National Association)  again pretends to represent the people and merely represents the money lenders, officials, and a few effete Mahratta landlords.
1943 में, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने, राणाडे की प्रशंसा की, एवं उन्हें गाँधी और जिनाह के विरोधी का दर्जा दिया। देश की भरपूर सेवा करने वाले और समाज को नई राहें दिखाने वाले गोविंद रानाडे का निधन 16 जनवरी1901 ई. में हुआ।

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