इतिहास : रसायन विज्ञान का - Study Search Point

निरंतर कर्म और प्रयास ही सफलता की कुंजी हैं।

इतिहास : रसायन विज्ञान का

Share This
रसायन विज्ञान का इतिहास बहुत पुराना है। 1000 ईसापूर्व में प्राचीन सभ्यताओं के लोग ऐसी प्राविधियों का प्रयोग करते थे जो बाद में रसायन विज्ञान की विविध शाखाएं बनीं। रसायन विज्ञान (Chemistry) विज्ञान की एक प्रमुख शाखा है, जिसके अन्तर्गत पदार्थों के गुण, संघटन, संरचना तथा उनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि रसायन विज्ञान का विकास सर्वप्रथम मिस्र देश में हुआ था। प्राचीन काल में मिस्रवासी काँच, साबुन, रंग तथा अन्य रासायनिक पदार्थों के बनाने की विधियाँ जानते थे तथा इस काल में मिस्र को केमिया कहा जाता था। रसायन विज्ञान, जिसे अंग्रेज़ी में 'केमिस्ट्री' कहते है की उत्पत्ति मिस्र में पायी जाने वाली काली मिट्टी से हुई। इसे वहाँ के लोग केमि कहते थे। प्रारम्भ में रसायन विज्ञान के अध्ययन को केमिटेकिंग कहा जाता था। रसायन विज्ञान के अन्तर्गत द्रव्य के संघटन तथा उसके अति सूक्ष्म कणों की संरचना का अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त द्रव्यके गुण, द्रव्यों में परस्पर संयोग के नियम, ऊष्मा आदि ऊर्जाओं का द्रव्य पर प्रभाव, यौगिकों का संश्लेषण, जटिल व मिश्रित पदार्थों से सरल व शुद्ध पदार्थ अलग करना आदि का अध्ययन भी रसायन विज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। आवर्त सारणी में सात क्षैतुज पंक्तियाँ होती हैं जिन्हें आवर्त कहते हैं। प्रीस्टले, शीले, व लेवायसिये ने रसायन विज्ञान के विकास में अत्यधिक योगदान दिया। लोवायसिये को तो आधुनिक रसायन विज्ञान का जन्मदाता भी कहा जाता है। कार्बनिक रसायन, जिसमें मुख्यतः कार्बन व उससे बनने वाले पदार्थों का अध्ययन किया जाता है, के विकास में कोल्वे, वोल्हार व पाश्तुर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
आरम्भिक काल 
जैसे-जैसे समाज का विकास हुआ, रसायन विज्ञान का विकास भी उसी के साथ हुआ। प्रकृति में पाई जानेवाली अगाध संपत्ति और उसका उपभोग कैसे किया जाए, इस आधार पर इसकी नींव पड़ी। घर, भोजन, वस्त्र, निरोग रहने की आकांक्षा और आगे चलकर विलास की सामग्री तैयार करने की प्रवृत्ति ने इस शास्त्र के व्यावहारिक रूप को प्रश्रय दिया। अथर्वांगिरस ने भारत काष्ठ और शिलाओं के मंथन से अग्नि उत्पन्न की। अग्नि सभ्यता और संस्कृति की केंद्र बनी। ग्रीक निवासियों की कल्पना में प्रोमीथियस पहली बार अग्नि को देवताओं से छीनकर मानव के उपयोग के लिए धरती पर लाया। मनुष्य ने देखा कि बहुत से पशु प्रकृति में प्राप्त बहुत सी जड़ी-बुटियाँ खाकर अपना रोग दूर कर लेते हैं। मनुष्य ने भी अपने चारों ओर उगनेवाली वनस्पतियों की मीमांसा की और उनसे अपने रोगों का निवारण करने की पद्धति का विकास किया। महर्षि भारद्वाज के नेतृत्व में हिमालय की तजहटी में वनस्पतियों के गुणधर्म जानने के लिए आज से 2,500 वर्ष पूर्व एक महान्‌ सम्मलेन हुआ, जिसका विवरण चरक संहिता में मिलता है। पिप्पली, पुनर्नवा, अपामार्ग आदि वनस्पतियों का उल्लेख अथर्ववेद में है।यजुर्वेद में स्वर्ण, ताम्र, लोह, त्रपु या वंग तथा सीस धातुओं की ओर संकेत है। इन धातुओं के कारण धातुकर्म विद्या का विकास लगभग सभी देशो में हुआ। धीरे-धीरे इस देश में बाहर से यशद और पारद भी आया। पारद भारत में बाहर से आया और माक्षिक तथा अभ्रक इस देश में थे ही, जिससे धीरे-धीरे रसशास्त्र का विकास हुआ। सुश्रुत के समय शल्यकर्म का विकास हुआ और व्रणों के उपचार के निमित्त क्षारों का उपयोग प्रारंभ हुआ। लवणों का उपयोग चरक काल से भी पुराना है। सुश्रुत में कॉस्टिक, या तीक्ष्ण क्षारों, को सुधाशर्करा (चूने के पत्थर) के योग से तैयार करने का उल्लेख है। इससे पुराना उल्लेख अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। मयर तुत्थ (तुतिया), कसीस, लोहकिट्ट, सौवर्चल (शोरा), टंकण (सुहागा), रसक, दरद, शिलासीत, गैरिक और बाद को गंधक, के प्रयेग से रसशास्त्र में एक नए युग को जन्म दिया। नागार्जुन पारद-गंधक-युग का सबसे महान्‌ रसवेत्ता है। रसरत्नाकर और रसार्णव ग्रंथ उसकी परंपरा के मुख्य ग्रंथ हैं। इस समय अनेक प्रकार की मूषाएँ, अनेक प्रकार के पातन यंत्र, स्वेदनी यंत्र, बालुकायंत्र, कोष्ठी यंत्र और पारद के अनेक संस्कारों का उपयोग प्रारंभ हो गया था। धातुओं के भस्म और उनके सत्य प्राप्त करने की अनेक विधियाँ निकाली गई और रोगोपचार में इनका प्रयोग हुआ। समस्त भोज्य सामग्री का भी बात, कफ, पित्त निवारण की दृष्टि से परीक्षण हुआ। आसव, कांजी, अम्ल, अवलेह, आदि ने रसशास्त्र में योग दिया। भारत में वैशेषिक दर्शन के आचार्य कणाद ने द्रव्य के गुणधर्मों की मीमांसा की। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पंचतत्वों ने विचारधारा को इतना प्रभावित किया कि आजतक ये लोकप्रिय हैं। पंचज्ञानेद्रियों के पाँच विषय थे : गंध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द और इनके क्रमश: सबंध रखनेवाले ये पाँच तत्व "पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाश' ("क्षिति, जल, पावक गगन समीरा", तुलसीदास के शब्दों में) थे। कणाद भारतीय परमाणुवाद के जन्मदाता है। द्रव्य परमाणुओं से मिलकर बना है। प्रत्येक द्रव्य के परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। ये परमाणु गोल और अविभाज्य हैं। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक और फिर इनसे त्रयणुक आदि बनते हैं। पाक, या अग्नि के योग से पविर्तन हाते हैं। रासायनिक पविर्तन किस क्रम में होते हैं, इसकी विस्तृत मीमांसा कणाद दर्शन के परवर्ती आचार्यों ने की।

अमृत एवं पारस-पत्थर

भारत में और भारत से बाहर लगभग सभी प्राचीन देशों, चीन, अरब, यूनान में भी, मनुष्य की दो चिर आकांक्षाएँ थीं :
(१) किस प्रकार रोग, जरा और मृत्यु पर विजय प्राप्त की जाए अर्थात्‌ संजीवनी की खोज या अमरुल की प्राप्ति हो और
(२) लोहे के समान अधम धातुओं को कैसे स्वर्ण के समान मूल्यावान्‌ धातुओं में परिणत किया जाए।


रसायन विज्ञान की मुख्यतः दो शाखाएँ है-

  1. अकार्बनिक रसायन विज्ञान: इसके अंतर्गत सभी अकार्बनिक तत्त्वों एवं उनके यौगिकों का अध्ययन किया जाता है।
  2. कार्बनिक रसायन विज्ञान: इसके अंतर्गत कार्बन के यौगिकों का अध्ययन किया जाता है।
    रसायन विज्ञान के अध्ययन को सरल बनाने के लिए उसे कई शाखाओं में बाँटा गया है, जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-

  • भौतिक रसायन: इसके अंतर्गत रासायनिक अभिक्रिया के नियमों तथा सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।
  • औद्योगिक रसायन: इसमें पदार्थों का वृहत् परिमाण में निर्माण करने से संबंधित नियमों, अभिक्रियाओं, विधियों आदि का अध्ययन किया जाता है।
  • जैव रसायन: इसके अंतर्गत जीवधारियों में होने वाले रासायनिक अभिक्रिया तथा जन्तुओं एवं वनस्पतियों से प्राप्त पदार्थों का अध्ययन किया जाता है।
  • कृषि रसायन: इसके अंतर्गत कृषि से संबंधित रसायन जैसे जीवाणुनाशक, मृदा के संघटन आदि का अध्ययन किया जाता है।
  • औषधि रसायन: इसके अंतर्गत मनुष्य के प्रयोग में आने वाली औषधियाँ, उनके संघटन तथा बनाने की विधियों का अध्ययन किया जाता है।
  • विश्लेषिक रसायन: इसमें विभिन्न पदार्थों की पहचान, आयतन व मात्रा का अनुमान किया जाता है।

आधुनिक रसायन का विकास
पंद्रहवीं-सोलहवीं शती तक यूरोप और भारत दोनों में एक ही पद्धति पर रसायन शास्त्र का विकास हुआ। सभी देशों में अलकीमिया का युग था। पर इस समय के बाद ये यूरोप में (विशेषतया इंग्लैंडजर्मनीफ्रांस और इटली में) रसायन शास्त्र का अध्ययन प्रयोगों के आधार पर हुआ। प्रयोग में उत्पन्न सभी पदार्थों को तोलने की परंपरा प्रारंभ हुई। कोयला जलता है, धातुएँ भी हवा में जलती हैं। जलना क्या है, इसकी मीमांसा हुई। मालूम हुआ कि पदार्थ का हवा के एक विशेष तत्व ऑक्सीजन से संयोग करना ही जलना है। लोहे में जंग लगता है। इस क्रिया में भी लोहा ऑक्सीजन के साथ संयोग करता है। रासायनिक तुला के उपयोग ने रासायनिक परिवर्तनों के अध्ययन में सहायता दी। पानी के विद्युत-अपघटन से हेनरी कैवेंडिश (Cavendish, 1731-1810 ई.) ने 1781 ई. में हाइड्रोजन प्राप्त किया। जोज़ेफ ब्लैक (Black, 1728-1799 ई.) ने कार्बन डाइऑक्सइड और कार्बोनेटों पर प्रयोग किए (1754 ई.)। जोज़ेफ प्रीस्टले (Priestley, 1733-1804 ई.), शेले (Scheele) और लाब्बाज़्ये (Lavoisier, 1743-1794 ई.) ने 1772 ई. के लगभग ऑक्सीजन तैयार किया। राबर्ट बॉयल(Boyle, 1627-1691 ई.) ने तत्वों की परिभाषा दी, जॉन डाल्टन (Dalton, 1766-1844 ई.) ने परमाणुवाद की स्पष्ट कल्पना सामने रखी, आवोगाद्रो (Avogadro, 1776-1856 ई.), कैनिज़ारो (Cannizzaro, 1826-1910 ई.) आदि ने अणु और परमाणु का भेद बताया। धीरे धीरे तत्वों की संख्या बढ़ने लगी। अनेक धातु और अधातु तत्व इस सूची में सम्मिलित किए गए। बिखरे हुए तत्वों का वर्गीकरण न्यूलँड्स (Newlands, 1863 ई.), लोथरमेयर (Lothermeyer, 1830-1907 ई.) और विशेषतया मेंडलीफ(Mendeleev, 1834-1907 ई.) ने किया। मेंडेलीफ ने अनेक अप्राप्त तत्वों के संबंध में भविष्यद्वाणी भी की। बाद में वे तत्व बिलकुल ठीक वैसे ही मिले, जैसा कहा गया था। डेवी (Davy, 1778-1829 ई.) और फराडे (Faraday,1791-1867 ई.) ने गैसों और गैसों के द्रवीकरण पर काम किया। इस प्रकार रसायन शास्त्र का सर्वतोमुखी विकास होने लगा।
इस पश्चिमी रसायन के दो उपांग थे :  इनॉर्गैनिक (अजैव पदार्थों से संबंधित) और ऑर्गेनिक (सजीव पदार्थों से संबंधित)। शर्करा, वसा, मोम, फलों में पाए जानेवाले अम्ल, प्रोटीन, रंग आदि सब सजीव रसायन के अंग थे। लोगों का विश्वास था कि ये पदार्थ प्रकृति स्वयं अपनी प्रयोगशाला में संश्लेषित नहीं हो सकते। रसायनज्ञों ने इन पदार्थों का विश्लेषण प्रारंभ किया। कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन, इन चार तत्वों के योग से बने हुए सहस्रों यौगिकों से रसायनज्ञों का परिचय हुआ। पता चला कि किसी यौगिक को समझने के लिए केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि इस यौगिक में कौन कौन से तत्व किस अनुपात में है, यह भी जानना आवश्यक है कि यौगिक के अणु में इन तत्वों के परमाणु किस क्रम में सज्जित है। इनका रचनाविन्यास जानना आवश्यक हो गया। फ्रैंकलैड (Frankland, 1825-1897 ई.), ज़्हेरार (Gerhardt), लीबिख (Liebig), द्यूमा (Dumas), बर्ज़ीलियस (Berzelius) आदि रसायनज्ञों ने इन यौगिकों में पाए जानेवाले मूलकों की खोज की, जैसे मेथिल, एथिल, मेथिलीन, कार्बोक्सिल इत्यादि। इस प्रकार सजीव पदार्थों के आधार की इटों (building blocks) का पता चल गया, जिनके रचनाविन्यास द्वारा विभिन्न यौगिकों की विद्यमानता संभव हुई। केकूले (Kekule) ने 1865 ई. में खुली शृंखला के यौगिकों के साथ साथ बंद श्रृंखला के यौगिकों का भी प्रतिपादन किया (बेन्ज़ीन की संरचना)। बंद श्रृंखलाओं के यौगिकों ने कार्बनिक रसायन में एक नए युग का प्रवर्तन किया। नेफ्थालीन, क्विनोलीन, एंथ्रासीन आदि यौगिकों में एक से अधिक वलयों का समावेश हुआ। कार्बनिक रसायन का एक महत्वपूर्ण युग वलर (Wohler) की यूरिया-संश्लेषण-विधि से आरंभ होता है। 1828 ई. में उन्होंने इनॉर्गैनिक या अजैव रसायन के ढंग की विध से अमोनियम सायनेट, (NH4CHO), बनाना चाहा। उसने देखा कि अमोनियम सायनेट ताप के भेद से अनुकूल परिस्थितियों में यूरिया (H2N. CO. NH2) में स्वत: परिणत हो जाता है। अब तक यूरिया केवल जैव जगत्‌ का सदस्य माना जाता था। वलर ने अपने इस संश्लेषण से यह सिद्ध कर दिया कि जैव रसायन में जिन यौगिकों का प्रतिपादन किया जाता है, उनका भी संश्लेषण रासायनिक विधियों से प्रयोगशालाओं में हो सकता है। इस नवीन कल्पना ने जैव रसायन को एक नया रूप दिया। जैव रसायन का जीव से संबंध न रहा। अब जैव रसायन कार्बनिक रसायन मात्र रह गया और इसलिए अजैव रसायन को हम लोग अकार्बनिक रसायन कहने लगे। वैसे तो कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों रसायनों के बीच का भेद अब सर्वथा मिट चुका है।
द्रव्य निर्माण के मूल तत्व
संसार में इतने विभिन्न पदार्थ इतनी विभिन्न विधियों से विभिन्न परिस्थितियों में तैयार होते रहते हैं कि आश्चर्य होता है। जो भोजन हम ग्रहण करते हैं, वह शरीर में रुधिर, मांस, वसा, विविध ग्रंथिरस, अस्थि, मज्जा, मलमूत्र आदि में परिणत होता है। भोज्य पदार्थ वनस्पतियों के शरीर में तैयार होते हैं। भोजन के सृजन और विभाजन का चक्र निरंतर चलता रहता है। यह सब बताता है कि पकृति कितनी मितव्ययी है। रासायनिक अभिक्रियाओं का आधार द्रव्य की अविनाशिता का नियम है। रसायनज्ञ इस आस्था पर अपने रासायनिक समीकरणों का निर्माण करता है कि द्रव्य न तो बनाया जा सकता है और न इसका विध्वंस हो सकता है। द्रव्य का गुणधर्म उन अणुओं का गुणधर्म है जिनसे द्रव्य बना है। वे अणु स्वयं परमाणुओं से बने हैं। प्रकृति में सौ से ऊपर तत्व हैं। प्रत्येक तत्व के परमाणु परस्पर भिन्न हैं, पर भिन्नता भी आकस्मिक नहीं है। एक तत्व दूसरे तत्व से उत्तरोत्तर कुछ भिन्न होता जाता है। डाल्टन ने परमाणुवाद की नींव डाली। बॉयल ने तत्व की कल्पना दी। मोज़ले (Moseley) ने 1913-14 ई. में परमाणुसंख्या का महत्व बताया। प्रत्येक तत्व का एक क्रमांक, या परमाणुसंख्या है तथा यह परमाणुसंख्या पूर्णांक है। मेंडेलीफ की आवर्तसारणी में तत्वों का वर्गीकरण परमाणुभारों की अपेक्षा से किया गया था। मोज़लि के बाद परमाणुसंख्या का महत्व मिला और इस संख्या के हिसाब से तत्वों का आवर्त वर्गीकरण किया गया। यह नियम बड़ा महत्व पूर्ण था कि तत्वों के गुणधर्म उनकी परमाणुसंख्या के आवर्ती फलन है। द्रव्य की अविनाशिता के नियम ने रासायनिक समीकरणों की पद्धति को जन्म दिया। वर्जीलियस (1779-1848 ई.) ने तत्वों की सकेतपद्धति को जन्म दिया। रसायनज्ञों न समीकरणों द्वारा एक नई भाषा निर्धारित की। रसायन के समीकरण रसयनविज्ञान की भाषा हैं। अणुओं के सूत्र और इन सूत्रों के आधार पर बने हुए समीकरणों द्वारा रसायनज्ञ दुरूह रासायनिक परिवर्तनों को व्यक्त करन का प्रयत्न करता है। जितना महत्वद्रव्य की अविनाशिता के इस नियम का था, उतना ही महत्व अभी ऊपर बताए गए आवर्ती नियम का भी हुआ। तत्वों और उनसे बने हुए यौगिकों के गुणधर्म आकस्मिक नहीं हैं। ये परमाणु संख्या पर निर्भर हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Pages