महापाषाण युग : दक्षिण भारत का इतिहास., - Study Search Point

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महापाषाण युग : दक्षिण भारत का इतिहास.,

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महापाषाण (मेगालिथिक) युग की पृष्ठभूमि -
फालवाले हल से खेती कर बड़े समुदाय में ग्रामीणों का बसना, राजतंत्र का गठन, सामाजिक वर्गों का पनपना, धातु के सिक्कों का प्रयोग, लेखन कला इनमें से एक भी बात भारतीय प्रायद्वीप के सिरे पर (जिसका केंद्र कावेरी डेल्टा अंचल) ईसा पूर्व दूसरी सदी तक नहीं पाई जाती है।
प्रायद्वीपीय उच्च भागों में वे लोग बसते थे जो महापाषाण निर्माता (मेगालिथिक बिल्डर) कहलाते हैं, इनका पता इनकी कब्रों से चलता है न कि बस्तियों से।
यह लोग कई तरह के मृदभांडों का प्रयोग करते थे, जिनमें लाल मृदभांड शामिल थे, लेकिन काला व लाल मृदभांड इन लोगों में अत्यधिक प्रचलित मालूम होता है।
 महापाषाण कब्रों में त्रिशूल भी पाए गए हैं, जो बाद में शिव से जुड़ गया, फिर भी इन कब्रों में खेती के औजार कम पाए जाते हैं। लड़ाई और शिकार के हथियार अधिक मिलते हैं।
महापाषाण के लोग प्रायद्वीप के सारे ऊंचे इलाकों में पाए जाते हैं, लेकिन इनका जमाव पूर्वी आंध्र तथा तमिलनाडु में अधिक प्रतीत होता है।
 महापाषाण संस्कृति का आरंभ लगभग 1000 ईसा पूर्व से माना जा सकता है, लेकिन कई मामलों में महापाषाण अवस्था ईसा पूर्व पांचवी सदी से लेकर पहली सदी तक कायम रही।
अशोक के अभिलेखों में वर्णित चोल, पांडय, और केरल पुत्र (चेर) शायद भौतिक संस्कृति की उत्तर पाषाण अवस्था के लोग रहे थे।
तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में रहने वाले महापाषाण काल के लोगों में कुछ अजीब लक्षण पाए जाते हैं, वे मृतकों के अस्थिपंजर को लाल कलश में डालकर गड्ढों में दफनाया करते थे।
यह कलश शवाधान (अर्न बेरियल) परिपाटी पत्थर के घेरेवाले ताबूत शवाधान या गर्त शवाधान (सिस्ट बेरियल या पिट बेरियल) की परिपाटी से भिन्न है, जो कृष्णा गोदावरी नदी घाटी में प्रचलित रही थी।
महापाषाण काल के लोग धान और रागी फसल उगाया करते थे, परंतु खेती बहुत कम जमीन पर होती थी।

राज्य और सभ्यता का उदय -
उत्तर और सुदूर दक्षिण में जो तमिलकम या तमिष्कम कहलाता है, दोनों के बीच संस्कृति और आर्थिक संबंध की स्थापना ईसा पूर्व चौथी सदी से नितांत महत्वपूर्ण हो गई।
दक्षिण पथ उत्तर के लिए लाभदायक रहा जहां से उन्हें सोना मोती तथा रत्न प्राप्त होते थे।
पाटलिपुत्र में रहने वाले मेगास्थनीज को पांडय देश मालूम था, आरंभिक संगम ग्रंथ के लेखकों को गंगा तथा सोन नदी मालूम थी, तथा मगध राजधानी पाटलिपुत्र भी ज्ञात थी।
अशोक के अभिलेखों में राज्यों की सीमा पर बसने वाले चोलों, केरल पुत्रों, पांडय और सतियपुत्रों का उल्लेख है। जिसमें सतियपुत्रों की अभी पहचान नहीं हो पाई है।
ताम्रपर्णी या श्रीलंका के निवासियों का भी उल्लेख मिलता है, अशोक की उपाधि "देवों का प्यारा" को तमिल के संगम ग्रंथों में वर्णित राजा ने भी धारण की।
चोल, चेर और पांडय इन तीनों राज्यों के उदय में रोमन साम्राज्य के साथ बढ़ते हुए व्यापार का भी हाथ रहा। यहां के शासक इस आयात निर्यात व्यापार से लाभ उठाते रहे।
आरंभिक तीन राज्य -
प्रायद्वीपीय भारत का दक्षिणी छोर जो कृष्णा नदी के दक्षिण में पड़ता है, जो तीन राज्यों चोल, चेर, पांडय में विभक्त था।
पाण्ड्य साम्राज्य -
तमिल भाषा के संगम साहित्य से सर्वप्रथम कुछ प्राचीन पांड्य राजाओं के नाम उनके उल्लेखनीय कृत्यों के सहित ज्ञात होते हैं। इनमें पहले नेडियोन का नाम वर्णित है, किंतु उसका व्यक्तित्व काल्पनिक मालूम होता है।
दूसरा शासक पल्शालै मुदुकुडुभि नेडियोन से अधिक सजीव है। कहा जाता है, उसने अनेक यज्ञ किए थे, और विजित प्रदेशो के साथ निर्दयता का व्यवहार किया था।
तीसरा शासक नेड्ड जेलियन् था जिसका विरुद (प्रशस्ति) था 'एक आर्य' (उत्तर भारत का) सेना पर विजय प्राप्त करनेवाला (आरियप्पडैक दंड)। एक छोटी सी कविता उसकी रचना बतलाई जाती है।
प्राचीन पांड्य नरेशें में सबसे अधिक प्रसिद्ध शासक एक दूसरा नेड्डंजेलियन् था जिसका राज्यकाल 210 ई. के लगभग था। अल्प आयु में ही सिंहासन पर बैठते ही उसने अपने समकालीन शासकों के सम्मिलित आक्रमण को विफल किया, उनका चोल देश में खदेड़कर तलैयालंगानम् के युद्ध में पराजित किया और चेर नरेश को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया।
 छठी शताब्दी में पांड्य राज्य पर कलभ्रों का अधिकार में और बाद में चोलों के अधीन हो गया था।
चोलों के पतन पर पांड्यों के इस द्वितीय साम्राज्य का प्रारंभ जटावर्मन् कुलशेखर (1190-1213) से होता है। किंतु जटावर्मन् कुलशेखर की स्वतंत्र होने की लालसा को चोल नरेश कुलोत्तुंग तृतीय ने दबा दिया था।
जटावर्मन् के भाई मारवर्मन् सुंदर (1216-1238) ने सच्चे रूप में द्वितीय पांड्य साम्राज्य का आरंभ किया। उसने चोल राज्य पर आक्रमण करके चिंदबरम् तक की विजय की थी। किंतु होयसलों के हस्तक्षेप करने के कारण उसने चोलों को अधीनता स्वीकार करने पर ही छोड़ दिया।
दूसरी बार उसने चोल नरेश राजराज तृतीय को पराजित किया किंतु इस बार भी होयसलों के हस्तक्षेप करने पर वह चोल साम्राज्य पर स्थायी अधिकार न कर सका। फिर भी उसे राज्य की सीमाएँ विस्तृत थीं।
मारवर्मन् सुंदर पांड्य द्वितीय (1248-1251) चोल नरेश राजेंद्र तृतीय के हाथों पराजित हुआ था किंतु होयसलों ने पांड्यों का पक्ष लेकर चोलों को मनमानी नहीं करने दिया। जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम (1251-68) इस वंश का निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ सम्राट् था। उसने अपने समकालीन चेर, होयसल, चोल, तेलुगु, काकतीय और बाण सभी का अपने पराक्रम से अभिभूत (पराजित) किया था।
जटावर्मन् सुंदर पांड्य प्रथम के साम्राज्य का विस्तार लंका से नेल्लोर तक हो गया था। अपनी विजयों से प्राप्त वैभव का उपयोग उसने चिदंबरम् और श्रीरंगम् के मंदिरों को आकर्षक और संपन्न बनाने में किया। उसकी वैभवप्रदर्शन की प्रवृत्ति उसके अनेक अभिलेखों और तुलाभारों में परिलक्षित होती है।
पांडयों का सर्वप्रथम उल्लेख मेगास्थनीज ने किया है, उसने कहा कि उनका राज्य मोतियों के लिए मशहूर था, उसने यह भी बताया कि इस राज्य का शासन स्त्री के हाथ में था।
जिससे पांडय समाज में मातृ सत्तात्मक का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
पांडय राज्य प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण और दक्षिण पूर्वी भाग में था, इसमें मोटे तौर पर तमिलनाडु के आधुनिक तिनेवल्ली, रामनद और मदुरा जिले शामिल है। इनकी राजधानी मदुरा में थी।
पांडय राजाओं ने रोमन साम्राज्य से व्यापारिक संबंध स्थापित किए थे, उन्होंने रोमन सम्राट आंगस्ट्स के दरबार में राजदूत भेजें।
चोल साम्राज्य -
लंबे समय से प्रभुत्वहीनता के पश्चात् नवीं सदी के मध्य से चोलों का पुनरुत्थन हुआ। चोल वंश का संस्थापक विजयालय (850-871 ई.) पल्लवों की अधीनता में उरैयुर प्रदेश का शासक था।
विजयालय की वंशपरंपरा में लगभग 20 राजा हुए, जिन्होंने कुल मिलाकर चार सौ से अधिक वर्षों तक शासन किया।
विजयालय के पश्चात् आदित्य प्रथम (871-907), परातंक प्रथम (907-955) ने क्रमश: शासन किया।
परांतक प्रथम ने पांड्य-सिंहल नरेशों की सम्मिलित शक्ति को, पल्लवों, बाणों, बैडुंबों के अतिरिक्त राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय को भी पराजित किया।
चोल शक्ति एवं साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक परांतक ही था। उसने लंकापति उदय (945-53) के समय सिंहल पर भी एक असफल आक्रमण किया। परांतक अपने अंतिम दिनों में राष्ट्रकूट सम्राट् कृष्ण तृतीय द्वारा 949 ई. में बड़ी बुरी तरह पराजित हुआ। इस पराजय के फलस्वरूप चोल साम्राज्य की नींव हिल गई।
परांतक प्रथम के बाद के 32 वर्षों में अनेक चोल राजाओं ने शासन किया। इनमें गंडरादित्य, अरिंजय और सुंदर चोल या परातक दि्वतीय प्रमुख थे।
चोल राज्य मध्य काल के आरंभ में चोलमंडलम (कारोंमंडल) कहलाता था, यह पेन्नार और वेलार नदियों के बीच पांडय राज्य क्षेत्र के पूर्वोत्तर में स्थित था।
इनकी राजनीतिक सत्ता का केंद्र उरैयुर था, जो सूती कपड़ों के व्यापार के लिए मशहूर रहा था।
ईसा पूर्व दूसरी सदी के मध्य में एलारा नामक चोल राजा ने श्रीलंका पर विजय की और लगभग 50 वर्षों तक वहां शासन किया।
चोलों का अधिक सुनिश्चित इतिहास ईसा की दूसरी सदी से उनके प्रख्यात राजा कारैकाल से शुरू होता है। कारैकाल ने पुहार की स्थापना की और कावेरी नदी के किनारे 160 किलोमीटर लंबा बांध बनाया, जिसका निर्माण 12,000 गुलामों ने किया, यह बंदी श्रीलंका से आए थे। पुहार की पहचान कावेरिपट्टनम से भी की गई है, जो चोल राजधानी थी।
कारैकाल के कमजोर उत्तराधिकारियों के चलते चेरो तथा पांडवों ने चोलों के राज्य में घुसकर अपना अपना राज्य फैलाया। शेष बची कुची सत्ता को उत्तर से पल्लवों ने हमला कर समाप्त कर दिया।
इस की चौथी से 9वीं सदी तक दक्षिण भारत के इतिहास में चोलो की भूमिका नगण्य रही।
चेर (केरलपुत्र) साम्राज्य -
अशोक ने अपने साम्राज्य के बाहर दक्षिण की ओर के जिन देशों में धर्मप्रचार के लिए अपने महामात्य भेजे थे, उनमें एक था केरलपुत्र अर्थात् चेर (शिलाभिलेख द्वितीय और त्रयोदश)।
संगम युग (लगभग 100 ई. से 250 ई. तक) का सबसे पहला चेर शासक उदियंजेराल (130 ई.) था, जिसे संगम साहित्य में बहुत बड़ा विजेता कहा गया है। उसे अथवा उसके वंश को महाभारत की घटनाओं से जोड़ा गया है।
इसका पुत्र नेडुंजेराल आदन भी शक्तिशाली था। उसने कुछ यवन (रोमक) व्यापारियों को बलात् रोककर धन वसूल किया, अपने सात समकालिक राजाओं पर विजय प्राप्त की और अधिराज (इमयवरंबन) की उपाधि धारण की।
नेडुंजेराल आदन का छोटा भाई कुट्टुवन भी बड़ा विजेता था, जिसने अपनी विजयों द्वारा चेर राज्य की सीमा को पश्चिमी पयोधि से पूर्वी पयोधि तक फैला दी।
आदन के पुत्र शेंगुट्टुवन के अनेक विवरण सुप्रसिद्ध संगम कवि परणर की कविताओं में मिलते हैं, यह एक कुशल अश्वारोही था। तथा उसके पास संभवत: एक जलबेड़ा भी था।
चेर वंश के कुडड्की इरंजेराल इरुंपोडई (190 ई.) ने चोलों और पांड्यों से युद्ध में कई दुर्गों को जीता तथा उनकी धन-संपत्ति भी लूटी किंतु उसके बाद के मांदरजेराल इरुंपोडई नामक एक राजा को (210 ई.) पांड्यों से पराजय झेलनी पड़ी।
ईस्वी की तीसरी सदी के मध्य से आगे लगभग 300 वर्षों का चेर इतिहास अज्ञात है। पेरुमल उपाधिधारी जिन राजाओं ने वहाँ शासन किया, वे चेर निवासी नहीं, अपितु बाहरी थे।
सातवीं आठवीं सदी के प्रथम चरण में पांड्यों ने चेर के कोंगु प्रदेश पर अधिकार कर लिया। अन्य चेर प्रदेशों पर भी उनके तथा अन्य समकालिक शक्तियों के आक्रमण होते रहे। चेर राजाओं ने पल्लवों से मित्रता कर ली और इस प्रकार अपने को पांड्यों से बचाने की कोशिश की।
नवीं शतीं के अंत में चेर शासक स्थाणुरवि ने चोलराज आदित्य के पुत्र परांतक से अपनी पुत्री का विवाह कर चोलों से मित्रता कर ली, स्थाणुवि का पुत्र विजयरागदेव था।
उसके वंशजों में भास्कर रविवर्मा (1047-1106) प्रसिद्ध हुआ। किंतु राजराज प्रथम और उसके उत्तराधिकारी चोलों ने चेरों का अधिकांश भाग जीत लिया।
मदुरा के पांड्यों की भी चेर साम्राज्य में दृष्टि थी। आगे रविवर्मा कुलशेखर नामक एक चेर राजा ने थोड़े समय के लिए अपने वंश की खोई हुई कुछ शक्ति पुन: अर्जित कर पांड्य-पल्लव क्षेत्रों को रौंदा तथा अपने को सम्राट कहा।
रविवर्मा कुलशेखर एक कुशल शासक और विद्वानों का अश्रयदाता था, कोल्लम् (क्विलॉन) नामक जगह में उसकी राजधानी थी।
चेर या केरलपुत्र, पांडय क्षेत्र के पश्चिम और उत्तर में स्थित था। यह आधुनिक केरल तथा तमिलनाडु का क्षेत्र शामिल था।
ईसा की प्रारंभिक सदियों में चेर क्षेत्र का महत्व उतना ही था जितना चोलो और पांडयों का। चोलो का यह महत्व रोमन साम्राज्य के लोगों के साथ व्यापार के कारण था।
रोमनों ने अपने हितों की रक्षा के लिए सेना की दो टुकड़ियों मुजिरीस में स्थापित की जिसकी पहचान के चेर क्षेत्र में कागनोर से की जाती है। कहा जाता है कि यहां पर आंगस्ट्स का मंदिर भी बनवाया गया था।
चेरों का इतिहास चोल तथा पांडयों के साथ निरंतर युद्ध का रहा है, चेरों ने चोर नरेश कारैकाल के पिता का वध कर दिया, लेकिन चेर नरेश को भी इस युद्ध में जान गवानी पड़ी।
कुछ समय बाद (चोल - चेर) दोनों मित्र बन गए, तथा अंततः वैवाहिक संबंध भी बने। आगे चलकर चेर राजा ने चोलों के खिलाफ पांडयों से गठजोड़ किया, लेकिन चोलों ने दोनों को पराजित कर दिया। कहा जाता है कि चेर राजा को युद्ध में पीठ पर घाव लगने के कारण उसने लज्जा वश आत्महत्या कर ली।
चेर कवियों के अनुसार उसका सबसे बड़ा राजा से सेगुट्टूवन था। जिसको लाल या भला चेर भी कहा जाता था। सेगुट्टूवन ने अपने शत्रुओं का संहार कर अपने भाइयों को राज सिंहासन पर बैठाया था।
अन्य बिन्दु -
प्राकृतिक संसाधनों तथा विदेशी व्यापार से इन तीनों राज्यों को काफी लाभ मिला। यह राज्य मसाले विशेषकर गोल मिर्ची उगाया करते थे, हाथियों के दांत प्राप्त होने, खानों से रत्न एवं समुद्र से मोती मिलते जिसकी पश्चिमी देशों में भारी मांग रहती थी।
ये मलमल और रेशम भी पैदा करते थे, कहा जाता है कि इनका सूती कपड़ा सांप के केचुल जितना पतला होता था, उरैयुर अपने सूती कपड़ों के व्यापार के लिए जाना जाता था।
प्राचीन काल में तमिल लोग एक ओर यूनानी / मिश्र के हेलेनिस्टिक राज्य और अरब के साथ तो दूसरी और मलय द्वीप समूह के साथ - साथ  चीन से भी व्यापार किया करते थे।
व्यापार में चावल, अदरक, दालचीनी आदि प्रमुख वस्तुएं प्रमुख रही थी, पहली सदी ईसा के आसपास मिस्र रोम का प्रांत हो गया और मानसून का पता लग गया तब इस व्यापार को अपार बल मिला।
युद्ध में हाथ लगे धन को राजकोष में जमा किया जाता था, किसानों से वसूले गए कारों से राज्य अपनी सेना रखता था।
युद्ध में हाथी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे, घोड़े समुद्र के रास्ते पांडय राज्य में बाहर से मंगाए जाते थे।
सामंत और राजकुमार या सेनापति हाथी पर चढ़ते थे, और सेनानी कमांडर रथ पर पैदल सिपाही और घुड़सवार पाव की रक्षा के लिए पनही (जूता) पहनते थे।

सामाजिक वर्ग का उदय -
तमिल भूमि में ब्राह्मण का दर्शन सबसे पहले संगम युग में होता है, राजा कारैकाल ने एक कवि को 16,00,000 स्वर्ण मुद्राओं से पुरस्कृत किया था।
तमिल ब्राह्मण मदिरा पीते तथा मांस भी खाते थे।
क्षत्रिय और वैश्य संगम साहित्य में नियमित वर्ण में दिखाई देते है। किंतु योद्धा का वर्ण राज्य व्यवस्था और समाज का महत्वपूर्ण अंग था।
सेना अध्यक्षों को औपचारिक अनुष्ठान के साथ एनाड़ी की उपाधि दी जाती थी। 
चोल और पांडव दोनों राज्यों में असैनिक और सैनिक दोनों तरह के अधिकारियों के पद पर वल्लाल या धनी किसान रखे जाते थे। शासक वर्ग को अरसर कहा जाता था।
अधिकतर भूमि वल्लाल के हाथों में थी और वल्लाल चौथी जाति में आते थे।
खेत मजदूर का काम करने वाला सबसे निचला वर्ग था, जिसे कड़ैसियर कहते थे। कुछ कारीगर खेत मजदूर वर्ग के भी थे। परियार लोग खेत मजदूर थे, लेकिन पशु की खाल और चर्म का काम करते थे और चटाई के रूप में इनका इस्तेमाल किया करते थे।
तमिल देश में ईसा सन की आरंभिक सदियों में राज्य और समाज स्थापित हुए, इसका विकास ब्राह्मण संस्कृति के प्रभाव से हुआ।
पहाड़ी प्रदेशों के लोगों के मुख्य स्थानीय देवता मुरूगन थे, जो आरंभिक मध्य काल में सुब्रामनियम (सुब्रह्मण्य) कहलाते थे।
विष्णु की पूजा का भी उल्लेख है जो कि बाद में चली, राजा वैदिक यज्ञ करते थे वेदानुयायी ब्राह्मण लोग शास्त्रार्थ किया करते थे।
 लोग मृतक को धान चढ़ाते थे, शवदाह की प्रथा आरंभ हुई थी, पर महापाषाण अवस्था से चली आ रही दफनाने की प्रथा समाप्त नहीं हुई।

तमिल भाषा संगम साहित्य -
दो तरफ के संगम ग्रंथों में समाज के विकास की कई अवस्थाएं दिखाई देती हैं। आख्यानात्मक ग्रंथों को वीरगाथा काव्य कहते हैं। जिनमें वीर पुरुषों की कीर्ति गाई गई है।
 आरंभिक महापाषाणिक जीवन का आधार संगम साहित्य में मिलता है, सबसे पुराने महापाषाण काल के  लोग मूलतः पशुचारक, शिकारी या मछुआरे मालूम होते हैं।
प्रायद्वीपीय भारत में हंसिए, फावड़े तो मिलते है लेकिन फाल का अभाव दिखाई देता है।
लोहे की अन्य वस्तुओं में : कीलक (फन्नी) सपाट सेल्ट, बाणाग्र, लंबी तलवार, बरछी, खूटी और शुलाग्र हार्सबिट आदि मिलते हैं।
आख्यानात्मक संगम ग्रंथों से कुछ जानकारियां राज्य के गठन के बारे में मिलती है, इनमें कर संग्रह प्रणाली और न्याय व्यवस्था आरंभिक अवस्था में थी
आख्यानात्मक ग्रंथों से हमें व्यापारियों, वणिको, शिल्पियों और कृषकों के बारे में कुछ जानकारी मिलती है। कांची, कोरकई मदुरै, पुहार, उरैयुर, नगरों का भी वर्णन संगम साहित्य में मिलता है।
संगम साहित्य में उपदेशात्मक अंश जिसे संस्कृत प्राकृत जानने वाले ब्राह्मणों, पंडितों ने रचा है, जिसमें इसवी सन की आरंभिक सदियों के समाज का प्रतिबिंब होता है।
इसमें विभिन्न सामाजिक और व्यवसायिक वर्गों के लिए आचार नियम बताए गए हैं।
यह सब ईसा की चौथी सदी के बाद ही संभव हुआ होगा, जब पल्लव राजाओं के आश्रय में ही बड़ी संख्या में ब्राह्मण आए।
ग्रंथों में ग्रामदान का भी उल्लेख है, जो उत्तर भारत में छठी सदी में आरंभ हुई।
संगम ग्रंथ के अतिरिक्त एक और ग्रंथ है जो तोलकाप्पियम कहलाता है। यह एक व्याकरण और अलंकार शास्त्र का ग्रंथ है। एक अन्य तमिल ग्रंथ तिरुकुरल है, जिसमें दार्शनिक विचारों और सूक्तियों का वर्णन मिलता है।
इसके अलावा तमिल के दो प्रसिद्ध महाकाव्य सिलप्पदिकारम और मणिमेंकलै है, इन दोनों की रचना ईसवी  सन की छठी सदी के आसपास हुई मानी जाती है।
तमिल साहित्य का पहला महाकाव्य उज्जवलतम रत्न सिलप्पदिकारम माना जाता हैं, इसमें एक प्रेम कथा वर्णित है।
सिलप्पदिकारम के रचयिता संभवत: जैन थे, जो तमिल के सभी राज्यों को कथा स्थल बनाना चाहते थे।
महाकाव्य मणिमेंकलै मदुरा के एक बनिए का लिखा है, जो अनाज का व्यापार करता था। मणिमेंकलै में कोवलन और माधवी के संगम से उत्पन्न कन्या का साहसिक जीवन का वर्णन है। जो धार्मिक अधिक और साहित्य कम नजर आता है।
दोनों महाकाव्य (सिलप्पदिकारम, मणिमेंकलै) के लेखक ईसा की दूसरी सदी में राज करने वाले चेर शासक सेंगुट्टूवन के मित्र और समकालीन रहे थे, लेकिन इन ग्रंथों में तमिल के सामाजिक आर्थिक जीवन की छठी सदी की झलक भी दखाई देती है।
ब्राह्मी लिपि में लिखे 75 से अधिक छोटे-छोटे अभिलेख प्राकृतिक गुफाओं में विशेषकर मदुरै प्रदेश में पाए गए हैं, जिनमें प्राकृत शब्दों के साथ तमिल भाषा का प्राचीनतम स्वरूप भी देखने को मिलता है।
संगम साहित्य का अंतिम संकलन 600 ईसवी के समय हुआ है।

अगले अंक में पढ़ें : मौर्योत्तर काल में शिल्प, व्यापार एवं नगर शिल्प।

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