भारतीय इतिहास की लड़ाईयां संक्षिप्त विवरण Part -3, - Study Search Point

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भारतीय इतिहास की लड़ाईयां संक्षिप्त विवरण Part -3,

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सूरजगढ़ का युद्ध -
सूरजगढ़ का युद्ध 1534 ई. में अफ़ग़ान शासक शेरशाह और बंगाल के शासक महमूद ख़ाँ के मध्य लड़ा गया था। अपने प्रारम्भिक समय में शेरशाह ने बाबर के यहाँ भी नौकरी की थी। बाबर ने उसे उसकी पैतृक 'सहसराम' (सासाराम) की जागीरदारी देकर पुरस्कृत किया था। बिहार लौटकर शेरशाह ने वहाँ के तत्कालीन शासक जलाल खाँ के यहाँ नौकरी की तथा चुनार के शासक ताज ख़ाँ की विधवा से विवाह करके चुनार का महत्त्वपूर्ण दुर्ग भी प्राप्त कर लिया। 1531 ई. में जब हुमायूँ ने चुनार पर आक्रमण किया, तब शेरशाह ने चतुरता से अपनी रक्षा की और दुर्ग का स्वामित्व भी सुरक्षित रखा। कुछ वर्षों बाद 1534 ई. में बंगाल के शासक महमूद ख़ाँ को 'सूरजगढ़ के युद्ध' में पराजित किया। इस प्रकार शेरशाह का बिहार पर एकछत्र अधिकार हो गया।

वितस्ता का युद्ध -
वितस्ता का युद्ध राजा पुरु और मकदूनिया (यूनान) के राजा सिकन्दर (अलेक्ज़ेंडर) के मध्य लड़ा गया था। इस युद्ध में राजा पुरु ने अपनी हाथी सेना पर ही अधिक भरोसा किया और युद्ध में हाथियों की संख्या घोड़ों के मुकाबले अधिक रखी। जबकि सिकन्दर ने अपने घुड़सवार तीरन्दाजों पर अधिक भरोसा किया। इस युद्ध में सिकन्दर की घुड़सवार सेना की तेजी पुरु की हाथी सेना पर भारी पड़ी और परिणामस्वरूप पुरु ये युद्ध हार गया। पुरु का राज्य 'हाईडस्पीस' (झेलम अथवा वितस्ता) और 'असिक्नी' (चिनाब) नदियों के बीच स्थित था। सम्भवत: जुलाई 325 ई. पू. में सिकन्दर ने अकारण पुरु के राज्य पर हमला कर दिया। आरम्भिक लड़ाई में पुरु हार गया, क्योंकि यूनानी सेनाओं ने चुपचाप बिना किसी युद्ध के नदी पार कर ली थी। पुरु मुख्य रूप से हाथियों की सेना पर ही निर्भर था। उसकी सैन्य रचना भी ठीक नहीं थी। उसने हाथियों के पीछे 30,000 पैदल सैनिक, 400 अश्वारोही तथा 300 रथ लगा रखे थे। पुरु के पैदल सैनिकों के पास जो धनुष थे, वह आकार में काफ़ी बड़े थे। सिकन्दर को मुख्य रूप से अपनी घुड़सवार सेना और घोड़े पर सवार तीरन्दाजों का भरोसा था। इस युद्ध में पुरु बड़ी वीरता से लड़ा, किंतु यूनानी सेना के अधिक फुर्तीले होने के कारण सिकन्दर की विजय हुई। पुरु इस युद्ध में घायल हुआ और यूनानी सैनिकों द्वारा बन्दी बना लिया गया। विजयी राजा सिकन्दर ने उसके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किया और उसका राज्य भी लौटा दिया।

सेमल का युद्ध -
सेमल का युद्ध 1544 ई. में राजपूत राजा राव मालदेव और अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी की सेनाओं के मध्य लड़ा गया था। अजमेर और जोधपुर के बीच स्थित 'सेमल' नामक स्थान पर यह इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हुआ था। राव मालदेव की बढ़ती हुई शक्ति से शेरशाह काफ़ी चिंतित था। इसीलिए उसने बीकानेर नरेश कल्याणमल एवं मेड़ता के शासक वीरमदेव के आमन्त्रण पर राव मालदेव के विरुद्ध सैन्य अभियान किया। राव मालदेव और वीरमदेव की आपसी अनबन का शेरशाह ने बखूवी लाभ उठाया और युद्ध में विजय प्राप्त की। राजस्थान में आगे बढ़ते हुए शेरशाह ने बहुत ही सावधानी से काम लिया। वह प्रत्येक पड़ाव पर आकस्मिक आक्रमणों से बचने के लिए खाई खोद लेता था। यह स्पष्ट है कि राणा साँगा और बाबरके मध्य हुई भयंकर परिणामों वाली लड़ाई के बाद राजपूतों ने भी बहुत-सी सैनिक पद्धतियों को सीख लिया था। उन्होंने दृढ़ता से सुरक्षित शेरशाह के पड़ावों पर आक्रमण करना मंज़ूर नहीं किया। एक महीना इंतज़ार करने के बाद राव मालदेव अचानक ही जोधपुर की ओर लौट गया। राव मालदेव को जब अपनी ग़लती का एहसास हुआ, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कुछ राजपूत सरदारों ने पीछे लौटने से इंकार कर दिया। उन्होंने 10,000 सैनिकों की छोटी-सी सेना लेकर शेरशाह की सेना के केन्द्रीय भाग पर आक्रमण कर दिया और उसमें भगदड़ मचा दी। लेकिन शेरशाह शांत रहा। जल्दी ही बेहतर अफ़ग़ान तोपख़ाने ने राजपूतों के आक्रमण को रोक दिया। राजपूत घिर गए, लेकिन आख़िरी दम तक लड़ते रहे। उनके साथ बहुत-से अफ़ग़ान सैनिक भी मारे गये, लेकिन अंतत: विजय शेरशाह की ही हुई।

करनाल का युद्ध -
करनाल का युद्ध 24 फ़रवरी, 1739 ई. को नादिरशाह और मुहम्मदशाह के मध्य लड़ा गया। नादिरशाह के आक्रमण से भयभीत होकर मुहम्मदशाह 80 हज़ार सेना लेकर 'निज़ामुलमुल्क', 'कमरुद्दीन' तथा 'ख़ान-ए-दौराँ' के साथ आक्रमणकारी का मुकाबला करने के लिए चल पड़ा था। शीघ्र ही अवध का नवाब सआदत ख़ाँ भी उससे आ मिला। करनाल युद्ध तीन घण्टे तक चला था। इस युद्ध में ख़ान-ए-दौराँ युद्ध में लड़ते हुए मारा गया, जबकि सआदत ख़ाँ बन्दी बना लिया गया। इस दौरान निज़ामुलमुल्क ने शान्ति की भूमिका निभाई। सम्राट मुहम्मदशाह, निज़ामुलमुल्क की इस सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और उसे 'मीर बख़्शी' के पद पर नियुक्त कर दिया, क्योंकि ख़ान-ए-दौराँ की मृत्यु के बाद यह पद रिक्त हो गया था। सआदत ख़ाँ भी मीर बख़्शी बनना चाहता था, लेकिन जब वह इस पद से वंचित रह गया, तो उसने नादिरशाह को धन का लालच देकर दिल्ली पर आक्रमण करने को कहा। नादिरशाह ने दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया, तथा वह 20 मार्च, 1739 को दिल्ली पहुँचा। दिल्ली में नादिरशाह के नाम का 'खुतबा' (प्रशंसात्मक रचना) पढ़ा गया तथा सिक्के जारी किए गए। 22 मार्च, 1739 ई. को एक सैनिक की हत्या की अफवाह के कारण नादिरशाह ने दिल्ली में कत्लेआम का आदेश दे दिया। इस समय नादिरशाह ने दिल्ली को खूब लूटा, उसने बादशाह ख़ाँ से 20 करोड़ रुपये की माँग की। इस माँग को पूरा न कर पाने के कारण बादशाह ख़ाँ ने विष खाकर आत्महत्या कर ली। नादिरशाह दिल्ली में 57 दिन तक रहा और वापस जाते समय वह अपार धन के साथ 'तख़्त-ए-ताऊस' तथा कोहिनूर हीरा भी ले गया। मुग़ल सम्राट ने अपनी पुत्री का विवाह नादिरशाह के पुत्र 'नासिरुल्लाह मिर्ज़ा' से कर दिया। इसके अतिरिक्त कश्मीर तथा सिन्धु नदी के पश्चिमी प्रदेश नादिरशाह को मिल गये। थट्टा और उसके अधीनस्थ बन्दरगाह भी उसे दे दिये गये। नादिरशाह ने मुहम्मदशाह को मुग़ल साम्राट घोषित कर दिया तथा ख़ुत्बा पढ़ने और सिक्के जारी करने का अधिकार पुनः लौटा दिया।

सोबरांव का युद्ध -
सोबरांव का युद्ध 10 फ़रवरी, 1846 ई. को लड़ा गया था। यह 'प्रथम सिक्ख युद्ध' (1845-1846 ई.) के अंतर्गत लड़ा गया पाँचवाँ और निर्णायक युद्ध था। अंग्रेज़ों के क़ब्ज़े वाले सतलुज नदी के पूर्वी तट पर सिक्खों ने मोर्चा संभाला हुआ था। उनके बच निकलने का एकमात्र रास्ता एक नौका पुल था। जमकर हुई गोलाबारी के बाद सिक्खों के मोर्चे तहस-नहस हो गए। लालसिंह और तेजा सिंह के विश्वासघात के कारण ही सिक्खों की पूर्णतया हार हुई, जिन्होंने सिक्खों की कमज़ोरियों का भेद अंग्रेज़ों को दे दिया था। नौका पुल के ध्वस्त होने से बचने का रास्ता मौत के रास्ते में तब्दील हो गया। नदी पार करने की कोशिश में 10,000 से अधिक सिक्खों की मृत्यु हो गई। सोबरांव के इस युद्ध में अंग्रेज़ों को भी भारी नुक़सान उठाना पड़ा। उनके 2,383 लोग मारे गए या घायल हुए। सिक्खों द्वारा और प्रतिरोध असंभव हो गया तथा पश्चिमोत्तर भारत का सिक्ख राज्य ब्रिटिश प्रभाव में आ गया।

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