साहित्यकार खुमान -
खुमान बंदीजन थे और चरखारी, बुंदेलखंड के 'महाराज विक्रमसाहि' के यहाँ रहते थे। इनके बनाए इन ग्रंथों का पता है -
- अमरप्रकाश (संवत् 1836),
- अष्टयाम (संवत् 1852),
- लक्ष्मणशतक (संवत् 1855),
- हनुमान नखशिख,
- हनुमान पंचक,
- हनुमान पचीसी,
- नीतिविधान,
- समरसार
- नृसिंह चरित्र (संवत् 1879),
- नृसिंह पचीसी।
इस सूची के अनुसार खुमान का कविताकाल संवत् 1830 से 1880 तक माना जा सकता है। 'लक्ष्मणशतक' में लक्ष्मण और मेघनाद का युद्ध बड़े फड़कते हुए शब्दों में कहा गया है। खुमान कविता में अपना उपनाम 'मान' रखते थे।
कवि चंद्रशेखर -
चंद्रशेखर कवि 'वाजपेयी' थे। इनका जन्म संवत् 1855 में मुअज्जमाबाद, ज़िला, फतेहपुर में हुआ था। इनके पिता 'मनीराम जी' भी अच्छे कवि थे। ये कुछ दिनों तक दरभंगा और फिर 6 वर्ष तक जोधपुर नरेश 'महाराज मानसिंह' के यहाँ रहे। अंत में ये 'पटियाला नरेश' 'महाराज कर्मसिंह' के यहाँ गए और जीवन भर पटियाला में ही रहे। इनका देहांत संवत् 1932 में हुआ। अत: ये 'महाराज नरेंद्र सिंह' के समय तक वर्तमान थे और उन्हीं के आदेश से इन्होंने अपना प्रसिद्ध 'वीरकाव्य' 'हम्मीरहठ' बनाया। इसके अतिरिक्त इनके रचे ग्रंथों के नाम ये हैं -
- विवेकविलास,
- रसिकविनोद,
- हरिभक्तिविलास,
- नखशिख,
- वृंदावनशतक,
- गृहपंचाशिका,
- ताजकज्योतिष,
- माधावी वसंत।
चंद्रशेखर का साहित्यिक भाषा पर बड़ा भारी अधिकार था। अनुप्रास की योजना प्रचुर होने पर भी भद्दी कहीं नहीं हुई, सर्वत्र रस में सहायक ही है। युद्ध, मृगया आदि के वर्णन तथा संवाद आदि सब बड़ी मर्मज्ञता से रखे गए हैं। जिस रस का वर्णन है ठीक उसके अनुकूल पदविन्यास है। जहाँ शृंगार का प्रसंग है वहाँ यही प्रतीत होता है कि किसी सर्वश्रेष्ठ शृंगारी कवि की रचना पढ़ रहे हैं।

साहित्यकार नवलसिंह -
नवलसिंह जाति से कायस्थ थे और ये झाँसी के रहने वाले थे और 'समथर' नरेश 'राजा हिंदूपति' की सेवा में रहते थे। इन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की है जो भिन्न भिन्न विषयों पर और भिन्न भिन्न शैली के हैं। नवलसिंह अच्छे चित्रकार भी थे। नवलसिंह का झुकाव भक्ति और ज्ञान की ओर विशेष था। इनके लिखे ग्रंथों के नाम ये हैं ,
- रासपंचाध्यायी,
- रामचंद्रविलास,
- शंकामोचन (संवत् 1873),
- जौहरिनतरंग (1875),
- रसिकरंजनी (1877),
- विज्ञान भास्कर (1878),
- ब्रजदीपिका (1883),
- शुकरंभासंवाद (1888),
- नामचिंतामणि (1903),
- मूलभारत (1911),
- भारतसावित्री (1912),
- भारत कवितावली (1913),
- भाषा सप्तशती (1917),
- कवि जीवन (1918),
- आल्हा रामायण (1922),
- रुक्मिणीमंगल (1925),
- मूल ढोला (1925),
- रहस लावनी (1926),
- अध्यात्मरामायण,
- रूपक रामायण,
- नारी प्रकरण,
- सीतास्वयंबर,
- रामविवाहखंड,
- भारत वार्तिक,
- रामायण सुमिरनी,
- पूर्व शृंगारखंड,
- मिथिलाखंड,
- दानलोभसंवाद,
- जन्म खंड।
- अप्रकाशित
उक्त पुस्तकों में यद्यपि अधिकांश बहुत छोटी हैं फिर भी इनकी रचना बहुरूपता का आभास देती है। इनकी पुस्तकें प्रकाशित नहीं हुई हैं। अत: इनकी रचना के संबंध में विस्तृत और निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। खोज की रिपोर्टों में उद्धृत उदाहरणों के देखने से रचना इनकी पुष्ट और अभ्यस्त प्रतीत होती है। ब्रजभाषा में कुछ वार्तिक या गद्य भी इन्होंने लिखा है।
साहित्यकार बाबा दीनदयाल गिरि -
बाबा दीनदयाल गिरि गोसाईं थे। इनका जन्म शुक्रवार बसंतपंचमी, संवत् 1859 में काशी के गायघाट मुहल्ले में एक 'पाठक कुल' में हुआ था। जब ये 5 या 6 वर्ष के थे तभी इनके माता पिता इन्हें महंत कुशागिरि को सौंप चल बसे। महंत कुशागिरि पंचक्रोशी के मार्ग में पड़ने वाले 'देहली विनायक' स्थान के अधिकारी थे। काशी में महंत जी के और भी कई मठ थे। ये विशेषत: गायघाट वाले मठ में रहा करते थे। जब महंत कुशागिरि के मरने पर बहुत सी जायदाद नीलाम हो गई तब ये देहली विनायक के पास मठोली गाँव वाले मठ में रहने लगे। दीनदयाल गिरिसंस्कृत और हिन्दी दोनों के अच्छे विद्वान थे। बाबू गोपालचंद्र (गिरिधरदास) से इनका बड़ा स्नेह था। इनका परलोकवास संवत् 1915 में हुआ।
दीनदयाल गिरि एक अत्यंत सहृदय और भावुक कवि थे। इनकी सी अन्योक्तियाँ हिन्दी के और किसी कवि की नहीं हुईं। यद्यपि इन अन्योक्तियों के भाव अधिकांश संस्कृत से लिये हुए हैं, परभाषा शैली की सरसता और पदविन्यास की मनोहरता के विचार से वे स्वतंत्र काव्य के रूप में हैं। बाबा जी का भाषा पर बहुत ही अच्छा अधिकार था। इनकी सी परिष्कृत, स्वच्छ और सुव्यवस्थित भाषा बहुत थोड़े कवियों की है। कहीं कहीं कुछ पूरबीपन या अव्यवस्थित वाक्य मिलते हैं, पर बहुत कम। इसी से इनकी अन्योक्तियाँ इतनी मर्मस्पर्शिनी हुई हैं। इनका 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' हिन्दी साहित्य में एक अनमोल वस्तु है। अन्योक्ति के क्षेत्र में कवि की मार्मिकता और सौंदर्य भावना के स्फुरण का बहुत अच्छा अवकाश रहता है। पर इसमें अच्छे भावुक कवि ही सफल हो सकते हैं। लौकिक विषयों पर तो इन्होंने सरल अन्योक्तियाँ कही ही हैं; अध्यात्मपक्ष में भी दो-एक रहस्यमयी उक्तियाँ इनकी हैं।
बाबाजी का जैसा कोमल व्यंजक पदविन्यास पर अधिकार था वैसा ही शब्द चमत्कार आदि के विधान पर भी। यमक और श्लेषमयी रचना भी इन्होंने बहुत सी की है। जिस प्रकार ये अपनी भावुकता हमारे सामने रखते हैं उसी प्रकार चमत्कार कौशल दिखाने में भी नहीं चूकते हैं। इससे जल्दी नहीं कहते बनता कि इनमें कलापक्ष प्रधान है या हृदयपक्ष। बड़ी अच्छी बात इनमें यह है कि इन्होंने दोनों को प्राय: अलग अलग रखा है। अपनी मार्मिक रचनाओं के भीतर इन्होंने चमत्कार प्रवृत्ति का प्रवेश प्राय: नहीं होने दिया है। 'अन्योक्तिकल्पद्रुम' के आदि में कई श्लिष्ट पद्य आए हैं पर बीच में बहुत कम। इसी प्रकार अनुराग बाग़ में भी अधिकांश रचना शब्द वैचित्रय आदि से मुक्त है। यद्यपि अनुप्रासयुक्त सरस कोमल पदावली का बराबर व्यवहार हुआ है, पर जहाँ चमत्कार का प्रधान उद्देश्य रखकर ये बैठे हैं वहाँ श्लेष, यमक, अंतर्लापिका, बहिर्लापिका सब कुछ मौजूद है। सारांश यह कि ये एक बहुरंगी कवि थे। रचना की विविधा प्रणालियों पर इनका पूर्ण अधिकार था।
- रचनाएँ -
इनकी लिखी इतनी पुस्तकों का पता है ,
- अन्योक्तिकल्पद्रुम (संवत् 1912),
- अनुरागबाग़ (संवत् 1888),
- वैराग्य दिनेश (संवत् 1906),
- विश्वनाथ नवरत्न और
- दृष्टांत तरंगिणी (संवत् 1879)।
इस सूची के अनुसार इनका कविताकाल संवत् 1879 से 1912 तक माना जा सकता है। 'अनुरागबाग' में श्रीकृष्ण की विविधा लीलाओं का बड़े ही ललित कवित्तों में वर्णन हुआ है। मालिनीछंद का भी बड़ा मधुर प्रयोग हुआ है। 'दृष्टांत तरंगिणी' में नीतिसंबंधी दोहे हैं। 'विश्वनाथ नवरत्न' शिव की स्तुति है। 'वैराग्य दिनेश' में एक ओर तो ऋतुओं आदि की शोभा का वर्णन है और दूसरी ओर ज्ञान, वैराग्य आदि का।
साहित्यकार गिरिधरदास -
गिरिधरदास भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के पिता थे और ब्रजभाषा के बहुत ही प्रौढ़ कवि थे। इनका नाम तो 'बाबू गोपालचंद्र' था पर कविता में अपना उपनाम ये 'गिरिधरदास', 'गिरधार', 'गिरिधरन' रखते थे।
- परिचय -
गिरिधरदास का जन्म पौष कृष्ण 15, संवत् 1890 को हुआ। इनके पिता 'काले हर्षचंद', जो काशी के एक बड़े प्रतिष्ठित रईस थे, इन्हें ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही छोड़कर परलोक सिधार गये थे। इन्होंने अपने निज के परिश्रम से संस्कृत और हिन्दी में बड़ी स्थिर योग्यता प्राप्त की और पुस्तकों का एक बहुत बड़ा अनमोल संग्रह किया। पुस्तकालय का नाम इन्होंने 'सरस्वती भवन' रखा जिसका मूल्य स्वर्गीय डॉ. राजेंद्र लाल मित्र एक लाख रुपया तक दिलवाते थे। इनके यहाँ उस समय के विद्वानों और कवियों की मंडली बराबर जमी रहती थी और इनका समय अधिकतर काव्यचर्चा में ही जाता था। इनका परलोकवास संवत् 1917 में हुआ।
- रचनाएँ -
भारतेंदु जी ने इनके लिखे 40 ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमें बहुतों का पता नहीं। भारतेंदु के दौहित्र, हिन्दी के उत्कृष्ट लेखक 'श्रीयुत् बाबू ब्रजरत्नदास जी' हैं जिन्होंने अपनी देखी हुई इन अठारह पुस्तकों के नाम इस प्रकार दिए हैं -
- जरासंधवध महाकाव्य,
- भारतीभूषण,
- भाषा व्याकरण,
- रसरत्नाकर,
- ग्रीष्म वर्णन,
- मत्स्यकथामृत,
- वराहकथामृत,
- नृसिंहकथामृत,
- वामनकथामृत,
- परशुरामकथामृत,
- रामकथामृत,
- बलराम कथामृत,
- कृष्णचरित,
- बुद्ध कथामृत,
- कल्किकथामृत,
- नहुष नाटक,
- गर्गसंहिता,
- एकादशी माहात्म्य।
- इनके अतिरिक्त भारतेंदुजी के एक नोट के आधार पर बाबू राधाकृष्णदास ने इनकी 21 और पुस्तकों का उल्लेख किया है -
- वाल्मीकि रामायण,
- छंदार्णव,
- नीति,
- अद्भुत रामायण,
- लक्ष्मीनखशिख,
- वार्ता संस्कृत,
- ककारादि सहस्रनाम,
- गयायात्रा,
- गयाष्टक,
- द्वादशदलकमल,
- कीर्तन,
- संकर्षणाष्टक,
- दनुजारिस्त्रोत,
- गोपालस्त्रोत,
- भगवतस्त्रोत,
- शिवस्त्रोत,
- श्री रामस्त्रोत,
- श्री राधास्त्रोत,
- रामाष्टक,
- कालियकालाष्टक।
इन्होंने दो ढंग की रचनाएँ की हैं। गर्गसंहिता आदि भक्तिमार्ग की कथाएँ तो सरल और साधारण पद्यों में कही हैं, पर काव्यकौशल की दृष्टि से जो रचनाएँ की हैं जैसे - जरासंध वध, भारतीभूषण, रसरत्नाकर, ग्रीष्मवर्णन , ये यमक और अनुप्रास आदि से इतनी लदी हुई हैं कि बहुत स्थलों पर दुरूह हो गई हैं। सबसे अधिक इन्होंने यमक और अनुप्रास का चमत्कार दिखाया है। अनुप्रास और यमक का ऐसा विधान जैसा जरासंधवध में है और कहीं नहीं मिलेगा। जरासंधवध अपूर्ण है, केवल 11 सर्गों तक लिखा गया है, पर अपने ढंग का अनूठा है। जो कविताएँ देखी गई हैं उनसे यही धारणा होती है कि इनका झुकाव चमत्कार की ओर अधिक था। रसात्मकता इनकी रचनाओं में वैसी नहीं पाई जाती। अट्ठाइस वर्ष की ही आयु पाकर इतनी अधिक पुस्तकें लिख डालना पद्य रचना का अद्भुत अभ्यास सूचित करता है। इनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिए जाते हैं।
साहित्यकार रामसहाय दास -
रामसहाय दास चौबेपुर ज़िला, बनारस के रहने वाले लाला भवानीदास कायस्थ के पुत्र थे। ये काशी नरेश 'महाराज उदित नारायण सिंह' के आश्रय में रहते थे। संवत् 1860-1880 के मध्य महाराज उदित नारायण के दरबारी कवि रामसहाय ने 'रामसतसई', 'श्रृंगार सतसई', 'ककहरा रामसहायदास', 'बानी भूषण', 'राम सप्त शतिका' नामक चमत्कृत काव्य ग्रंथ रचे थे।
रचना कार्य
'बिहारी सतसई' के अनुकरण पर इन्होंने 'रामसतसईं' बनाई थी। बिहारी के अनुकरण पर बनी हुई पुस्तकों में इसी को प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इसके बहुत से दोहे सरस उद्भावना में बिहारी के दोहों के पास तक पहुँचते हैं, पर यह कहना कि ये दोहे बिहारी के दोहों में मिलाए जा सकते हैं, रसज्ञता और भावुकता से ही पुरानी दुश्मनी निकालना ही नहीं, बिहारी को भी कुछ नीचे गिराने का प्रयत्न समझा जाएगा। जहाँ तक शब्दों की कारीगरी और वाग्वैदग्ध्य से संबंध है, वहीं तक अनुकरण करने का प्रयत्न किया गया है और सफलता भी हुई है। पर हावों का वह सुंदर व्यंजना विधान, चेष्टाओं का वह मनोहर चित्रण, भाषा का वह सौष्ठव, संचारियों की वह सुंदर व्यंजना इस सतसई में नहीं है। इस बड़े भारी भेद के होते हुए भी 'रामसतसईं' शृंगार रस का उत्तम ग्रंथ है इस सतसई के अतिरिक्त इन्होंने तीन पुस्तकें और लिखी हैं -
- वाणीभूषण,
- वृत्ततरंगिणी (संवत्र, 1873) और
- ककहरा।
- 'वाणीभूषण' अलंकार का ग्रंथ है। 'वृत्ततरंगिणी' पिंगल का ग्रंथ है।
- 'ककहरा' जायसी की 'अखरावट' के ढंग की छोटी सी पुस्तक है और शायद सबसे बाद की रचना है, क्योंकि इसमें धर्म और नीति के उपदेश हैं। रामसहाय का कविता काल संवत् 1760से 1880 तक माना जा सकता है।
साभार - भारतकोश