बंगाल के कुप्रशासन से उपजी परिस्थितियों ने ब्रिटिश संसद को ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों की जाँच हेतु बाध्य कर दिया| इस जाँच में कंपनी के उच्च अधिकारियों द्वारा अपने अधिकारों के दुरुपयोग के अनेक मामले सामने आये| उस समय कंपनी वित्तीय संकट से भी गुजर रही थी और ब्रिटिश सरकार के समक्ष एक मिलियन पौंड के ऋण हेतु आवेदन भी भेज चुकी थी| ब्रिटिश संसद ने पाया कि भारत में कंपनी की गतिविधियों को नियंत्रित करने की जरुरत है और इसी जरुरत की पूर्ति के लिए 1773 ई. में रेग्युलेटिंग एक्ट पारित किया गया|
यह एक्ट भारत के सम्बन्ध प्रत्यक्ष हस्तक्षेप हेतु ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया पहला कदम था |इस एक्ट का उद्देश्य व्यापारिक कंपनी के हाथों से राजनीतिक शक्ति छीनने की ओर एक कदम बढाना था| इस एक्ट द्वारा नए प्रशासनिक ढांचे की स्थापना के लिए भी कुछ विशेष कदम उठाये गए| कंपनी की कलकत्ता फैक्ट्री के अध्यक्ष ,जिसे बंगाल का गवर्नर कहा जाता था, को कंपनी के भारत में स्थित सभी क्षेत्रों का गवर्नर जनरल बना दिया गया और बम्बई व मद्रास के दो अन्य गवर्नरों को उसके अधीन कर दिया गया|उसकी सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद् का गठन किया गया| इस एक्ट में न्यायिक प्रशासन के लिए कलकत्ता में एक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का प्रस्ताव भी शामिल किया गया|
बहुत जल्द ही रेग्युलेटिंग एक्ट की कमियां उजागर होने लगीं| प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स और परिषद् के सदस्यों के बीच लगातार विवाद की स्थिति बनी रही| सुप्रीम कोर्ट भी अपना कार्य बेहतर ढ़ंग से नहीं कर पा रही थी क्योंकि उसके न्यायाधिकरण और परिषद के साथ उसके संबंधों को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी|साथ ही यह भी स्पष्ट नहीं था कि वे भारतीय कानून का अनुसरण करे या फिर ब्रिटिश कानून का| इस न्यायालय ने मुर्शिदाबाद के पूर्व दीवान और जाति से ब्राह्मण–नन्द कुमार,को जालसाजी के आरोप में मृत्युदंड की सजा सुनायी जबकि भारत में इस अपराध के लिए किसी भी ब्राह्मण को मृत्युदंड की सजा नहीं दी जा सकती थी| इस मामले ने बंगाल में काफी सनसनी पैदा कर दी| इस एक्ट के लागू होने के बाद भी कंपनी के ऊपर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण स्पष्ट नहीं था|
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