जीव जन्तु जगत कीट एवं अन्य - Study Search Point

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जीव जन्तु जगत कीट एवं अन्य

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अंकुश कृमि क्या है?
अंकुश कृमि या हुकवर्म (Hookworm) बेलनाकार छोटे-छोटे भूरे रंग के कृमि होते हैं। ये अधिकतर मनुष्य के क्षुद्र अंत्र (स्माल इंस्टेस्टाइन) के पहले भाग में रहते हैं। इनके मुँह के पास एक कॅटिया सा अवयव होता है; इसी कारण ये अंकुश कृमि कहलाते हैं। इनकी दो जातियाँ होती हैं, नेकटर अमेरिकानस और एन्क्लोस्टोम डुओडिनेल। दोनों ही प्रकार के कृमि सब जगह पाए जाते हैं। नाप में मादा कृमि 10 से लेकर 13 मिलीमीटर तक लंबी और लगभग 0.6 मिलीमीटर व्यास की होती है। नर थोड़ा छोटा और पतला होता है। मनुष्य के अंत्र में पड़ी मादा कृमि अंडे देती हैं जो बिष्ठा के साथ बाहर निकलते हैं। भूमि परबिष्ठा में पड़े हुए अंडे ढोलों (लार्बी) में परिणत हो जाते हैं, जो केंचुल बदलकर छोटे-छोटे कीड़े बन जाते हैं।

किसी व्यक्ति का पैर पड़ते ही ये कीड़े उसके पैर की अंगुलियों के बीच की नरम त्वचा को या बाल के सूक्ष्म द्विद्र को छेदकर शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ रुधिर या लसीका की धारा में पड़कर वे हृदयफेफड़े और वायु प्रणाली में पहुँचते हैं और फिर ग्रास नलिका तथा आमाशय में होकर अँतरियों में पहुँच जाते हैं। गंदा जल पीने अथवा संक्रमित भोजन करने से भी ये कृमि अंत्र में पहुँच जाते हैं। वहाँ पर तीन या चार सप्ताह के पश्चात् मादा अंडे देने लगती है। ये कृमि अपने अंकुश से अंत्र की भित्ति पर अटके रहते हैं और रक्त चूसकर अपना भोजन प्राप्त करती हैं। ये कई महीने तक जीवित रह सकते हैं। परंतु साधारणत: एक व्यक्ति में बार-बार नए कृमियों का प्रवेश होता रहता है और इस प्रकार कृमियों का जीवन चक्र और व्यक्ति का रोग दोनों ही चलते रहते हैं।

कीटाहारी जंतु क्या है?
कीटाहारी जंतु वे जीव होते हैं, जो कीटों का भक्षण करते हैं। इस वर्ग के अंतर्गत अति प्राचीन स्वरूप के, कुछ आदियुग के प्राणियों के अनुरूप तथा कुछ अत्यधिक विशेष प्रकार के जंतु आते हैं। ये छोटे छोटे जीव कदाचित्‌ अनादि काल से अपनी शारीरिक रचना में बिना किसी बड़े परिवर्तन के चले आ रहे हैं। कीटभक्षकों की सबसे अनोखी विशेषता यह है कि इनकी श्रेणी में अनगिनत प्रकार के प्राणी हैं। आजकल जो कीटभक्षक पाए जाते हैं, उनमें स्तनधारी वर्ग के कतिपय ऐसे प्राणी हैं, जिनकी या तो शारीरिक रचना अद्भूत है, अथवा स्वभाव सर्वथा विचित्र है। इन्हीं कारणों से कीटाहारी वर्ग के जंतु प्राणिशास्त्रियों के लिए विशेष अध्ययन के विषय रहे हैं। मंगोलिया का फ़ासिल कीटभक्षी, डेल्टाथीरिडियम इस वर्ग का श्वेत रंग का एक अति प्राचीन जंतु था। इसकी लंबे आकार की आगे निकली हुई खोपड़ी दो इंच से कम लंबी होती थी, किंतु आधुनिक युग के कीटाहारी जंतुओं के समान इसको विशेष नासिका नहीं थीं।

विशेषताएँ

अनुमानत: सब प्रकार के कीटाहारियों का मस्तिष्क छोटा तथा अपने पूर्वजों की भाँति होता था। इन स्तनधारी जंतुओं के पूरे संक्रमण काल में दाँत तथा खोपड़ी की बनावट भी अधिकांशत: उनके पूर्वजों के आकार की ही भाँति चली आ रही हैं। खोपड़ी से उनकी बहुत-सी आदिकालीन विशेषताओं का पता चलता हैं, जैसे अपूर्ण मांसविहीन कनपटी की हड्डी और कान का खुला हुआ छिद्र, जिसमें कान की हड्डी केवल आंशिक वृत्त बनाती हैं। आदिकालीन कीटाहारियों के ढाँचे के सामान्यत: अनुरूप ही इस वर्ग के प्राणियों के ढाँचों की रचना अब भी चल रही हैं, किंतु कुछ समूहों में जो थोड़ा सा अंतर दृष्टिगोचर होता है, वह उस जीव की किस विशेष आवश्यकता की पूर्ति के लिए हुआ प्रतीत होता है। उदाहरणार्थ, छछूँदर के समान मोल के हाथ और पैर जमीन खोदने के लिए बड़े सशक्त होते हैं। अन्यथा उसकी रहन सहन, शरीर पर मुलायम बाल के स्थान पर काँटे होना, छिपकर सोना, छोटे आकार का होना और खतरा पड़ने पर अपने शरीर को मोड़कर गेंद के आकार का बना लेना, ये सारी विशेषताएँ उसके पूर्वजों की विशेषताओं की ही ओर संकेत करती हैं। आजकल पाए जानेवाले अधिकांश कीटाहारी निशाचर होते हैं, जो प्राचीनयुग से अपरिवर्तित रूप से चली आ रही स्तनधारी जीवों की विशेषताओं को धारण करते हैं। यही कारण है कि साही में काँटे होते हैं और मोल में छिपे रहने का स्वभाव होता हैं। बहुत से कीटाहारी शीतकाल में सो जाते हैं। इसीलिए उनके शरीर में चर्बी की अधिकता होती हैं। इस श्रेणी में सर्वाधिक महत्व के प्राणी श्रू होते हैं।

वर्गीकरण

कीटाहारियों का वर्गीकरण अत्यंत कठिन हैं, क्योंकि इसके अंतर्गत कीटाहारी जंतु कभी किसी वर्ग में रखा जाता है और कभी किसी में। दाँत, खोपड़ी और मस्तिष्क की रचना के अनुसार तो यह कर-पक्ष-वर्ग के चमगादड़ जैसे अन्य प्राणियों के समान हैं। इसके अतिरिक्त इनके अवशेषों का अध्ययन करने से, विशेषज्ञों के अनुसार, से कीटाहारी लेमूर जाति के बंदरों के अनुरूप प्रतीत होते हैं तथा कुछ के अनुसार से द्विद्वंत के ही समीप हैं। पेड़ पर रहने वाले श्रू की परिगणना इसी कीटाहारी श्रेणी में होती थी, परंतु अब स्थिति भिन्न है, और श्रू प्राइमेटा वर्ग में रखे गए हैं। इस प्रकार कीटाहारी जंतुओं और प्राइमेट वर्ग के बंदरों में भी निकटता देखी जाती हैं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार कीटाहारियों के ज़ालैंडोडांटा तथा डाइलैंडोडॉण्टा उपवर्गों के विभाजन से उनकी पारस्परिक जातीयता तथा संबंध होने का आभास नहीं होता। कीटाहारियों का सर्वाधिक न्यायसंगत वर्गीकरण तभी संभव होगा जब उनके अनेक समूहों को कीटाहारी स्वीकार किया जाए। सिंपसन ने सुपर फ़ैमिलीज के रूप में इनका वर्णन किया हैं।

इस प्रकार सिंपसन के अनुसार कीटाहारियों का वर्गीकरण निम्नलिखित है!

टालपिडी

टालपिडी कुल-इस कुल में छछूँदर के समान मोल नामक जंतु है। यह श्रू की अपेक्षा रूप रंग में भिन्न होता है तथा पूर्वी देशों को छोड़कर सभी जगह पाया जाता है। इसमें 3143/3143 की संपूर्ण दंतावली पाई जाती है।

सोरसिडी

सोरसिडी कुल-इस श्रेणी में श्रू जैसे जंतु सम्मिलित हैं। विशेषज्ञों के मतानुसार यह कुल पर्याप्त प्राचीन है। इसके अंतर्गत पाए जाने वाले जंतु व्यापक रूप से तथा पृथ्वी के प्रत्येक भाग में बहुत अधिक संख्या में पाए जाते हैं। भूख अधिक लगने के कारण ये जंतु हर समय भोजन करते रहते हैं। फलत: ये एक दिन में अपने से दूने भार से भी अधिक पदार्थ उदरस्थ कर लेते हैं। श्रू की दंत रचना 3 (1) 2 (1) 3/2,0 1,3 होती है जो मोल की दंतरचना से भिन्न है। ये प्राणी समस्त यूरेशिया, उत्तरी अमरीका तथा अफ्रीका में पाए जाते हैं।

एरीनेसाइडी

एरीनेसाइडी कुल-इस श्रेणी का प्रतिनिधित्व साही करते हैं। इस परिवार में भी कीटाहारी दो प्रकार के होते हैं, जिनका वर्गीकरण इस प्रकार हैं-
  • साही
  • जिमन्यूरा
देखने में ये दोनों एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होते हुए भी परस्पर निकट संबंधी हैं। इन कीटहारियों की शरीर रचना में उन आदिकाल स्तनधारी प्राणियों की विशेषताएँ विद्यमान हैं, जो डाइनोसार के समकालीन थे। साही की पाँच जातियाँ हैं। ये दूसरे स्तनधारी प्राणियों की अपेक्षा अधिक छोटे आकार के जंतु होते हैं। इनके हाथ-पैर भी छोटे-छोटे होते हैं, जिनमें पतले ओर तीक्ष्ण पंजों वाली छोटी और पतली उँगलियाँ तथा अँगूठे होते हैं। साही का स्वभाव जाति, जलवायु तथा निवास स्थान के अनुसार भिन्न प्रकार का होता हैं। अत्यधिक शीत, ताप तथा शुष्क मौसम में, जब अन्न की कमी हो जाती हैं, ये जंतु निष्क्रिय हो जाते हैं। उदारणार्थ, भारत में साही स्वभावत: रात में ही निकलता है, परंतु अफ्रीका में वह दिन में भी चलता-फिरता दिखाई पड़ता है। इनके एक बार में चार से लेकर छह तक बच्चे होते हैं। नवजात शिशु कुछ समय तक दृष्टिविहीन होते हैं। उनके नग्न शरीर पर श्वेत और छोटे काँटे दिखाई देते हैं, जो आरंभ में मुलायम होते हैं। इनकी दंत रचना भी कुछ कीटाहारी जंतुओं की दंतरचना से भिन्न अर्थात्‌ 3133/2123 होती है।

डरमॉप्टरा

डरमॉप्टरा कुल-कुछ समय पहले इस वर्ग के प्राणी मूलत: कीटाहारी वर्ग के अंतर्गत माने जाते थे। सच तो यह है कि डरमॉप्टरा का वर्गीकरण सदैव ही मतभेद का विष बना रहा है। यह कभी किसी जाति में कभी किसी में रखा गया हैं। आधुनिकतम वर्गीकरण के फलस्वरूप डरमॉप्टरा को कीटाहारी वर्ग से अलग कद अब स्वतंत्र स्थान दिया गया हैं। ये कीटाहारी जंतु दक्षिण अमेरिकाऑस्ट्रेलिया, ध्रुव देशों और मरुस्थलों के अतिरिक्त संसार में सब स्थानों पर पाए जाते हैं।

यह एक कृमि है जो लंबा, वर्तुलाकार, ताम्रवर्ण का होता है और बरसात के दिनों में गीली मिट्टी पर रेंगता नजर आता है। केंचुआ ऐनेलिडा (Annelida) संघ (Phylum) का सदस्य है। ऐनेलिडा विखंड (Metameric) खंडयुक्त द्विपार्श्व सममितिवाले (bilatrally symmetrical) प्राणी हैं। इनके शरीर के खंडों पर आदर्शभूत रूप से काईटिन (Chitin) के बने छोटे-छोटे सुई जैसे अंग होते है। इन्हें सीटा (Seta) कहते हैं। सीटा चमड़े के अंदर थैलियों में पाए जाते हैं और ये ही थैलियाँ सीटा का निर्माण भी करती हैं। ऐनेलिडा संघ में खंडयुक्त कीड़े आते हैं। इनका शरीर लंबा होता है और कई खंडों में बँटा रहता है। ऊ पर से देखने पर उथले खात (Furrows) इन खंडों को एक दूसरे से अलग करते हैं और अंदर इन्हीं खातों के नीचे मांसपेशीयुक्त पर्दे होते हैं, जिनको पट या भिक्तिका कह सकते हैं। पट शरीर के अंदर की जगह को खंडों में बाँटते हैं। प्रत्येक आदर्शभूत खंड में बाहर उपांग का एक जोड़ा होता है और अंदर एक जोड़ी तंत्रिकागुच्छिका (nerve ganglion) एक जोड़ी उत्सर्जन अंग (नेफ्रिडिया Nephridia), एक जोड़ा जननपिंड (गॉनैड्स Gonads), तथा रक्तनलिकाओं की जोड़ी और पांचनांग एवं मांसपेशियाँ होती हैं।
  • केंचुए के शरीर में लगभग 100 से 120 तक खंड होते हैं। इसके शरीर के बाहरी खंडीकरण के अनुरूप भीतरी खंडीकरण भी होता है। इसके आगे के सिरे में कुछ ऐसे खंड मिलते हैं जो बाहरी रेखाओं द्वारा दो या तीन भागों में बँटे रहते हैं। इस प्रकार एक खंड दो या तीन उपखंडों में बँट जाता है। खंडों को उपखंडों में बाँटनेवाली रेखाएँ केवल बाहर ही पाई जाती हैं। भीतर के खंड उपखंडों में विभाजित नहीं होते। केंचुए का मुख शरीर के पहले खंड में पाया जाता है। यह देखने में अर्धचन्द्राकार होता है। इसके सामने एक मांसल प्रवर्ध लटकता रहता है, जिसको प्रोस्टोमियम (Prostomium) कहते हैं। पहला खंड, जिसमें मुख घिरा रहता है परितुंड (पेरिस्टोमियम Peristomium) कहलाता है। शरीर के अंतिम खंड में मलद्वार या गुदा होती है। इसलिये इसका गुदाखंड कहते हैं। वयस्क केंचुए में 14वें 15वें और 16वें खंड एक दूसरे से मिल जाते हैं और एक मोटी पट्टी बनाते हैं, जिसको क्लाइटेलम (Clitellum) कहते हैं। इसकी दीवार में ग्रंथियाँ भी होती हैं, जो विशेष प्रकार के रस पैदा कर सकती हैं। इनसे पैदा हुए रस अंडों की रक्षा के लिये कोकून बनाते हैं। पाँचवे और छठे, छठे और सातवें, सातवें और आठवें और नवें के बीचवाली अंतखंडीय खातों में अगल-बगल छोटे छोटे छेद होते हैं, जिनको शुक्रधानी रध्रं (Spermathecal pores) कहते हैं। इनमें लैंगिक संपर्क के समय शुक्र दूसरे केंचुए से आकर एकत्रित हो जाता है। 14वें खंड के बीच में एक छोटा मादा जनन-छिद्र होता है और 18वें खंड के अगल बगल नर-जनन - छिद्रों का एक जोड़ा होता है।

  •  केंचुए का बाह्य तथा अंतर्खंडीकरण ; ख. आगे के तीन खंड बढ़ाकर दिखाए गए हैं। मुखाग्र (प्रोस्टोमियम), पहले खंड में प्रो॰ स्पष्ट है; ग. नर जननांग (क्लाइटेलम) वाले खंड बढ़ाकर दिखाए गए हैं घ. केंचुए के शरीर के खंड; ड़ सीटा ; च. शरीर के अगले भाग का पार्श्वीय चित्र, जिसमें शुक्रधानी रध्रं दिखलाया गया है। रेखा में ही, उनके आगे और पीछे उभरे हुए, पापिला (Papillae) होते हैं। इनको जनन पापिला कहते हैं। जनन पापिला की उपस्थिति एवं बनावट भिन्न भिन्न जाति के कें चुओं में भिन्न होती है। पहले 12 खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीचवाली अंतर्खंडीय रेखाओं के बीच में छोटे छोटे छिद्र होते हैं। चूँकि ये पृष्ठीय पक्ष में होते हैं, इसलिये इन्हें पृष्ठीय छिद्र कहते हैं। ये छिद्र शरीर की गुहा को बाहर से संबंधित करते हैं। पहला पृष्ठछिद्र 12वें और 13वें खंड के बीच की खात में पाया जाता है। अंतिम खात को छोड़कर बाकी सबमें एक एक छेद होता है। पहले दो खंडों को छोड़कर बाकी शरीर की दीवार पर अनेक अनियमित रूप से बिखरे छिद्र होते हैं। ये उत्सर्जन अंग के बाहरी छिद्र हैं। इनको नफ्ऱेीडियोपोर्स (Nephridio-pores) कहते हैं।

केंचुए का लगभग तीन चौथाई भाग शरीर की दीवार के अंदर गड़ा होता है और थोड़ा सा ही भाग बाहर निकला रहता है। ये पहले और अंतिम खंडों को छोड़कर सब खंडों के बीच में पाए जाते हैं। प्राय: ये खंडों के बीच में उभरी हुई स्पष्ट रेखा सी बना लेते हैं। (चित्र 1 घ तथा च)। एक खंड में लगभग 200 सीटा होते हैं। इनको यदि निकाल कर देखा जाय तो इनका रंग हल्का पीला होगा। यदि सीटा के ऊपर और नीचे के सिरों को खींच दिया जाए, जैसा चित्र में दिखाया गया है, तो आकार में सीटा अंग्रेजी अक्षर S से मिलता है। प्रत्येक सीटा एक थैले में स्थित रहता है। वह थैला बाहरी दीवार के धँस जाने से बनता है और यही थैला सीटा का निर्माण करता है। सीटा अपनी लंबाई के लगभग बीच में कुछ फूल जाता है। इन गाँठों को नोड्यूल (Nodules) नाम दिया जाता है। सीटा विशेषकर केंचुए को चलने में सहायता करते हैं।

कंटशीर्ष या कंटशुंडी (अकांथोसेफ़ाला, Acanthocephala), एक प्रकार की पराश्रयी अथवा परोपजीवी कृमियों की श्रेणी है जो पृष्ठवंशी प्राणियों (वर्टीब्रेट्स) की सभी श्रेणियों-स्तनपायियों, चिड़ियों, उरगमों, मेंढ़कों और मछलियों-में पाई जाती है। श्रेणी का यह नाम इसकी बेलनाकार आकृति तथा शिरोभाग में मुड़े हुए काँटों के कारण पड़ा है। काँटे कृमि को पोषक की आंत्र की दीवार में स्थापित करने का काम करते हैं। इस श्रेणी में कृमियों में मुख, गुदा तथा अंतत्र आदि पाचक अवयवों का सर्वथा अभाव रहता है। अतएव, पोषक से प्राप्त आत्मसात किया हुआ भोजन कृमि के शरीर की दीवार से व्याप्त होकर कृमि का पोषण करता है। भिन्न-भिन्न जातियों (स्पीशीज़) की कंटशुंडियों की लंबाई भिन्न होती है और दो मिलीमीटर से लेकर 650 मि.मि. तक पाई जाती है। किंतु प्रत्येक जाति के नर तथा नारी कृमि की लंबाई में बड़ा अंतर रहता है। सभी जातियों की कंटशुंडियों में नारी सर्वदा नर से अधिक बड़ी होती है। विभिन्न जातियों की आकृति में भी बड़ी भिन्नता पाई जाती है। किसी का शरीर लंबा, दुबला और बेलनाकार होता है तो किसी का पार्श्व से चिपटा, छोटा और स्थूल होता है। शरी की वतह चिकनी हो सकती है, किंतु प्राय: झुर्रीदार होती है। मांसपेशियों की कारण इनमें फैलने तथा सिकुड़ने की विशेष क्षमता होती है। शरीर का रंग पोषक के भोजन के रंग पर निर्भर रहता है। गंदे भूरे रंग से लेकर चमकीले रंग तक की कंटशुंडियाँ पाई जाती हैं।

इस श्रेणी का कोई भी सदस्य स्वतंत्र जीवन व्यतीत नहीं करता। सभी सदस्य अंत:परोपजीवी (एंडोपैरासाइट, endoparasite) होते हैं। और प्रत्येक सदस्य अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था (डिंभावस्था अर्थात्‌ लार्वल स्टेज) संधिपाद समुदाय की कठिनी (Crustacea) श्रेणी के प्राणी में और उत्तरार्ध अवस्था (वयस्क अवस्था अर्थात्‌ adult state) किसी पृष्ठविंशी प्राणी में व्यतीत करता है। सभी श्रेणियों के पृष्ठवंशी इन कंटशुंडियों के पोषक हो सकते हैं; यद्यपि प्रत्येक जाति किसी विशेष पृष्ठवंशी में ही पाई जाती हैं। इस श्रेणी में परिगणित 300 जातियों का नामकरण हो चुका है और उनमें से अधिकांश मछलियों, चिड़ियों तथा स्तनपायियों में पाई जाती हैं। कंटशुंडी संसार के सभी भूभागों में पाई जाती है।

क्यूलेक्स, मच्छरो का एक वंश हैं। सभी मच्छरों की तरह ही इसके जीवन चक्र की चार अवस्थाएं हैं: अण्डा, लारवाप्यूपा एंव व्यस्क. पहली चार अवस्थाएं जल के अंदर पूरी होती हैं। यह कई महत्वपूर्ण रोंगो जैसे फाईलेरिया तथा पक्षियों में होने वाले मलेरिया का वाहक है।
कीट अर्थोपोडा संघ का एक प्रमुख वर्ग है। इसके 10 लाख से अधिक जातियों का नामकरण हो चुका है। पृथ्वी पर पाये जाने वाले सजीवों में आधे से अधिक कीट हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि कीट वर्ग के 3 करोड़ प्राणी ऐसे हैं जिनको चिन्हित ही नहीं किया गया है अतः इस ग्रह पर जीवन के विभिन्न रूपों में कीट वर्ग का योगदान 90% है। ये पृथ्वी पर सभी वातावरणों में पाए जाते हैं। सिर्फ समुद्रों में इनकी संख्या कुछ कम है। आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कीट हैं: एपिस (मधुमक्खी) व बांबिक्स (रेशम कीट), लैसिफर (लाख कीट); रोग वाहक कीट, एनाफलीजक्यूलेक्स तथाएडीज (मच्छर); यूथपीड़क टिड्डी (लोकस्टा); तथा जीवीत जीवाश्म लिमूलस (राज कर्कट किंग क्रेब) आदि। कीट प्राय: कोई भी छोटा, रेंगनेवाला, खंडों में विभाजित शरीरवाला और बहुत सी टाँगोंवाला प्राणी कीट कह दिया जाता हैं, किंतु वास्तव में यह नाम विशेष लक्षणोंवाले प्राणियों को दिया जाना चाहिए। कीट अपृष्ठीवंशियों (Invertebrates) के उस बड़े समुदाय के अंतर्गत आते है जो सन्धिपाद (Anthropoda) कहलाते हैं। लिनीयस ने सन्‌ 1735 में कीट (इनसेक्ट=इनसेक्टम्‌=कटे हुए) वर्ग में वे सब प्राणी सम्मिलित किए थे जो अब संधिपाद समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। लिनीयस के इनसेक्ट (इनसेक्टम्‌) शब्द को सर्वप्रथम एम. जे. ब्रिसन ने सन्‌ 1756 में सीमित अर्थ में प्रयुक्त किया। तभी से यह शब्द इस अर्थ में व्यवहृत हो रहा है। सन्‌ 1825 में पी. ए. लैट्रली ने कीटों के लिये षट्पाद (Hexapoda) शब्द का प्रयोग किया, क्योंकि इस शब्द से इन प्राणियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण लक्षण व्यक्त होता है।

कीटगणों में परस्पर संबंध
एप्टरिगोटा (Apterygota) उपवर्ग अधिकतर विविध प्रकार के कीटों का एक समूह है और उस उपवर्ग का केवल थाइसान्यूरा (Thysanura) गण ही टेरिगोट (Pterygote) कीटों की विकासवाली मुख्य श्रेणी के संभवत: समीप है। ऐसा तर्क द्वारा सिद्ध किया गया है कि ऐप्टरिगोटा के शेष तीन गणों को कीट मानना ही नहीं चाहिए। किंतु ऐसा कोई संतोषजनक कारण प्रतीत नहीं होता है, जिससे इन तीनों गणों को इस उपवर्ग से पृथक कर दिया जाए, यद्यपि इसमें कोई संदेह नहीं कि ये विलक्षण रचनाएँ प्रदर्शित करते हैं, उदाहरणार्थ कोलेंबोला (Collembola) गण के कीटों में केवल नौ खंड ही होते हैं। प्रोट्यूरा (Protura) गण के कीटों में ऐनामॉर्फोसिस (Anamorphosis) होता है, डिप्ल्यूरा (Diplura), गण के कीटों में अलाक्षणिक ट्रेकियल तंत्र पाया जाता है, डिप्ल्यूरा और कोलेंबाला की श्रृंगिकाओं के कशाभ (Flagellum) में पेशियाँ होती हैं। उपवर्ग टेरिगोटा दो भागों में विभाजित किया गया है-एक्सोप्टरिगोटा (Exopterygota) और एंडोप्टरिगोटा (Endopterygota)। एक्सोप्टरिगोटा गणों के एफिमेराप्टरा (Ephemaroptera) और ओडोनेटा (Odonata) में परस्पर निकट संबंध है, क्योंकि ये दोनों ही पेलीआप्टेरॉन (Palaeopteron), गण हैं। यदि आधुनिक कीटों के शरीर के सिद्धांत से विचार किया जाय तो ब्लैटेरिया (Blattaria), मैंटोडिया (Mantodea), आइसॉप्टरा (Isoptera), जोरेप्टरा (Zoraptere), गाइलॉब्लैटोडिया (Gylloblattodea), ऋ जुपज (Orthoptera), फेज़माइडा (Phasmida), प्लिकॉप्टरा (Plecoptera), डर्मेप्टरा (Dermaptera) और एंबिऑप्टरा (Embioptera) ऋ जुपाक्षिका आर्थोप्टराएड, (Orthopteroid) समुदाय के अंतर्गत आते हैं। निम्नलिखित लक्षणों के कारण ये सब गुण एक समुदाय बनाते हैं-अपरिवर्तित मुखभाग, पश्चपक्ष में विशाल ऐनेल लोब (Anal lobe) उदर के पश्च सिरे पर एक जोड़ी सरसाई (Cerci), अगणित मैलीपगियन नलिकाएँऔर प्रतिपृष्ठ तंत्रिक ा तंतु में कई एक पृथक-पृथक गुच्छिकाएं। इन गणों में से ब्लैटेरिया और मैंटोडिया में बहुत अधिक निकट संबंध होने के कारण इन दोनों को साथ-साथ डिक्टियॉप्टरा (Dictyopotera) के अंतर्गत रखते हैं। एक्सोप्टरिगोटा के शेष गण, जिनके नाम हैं सोकोप्टरा (Psocoptera), मैलोफैगा (Mallophaga), साइफनकुलेटा (Siphonculata), मत्कुणगण (हेमिप्टरा, Hemiptera) और झल्लरीपक्ष (Thysanoptera), मत्कुणगणिक (Hemipteroid) समुदाय के अंतर्गत आते हैं।
  

मत्कुणगणिक समुदाय के लक्षण इस प्रकार है: विशेष प्रकार के मैंडिबुलेट या चूसनेवाले मुखभाग होते हैं, पश्चपक्ष में ऐनेल लोब नहीं पाया जाता, सरसाई का अभाव होता है। मैलपीगियन नलिकाओं की संख्या बहुत थोड़ी होती है और प्रतिपृष्ठ तंत्रिकतंतु की गुच्छिकाएँ लगभग एकत्रीभूत हो जाती है। ऋ जुपाक्षिक और मत्कुणगणिक समुदायों में स्पष्ट भेद नहीं हैं, क्योंकि जोरेप्टरा में पक्षों की शिराएँ कुछ क्षीण हो जाती है, मैलीपीगियन नलिकाओं की संख्या भी कम होती है और तंत्रिकातंतु की गुच्छिकाएँ भी कुछ कुछ एकत्रीभूत हो जाती है। सोकोप्टरा और मैलोफैगा में स्पष्ट संबंध प्रतीत होता है, क्योंकि दोनों में विलक्षण प्रकार का हाइपोफैरिक्स (Hypopharynx) होता है। संभवत: साइफनकुलेटा मैलोफैगा से निकट संबंध रखते हैं। इनसे वे केवल अनेक बाह्य और आंतरिक रचनाओं तथा प्रकृति में ही सादृश्य नहीं रखते, अपितु श्वासरध्रं की रचना और अंडे से बच्चे निकलने की विधि में भी सादृश्य है। अब प्रश्न यह उठता है कि जुँओं के दोनों गणों को एक ही गण के अंतर्गत क्यों नहीं माना जाता। इसका कारण यह है कि दोनों गणों के मुखभागों में इतना अधिक अंतर होता है। कि इनका पृथक्‌ पृथक्‌ गणों में रखना ही प्राय: उचित समझा जाता है।
  • इंडोप्टेरिगोट कीटों के विषय में ध्यान दे तो कलापक्ष (Hymenoptera), स्ट्रेप्सिप्टरा (Strepsiptera) और कंचुकपक्ष (Coleoptera) को अन्य गणों के साथ रखने में अत्यधिक कठिनता उपस्थित होती है, अत: इनके अतिरिक्त शेष सब गण पैनोरपिड (Panorpid) समुदाय के अंतर्गत रखे गए हैं। पैनोरपिड समुदाय जालपक्ष न्यूरॉप्टरा (Neuroptera) के साथ मिकाप्टरा (Mecoptera) पर केंद्रीभूत है और कुछ कुछ पृथक्‌ किंतु संबंधी शाखा बनाता है। ऐसा अधिक संभव है कि मिकाप्टरा के निम्नस्थ सदस्यों से एक ओर द्विपक्ष (Diptera) और दूसरी ओर शल्कि पक्ष (Lepidoptera) और लोमपक्ष (Trichoptera) की उत्पत्ति हुई हो। साइफोनैप्टरा (Siphonaptera) के प्रौढ़ों की रचना बहुत भिन्न होती हैं, किंतु इसके डिंभ द्विपक्ष के उपगण निमेटोसेरा (Nimatocera) के कुछ डिंभों से भिन्न नहीं होते और यदि साइफोनैप्टरा की उत्पत्ति आदि द्विपक्षों से न हुई हो तो कम से कम पैनोरपिड समुदाय से तो हुई ही होगी। कलापक्ष, कंचुकपक्ष और स्ट्रेप्सिप्टरा के विषय में भी कुछ कठिनता प्रतीत होती है। कलापक्ष के उपगण सिंफायटा (Symphyta) के डिंभ और पैनोरपिड कीटों के डिंभों में सादश्य है, साथ ही साथ सिंफायटा के पक्षों की शिरा की उत्पत्ति बिना किसी कठिनता के, मेगालोप्टरन पैटर्न (megalopteran pattern) से प्रतीत होती है। इन दो कारणों से ऐसा भी कहा जाता है कि कलापक्ष के पूर्वज तथा जालपक्ष और अन्य पैनोरपिड गणों के पूर्वज एक ही थे। कंचुक पक्ष के विषय में ऐसा विचार है कि इनकी उत्पत्ति अन्य इंडोप्टेरिगोट से भिन्न रूप में हुई। किंतु कुछ लेखकों का ऐसा अनुमान है कि कंचुकपक्ष की उत्पत्ति जालपक्षीय आकृतिवाले पूर्वजों से हुई। स्ट्रेप्सिप्टरा प्राय: कंचुकपक्ष से संबंधित समझे जाते हैं, किंतु कुछ लेखक इनका संबंध कलापक्ष के निर्धारित करते हैं।


तितली कीट वर्ग का सामान्य रूप से हर जगह पाया जानेवाला प्राणी है। यह बहुत सुन्दर तथा आकर्षक होती है। दिन के समय जब यह एक फूल से दूसरे फूल पर उड़ती है और मधुपान करती है तब इसके रंग-बिरंगे पंख बाहर दिखाई पड़ते हैं। इसके शरीर के मुख्य तीन भाग हैं सिर, वक्ष तथा उदर। इनके दो जोड़ी पंख तथा तीन जोड़ी सन्धियुक्त पैर होते हैं अतः यह एक कीट है। इसके सिर पर एक जोड़ी संयुक्त आँख होती हैं तथा मुँह में घड़ी के स्प्रिंग की तरह प्रोवोसिस नामक खोखली लम्बी सूँड़नुमा जीभ होती है जिससे यह फूलों का रस (नेक्टर) चूसती है। ये एन्टिना की मदद से किसी वस्तु एवं उसकी गंध का पता लगाती है। तितली एकलिंगी प्राणी है अर्थात नर तथा मादा अलग-अलग होते हैं। मादा तितली अपने अण्डे पत्ती की निचली सतह पर देती है। अण्डे से कुछ दिनों बाद एक छोटा-सा कीट निकलता है जिसे कैटरपिलर लार्वा कहा जाता है। यह पौधे की पत्तियों को खाकर बड़ा होता है और फिर इसके चारों ओर कड़ा खोल बन जाता है।
  

अब इसे प्यूपा कहा जाता है। कुछ समय बाद प्यूपा को तोड़कर उसमें से एक सुन्दर छोटी-सी तितली बाहर निकलती है। तितली का दिमाग़ बहुत तेज़ होता है। देखने, सूंघने, स्वाद चखने व उड़ने के अलावा जगह को पहचानने की इनमें अद्भुत क्षमता होती है। वयस्क होने पर आमतौर पर ये उस पौधे या पेड़ के तने पर वापस आती हैं, जहाँ इन्होंने अपना प्रारंभिक समय बिताया होता है।
तितली का जीवनकाल बहुत छोटा होता है। ये ठोस भोजन नहीं खातीं, हालाँकि कुछ तितलियाँ फूलों का रस पीती हैं। दुनिया की सबसे तेज़ उड़ने वाली तितली मोनार्च है। यह एक घंटे में 17 मील की दूरी तय कर लेती है। कोस्टा रीका में तितलियों की 1300 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। दुनिया की सबसे बड़ी तितली जायंट बर्डविंग है, जो सोलमन आईलैंड्स पर पाई जाती है। इस मादा तितली के पंखों का फैलाव 12 इंच से ज्यादा होता है।

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