भारतीय बैंकों के राष्ट्रीयकरण के उदेश्य, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

भारतीय बैंकों के राष्ट्रीयकरण के उदेश्य,

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भारतीय बैंकिंग प्रणाली में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना भारतवर्ष के कृषकों एवं पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन में क्रांतिकारी घटना मानी जा सकती है क्योंकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना के पीछे मूल उद्देश्य यही है कि छोटे तथा मझोले स्तर के किसानों, भूमिहीन मजदूरों आदि को आसानी से बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाया जाए तथा उन्हें युग-युग से चले आ रहे साहूकारों की जंजीरों से मुक्ति दिलाकर उनके अपने गौरब को पुनरूज्जीवित करनें की सहायता प्रदान की जाए।
  
इन बैंकों की स्थापना क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक के अध्यादेश 1975 अंतर्गत किए जाने का निर्धारण किया गया और स्थानीय जरूर दृष्टिगत रखकर सभी अनुसूचित बैंकों को इस प्रकार की क्षेत्रीय ग्रामीण बैंको की स्थापना के लिए अनुदेश जारी किए गए हैं। इन अनुदेशों के अनुसार सभी वाणिज्यिक बैंकों ने क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थापना की है और निरंतर ये बैंक स्थापित किए जा रहे हैं और इस प्रकार की महत्वाकांक्षी योजना तैयार की गई है कि इनका विकास ऐसे क्षेत्रों में विशेष रूप से किया जाएगा जहां पर वाणिज्यिक बैंकों तथा सहकारी बैंकों की सेवाओं एवं सुविधाओं का विकास नहीं हो सका है। इस प्रकार क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा उनके लक्ष्य की पूर्ति करने की दिशा में निरंतर प्रयास जारी है और इनकी सेवाओ तथा सुविधाओं का लाभ उचित जरूरतमंद व्यक्तियों तक पहुंच रहा है, यही क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के लोकप्रिय होने की पावती मानी जा सकती है।
भारतीय रिजर्व बैंक का इन पर नियंत्रण रहता है। राष्ट्रीयकरण से पूर्व इनका उद्देश्य तथा बैंकिग प्रणाली थोड़ी भिन्न प्रकार की थी किन्तु प्रमुख बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही इनकी कार्य प्रणाली तथा अंतर्गत परिचालन की दशा एव दिशा में आमूलाग्र परिवर्तन हुए हैं। इस परिवर्तन के पीछे बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मूल उद्देश्य निहित है। अत: भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के प्रमुख वाणिज्यिक बैंको के राष्ट्रीयकरण की घटना युगप्रवर्तक मानी जा सकती है। बैंक राष्ट्रीयकरण के साथ ही भारतवर्ष की सामाजिक तथा आर्थिक विकास की दिशा उन्नत करने वाले एक नए पर्व की शुरूआत हुई है। 19 जुलाई 1969 को देश के 50 करोड़ रुपये से अधिक जमा राशि वाले प्रमुख चौदह अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही इस नए विकास पर्व का श्रीगणेश हुआ। इसी के साथ ही भारतीय बैंकिंग प्रणाली मात्र लेन-देन, जमा या ऋण के माध्यम से केवल लाभ अर्जित करने वाला उद्योग ही न रहकर भारतीय समाज के गरीब, दलित तबकों के सामाजिक एवं आर्थिक पुनरुत्थान और आर्थिक रूप में उन्हें ऊंचा उठाने का एक सशक्त माध्यम बन गया। बैंक राष्ट्रीयकरण की सूत्रधार सौदामिनी श्रीमती इंदिरा गांधी को पूरा यकीन था कि यह बैंकिंग उद्योग राष्ट्र के सर्वागीण विकास एवं पुनरुत्थान की दिशा में तेजी लायेगा। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के ऐतिहासिक पर्व की शुरूआत करते समय श्रीमती इंदिराजी ने कहा था कि "बैंकिंग प्रणाली जैसी संस्था, जो हजारों -लाखों लोगों तक पहुंचती है और जिसे लाखों लोगों तक पहुंचाना चाहिए, के पीछे आवश्यक रूप से कोई बड़ा सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए जिससे वह प्रेरित हो और इन क्षेत्रों को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्राथमिकताओं तथा उद्देश्यों को पूरा करने में अपना योगदान दें।
राष्ट्रीयकरण से पूर्व सभी वाणिज्यिक बैंकों की अपनी अलग और स्वतंत्र नीतियां होती थीं और उनका उद्देश्य अधिकाधिक लाभ के मार्गों को प्रशस्त करने तक ही सीमित था जो स्वाभाविक ही माना जाना चाहिए क्योंकि इन बैंकों के अधिकतर शेयर-धारक कुछ इने-गिने पूंजीपति व्यक्ति थे जो अपने हितों की रक्षा के साथ निजी हिताधिकारियों को ही बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ पहुंचाते थे। समाज के गरीब, कमजोर वर्ग, दलित तथा सामान्य ग्रामीण तबकों के लोगों को बैंक किस चिडिया का नाम होता है, इसका भी पता नहीं था। अत: वे दिन-प्रतिदिन सेठ-साहूकारों एवं महाजनों के सूद के नीचे इतने दब गए कि जीवन की असली पहचान तक भूल गए। भारतवर्ष असलियत में ग्रामों में ही बसा है और ग्रामों में किसान एवं खेतीहर मजदूर बसते हैं। बैंक राष्ट्रीयकरण के पूर्व किसानों की हालत इतनी खराब होती थी कि उनके बारे में एक कड़वा सत्य कहा जाता है कि भारतीय किसान कर्ज में ही जन्म लेता है। कर्ज में ही पलता है और पीछे कर्ज छोड़कर ही मरता है। फलत: ऐसी दशा में पूंजीपति अधिक धनवान होते गए तथा निर्धन और भी गरीबी के दो पाटों में पिसते गए और देश में भयंकर सामाजिक असंतुलन का संकट पैदा हो गया। सामाजिक असंतुलन के साथ ही राष्ट्र जबर्दस्त आर्थिक विषमताओं के कोढ़ में उलझ गया। इस प्रकार सामाजिक तथा आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध होती गई जिसके फलस्वरूप क्रांतिकारी नई आर्थिक नीति की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी अत: देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की ह़अडी बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके उन्हें देश के विकास प्रवाह में शामिल किया जाना एक राष्ट्रीय आवश्यक्ता थी। फलत: बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।
भारतीय बैंकों का वर्गीकरण
भारतीय बैंकों निम्नलिखित भागों में वर्गीकृत किये गए हैं:
• वाणिज्यिक बैंक
• सहकारी बैंक
वाणिज्यिक बैंको के अंतर्गत शामिल हैं:
1) अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक
अनुसूची वाणिज्यिक बैंकों में निम्नलिखित बैंक सम्मिलित हैं:
• निजी बैंक 
• सार्वजनिक बैंक 
• विदेशी बैंक 
• क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
2) गैर-अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के अंतर्गत सम्मिलित हैं:
सहकारी बैंक
सहकारी बैंकों में शामिल हैं:
• शहरी सहकारी बैंक 
• ग्रामीण सहकारी बैंक

वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के मूल उद्देश्य थे।
  •  बैंकिंग सुविधाओं तथा सेवाओं का विस्तार करना, राष्ट्रीयकरण के पहले बैंकिग सेवाए कुछ पूजीपतियों एवं बड़े व्यापारी तथा किसानों तक ही सीमित थीं जिसके फलस्वरूप समाज के दो वर्गों में बहुत बड़ी आर्थिक दरार उत्पन्न हो गई थी। इस आर्थिक विषमता को दूर करने हेतु बैंकिग सेवाओं एवं सुविधाओं का लाभ समाज में सभी वर्गों विशेषत: ग्रामीण कस्बाई क्षेत्रों में बसे कमजोर वर्गों तक पहुंचाने का मूल उद्देश्य बैंकों के राष्ट्रीयकरण में निहित है।
  •  देश का आर्थिक विकास दूसरा उद्देश्य माना जा सकता है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि बैंक राष्ट्रीयकरण के पहले देश में आर्थिक संकट उत्पन्न होने के कारण आर्थिक विकास की गति अवरुद्ध हो गई थी। अत: देश के आर्थिक विकास में तेजी लाने के लिए बैंको का राष्ट्रीयकरण किया जाना बहुत ही आवश्यक हो गया था क्योंकि किसी भी देश की प्रगति एवं खुशहाली के लिए उसके आर्थिक विकास की ही महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
  •  बैंक राष्ट्रीयकरण का तीसरा उद्देश्य था देश में बेरोजगारी की समस्या। यह भारतवर्ष की मुख्य चिंता रही है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के माध्यम से इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता था क्योंकि शिक्षित बेरोजगारों को आर्थिक सहायता के माध्यम से उनके अपने निजी उद्योग या स्वरोजगार के अनेक साधनों में वृद्धि करके बेरोजगारी पर काबू पाया जा सकता था। जब तक देश में बेरोजगारी की समस्या का उचित हल नहीं होता तब तक उसके विकास कार्य में तेजी नहीं आ सकती। इस तथ्य को दृष्टिगत रखकर बेरोजगारी उन्मूलन की दिशा में ठोस कदम उठाए जाना जरूरी हो गया था ताकि बैंकिंग सेवाओं तथा सहायता का लाभ शिक्षित बेरोजगारों को मिलकर वे अपनी उन्नति के नए मार्ग प्रशस्त कर सकें।
  •  बैंक राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य यह भी था कि समाज के कम जोर वर्गों तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के लोगों का बैंकिंग सेवाओं एवं सुविधाओं के माध्यम से उत्थान करके देश की आर्थिक उन्नति को एक नई दिशा प्रदान कराना। देश के कमजोर वर्ग तथा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों के लोग अर्थात् छोटे तथा मंझोले किसान, भूमिहीन मजदूर, शिक्षित बेरोजगार, छोटे कारीगर आदि की आर्थिक उन्नति में योगदान दिया जाना बहुत आवश्यक हो गया था क्योंकि ऐसे वर्गों के लोग देशभर में फैले हुए थे और उनकी संख्या काफी थी। समाज में वे अपेक्षित भी थे। अत: वर्गों के लोगों में नया आत्मविश्वास पैदा करके उन्हें उन्नति एवं खुशाहाली के मार्ग पर लाना देश की सर्वागीण प्रगति के लिए बहुत जरुरी हो गया था। अत: बैंकिंग सुविधा के माध्यम से ही इनका विकास संभव था। फलत: बैंक राष्ट्रीयकरण का विचार सामने आया।
  •  बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक और मूल उद्देश्य था ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति में सुधार तथा कृषि एवं लघु उद्योगों के क्षेत्रों की समुचित प्रगति किया जाना। भारतीय किसान युग-युग से उपेक्षित ही रहा और हर बार वह औरों से चुसता ही गया। फलत: वह गरीबी की पर्तों से ऊपर नहीं उठ सका था। यही हालत कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योगों की थी। ये व्यवसाय अधिकतर कृषि पर ही निर्भर करते थे और कृषि और कृषि का क्षेत्र उपेक्षित तथा अविकसित होने के कारण इन उद्योगों का भी प्रगति नहीं हो पाई थी। इस प्रकार, कृषि एवं लघु उद्योग जैसे उपेक्षित क्षेत्रों की ओर उचित ध्यान देकर उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार लाया जाना राष्ट्र की प्रगति के लिए बहुत आवश्यक तथा अनिवार्य हो गया था।
  •  देश के बीमार उद्योगों को पुनरूज्जीवित करके नए लघु-स्तरीय उद्योगों के नव निर्माण को बढ़ावा देना भी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का एक उद्देश्य था। बीमार उद्योगों के कारण बेरोजगारी की समस्या में वृद्धि होकर आर्थिक मंदी फैलने का यह भी एक कारण था अत: ऐसे उद्योगों को आर्थिक सहायता देकर पुनरूज्जीवित करना आवश्यक था। इसके साथ ही लघु-स्तरीय उद्योगों की संख्या पर्याप्त नहीं थी जिससे कस्बाई क्षेत्रों की प्रगति में तेजी नही आ पा रही थी और ऐसे उद्यमी हमेशा विदेश की ओर आंखें लगाकर बैठे हुए होते थे। अत: देश की प्रगति के लिए लघु-स्तरीय उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना भी अत्यंत जरूरी था जोकि आर्थिक सहायता के बगैर असंभव-सा प्रतीत होता था। अत: बैंकों द्वारा आर्थिक नियोजन के लिए उनपर सरकार का स्वामित्य होना एक आवश्यक बात हो गई थी। इस प्रकार अनेक सामाजिक तथा आर्थिक उद्देश्यों के कारण बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिससे कि कमजोर एवं उपेक्षित वर्गों की उन्नति के साथ समाज की और प्रकारांतर से राष्ट्र की प्रगति हो।
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