चिन्तन (सूक्तियाँ) एक झलक : मई
- हाथ की शोभा दान से है। सिर की शोभा अपने से बड़ो को प्रणाम करने से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। यही ठाट बाट न होने पर भी सज्जनों के भूषण हैं। ~ चाणक्य
- संकट के समय धैर्य, अभ्युदय के समय क्षमा अर्थात सब सहन करने की सामर्थ्य, सभा में अच्छा बोलना और युद्ध में वीरता शोभा देती है। ~ भतृहरि
- किसी मनुष्य में जन साधारण से विशेष गुण या शक्ति का विकास देखकर उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंद पद्बति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं। ~ रामचंद्र शुक्ल
- शौर्य किसी में बाहर से पैदा नहीं किया जा सकता। वह तो मनुष्य के स्वभाव में होना चाहिए। ~ महात्मा गांधी
- एक स्थिति ऐसी होती है जब मनुष्य को विचार प्रकट करने की आवश्यकता नहीं रहती। उसके विचार ही कर्म बन जाते हैं, वह संकल्प से कर्म कर लेता है। ऐसी स्थिति जब आती है तब मनुष्य अकर्म में कर्म देखता है, अर्थात अकर्म से कर्म होता है। ~ महात्मा गांधी
- शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश
- अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन् अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन
- किसी को भी भूख-प्यास अगर न लगती तो हमें अतिथि सत्कार का मौका कैसे मिलता। ~ विनोबा
- फूल सूंघने से मुरझा जाता है, मगर अतिथि का दिल तोड़ने के लिए एक निगाह ही काफ़ी है। ~ तिरुवल्लुवर
- अधिकार में स्वयं एक आनंद है, जो उपयोगिता की परवाह नहीं करता। ~ प्रेमचंद
- अहिंसा का मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है। जरा सी गफलत हुई कि नीचे आ गिरे। घोर अन्याय करने वाले पर भी गुस्सा न करें, बल्कि उसे प्रेम करें, उसका भला चाहें। लेकिन प्रेम करते हुए भी अन्याय के वश में न हो। ~ महात्मा गांधी
- जिस भांति भौंरा फूलों की रक्षा करता हुआ मधु को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मनुष्य को हिंसा न करते हुए अर्थों को ग्रहण करना चाहिए। ~ विदुर
- हममें दया, प्रेम, त्याग ये सब प्रवृत्तियां मौजूद हैं। इन प्रवृत्तियों को विकसित करके अपने सत्य को और मानवता के सत्य को एकरूप कर देना, यही अहिंसा है। ~ भगवतीचरण वर्मा
- अमृत और मृत्यु दोनों इसी शरीर में स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त होता है। ~ वेदव्यास
- शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भर बनाना है। ~ सैमुअल स्माइल्स
- वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो पराये को भी अपना बना ले। ~ विमल मित्र
- मनुष्य में जो स्वाभाविक बल है, उसकी अभिव्यक्ति धर्म है। ~ विवेकानंद
- वह विजय महान होती है जो बिना रक्तपात के मिलती है। ~ स्पेनी लोकोक्ति
- साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए करे। ~ उत्तराध्ययन
- धूल स्वयं अपमान सहन कर लेती है और बदले में पुष्पों का उपहार देती है। ~ रवीन्द्र
- शास्त्रों द्वारा नाना प्रकार के संशयों का निराकरण और परोक्ष विषयों का ज्ञान होता है। इसलिए शास्त्र सभी के नेत्ररूप हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं, वह एक प्रकार से अंधा है। ~ हितोपदेश
- मनुष्य का अंत:करण उसके आकार, संकेत, गति, चेहरे की बनावट, बोलचाल तथा आंख और मुख के विकारों से मालूम पड़ जाता है। ~ पंचतंत्र
- अज्ञानी होना मनुष्य का असाधारण अधिकार नहीं है, वरन अपने को अज्ञानी जानना ही उसका विशेष अधिकार है। ~ राधाकृष्णन
- अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं। वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते हैं और अपने श्रम से उन्हें सींच-सींचकर महाप्राण शक्तियां बनाते हैं। ~ महर्षि अरविन्द
- जब प्रकृति को कोई कार्य संपन कराना होता है तो वह उसको करने के लिए एक प्रतिभा का निर्माण करती है। ~ एमर्सन
- किसी की अधिक प्रशंसा करना उसे धोखा देना है। ~ प्रसाद
- एक दूसरे को इस प्रकार प्रेम करो जैसे गौ अपने बछड़े को करती है। ~ अथर्ववेद
- मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी बात की रक्षा करे। क्योंकि बात बिगड़ जाने पर विनाश हो जाता है। ~ नारायण पंडित
- अपने अहंकार पर विजय पाना ही प्रभु की सेवा है। ~ गांधी
- संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो नीति का जानकार न हो, परंतु उसके प्रयोग से लोग विहीन होते हैं। ~ कल्हण