पहली महिला राज्यपाल सरोजिनी नायडू, - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

पहली महिला राज्यपाल सरोजिनी नायडू,

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सरोजिनी नायडू (Sarojini Naidu, 13 फ़रवरी1879हैदराबाद2 मार्च1949,इलाहाबाद) सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी अंग्रेज़ी और गणित में निपुण हों। वह चाहते थे कि सरोजिनी जी बहुत बड़ी वैज्ञानिक बनें। यह बात मनवाने के लिए उनके पिता ने सरोजिनी को एक कमरे में बंद कर दिया। वह रोती रहीं। सरोजिनी के लिए गणित के सवालों में मन लगाने के बजाय एक कविता लेख लिखना ज़्यादा आसान था। सरोजिनी ने महसूस किया कि वह अंग्रेज़ी भाषा में भी आगे बढ़ सकती हैं और पारंगत हो सकती हैं। उन्होंने अपने पिताजी से कहा कि वह अंग्रेज़ी में आगे बढ़ कर दिखाएगीं। थोड़े ही परिश्रम के फलस्वरूप वह धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषा बोलने और लिखने लगीं। इस समय लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया। अघोरनाथ सरोजिनी की अंग्रेज़ी कविताओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एस. चट्टोपाध्याय कृत 'पोयम्स' के नाम से सन् 1903 में एक छोटा-सा कविता संग्रह प्रकाशित किया।
सरोजिनी चट्टोपाध्याय ने अपनी माता वरदा सुंदरी से बंगला सीखी और हैदराबाद के परिवेश से तेलुगु में प्रवीणता प्राप्त की। वे शब्दों की जादूगरनी थीं। शब्दों का रचना संसार उन्हें आकर्षित करता था और उनका मन शब्द जगत में ही रमता था। वे बहुभाषाविद थीं। वह क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेज़ी, हिन्दी, बंगला या गुजराती भाषा में देती थीं। लंदन की सभा में अंग्रेज़ी में बोलकर उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था। सन 1937 में कई वर्षों बाद सरोजिनी नायडू का आख़िरी कविता-संग्रह 'द सेप्टर्ड फ्लूट' एक आश्चर्यजनक और गम्भीर रूप में सामने आया। इस समय वह देश की राजनीति में रची बसी थीं और बहुत लम्बे समय से उन्होंने कविता लिखना लगभग छोड़ ही दिया था। राजनीतिक तनावों में यह कविता-संग्रह हवा के ताजे झोंके की एक लहर बनकर सबके सामने आया। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही सरोजिनी नायडू को एक होनहार कवयित्री के रूप में प्रशंसा और प्रसिद्धि मिल चुकी थी, किंतु वह स्वयं अपनी रचनाओं को बहुत ही साधारण मानती थीं।
साहस की प्रतीक
देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी।गांधी जी वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। भारत लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं।  भारत के इतिहास में वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख नायिका के रूप में जानीं गयीं। भय को वह देशद्रोह के समान ही मानती थीं।
  1. 1925 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन में सरोजिनी नायडू ने अधिवेशन की अध्यक्षता की।
  2. 'गोलमेज कांफ्रेंस' में महात्मा गांधी के प्रतिनिधि मंडल में सरोजिनी नायडू भी सम्मिलित थीं।
  3. रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए सरोजिनी नायडू ने महिलाओं को संगठित किया।
  4. जब 1932 में महात्मा गांधी जेल गये थे, उस समय आंदोलन को रफ्तार देने और बढ़ाने का दायित्व सरोजिनी नायडू को सौंप कर गये थे। गांधी जी ने कहा था- 'तुम्हारे हाथों में भारत की एकता का काम सौंपता हूं।' भारत का पक्ष रखने के लिए महात्मा गांधी ने उन्हें अमेरिका भेजा था।
  5. सरोजिनी नायडू ने महिलाओं का नेतृत्व करते समय नारी समाज की उन्नति के अथक प्रयास किये।
  6. भारत के स्वतंत्र होने पर उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल नियुक्त किया गया।
वास्तव में सन् 1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयं सेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद गुजरात में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। गांधी-इरविन समझौते पर गांधी जी और भारत के वाइसराय लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखतें हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। इसके कुछ समय बाद ही दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। अंग्रेज़ सरकार ने भारत को उस युद्ध में शामिल होने के लिए मजबूर किया जिसके विरोध में कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने त्यागपत्र दे दिए। फिर से समझौते के लिए कुछ प्रयास किए गए, जिसमे अंग्रेज़ सरकार के भारत के राज्यमंत्री सर स्टफर्ड क्रिप्स का प्रयास बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा। क्रिप्स मिशन असफल रहा। अब कांग्रेस के पास जन आंदोलन शुरू करने का ही एक रास्ता रह गया था। 8 अगस्त सन्1942 को कांग्रेस के बम्बई में हुए अधिवेशन में गांधी जी ने ब्रिटिश शासकों को भारत छोड़कर चले जाने को आख़िरी बार कहा और साथ ही देश की जनता को 'करो या मरो' का आदेश दिया। 'भारत छोड़ो' आंदोलन की यह युद्ध-पुकार थी और भारत के स्वाधीनता संग्राम का वह आख़िरी पड़ाव था। 8 अगस्त की मध्यरात्रि में गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारी समिति के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को उनके निजी मंत्री महादेव देसाई और सरोजिनी नायडू के साथ पुणे के आगा ख़ाँ महल में रखा गया। वहीं कुछ समय बाद कस्तूरबा को भी लाया गया। उन कष्टप्रद दिनों में जब गांधी जी का मन उदास हुआ करता था तब अपने ख़राब स्वास्थ्य के बावजूद सरोजिनी नायडू अपने विनोद और हंसी से उनका मन बहलाने की कोशिश करतीं। आगा ख़ाँ महल में पहले महादेव देसाई, फिर कस्तूरबा की मृत्यु के बाद, सरोजिनी नायडू चट्टान की भाँति अडिग गांधी जी के साथ रहीं। जब गांधी जी ने आमरण अनशन शुरू किया और जब वह जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे थे तब सरोजिनी नायडू ने ही बड़ी ममता के साथ उनकी सेवा की। स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद, देश को उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाले नेताओं के सामने अब दूसरा ही कार्य था। आज तक उन्होंने संघर्ष किया था। किन्तु अब राष्ट्र निर्माण का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया। कुछ नेताओं को सरकारी तंत्र और प्रशासन में नौकरी दे दी गई थी। उनमें सरोजिनी नायडू भी एक थीं। उन्हें उत्तर प्रदेश काराज्यपाल नियुक्त कर दिया गया। 

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