शिवराम हरि राजगुरु (Rajguru; 24 अगस्त, 1908, पुणे, महाराष्ट्र; - 23 मार्च, 1931,लाहौर) भारत के प्रसिद्ध वीर स्वतंत्रता सेनानी थे। ये सरदार भगत सिंह और सुखदेव के घनिष्ठ मित्र थे। इस मित्रता को राजगुरु ने मृत्यु पर्यंत निभाया। देश की आजादी के लिए दी गई राजगुरु की शहादत ने इनका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित करवा दिया। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव की शहादत आज भी भारत के युवकों को प्रेरणा प्रदान करती है। इनके पिता का नाम श्री हरि नारायण और माता का नाम पार्वती बाई था। राजगुरु के पिता का निधन इनके बाल्यकाल में ही हो गया था। इनका पालन-पोषण इनकी माता और बड़े भैया ने किया। राजगुरु बचपन से ही बड़े वीर, साहसी और मस्तमौला थे। भारत माँ से प्रेम तो बचपन से ही था। इस कारण अंग्रेज़ों से घृणा तो स्वाभाविक ही थी। ये बचपन से ही वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के बहुत बड़े भक्त थे। संकट मोल लेने में भी इनका कोई जवाब नहीं था।
किन्तु ये कभी-कभी लापरवाही कर जाते थे। राजगुरु का पढ़ाई में मन नहीं लगता था, इसलिए इनको अपने बड़े भैया और भाभी का तिरस्कार सहना पड़ता था। माँ बेचारी कुछ बोल न पातीं। जब राजगुरु तिरस्कार सहते-सहते तंग आ गए, तब वे अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए घर छोड़ कर चले गए। फिर सोचा की अब जबकि घर के बंधनों से स्वाधीन हूँ तो भारत माता की बेड़ियाँ काटने में अब कोई दुविधा नहीं है। वे कई दिनों तक भिन्न-भिन्न क्रांतिकारियों से भेंट करते रहे। अंत में उनकी क्रांति की नौका को चंद्रशेखर आज़ाद ने पार लगाया। राजगुरु 'हिंदुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ' के सदस्य बन गए। चंद्रशेखर आज़ाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित हुए और बड़े चाव से इन्हें निशानेबाजी की शिक्षा देने लगे। शीघ्र ही राजगुरु आज़ाद जैसे एक कुशल निशानेबाज बन गए। कभी-कभी चंद्रशेखर आज़ाद इनको लापरवाही करने पर डांट देते, किन्तु यह सदा आज़ाद को बड़ा भाई समझ कर बुरा न मानते। राजगुरु का निशाना कभी चूकता नहीं था। बाद में दल में इनकी भेंटभगत सिंह और सुखदेव से हुई। राजगुरु इन दोनों से बड़े प्रभावित हुए।
भगत सिंह और सुखदेव, ये दोनों राजगुरु को अपना सबसे अच्छा साथी मानते थे। दल ने लाला लाजपत राय की मृत्यु के जिम्मेदार अंग्रेज़ अफ़सर स्कॉट का वध करने की योजना बनायीं। इस काम के लिए राजगुरु और भगत सिंह को चुना गया। राजगुरु तो अंग्रेजों को सबक सिखाने का अवसर ढूँढ़ते ही रहते थे, अब वह सुअवसर उन्हें मिल गया था। 19 दिसंबर, 1928 को राजगुरु, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद ने सुखदेव के कुशल मार्गदर्शन के फलस्वरूप जे. पी. सांडर्स नाम के एक अन्य अंग्रेज़ अफ़सर, जिसने स्कॉट के कहने पर लाला लाजपत राय पर लाठियाँ चलायी थीं, का वध कर दिया। कार्यवाही के पश्चात भगत सिंह अंग्रेज़ी साहब बनकर, राजगुरु उनके सेवक बनकर और चंद्रशेखर आज़ाद सुरक्षित पुलिस की दृष्टि से बचकर निकल गए। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के असेम्बली में बम फोड़ने और स्वयं को गिरफ्तार करवाने के पश्चात चंद्रशेखर आज़ादको छोड़कर सुखदेव सहित दल के सभी सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए, केवल राजगुरु ही इससे बचे रहे। आज़ाद के कहने पर पुलिस से बचने के लिए राजगुरु कुछ दिनों के लिए महाराष्ट्र चले गए, किन्तु लापरवाही के कारण राजगुरु भी छुटपुट संघर्ष के बाद पकड़ लिए गए। अंग्रेज़ों ने चंद्रशेखर आज़ाद का पता जानने के लिए राजगुरु पर अनेकों अमानवीय अत्त्याचार किये, किन्तु वीर राजगुरु विचलित नहीं हुए। पुलिस ने राजगुरु को अपने सभी साथियों के साथ लाकर लाहौर की जेल में बंद कर दिया। लाहौर में सभी क्रांतिकारियों पर सांडर्स हत्याकाण्ड का मुकदमा चल रहा था। मुक़दमे को क्रांतिकारियों ने अपनी फाकामस्ती से बड़ा लम्बा खींचा। सभी जानते थे की अदालत एक ढोंग है। उनका फैसला तो अंग्रेज़ हुकूमत ने पहले ही कर दिया था। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव जानते थे की उनकी मृत्यु का फरमान तो पहले ही लिखा जा चूका है तो क्यों न अपनी मस्तियों से अदालत में अंग्रेज़ जज को धुल चटाई जाए। एक बार राजगुरु ने अदालत में अंग्रेज़ जज को संस्कृत में ललकारा। जज चौंक गया उसने कहा- "टूम क्या कहता हाय"। राजगुरु ने भगत सिंह की तरफ हंस कर कहा कि- "यार भगत इसको अंग्रेज़ी में समझाओ। यह जाहिल हमारी भाषा क्या समझेंगे"। सभी क्रांतिकारी ठहाका मारकर हसने लगे। अदालत में इन क्रांतिकारियों ने स्वीकार किया था कि वे पंजाब में आज़ादी की लड़ाई के एक बड़े नायक लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेना चाहते थे।
जेल में भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने कैदियों के साथ होने वाले अमानवीय अत्त्याचारों के विरुद्ध आमरण अनशन आरंभ कर दिया, जिसको जनता का जबरदस्त समर्थन मिला, जो पहले से ही क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धा का भाव रखती थी, विशेष रूप से भगत सिंह के प्रति। इस आमरण अनशन से वायसराय की कुर्सी तक हिल गयी। अंग्रेज़ों ने क्रांतिकारियों की हड़ताल तुडवाने का जबरदस्त प्रयत्न किया, किन्तु क्रांतिकारियों की जिद के सामने वे हार गए। राजगुरु और जतिनदास की इस अनशन में हालत बिगड़ गयी। राजगुरु और सुखदेव से अंग्रेज़ विशेष रूप से हार गए थे। जतिनदास आमरण अनशन के कारण शहीद हो गए, जिससे जनता भड़क उठी। विवश हो कर अंग्रेज़ों को क्रांतिकारियों की सभी बातें मनानी पड़ीं। यह क्रांतिकारियों की विजय थी।
राजगुरु के जन्म शती के अवसर पर भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने उन पर संभवत पहली बार कोई पुस्तक प्रकाशित की। इस सराहनीय प्रयास के लिए न केवल प्रकाशन विभाग धन्यवाद का पात्र है बल्कि उस लेखक को भी कोटि कोटि बधाई है, जिसने इस क्रन्तिकारी की जीवन लीला से सभी को परिचय कराया है।
राजगुरु को 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे लाहौर के केंद्रीय कारागार में उनके दोस्तों भगत सिंह और सुखदेव के साथ फ़ाँसी पर लटका दिया गया। इतिहासकार बताते हैं कि फाँसी को लेकर जनता में बढ़ते रोष को ध्यान में रखते हुए अंग्रेज़ अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों के शवों का अंतिम संस्कार फ़िरोज़पुर ज़िले के हुसैनीवाला में कर दिया था। यह भी माना जाता है कि इन तीनों क्रांतिकारियों की फाँसी की तिथि 24 मार्च निर्धारित थी, लेकिन अंग्रेज़ सरकार फाँसी के बाद उत्पन्न होने वाली स्थितियों से घबरा रही थी। इसीलिए उसने एक दिन पहले ही फाँसी दे दी।