भारत के रीतिकालीन कवि Part - 2, - Study Search Point

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भारत के रीतिकालीन कवि Part - 2,

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कवि मनियार सिंह - 
मनियार सिंह काशी (वर्तमान बनारस) के रहने वाले क्षत्रिय थे। ये कविवर कृष्णलाल के शिष्य थे। संवत् 1849 से 1873 वि. मनियार सिंह का कार्यकाल था। इन्होंने पुष्पदत्त के 'शिव महिमा स्तोत्र’ का 35 कवित्तों में संवत 1849 में अनुवाद किया। 'हनुमान छब्बीसी', 'सुन्दरकाण्ड' (63 छंद), 'हनुमान विजय', 'सौन्दर्य लहरी' (103 कवित्त) की रचना इन्होंने की है।
मनियार सिंह ने देवपक्ष में ही कविता की है और अच्छी की है। इनके निम्नलिखित ग्रंथों का पता है-
  1. भाषा महिम्न,
  2. सौंदर्यलहरी,
  3. हनुमतछबीसी,
  4. सुंदरकांड
'भाषा महिम्न' इन्होंने संवत् 1841 में लिखा। इनकी भाषा सानुप्रास, शिष्ट और परिमार्जित है और उसमें ओज भी पूरा है।
रीतिकालीन कवि रामचंद्र - 
रामचंद्र ने अपना कुछ भी परिचय नहीं दिया है। 'भाषा महिम्न' के कर्ता काशीवासी मनियारसिंह ने अपने को 'चाकर अखंडित श्री रामचंद्र पंडित के' लिखा है। मनियारसिंह ने अपना 'भाषा महिम्न' संवत् 1841 में लिखा। अत: इनका समय संवत् 1840 माना जा सकता है। इनकी एक पुस्तक 'चरणचंद्रिका' ज्ञात है। जिस पर इनका सारा यश स्थिर है। यह भक्तिरसात्मक ग्रंथ केवल 62 कवित्तों का है। इसमें पार्वती जी के चरणों का वर्णन अत्यंत रुचिकर और अनूठे ढंग से किया गया है। इस वर्णन से अलौकिक सुषमा, विभूति, शक्ति और शांति फूटी पड़ती है। उपास्य के एक अंग में अनंत ऐश्वर्य की भावना भक्ति की चरम भावुकता के भीतर ही संभव है। भाषा लाक्षणिक और पांडित्यपूर्ण है।

कवि गणेश बन्दीजन - 
गणेश बन्दीजन लाल कवि के पौत्र गुलाब कवि के पुत्र थे। संवत् 1850 से लेकर 1910 तक वर्तमान थे। ये काशी के महाराज उदित नारायण सिंह के दरबार में थे और महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह के समय तक जीवित रहे।
इन्होंने ने तीन ग्रंथ लिखे थे-
  1. 'वाल्मीकि रामायण श्लोकार्थ प्रकाश'
  2. 'प्रद्युम्न विजय नाटक'
  3. 'हनुमत पच्चीसी'
‘साहित्य सागर’ नाम से साहित्य शास्त्र का भी ग्रन्थ इन्होंने रचा था।
इनके द्वारा लिखा गया 'प्रद्युम्न विजय नाटक' समग्र पद्यबद्ध है और अनेक प्रकार के छंदों में सात अंकों में समाप्त हुआ है। इसमें दैत्यों के 'वज्रनाभपुर' नामक नगर में प्रद्युम्न के जाने और प्रभावती से गंधर्व विवाह होने की कथा है। यद्यपि इसमें पात्र प्रवेश, विष्कंभक, प्रवेशक आदि नाटक के अंग रखे गए हैं पर इतिवृत्त का भी वर्णन पद्य में होने के कारण नाटकत्व नहीं आया है।

रीतिकालीन कवि मधुसूदन दास - 
मधुसूदन दास माथुर चौबे थे। इन्होंने गोविंददास नामक किसी व्यक्ति के अनुरोध से संवत् 1839 में 'रामाश्वमेधा' नामक एक बड़ा और मनोहर प्रबंध काव्य बनाया, जो सब प्रकार सेगोस्वामी जी के रामचरितमानस का परिशिष्ट ग्रंथ होने के योग्य है। इसमें श्रीरामचंद्र द्वारा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान, घोड़े के साथ गई हुई सेना के साथ सुबाहु, दमन, विद्युन्माली राक्षस, वीरमणि, शिव, सुरथ आदि का घोर युद्ध, अंत में राम के पुत्र लव और कुश के साथ भयंकर संग्राम, श्रीरामचंद्र द्वारा युद्ध का निवारण और पुत्रों सहित सीता का अयोध्या में आगमन, इन सब प्रसंगों का पद्मपुराण के आधार पर बहुत ही विस्तृत और रोचक वर्णन है। ग्रंथ की रचना बिल्कुल रामचरितमानस की शैली पर हुई है। प्रधानता दोहों के साथ चौपाइयों की है, पर बीच बीच में गीतिका आदि और छंद भी हैं।
पदविन्यास और भाषा सौष्ठव रामचरितमानस का सा ही है। प्रत्यय और रूप भी बहुत कुछ अवधी के रखे गए हैं। गोस्वामी जी की प्रणाली के अनुसरण में मधुसूदन दास जी को पूरी सफलता हुई है। इनकी प्रबंधकुशलता, कवित्वशक्ति और भाषा की शिष्टता तीनों उच्चकोटि की हैं। इनकी चौपाइयाँ अलबत्ता गोस्वामी जी चौपाइयों में बेखटक मिलाई जा सकती हैं। सूक्ष्म दृष्टिवाले भाषा मर्मज्ञों को केवल थोड़े ही से ऐसे स्थलों में भेद लक्षित हो सकता है जहाँ बोलचाल की भाषा होने के कारण भाषा का असली रूप अधिक स्फुटित है। ऐसे स्थलों पर गोस्वामी जी के अवधी के रूप और प्रत्यय न देखकर भेद का अनुभव हो सकता है। पर जैसा कहा जा चुका है, पदविन्यास की प्रौढ़ता और भाषा का सौष्ठव गोस्वामी जी के मेल का है। 

कवि भरमी - 
भरमी भारत के रीतिकालीन कवि थे। इनके विषय में निश्चित रूप से कुछ अधिक ज्ञात नहीं है। शिवसिंह ने इनके एक नीति-विषयक छप्पय को 'सरोज' में स्थान दिया है, इससे ज्ञात होता है कि ये नीति के कवि रहे थे।
  • शिवसिंह नें कवि भरमी का उपस्थिति-काल 1649 ई. माना है। ग्रियर्सन इसे उपस्थिति काल और मिश्रबन्धु रचना काल मानते हैं।
  • 'कालिदास हजारा' में भरमी के छन्द संकलित हैं। इससे इनको 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का कवि मानना चाहिए।
  • 'दि. भू.' में गोकुल कवि ने इनके नख-शिख सम्बन्धी चार छन्द उदाहृत किये हैं। इस प्रकार भरमी रीतिकालीन परम्परा के शृंगारी कवि ही जान पड़ते हैं।

कवि ठाकुर बुंदेलखंडी - 
ठाकुर बुंदेलखंडी का पूरा नाम 'लाला ठाकुरदास' था। ये जाति के कायस्थ थे। इनके पूर्वज काकोरी, लखनऊ ज़िले के रहने वाले थे और इनके पितामह 'खड्गराय जी' बड़े भारी मनसबदारथे। उनके पुत्र गुलाबराय का विवाह बड़ी धूमधाम से ओरछाबुंदेलखंड के रावराजा की पुत्री के साथ हुआ था। ये ही गुलाबराय ठाकुर कवि के पिता थे। किसी कारण से गुलाबराय अपनी ससुराल ओरछा में ही आ बसे, जहाँ संवत् 1823 में ठाकुर बुंदेलखंडी का जन्म हुआ। शिक्षा समाप्त होने पर ठाकुर अच्छे कवि निकले और जेतपुर में सम्मान पाकर रहने लगे। उस समय जेतपुर के राजा केसरी सिंह जी थे। ठाकुर के कुल के कुछ लोग 'बिजावर' में भी जा बसे थे। इससे ये कभी वहाँ भी रहा करते थे। बिजावर के राजा ने एक गाँव देकर ठाकुर का सम्मान किया। जेतपुर नरेश 'राजा केसरी सिंह' के उपरांत जब उनके पुत्र राजा 'पारीछत' गद्दी पर बैठे, तब ठाकुर उनकी सभा के रत्न हुए।
पारीछत के समय में ही ठाकुर जी की ख्याति फैलने लगी थी और वे बुंदेलखंड के दूसरे राजदरबारों में भी आने जाने लगे। बाँदा के हिम्मत बहादुर गोसाईं के दरबार में कभी-कभी पद्माकरजी के साथ ठाकुर की कुछ नोंक झोंक की बातें हो जाया करती थीं। ठाकुर बहुत ही सच्ची उमंग के कवि थे। इनमें कृत्रिमता का लेश नहीं। न तो कहीं व्यर्थ का शब्दाडंबर है, न कल्पना की झूठी उड़ान और न अनुभूति के विरुद्ध भावों का उत्कर्ष। जैसे भावों का जिस ढंग से मनुष्य मात्र अनुभव करते हैं वैसे भावों को उसी ढंग से यह कवि अपनी स्वाभाविक भाषा में उतार देता है। बोलचाल की चलती भाषा में भाव को ज्यों का त्यों सामने रख देना इस कवि का लक्ष्य रहा है। ब्रजभाषा की शृंगारी कविताएँ प्राय: स्त्री पात्रों के ही मुख की वाणी होती हैं अत: स्थान स्थान पर लोकोक्तियों का जो मनोहर विधान इस कवि ने किया उनसे उक्तियों में और भी स्वाभाविकता आ गई है। यह एक अनुभूत बात है कि स्त्रियाँ बात बात में कहावतें कहा करती हैं। उनके हृदय के भावों की भरपूर व्यंजना के लिए ये कहावतें मानो एक संचित वाङ्मय हैं। लोकोक्तियों का जैसा मधुर उपयोग ठाकुर ने किया है वैसा और किसी कवि ने नहीं। इन कहावतों में से कुछ तो सर्वत्र प्रचलित हैं और कुछ ख़ास बुंदेलखंड की हैं। ठाकुर सच्चे उदार, भावुक और हृदय के पारखी कवि थे इसी से इनकी कविताएँ विशेषत: सवैये इतने लोकप्रिय हुए। ऐसा स्वच्छंद कवि किसी क्रम से बद्ध होकर कविता करना भला कहाँ पसंद करता? जब जिस विषय पर जी में आया कुछ कहा।

अनेकांगदर्शी कवि

ठाकुर प्रधानत: प्रेमनिरूपक होने पर भी लोक व्यापार के अनेकांगदर्शी कवि थे। इसी से प्रेमभाव की अपनी स्वाभाविक तन्मयता के अतिरिक्त कभी तो ये अखती, फाग, बसंत, होली, हिंडोरा आदि उत्सवों के उल्लास में मग्न दिखाई पड़ते हैं; कभी लोगों की क्षुद्रता, कुटिलता, दु:शीलता आदि पर क्षोभ प्रकट करते पाए जाते हैं और कभी काल की गति पर खिन्न और उदास देखे जाते हैं। कविकर्म को ये कठिन समझते थे। रूढ़ि के अनुसार शब्दों की लड़ी जोड़ चलने को ये कविता नहीं कहते थे।

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