माखन लाल चतुर्वेदी (Makhanlal Chaturvedi, 4 अप्रैल, 1889 बावई, मध्य प्रदेश; - 30 जनवरी,1968 ) सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के अनूठे हिन्दी रचनाकार थे। इन्होंने हिन्दी एवं संस्कृत का अध्ययन किया। ये 'कर्मवीर' राष्ट्रीय दैनिक के संपादक थे। इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इनका उपनाम एक भारतीय आत्मा है। राष्ट्रीयता माखन लाल चतुर्वेदी के काव्य का कलेवर है तथा रहस्यात्मक प्रेम उसकी आत्मा है। इनका परिवार राधावल्लभ सम्प्रदाय का अनुयायी था, इसलिए स्वभावत: चतुर्वेदी के व्यक्तित्व में वैष्णव पद कण्ठस्थ हो गये। प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति के बाद ये घर पर ही संस्कृत का अध्ययन करने लगे। इनका विवाह पन्द्रह वर्ष की अवस्था में हुआ और उसके एक वर्ष बाद आठ रुपये मासिक वेतन पर इन्होंने अध्यापकी शुरू की।
कार्यक्षेत्र
1913 ई. में चतुर्वेदी जी ने प्रभा पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया, जो पहले चित्रशाला प्रेस, पूना से और बाद में प्रताप प्रेस,कानपुर से छपती रही। प्रभा के सम्पादन काल में इनका परिचय गणेश शंकर विद्यार्थी से हुआ, जिनके देश- प्रेम और सेवाव्रत का इनके ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। चतुर्वेदी जी ने 1918 ई. में 'कृष्णार्जुन युद्ध' नामक नाटक की रचना की और 1919 ई. मेंजबलपुर से 'कर्मवीर' का प्रकाशन किया। यह 12 मई, 1921 ई. को राजद्रोह में गिरफ़्तार हुए 1922 ई. में कारागार से मुक्ति मिली। चतुर्वेदी जी ने 1924 ई. में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ़्तारी के बाद 'प्रताप' का सम्पादकीय कार्य- भार संभाला। यह1927 ई. में भरतपुर में सम्पादक सम्मेलन के अध्यक्ष बने और 1943 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष हुए।
इसके एक वर्ष पूर्व ही 'हिमकिरीटिनी' और 'साहित्य देवता' प्रकाश में आये। इनके 1948 ई. में 'हिम तरंगिनी' और 1952 ई. में 'माता' काव्य ग्रंथ प्रकाशित हुए। हिन्दी काव्य के विद्यार्थी माखनलाल जी की कविताएँ पढ़कर सहसा आश्चर्य चकित रह जाते है। उनकी कविताओं में कहीं ज्वालामुखी की तरह धधकता हुआ अंतर्मन, जो विषमता की समूची अग्नि सीने में दबाये फूटने के लिए मचल रहा है, कहीं विराट पौरुष की हुंकार, कहीं करुणा की अजीब दर्द भरी मनुहार। वे जब आक्रोश से उद्दीप्त होते हैं तो प्रलयंकर का रूप धारण कर लेते हैं किंतु दूसरे ही क्षण वे अपनी कातरता से विह्वल होकर मनमोहन की टेर लगाने लगते हैं। चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व में संक्रमणकालीन भारतीय समाज की सारी विरोधी अथवा विरोधी जैसी प्रतीत होने वाली विशिष्टताओं का सम्पुंजन दिखायी पड़ता है।
रचनाएँ
चतुर्वेदी जी की रचनाओं को प्रकाशन की दृष्टि से इस क्रम में रखा जा सकता है। 'कृष्णार्जुन युद्ध' (1918 ई.), 'हिमकिरीटिनी' (1941 ई.), 'साहित्य देवता' (1942 ई.), 'हिमतरंगिनी' (1949 ई.- साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत), 'माता' (1952 ई.)। 'युगचरण', 'समर्पण' और 'वेणु लो गूँजे धरा' उनकी कहानियों का संग्रह 'अमीर इरादे, गरीब इरादे' नाम से छपा है। कवि के क्रमिक विकास को दृष्टि में रखकर माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं को दो श्रेणी में रख सकते हैं।
- आरम्भिक काव्य- 1920 ई. के पहले की रचनाएँ।
- परिणति काव्य- 1920 ई. से बाद की काव्य- सृष्टि।
चतुर्वेदी जी की रचनाओं की प्रवृत्तियाँ प्रायः स्पष्ट और निश्चित हैं। राष्ट्रीयता उनके काव्य का कलेवर है तो भक्ति और रहस्यात्मक प्रेम उनकी रचनाओं की आत्मा। आरम्भिक रचनाओं में भी वे प्रवृत्तियाँ स्पष्टता परिलक्षित होती हैं। प्रभा के प्रवेशांक में प्रकाशित उनकी कविता 'नीति-निवेदन' शायद उनके मन की तात्कालीन स्थिति का पूरा परिचय देती है। इसमें कवि 'श्रेष्ठता सोपानगामी उदार छात्रवृन्द' से एक आत्म-निवेदन करता है। उन्हें पूर्वजों का स्मरण दिलाकर रत्नगर्भा मातृभूमि की रंकतापर तरस खाने को कहता है। उसी समय प्रभा भाग 1, संख्या 6 में प्रकाशित 'प्रेम' शीर्षक कविताओं से सबसे सावित्य प्रेम व्याप्त हो, इसके लिए सन्देश दिया है क्योंकि इस प्रेम के बिना 'बेड़ा पार' होने वाला नहीं है। माखनलाल जी की राष्ट्रीय कविताओं में आदर्श की थोथी उड़ाने भर नहीं है। उन्होंने खुद राष्ट्रीय संग्राम में अपना सब कुछ बलिदान किया है, इसी कारण उनके स्वरों में 'बलिपंथी' की सच्चाई, निर्भीकता और कष्टों के झेलने की अदम्य लालसा की झंकार है। यह सच है कि उनकी रचनाओं में कहीं-कहीं 'हिन्दू राष्ट्रीयता' का स्वर ज़्यादा प्रबल हो उठा है किंतु हम इसे साम्प्रदायिकता नहीं कह सकते, क्योंकि दूसरे सम्प्रदाय अहित की आकांक्षा इनमें रंचमात्र भी दिखाई न पड़ेगी। 'विजयदशमी' और प्रवासी भारतीय वृन्द' अथवा 'हिन्दुओं का रणगीत', 'मंजुमाधवी वृत्त' ऐसी ही रचनाएँ हैं। उन्होंने सामयिक राजनीतिक विषमों को भी दृष्टि में रखकर लिखा और ऐसे जलते प्रश्नों को काव्य का विषय बनाया।
रचना की एक लंबी यात्रा माखनलाल चतुर्वेदी ने पार की थी। यों तो इनकी नि:स्पृह साहित्य साधना और विविध विषयक गीत 1904 से ही सहृदय काव्य-प्रेमियों में लोकप्रिय होने लगे थे, पर पहला काव्य-संग्रह सन 1942 में 'हिमतरंगिणी' छपा, 1957 में 'माता' नाम से एक अन्य पुस्तक कविताओं की प्रकाश में आई। तब युग चरण और समर्पण और पश्चात वेणु लो गूँजधरा1960 में प्रकाशित हुए। बाद में गद्य गीतों का संग्रह 'साहित्य देवता' और निबंध तथा चंद कहानियां 'अमीर इरादे-गरीब इरादे' के नाम से प्रकाश में आए। एक नाटक ‘कृष्णार्जुन युद्ध’ शीर्षक से भी आपने लिखा था। जाहिर है कि माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘एक भारतीय आत्मा’ कहलाने के नाते अपने लिए नवीन पथ-रेखा तलाशी थी, मगर आलोचकों ने इस ओर उदासीनता का ही परिचय दिया। हां, तब विद्यानिवास मिश्र ने आपकी कविताओं के राष्ट्रीय सूत्र खोलते हुए लिखा- "ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि माखनलाल ने भारत को ही एक कविता की शक्ल में रचने की सफल कोशिश की है। 1914 में पत्नी के असामयिक त्रासद निधन पर अश्रुपात करते हुए आपने लिखा था- "भाई छेड़ो नहीं मुझे खुलकर रोने दो/ यह पत्थर का हृदय आसुंओं से धोने दो।" विद्यानिवास आगे जोड़ते हैं कि "दादा जब व्याख्यान देते तो निस्संदेह हिमालय की ऊंचाई, गंगा-यमुना, नर्मदा की कलकल, करधनियों के नूपुर की झंकार और सागर की उत्ताल तरंगों के दर्शन उनकी भाषा में होते थे। भारत की आत्मा बोलती थी वाणी में। यह वाणी आज भी अप्रासंगिक नहीं है।