कुछ प्रमुख उभयचर और जलचर जीव जन्तु - Study Search Point

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कुछ प्रमुख उभयचर और जलचर जीव जन्तु

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मगरमच्छ
मगरमच्छ रेप्टीलिया वर्ग के सबसे बङे जंतुओं में एक है। यह 4 से 25 मीटर तक लंबा हो सकता है। मगरमच्छ बड़े, भारी शरीर वाले उभयचर जंतु हैं, जो दिखने में कुछ हद तक छिपकली जैसे लगते हैं और मांसभक्षी प्रकृति के होते हैं। यह सरीसृप गण क्रोकोडिलिया के सदस्य है। शंक्वाकार दांतों से युक्त इनके जबड़े काफ़ी मज़बूत होते हैं और इनके छोटे पैरों के पंजे झिल्लीयुक्त होते हैं। पूंछ लंबी, भारी और चमड़ी मोटी व पट्टीदार होती है। दुनिया भर में इसकी लगभग 20 से अधिक प्रजातियों की खोज की गई है। 

मगरमच्छ पुराऐतिहासिक काल के डायनासोरनुमा प्राणियों की अंतिम जीवित कड़ी हैं। साथ ही जीवाश्मों ये पक्षियों के सबसे नज़दीकी जीवित रिश्तेदार हैं। कई प्रकार के मगरमच्छों के जीवाश्मों की खोज की गई है! क्रोकोडिलिया गण के चार उपगणों में से तीन लुप्त हो चुके हैं। व्यापक जीवाश्म प्रमाणों के आधार पर मगरमच्छों और अन्य रीढ़धारी प्राणी समूहों के बीच सुपरिभाषित संबंध क़ायम करना संभव हो पाया है।
मगरमच्छ भारत में नदियों, दलदलों और झीलों में पाए जाते हैं। नदियों के मुहानों के क्षेत्र में पाया जाने वाला मगरमच्छ (क्रोकोडिलस पोरोसस) जिसकी लंबाई लगभग 9 मीटर होती है, सामान्यतः कीचड़युक्त डेल्टा क्षेत्र में पाई जाने वाली मछलियों, पक्षियों और केकड़ों को खाता है। लंबी थूथन वाला घड़ियाल (गैविएलिस गैंजेटिकस), जो मगरमच्छ से मिलती-जुलती प्रजाति है, गंगा और ब्रह्मपुत्र समेत बड़ी नदियों और उनकी सहयोगी धाराओं में पाया जाता है।

कछुआ एक जलीय जन्तु है। इसका पूरा शरीर कड़े कवच से ढ़का रहता है। इसके शरीर के कवच का ऊपरी भाग कारापेश तथा निचला भाग प्लास्ट्रन कहलाता है। इसके चार पैर होते हैं और प्रत्येक पैरों में पाँच-पाँच नाखून तथा जाल-युक्त ऊँगलियाँ पायी जाती हैं। मादा कछुआ मिट्टी खोदकर उसमें अंडे देती है। अंडो की संख्या 1 से लेकर 30 तक हो सकती है। साधारणतः अंडे देने का कार्य रात में होता है। मादा अंडे देने के बाद गड्ढे एवं अंडे को मिट्टी तथा बालू इत्यादि से ढ़क देती है। विभिन्न प्रजातियों के अंडो से बच्चों के निकलने का समय भिन्न-भिन्न होता है। अंडो से बच्चे निकलने में 60 से 120 दिनों तक का समय लगता है। मारवाड़ी भाषा में कछुआ को काछबा कहा जाता है| कछुओं का गोल शरीर कड़े डिब्बे जैसे आवरण से ढका रहता है। इस कड़े आवरण या खोल से, जिसे खपड़ा कहा जाता है, इनकी चारों टाँगें तथा लंबी गरदन बाहर निकली रहती हैं। यह खपड़ा कड़े पर्तदार शल्कों से ढँका रहता है। कछुओं का ऊपरी भाग प्राय: उत्तल (उभरा हुआ) और निचला भाग चपटा रहता है। ऊपरी भाग को उत्कवच (कैरापेस) और नीचे वाले को उदरवर्म (प्लैस्ट्रन) कहते हैं। कुछ कछुओं का ऊपरी भाग चिकना रहता है, परंतु कुछ कड़े शल्क इस प्रकार एक दूसरे पर चढ़े रहते हैं जैसे प्राय: मकानों पर खपड़े छाए रहते हैं। ये खपड़े कई टुकड़ों के जुड़ने से बनते हैं, जो सुदृढ़ता से परस्पर जुड़े रहते हैं। ऊपर और नीचे के खपड़े भी बगल में सुदृढता पूर्वक एक दूसरे से संयोजित रहते हैं। कछुओं के खपड़ों की बनावट उनकी रहन-सहन के अनुसार ही होती है। सूखे में रहने वाले कछुओं की खपड़े ऊँचे और गोलाई लिए रहते हैं जिसके भीतर वे अपनी गर्दन और टाँगों को सरलता से सिकोड़ लेते हैं। किंतु पानी के कछुओं के खपड़े चपटे होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी टाँगों को शीघ्र भीतर बाहर करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संसार में लगभग 225 जातियों के कछुए हैं, जिसमें सबसे बड़ा समुद्री कछुआ सामान्य चर्मकश्यप होता है। समुद्री कछुआ लगभग 8 फुट लंबा और 30 मन भारी होता है।

शेष कछुओं 
इसकी पीठ पर कड़े शल्कों की धारियाँ सी पड़ी रहती हैं, जिनपर खाल चढ़ी रहती है। इसका निवासस्थान उष्णप्रदेशीय सागर हैं और इसका मुख्य भोजन मांस, मछली और घोंघे कटुए हैं। अन्य कछुओं की भाँति इस जाति के मादा कछुए भी रेत में अंडे देते हैं।
शेष कछुओं को इस प्रकार तीन श्रेणियों में बाँटा गया है :
  1. मृदुकश्यप (ट्रिओनीकॉइडी) : इस श्रेणी में वे जल कछुए आते हैं जिनके ऊपरी खपड़े पर कड़े शल्क या पट्ट नहीं होते।
  2. गुप्तग्रीवा (क्रिप्टोडिरा) : इस श्रेणी में वे जल और स्थल कछुए आते हैं जिनके ऊपरी खपड़े पर खाल से ढके हुए कड़े शल्क या पट्ट रहते हैं और जो अपनी लंबी गरदन को सिकोड़ते समय उसे अंग्रेजी अक्षर C के समान वक्राकार कर लेते हैं। इस श्रेणी में सबसे अधिक कछुए हैं।
  3. पार्श्वग्रीवा (प्यूरोडिरा) : इस श्रेणी में क्रिप्टोडिरा श्रेणी जैसे ही जल और स्थल के कछुए हैं, किंतु उनकी गरदन उत्कवच के भीतर सिकुड़ नहीं सकती, केवल बगल में घुमाकर उत्कवच के नीचे कर ली जाती है।
हमारे देश में कछुओं की लगभग 55 जतियाँ पाई जाती हैं, जिनमें साल, चिकना, चितना, छतनहिया, रामानंदी, बाजठोंठी और सेवार आदि प्रसिद्ध कछुए हैं।

मछली शल्कों वाला एक जलचर है जो कि कम से कम एक जोडा़ पंखों से युक्त होती है। मछलियाँ मीठे पानी के स्त्रोतों और समुद्र मे बहुतायत मे पाई जाती हैं। समुद्र तट के आसपास के इलाकों में मछलियाँ खाने और पोषण का एक प्रमुख स्त्रोत हैं। कई सभ्यताओं के साहित्यइतिहास एवं उनकी संस्कृति में मछलियों का विशेष स्थान है। इस दुनिया में मछलियों की कम से कम 28,500 प्रजातियां पाई जाती हैं जिन्हें अलग अलग स्थानों पर कोई 2,18,000 भिन्न नामों से जाना जाता है। इसकी परिभाषा कई मछलियों को अन्य जलीय प्रणी से अलग करती है, यथा ह्वेल एक मछली नहीं है। परिभाषा के मुताबिक़, मछली एक ऐसी जलीय प्राणी है जिसकी रीढ़ की हड्डी होती है (कशेरुकी जन्तु), तथा आजीवन गलफड़े (गिल्स) से युक्त होती हैं तथा अगर कोई डालीनुमा अंग होते हैं (लिंब) तो वे फ़िन के रूप में होते हैं। कुछ मछलियाँ न केवल विशालकाय हैं, बल्कि इतनी खतरनाक है कि पूरे इंसान को निगल भी सकती हैं।
किलर कैटफिश
यह हिमालय की तलहटी में मिलने वाली एक विशाल और नरभक्षी कैटफिश प्रजाति है।
डीमन फिश -
जैसा कि इसका नाम है, यह दैत्याकार मछली है। यह दुनिया की सबसे खतरनाक मछलियों में से एक है। यह बड़े से बड़े जीवों को भी निगल जाती है। डीमन फिश अफ्रीका की कांगो नदी में पाई जाती है।

डेथ रे -
थाइलैंड की मीकांग नदी में जेरेमी ने दुनिया की सबसे बड़ी मछलियों मे से एक डेथ रे को खोज निकाला। इसका वजन लगभग 7 सौ पाउंड है। इसके शरीर पर एक जहरीली और कांटेदार पूंछ होती है, जिसके प्रहार से इंसान की जान भी जा सकती है।
किलर स्नेकहेड -
मछली से ज्यादा गैंगस्टर लगने वाली यह मछली हवा में सांस लेती है और जमीन पर भी रेंग लेती है। अपनी ही प्रजाति के जीवों को यह शौक से खाती है। यह एशिया में मुख्य रूप से चीन और दक्षिण कोरिया में पाई जाती है।
कांगो किलर -
अफ्रीका की कांगो नदी में पाई जाने वाली कांगो किलर के खतरनाक होने का अंदाजा इस बात से लगा सकते है कि अफ्रीका में इसके बारे में एक लोककथा है, जिसमें कहा गया है कि यह मछली एक आत्मा के रूप में मछुआरों को ललचा कर उन्हें मौत की तरफ ले जाती है।
अलास्कन हॉरर -
अलास्का की बर्फीली झील में मिलती है महाकाय अलास्कन हॉरर। इसके बारे में प्रचलित लोककथाओं में इसे आदमखोर माना जाता है।
रिट वैली किलर -
अफ्रीका की रिट वैली में एक विशालकाय जीव रहता है -एम्पुटा या नाइल पर्च। यह अफ्रीका के ताजे पानी की सबसे बड़ी मछली है।
पिरान्हा -
वर्ष 1976 में यात्रियों से भरी बस अमेरिका के अमेजॉन नदी में गिर गई और कई लोगों की जान चली गई। जब शवों को बाहर निकाला गया, तो उनमें से कुछ को पिरान्हा मछलियों ने इतनी बुरी तरह खा लिया था कि उनकी पहचान उनके कपड़ों से हुई।
एलिगेटर गार -
यह सादे पानी की ऐसी मछली है, जो इंसानों पर आक्रामक हमले करती है। यह शार्क की तरह खतरनाक और मगरमच्छ की तरह विशाल है।
यूरोपिययन मैनईटर -
यह यूरोप के ताजे पानी वाली नदियों में अपनी थूथन उठाए घूमती रहती है। आक्रामक वैल्स कैटफिश इंसानों को भी अपना शिकार बना सकती है।
अमेजॉन असासिंस -
अमेजन की गहराइयों में रहने वाली असासिंस शिकार को अपनी जीभ से कुचलती है, जो हड्डी से बनी होती है।
अमेजन लैश ईटर्स -
यह अफ्रीकन मछली इंसान को निगल सकती है। यह जब हमला करती है, तो शरीर पर छुरा घोंपने जैसा निशान बन जाता है।

घड़ियाल (Gavialis gangeticus), गैवियेलिडी किल के दो वर्तमान सदस्यों में से एक है। यह मगरमच्छ जैसा सरीसृप होता है जिसके लंबे किंतु संकरे दाड़े होती हैं। यह एकदम विलुप्तप्राय प्रजाति है।  मगरमच्छ का निकट संबंधी होकर भी इसका थूथन उसकी तरह छोटा न होकर काफ़ी पतला और लंबा रहता है और नरों के प्रौढ़ हो जाने पर सिरे पर एक गोल लोटे जैसा कुब्बा सा निकल आता है, जो इसकी तूंबी कहलाता है। घड़ियाल मगरमच्छ की तरह हिंसक न होकर मछलीखोर जंतु है, जो आदमियों और जानवरों पर हमला नहीं करता, लेकिन दबाव में पड़ने पर कभी कभी उसके दुम का वार घातक भी हो सकता है।

घड़ियाल दीर्घजीवी प्राणी है, जो समय पाकर 20-25 फुट तक का हो जाता है। इसकी त्वचा बहुत कड़ी और मजबूत होती है, जो देखने में चारखाने की तरह जान पड़ती है। इसके शरीर के ऊपरी हिस्से की खाल के नीचे तो हड्डियों को तह रहती है, लेकिन निचले भाग की खाल बहुत मोटी और मजबूत होती है। यह बहुत कीमती बिकती है और इसी से जूते तथा सूटकेस वगैरह बनाए जाते हैं। घड़ियाल के शरीर का ऊपरी भाग जैतूनी रंग का होता है, जो पुराना हो जाने पर और भी गाढ़ा हो जाता है। नीचे का हिस्सा सफ़ेदरहता है। इसकी आँखें उभरी रहती हैं, जिनपर एक प्रकार की पारदर्शी झिल्ली रहती है। इसे पानी के भीतर जाने पर चढ़ा लेता है। इसकी उँगलियाँ कुछ दूर तक आपस में जुटी रहती हैं और टाँगों पर का कुछ हिस्सा रीढ़ सा उठा रहता है।

केकड़ा आर्थ्रोपोडा संघ का एक जन्तु है। इसका शरीर गोलाकार तथा चपटा होता है। सिरोवक्ष (सिफेलोथोरेक्स) तथा उदर में बँटा रहता है। इसका उदर बहुत छोटा होता है। इसके सिरोवक्ष के अधर वाले भाग में पाँच जोड़े चलन पाद मिलते हैं। सिर पर एक जोड़ा सवृन्त संयुक्त नेत्र मिलता है। इसमें श्वसन गिल्स द्वारा होता है। अधिकांश केकड़े समुद्र में रहते हैं; यहाँ तक कि उष्णकटिबंधीय देशों में बहुतायत में पाए जाने वाले भूमिचर केकड़े भी सामान्यतः कई बार समुद्र में जाते हैं और अपने जीवन का प्रारंभिक काल वहाँ व्यतीत करते हैं। दक्षिणी यूरोप की नदियों में पाया जाने वाला लेंटेन केकड़ा (पोटामॉन फ़्लूविएटाईल) दुनिया के अधिकांश गर्म इलाक़ों में मीठे पानी के केकड़ों की बहुतायत का एक उदाहरण है, आमतौर पर केकड़े गलफड़ों से सांस लेते हैं, जो ऊपरी खोल की बग़लों के नीचे दो छिद्रों में होते हैं, लेकिन असली भूमिचर केकड़ों में ये छिद्र बड़े होकर हवा में सांस लेने के लिए फेफड़ों की भूमिका निभाते हैं।

इनके गमन का सामान्य तरीक़ा चलना या रेंगना है, और सामान्य तटीय केकड़े का दाईं या बाईं ओर सरकना आमतौर पर इस समूह के सभी सदस्यों का लक्षण है। पार्ट्यूनिडी परिवार और कुछ अन्य परिवारों के केकड़े अपने चपटे चप्पूनुमा पैरों की मदद से निपुणतापूर्वक तैरते हैं।
हरमिट केकड़े (पैग्यूरिडी और कोएनबिटिडी) एनोम्युर केकड़ों की मशहूर जाति है, जो उदरपादीय कवचधारी प्राणियों के ख़ाली कवचों में रहते हैं और उन्हें अपने सचल आवास की तरह अपने साथ लिए चलते हैं। जैसे-जैसे केकड़े का आकार बढ़ता है, यह अपना आवास समय-समय पर बदलता रहता है। जापान का विशालकाय केकड़ा (मैक्रोचेरिया कैंफेरी) और तस्मानियाई केकड़ा दो सबसे बड़े ज्ञात क्रस्टेशियन प्राणी हैं। जापानी केकड़े के फैले हुए पैरों की नोक से ऊपरी नोक तक की लंबाई चार मीटर तक हो सकती है। तस्मानियाई केकड़ा, जिसका वज़न 9 किग्रा से अधिक हो सकता है, के पंजे छोटे और सुदृढ़ होते हैं; इनमें से बड़े वयस्क की लंबाई 43 सेमी हो सकती है; किसी और बड़े नमूने का शरीर या ऊपरी कवच 46 सेमी का हो सकता हैं। दूसरी ओर काफ़ी छोटे केकड़े पाए जाते हैं, जो ऊपरी वयस्क होने पर भी एक या दो सेमी लंबे होते हैं।
खाद्य पदार्थ के रूप में कई केकड़ों की मांग बहुत ज्यादा है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण और बहुमूल्य खाद्य केकड़े ब्रिटिश और यूरोपीय तट के केकड़े (कैंसर पैग्यूरस), उत्तरी अमेरिका में अटलांटिक तट के नीले केकड़े (कैलिनेक्टेस सैपिडस) और प्रशांत तट के डंगेनेस केकड़े (कैंसर मैगिस्टर) है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में तैरने वाले केकड़े, साइला और पॉर्ट्यूनस, जो अमेरिकी नीले केकड़े से संबंधित हैं, समुद्री खाद्य पदार्थ के सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। एनोम्पूरा श्रेणी के लिथोडिड (शाब्दिक अर्थ, पत्थर) केकड़े वाणिज्यिक दृष्टि से मूल्यवान हैं, जिनमें जापान से परे बेरिंग सागर में अलास्का के जलीय क्षेत्र में पाया जाने वाला तथाकथित किंग केकड़ा (पेरालिथोडेस कैम्टशैटिका) सबसे महत्त्वपूर्ण है।

पनचिरा कैरैड्रीफ़ॉर्मीज़ गण के राइंकोपीडिया कुल के जलीय पक्षियों की तीन प्रजातियों में से एक है। पनचिरा को अपनी क़िस्म की ब्लेड जैसी चोंच से पहचाना जाता है, चोंच का निचला भाग चोंच के ऊपरी भाग के एक तिहाई लंबा होता है। दिन के समय पनचिरा तट पर विश्राम करता है और शाम के धुंधलके में भोजन करता है, शांत स्थित पानी को छूकर उड़ते समय इसकी चोंच पानी डूबी रहती है; जब कोई मछली या क्रस्टेशिया संपर्क में जाता है, तो चोंच का ऊपरी हिस्सा तेज़ी से नीचे हो जाता है। पनचिरा मुख्य रूप से गर्म इलाकों में मुहानों और चौड़ी नदियों के किनारे पाए जाते हैं। तीनों जातियाँ ऊपर से काली और नीचे से सफ़ेद होती हैं, चेहरा और माथा सफ़ेद छोटे पैर व चोंचलाल तथा पंख लंबे, पतले और काले होते हैं। सबसे बड़ा पनचिरा अमेरिका का काला पनचिरा है, जो 50 सेमी तक लंबा होता है। अफ़्रीकी पनचिरा ('आर. फ़्लेविरोस्ट्रीस') और भारतीय पनचिरा ('आर. एल्बाइकोलिस') छोटे होते हैं।

हाँगर या शार्क एक पृष्ठवंशी समुद्री जल में रहने वाला प्राणी है। इसका शरीर बहुत लम्बा होता है जो शल्कों से ढका रहता है। इन शल्कों को प्लेक्वायड कहते हैं। त्वचा चिकनी होती है। त्वचा के नीचे वसा (चर्बी) की मोटी परत होती है। इसके शरीर में हड्डी की जगह उपास्थि (कार्टिलेज) पाई जाती है। शरीर नौकाकार होता है। इसका निचला जबड़ा ऊपरी जबड़े से छोटा होता है। अतः इसका मुँह सामने न होकर नीचे की ओर होता है जिसमें तेज दाँत होते हैं। यह एक माँसाहारी प्राणी है। शार्क के शरीर में देखने के लिए एक जोड़ी आँखें, तैरने के लिए पाँच जोड़े पखने और श्वांस लेने के लिए पाँच जोड़े क्लोम होते हैं। शार्क मछलियाँ क्रियाशील तथा मछलियों को खाने वाली होती हैं और सामान्यत: नीले या हरे रंग की होती हैं। शार्क का शरीर बहुत लम्बा होता है जो शल्कों से ढका रहता है।

इन शल्कों को प्लेक्वायड कहते हैं। इनकी त्वचा चिकनी होती है। त्वचा के नीचे वसा (चर्बी) की मोटी परत होती है। इसके शरीर में हड्डी की जगह उपास्थि (कार्टिलेज) पाई जाती है। शरीर नौकाकार होता है। इसका निचला जबड़ा ऊपरी जबड़े से छोटा होता है। अतः इसका मुँह सामने न होकर नीचे की ओर होता है जिसमें तेज दाँत होते हैं। यह एक माँसाहारी प्राणी है। शार्क के शरीर में देखने के लिए एक जोड़ी आँखें, तैरने के लिए पाँच जोड़े पखने और श्वांस लेने के लिए पाँच जोड़े क्लोम होते हैं। ग्रेट व्हाइट शार्क 15 वर्ष की युवा अवस्था में पूर्ण विकसित होकर लगभग 20 फीट से अधिक हो जाती है। टाइगर शार्क युवा अवस्था में लगभग 16 फीट की हो जाती है। इन दोनों को ही आक्रामक और घातक प्रजातियों में रखा जाता है।

बंबिल (बॉम्बे डक) उत्तर भारत में पाई जाने वाली हार्पेडॉन्टिडे कुल की मछली, जिसका खाद्य मछली के रूप में व्यापक उपयोग होता है। बंबिल (बॉम्बे डक) को सुखाकर मसाला बनाया जाता है। यह मछली 41 सेमी की लंबाई तक बढ़ सकती है और यह धुसर, पारभासी स्लेटी या भूरे रंग की होती है और इसके शरीर पर छोटे, गहरे रंग की चित्तियाँ होती हैं। इसका मुँह काफ़ी बड़ा, पूंछ चिरी हुई और अंसपेशी तथा श्रोणी के पंख बड़े होते हैं। बंबिल (बॉम्बे डक) जाति की कई प्रजातियाँ अफ़्रीका से ऑस्ट्रेलिया और न्यूगिनी तक पाई जाती हैं।

कंकनी या टेनोफोरा (Ctenophora) अपृष्ठवंशी जंतुओं का एक छोटा संघ (फ़ाइलम) है जो कुछ ही समय पहले तक आंतरगुही (सिलेंटरेटा, Coelenterata) समुदाय से घनिष्ठ संबंध के कारण उसी के उपसमुदाय के अंतर्गत रखा जाता था। इसके सभी सदस्य समुद्री स्वतंत्रजीवी, स्वतंत्र रूप से तैरने वाले तथा बहुत ही पारदर्शी होते हैं। ये बहुविस्तृत हैं और उष्ण भागों में बहुतायत से पाए जाते हैं। इनको सामन्यत: 'समुद्री अखरोट' (सी वालनट) या 'कंकत-गिजगिजिया' (कोम-जेली) कहते हैं। पहला नाम आकार के कारण तथा दूसरा उसके पारदर्शी तथा कोमल होने और उनपर कंकत (कंघी) जैसे चलांगों के कारण है। ये 'कंघियाँ' शरीर पर लाक्षणिक रूप से आठ पंक्तियों में स्थित होती हैं। कुछ जातियाँ फीते जैसी चपटी भी होती हैं, जैस 'रति-वलय' (वीनस गर्डिल), जिसकी लंबाई 6 इंच से लेकर 4 फुट तक होती है। इस समुदाय के साधारण लक्षण निम्नलिखित हैं :
1. शरीर के द्विअरीय विधि से उदग्र अक्ष पर संमित होता है!
2. शरीर के निर्माण में दो मुख्य स्तरों–बहिर्जनस्तर (एक्टोडर्म) तथा अंतर्जनस्तर (एंडोडर्म) का होना, किंतु साथ ही इनके बीच में बहुविकसित मध्यश्लेष (मेसोग्लीआ) का स्तर होना, जिसमें अनेक कोशिकाएँ होती हैं। इन कोशिकाओं का पृथक्करण बहुत प्रारंभिक अवस्था में हो जाता है जिससे इसको अधिकांश लेखक एक अलग स्तर मध्यचर्म (मेसोडर्म) मानते हैं। इस प्रकार कंकनी समुदाय त्रिस्तरीय (ट्रिप्लोब्लैस्टिक) कहा जा सकता है। मध्यचर्म की कोशिकाओं से पेशीय कोशिकाएँ बनती हैं।
3. समुदाय में शरीर विखंडित (सेगमेंटेड) नहीं होता।

4. शरीर बहुत कुछ गोलाकार या लंबी नाशपाती जैसा होता हैं, किंतु कुछ सदस्य चपटे भी होते हैं। शरीर के ऊपरी तल पर पक्ष्म-कोशिकाओं (सिलिअरी सेल्स) से बनी 'कंघियों' की आठ पंक्तियाँ होती हैं। ये ही इन जीवों के चलांग हैं।
5. सुच्यंग अथवा डंक (निमैटोसिस्ट, nematocyst) सर्वथा अनुपस्थित रहते हैं।
6. पाचक अंगों के अंतर्गत मुख, 'ग्रसनी', आमाशय तथा शाखित नलिकाएँ रहती हैं।
7. स्नायु संस्थान आंतरगुही की भाँति फैला हुआ और जाल जैसा तथा मुख की विपरीत दिशा में स्थित्यंग (स्टैटोसिस्ट, statocyst) नामक संवेदांग की उपस्थिति होती है।
8. ये जीव द्विलिंगी होते हैं; जननकोशिकाओं का निर्माण अंतर्जनस्तर से, कंकनीपंक्तियों के नीचे, होता है।
9. परिवर्धन सरल तथा बिना किसी डिंभ (लार्वा) की अवस्था और पीढ़ियों के एकांतरण से होता है।
इसके अतिरिक्त अधिकांश कंकनियों में दो ठोस, लंबी स्पर्शिकाएँ (टेंटेकल्स, tentacles) होती हैं, जो प्रत्येक पार्श्व में स्थित एक अंधी थैली से निकलती हैं। इन स्पर्शिकाओं पर कुछ विचित्र कोशिकाएँ होती हैं जिनको कॉलोब्लास्ट कहते हैं। प्रत्येक कॉलोब्लास्ट से एक प्रकार का लसदार द्रव निकलता है और इसमें कुंतलित कमानी के आकार की एक संकोची धागे जैसी रचना होती है, जो शिकार से लिपट जाती है और उसे पकड़ने में सहायक होती है।

बत्तख़ ऐन्सेरिफ़ॉर्मीज़ गज, एनैटिडी कुल और एनैडिनी उपकुल के अपेक्षाकृत छोटे आकार, छोटी गर्दन और लंबी चोंच वाले जलपक्षियों की विभिन्न प्रजातियों में से एक है। एनैटिनी उपकुल में वर्गीकृत असली बत्तख़ के पैर हंस की तरह पीछे की तरफ़ घूमें होते हैं, जिसके कारण यह ख़ास ढंग से डगमगाकर चलती है।

असली बत्तख़ों को उनकी बनावट और आकार के आधार पर ग़लती से हंस मान लिया जाता है, लेकिन बत्तख़ हंस प्रजाति से भिन्न होती है। नर बत्तख़ वर्ष में दो बार अपने पंख झाड़ देता है, मादा बत्तख़ एक साथ चिकनी सतह वाले अंडे देती है और न्रर व मादा बत्तख़ों के पैर की खाल शल्कों से ढकी होती है तथा उनके पंख और आबाज़ के अंतर से दोनों में भेद किया जा सकता है।

मरल मछली केनाइडी कुल की मछली है, जो ताज़े पानी में पाई जाने वाली मछलियों की प्रजातियों में से एक है। यह अफ़्रीक़ा और एशिया में पाई जाती है। लंबे और तक़रीबन बेलनाकार शरीर वाली मरल का मुंह बड़ा व लंबा होता है। मरल मछली के शरीर पर एक लंबा पृष्ठ और गुदा पंख भी पाया जाता है। इसकी लंबाई तक़रीबन 10 से 90 सेन्टीमीतर तक होती है। यह मछली पानी से ऊपर हवा में भी गलफड़ों के पास स्थित संवहन गुहिका की मदद से सांस ले सकती है। मरल मछली पानी से बाहर लंबे समय तक बिना किसी परेशानी के जीवित रह लेती है। प्रोटीन का अच्छा स्रोत होने के कारण इसका इस्तेमाल भोजन के रूप में भी होता है।



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